Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.16।। व्याख्या–‘विश्वरूप’,विश्वेश्वर’–इन दो सम्बोधनोंका तात्पर्य है कि मेरेको जो कुछ भी दीख रहा है, वह सब आप ही हैं और इस विश्वके मालिक भी आप ही हैं। सांसारिक मनुष्योंके शरीर तो जड होते हैं और उनमें शरीरी चेतन होता है; परन्तु आपके विराट्रूपमें शरीर और शरीरी– ये दो विभाग नहीं हैं। विराट्रूपमें शरीर और शरीरीरूपसे एक आप ही हैं। इसलिये विराट्रूपमें सब कुछ चिन्मय-ही-चिन्मय है। तात्पर्य यह हुआ कि अर्जुन विश्वरूप सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीर हैं और ‘विश्वेश्वर’ सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीरी (शरीरके मालिक) हैं।
‘अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम्’–मैं आपके हाथोंकी तरफ देखता हूँ तो आपके हाथ भी अनेक हैं; आपके पेटकी तरफ देखता हूँ तो पेट भी अनेक हैं; आपके मुखकी तरफ देखता हूँ तो मुख भी अनेक हैं; और आपके नेत्रोंकी तरफ देखता हूँ तो नेत्र भी अनेक हैं। तात्पर्य है कि आपके हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रोंका कोई,अन्त नहीं है, सब-के-सब अनन्त हैं।
‘पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्’–आप देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिके रूपमें चारों तरफ अनन्त-ही-अनन्त दिखायी दे रहे हैं।
‘नान्तं न मध्यं पुनस्तवादिम्’–आपका कहाँ अन्त है, इसका भी पता नहीं; आपका कहाँ मध्य है, इसका भी पता नहीं और आपका कहाँ आदि है, इसका भी पता नहीं।सबसे पहले ‘नान्तम्’ कहनेका तात्पर्य यह मालूम देता है कि जब कोई किसीको देखता है, तब सबसे पहले उसकी दृष्टि उस वस्तुकी सीमापर जाती है कि यह कहाँतक है। जैसे, किसी पुस्तकको देखनेपर सबसे पहले उसकी सीमापर दृष्टि जाती है कि पुस्तककी लम्बाई-चौड़ाई कितनी है। ऐसे ही भगवान्के विराट्रूपको देखनेपर अर्जुनकी दृष्टि सबसे पहले उसकी सीमा-(अन्त-) की ओर गयी। जब अर्जुनको उसका अन्त नहीं देखा, तब उनकी दृष्टि मध्यभागपर गयी फिर आदि-(आरम्भ-) की तरफ दृष्टि गयी; पर कहीं भी विराट्स्वरूपका अन्त, मध्य और आदिका पता नहीं लगा। इसलिये इस श्लोकमें ‘नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिम्’ — यह क्रम रखा गया है।