Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.15।। व्याख्या–पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्–अर्जुनकी भगवत्प्रदत्त दिव्य दृष्टि इतनी विलक्षण है कि उनको देवलोक भी अपने सामने दीख रहे हैं। इतना ही नहीं, उनको सब-की-सब त्रिलोकी दिख रही है। केवल त्रिलोकी ही नहीं, प्रत्युत त्रिलोकीके उत्पादक (ब्रह्मा), पालक (विष्णु) और संहारक (महेश) भी प्रत्यक्ष दीख रहे हैं। अतः अर्जुन वर्णन करते हैं कि मैं सम्पूर्ण देवोंको, प्राणियोंके समुदायोंको और ब्रह्मा तथा शङ्करको देख रहा हूँ।
‘ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम्’–अर्जुन कहते हैं कि मैं कमलके ऊपर स्थित ब्रह्माजीको देखता हूँ — इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन कमलके नालको और नालके उद्गम-स्थान अर्थात् मूल आधार भगवान् विष्णुको (जो कि शेषशय्यापर सोये हुए हैं) भी देख रहे हैं। इसका सिवाय भगवान् शङ्करको, उनके कैलास पर्वतको और कैलास पर्वतपर स्थित उनके निवासस्थान वटवृक्षको भी अर्जुन देख रहे हैं।
‘ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्’–पृथ्वीपर रहनेवाले जितने भी ऋषि हैं, उनको तथा पाताललोकमें रहनेवाले दिव्य सर्पोंको भी अर्जुन देख रहे हैं।इस श्लोकमें अर्जुनके कथनसे यह सिद्ध होता है कि उन्हें स्वर्ग, मृत्यु और पाताल — यह त्रिलोकी अलग-अलग नहीं दीख रही है; किन्तु विभागसहित एक साथ एक जगह ही दीख रही है —‘प्रविभक्तमनेकधा’ (गीता 11। 13)। उस त्रिलोकीसे जब अर्जुनकी दृष्टि हटती है, तब जिनको ब्रह्मलोक, कैलास और वैकुण्ठलोक कहते हैं, वे अधिकारियोंके अभीष्ट लोक तथा उनके मालिक (ब्रह्मा, शङ्क और विष्णु) भी अर्जुनको दीखते हैं। यह सब भगवत्प्रदत्त दिव्यदृष्टिका ही प्रभाव है।
विशेष बात
जब भगवान्ने कहा कि यह सम्पूर्ण जगत् मेरे किसी एक अंशमें है, तब अर्जुन उसे दिखानेकी प्रार्थना करते हैं। अर्जुनकी प्रार्थनापर भगवान् कहते हैं कि तू मेरे शरीरमें एक जगह स्थित चराचर जगत्को देख — ‘इह एकस्थं ৷৷. मम देहे’ (11। 7)। वेदव्यासजीद्वारा प्राप्त दिव्यदृष्टिवाले सञ्जय भी यही बात कहते हैं कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें एक जगह स्थित सम्पूर्ण जगत्को देखा — ‘तत्र एकस्थं ৷৷. देवदेवस्य शरीरे’ (11। 13)। यहाँ अर्जुन कहते हैं कि मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण भूतसमुदाय आदिको देखता हूँ — ‘तव देव देहे।’ इस प्रकार भगवान् और सञ्जयके वचनोंमें तो ‘एकस्थम्’ (एक जगह स्थित) पद आया है, पर अर्जुनके वचनोंमें यह पद नहीं आया है। इसका कारण यह है कि अर्जुनकी दृष्टि भगवान्के शरीरमें जिस-किसी एक स्थानपर गयी, वहीँ उनको भगवान्का विश्वरूप दिखायी देने लग गया। उस समय अर्जुनकी दृष्टि सारथिरूप भगवान्के शरीरकी तरफ गयी ही नहीं। अर्जुनकी दृष्टि जहाँ गयी, वहीँ अनन्त सृष्टियाँ दीखने लग गयीं; अतः अर्जुनकी दृष्टि उधर ही बह गयी। इसलिये अर्जुन ‘एकस्थम्’ नहीं कह सके। वे ‘एकस्थम्’ तो तभी कह सकते हैं, जब विश्वरूप दीखनेके साथ-साथ सारथि-रूपसे भगवान्का शरीर भी दीखे। अर्जुनको केवल विश्व-रूप ही दीख रहा है, इसलिये वे विश्वरूपका ही वर्णन कर रहे हैं। उनको विश्वरूप इतना अपार दीख रहा है, जिसकी देश या कालमें कोई सीमा नहीं दीखती। तात्पर्य यह हुआ कि जब अर्जुनकी दृष्टिमें विश्वरूपका ही अन्त नहीं आ रहा है, तब उनकी दृष्टि सारथिरूपसे बैठे भगवान्की तरफ जाय ही कैसे?
भगवान् तो अपने शरीरके एकदेशमें विश्वरूप दिखा रहे हैं, इसलिये उन्होंने ‘एकस्थम्’ कहा है। सञ्जय सारथिरूपमें बैठ हुए भगवान्को और उनके शरीरके एक देशमें स्थित विश्वरूपको देख रहे हैं, इसलिये सञ्जयने ‘एकस्थम्’ पद दिया है (टिप्पणी प0 583)।
अब प्रश्न यह होता है कि भगवान् और सञ्जयकी दृष्टिमें वह एक जगह कौन-सी थी, जिसमें अर्जुन विश्वरूप देख रहे थे? इसका उत्तर यह है कि भगवान्के शरीरमें अमुक जगह ही अर्जुनने विश्वरूप देखा था, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। कारण कि भगवान्के शरीरके एक-एक रोमकूपमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं (टिप्पणी प0 584)। भगवान्ने भी यह कहा था कि मेरे शरीरके एक देशमें तू चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को देख ले (गीता 11। 7)। इसलिये जहाँ अर्जुनकी दृष्टि एक बार पड़ी, वहीं उनको सम्पूर्ण विश्वरूप दीखने लग गया।