Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.33।। व्याख्या–‘तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व’–हे अर्जुन ! जब तुमने यह देख ही लिया कि तुम्हारे मारे बिना भी ये प्रतिपक्षी बचेंगे नहीं, तो तुम कमर कसकर युद्धके लिये खड़े हो जाओ और मुफ्तमें ही यशको प्राप्त कर लो। इसका तात्पर्य है कि यह सब होनहार है, जो होकर ही रहेगी और इसको मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष दिखा भी दिया है। अतः तुम युद्ध करोगे तो तुम्हें मुफ्तमें ही यश मिलेगा और लोग भी कहेंगे कि अर्जुनने विजय कर ली?
‘यशो लभस्व’ कहनेका यह अर्थ नहीं है कि यशकी प्राप्ति होनेपर तुम फूल जाओ कि ‘वाह’ ! मैंने विजय प्राप्त कर ली’, प्रत्युत तुम ऐसा समझो कि जैसे ये प्रतिपक्षी मेरे द्वारा मारे हुए ही मरेंगे, ऐसे ही यश भी जो होनेवाला है, वही होगा। अगर तुम यशको अपने पुरुषार्थसे प्राप्त मानकर राजी होओगे, तो तुम फलमें बँध जाओगे — ‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता 5। 12)। तात्पर्य यह हुआ कि लाभ-हानि, यश-अपयश सब प्रभुके हाथमें है। अतः मनुष्य इनके साथ अपना सम्बन्ध न जो़ड़े; क्योंकि ये तो होनहार हैं।
‘जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्’–समृद्ध राज्यमें दो बातें होती हैं — (1) राज्य निष्कण्टक हो अर्थात् उसमें बाधा देनेवाला कोई भी शत्रु या प्रतिपक्षी न रहे और (2) राज्य धन-धान्यसे सम्पन्न हो अर्थात् प्रजाके पास खूब धन-सम्पत्ति हो; हाथी, घोड़े, गाय, जमीन, मकान, जलाशय आदि आवश्यक वस्तुएँ भरपूर हों प्रजाके खाने के लिये भरपूर अन्न हो। इन दोनों बातोंसे ही राज्यकी समृद्धता, पूर्णता होती है। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि शत्रुओंको जीतकर तुम ऐसे निष्कण्टक और धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो।यहाँ राज्यको भोगनेका अर्थ अनुकूलताका सुख भोगनेमें नहीं है, प्रत्युत यह अर्थ है कि साधारण लोग जिसे भोग मानते हैं, उस राज्यको भी तुम अनायास प्राप्त कर लो।
‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव’–तुम मुफ्तमें यश और राज्यको कैसे प्राप्त कर लोगे, इसका हेतु बताते हैं कि यहाँ जितने भी आये हुए हैं, उन सबकी आयु समाप्त हो चुकी है अर्थात् कालरूप मेरे द्वारा ये पहलेसे ही मारे जा चुके हैं।
‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’– बायें हाथसे बाण चलानेके कारण अर्थात् दायें और बायें — दोनों हाथोंसे बाण चलानेके कारण अर्जुनका नाम ‘सव्यसाची’ था (टिप्पणी प0 596)। इस नामसे सम्बोधित करके भगवान् अर्जुनसे यह कहते हैं कि तुम दोनों हाथोंसे बाण चलाओ अर्थात् युद्धमें अपनी पूरी शक्ति लगाओ, पर,बनना है निमित्तमात्र। निमित्तमात्र बननेका तात्पर्य अपने बल, बुद्धि, पराक्रम आदिको कम लगाना नहीं है, प्रत्युत इनको सावधानीपूर्वक पूरा-का-पूरा लगाना है। परन्तु मैंने मार दिया, मैंने विजय प्राप्त कर ली — यह अभिमान नहीं करना है; क्योंकि ये सब मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। इसलिये तुम्हें केवल निमित्तमात्र बनना है, कोई नया काम नहीं करना है।
निमित्तमात्र बनकर कार्य करनेमें अपनी ओरसे किसी भी अंशमें कोई कमी नहीं रहनी चाहिये, प्रत्युत पूरी-की-पूरी शक्ति लगाकर सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिये। कार्यकी सिद्धिमें अपने अभिमानका किञ्चिन्मात्र भी अंश नहीं रखना चाहिये। जैसे, भगवान् श्रीकृष्णने गोवर्धन पर्वत उठाया तो उन्होंने ग्वालबालोंसे कहा कि तुमलोग भी पर्वतके नीचे अपनी-अपनी लाठियाँ लगाओ। सभी ग्वालबालोंने अपनी-अपनी लाठियाँ लगायीं और वे ऐसा समझने लगे कि हम सबकी लाठियाँ लगनेसे ही पर्वत ऊपर ठहरा हुआ है। वास्तवमें पर्वत ठहरा हुआ था भगवान्के बायें हाथकी छोटी अंगुलीके नखपर! ग्वालबालोंमें जब इस तरका अभिमान हुआ, तब भगवान्ने अपनी अंगुली थोड़ी-सी नीचे कर ली। अंगुली नीचे करते ही पर्वत नीचे आने लगा तो ग्वालबालोंने पुकारकर भगवान्से कहा — ‘अरे दादा ! मरे! मरे!! मरे!!!’ भगवान्ने कहा कि जोरसे शक्ति लगाओ। पर वे सबकेसब एक साथ अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी पर्वतको ऊँचा नहीं कर सके। तब भगवान्ने पुनः अपनी अंगुलीसे पर्वतको ऊँचा कर दिया। ऐसे ही साधकको परमात्मप्राप्तिके लिये अपने बल, बुद्धि, योग्यता आदिको तो पूरा-का-पूरा लगाना चाहिये, उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रखनी चाहिये, पर परमात्माका अनुभव होनेमें बल, उद्योग, योग्यता, तत्परता, जितेन्द्रियता, परिश्रम आदिको कारण मानकर अभिमान नहीं करना चाहिये। उसमें तो केवल भगवान्की कृपाको ही कारण मानना चाहिये। भगवान्ने भी गीतामें कहा है कि शाश्वत अविनाशी पदकी प्राप्ति मेरी कृपासे होगी — ‘मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्’ (18। 56), और सम्पूर्ण विघ्नोंको मेरी कृपासे तर जायगा– ‘म़च्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’ (18। 58)। इससे यह सिद्ध हुआ कि केवल निमित्तमात्र बननेसे साधकको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
जब साधक अपना बल मानते हुए साधन करता है? तब अपना बल माननेके कारण उसको बार-बार विफलताका अनुभव होता रहता है और तत्त्वकी प्राप्तिमें देरी लगती है। अगर साधक अपने बलका किञ्चिन्मात्र भी अभिमान न करे तो सिद्धि तत्काल हो जाती है। कारण कि परमात्मा तो नित्यप्राप्त हैं ही, केवल अपने पुरुषार्थके अभिमानके कारण ही उनका अनुभव नहीं हो रहा था। इस पुरुषार्थके अभिमानको दूर करनेमें ही ‘निमित्तिमात्रं भव’ पदोंका तात्पर्य है।कर्मोंमें जो अपने करनेका अभिमान है कि ‘मैं करता हूँ तो होता है, अगर मैं नहीं करूँ तो नहीं होगा,’ यह केवल अज्ञताके कारण ही अपनेमें आरोपित कर रखा है। अगर मनुष्य अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके प्राप्त परिस्थितिके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेमें निमित्तमात्र बन जाय, तो उसका उद्धार स्वतःसिद्ध है। कारण कि जो होनेवाला है, वह तो होगा ही, उसको कोई अपनी शक्तिसे रोक नहीं सकता और जो नहीं होनेवाला है, वह नहीं होगा, उसको कोई अपने बल-बुद्धिसे कर नहीं सकता। अतः सिद्धि-असिद्धिमें सम रहते हुए कर्तव्यकर्मोंका पालन किया जाय तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है। बन्धन, नरकोंकी प्राप्ति, चौरासी लाख योनियोंकी प्राप्ति– ये सभी कृतिसाध्य हैं और मुक्ति, कल्याण, भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम आदि सभी स्वतःसिद्ध हैं।