Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।10.8।। व्याख्या —[पूर्व श्लोककी बात ही इस श्लोकमें कही गयी है। ‘अहं सर्वस्य प्रभवः’ में ‘सर्वस्य’ भगवान्की विभूति है अर्थात् देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ आ रहा है, वह सब-की-सब भगवान्की विभूति ही है। ‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ में ‘मत्तः’ भगवान्का योग (प्रभाव) है, जिससे सभी विभूतियाँ प्रकट होती हैं। सातवें, आठवें और नवें अध्यायमें जो कुछ कहा गया है, वह सबकासब इस श्लोकके पूर्वार्धमें आ गया है।]
‘अहं सर्वस्य प्रभवः’ — मानस, नादज, बिन्दुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अर्थात् जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं, उन सबकी उत्पत्तिके मूलमें परमपिता परमेश्वरके रूपमें मैं ही हूँ (टिप्पणी प0 543)।
यहाँ प्रभव का तात्पर्य है कि मैं सबका ‘अभिन्न-निमित्तोपादानकारण’ हूँ अर्थात् स्वयं मैं ही सृष्टिरूपसे प्रकट हुआ हूँ।
‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ — संसारमें उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, पालन, संरक्षण आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जितने भी कार्य होते हैं, वे सब मेरेसे ही होते हैं। मूलमें उनको सत्ता-स्फूर्ति आदि जो कुछ मिलता है, वह सब मेरेसे ही मिलता है। जैसे बिजलीकी शक्तिसे सब कार्य होते हैं, ऐसे ही संसारमें जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका मूल कारण मैं ही हूँ।
‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ — कहनेका तात्पर्य है कि साधककी दृष्टि प्राणिमात्रके भाव, आचरण, क्रिया आदिकी तरफ न जाकर उन सबके मूलमें स्थित भगवान्की तरफ ही जानी चाहिये। कार्य, कारण, भाव, क्रिया, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिके मूलमें जो तत्त्व है, उसकी तरफ ही भक्तोंकी दृष्टि रहनी चाहिये।
सातवें अध्यायके सातवें तथा बारहवें श्लोकमें और दसवें अध्यायके पाँचवें और इस (आठवें) श्लोकमें ‘मत्तः’ पद बार-बार कहनेका तात्पर्य है कि ये भाव, क्रिया, व्यक्ति आदि सब भगवान्से ही पैदा होते हैं, भगवान्में ही स्थित रहते हैं और भगवान्में ही लीन हो जाते हैं। अतः तत्त्वसे सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है — इस बातको जान लें अथवा मान लें, तो भगवान्के साथ अविकम्प (कभी विचलित न किया जानेवाला) योग अर्थात् सम्बन्ध हो जायगा।
यहाँ ‘सर्वस्य ‘और ‘सर्वम्’ — दो बार ‘सर्व’ पद देनेका तात्पर्य है कि भगवान्के सिवाय इस सृष्टिका न कोई उत्पादक है और न कोई संचालक है। इस सृष्टिके उत्पादक और संचालक केवल भगवान् ही हैं।
‘इति मत्वा भावसमन्विताः’ — भगवान्से ही सब संसारकी उत्पत्ति होती है और सारे संसारको सत्ता-स्फूर्ति भगवान्से ही मिलती है अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रूपसे सब कुछ भगवान् ही हैं — ऐसा जो दृढ़तासे मान लेते हैं, वे ‘भगवान् ही सर्वोपरि हैं; भगवान्के समान कोई हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं तथा होना सम्भव भी नहीं’ — ऐसे सर्वोच्च भावसे युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार जब उनकी महत्त्वबुद्धि केवल भगवान्में हो जाती है तो फिर उनका आकर्षण, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम आदि सब भगवान्में ही हो जाते हैं। भगवान्का ही आश्रय लेनेसे उनमें समता, निर्विकारता, निःशोकता, निश्चिन्तता, निर्भयता आदि स्वतः-स्वाभाविक ही आ जाते हैं। कारण कि जहाँ देव (परमात्मा) होते हैं, वहाँ दैवी-सम्पत्ति स्वाभाविक ही आ जाती है।
‘बुधाः’ — भगवान्के सिवाय अन्यकी सत्ता ही न मानना, भगवान्को ही सबके मूलमें मानना, भगवान्का ही आश्रय लेकर उनमें ही श्रद्धा-प्रेम करना — यही उनकी बुद्धिमानी है। इसलिये उनको बुद्धिमान् कहा गया है। इसी बातको आगे पन्द्रहवें अध्यायमें कहा है कि जो मेरेको क्षर-(संसारमात्र-) से अतीत और अक्षर-(जीवात्मा-) से उत्तम जानता है, वह सर्ववित् है और सर्वभावसे मेरा ही भजन करता है (15। 18 19)।
‘माम् भजन्ते’– भगवान्के नामका जप-कीर्तन करना, भगवान्के रूपका चिन्तन-ध्यान करना, भगवान्की कथा सुनना, भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थों-(गीता, रामायण, भागवत आदि) का पठन-पाठन करना — ये सब-के-सब भजन हैं। परन्तु असली भजन तो वह है, जिसमें हृदय भगवान्की तरफ ही खिंच जाता है, केवल भगवान् ही प्यारे लगते हैं, भगवान्की विस्मृति चुभती है, बुरी लगती है। इस प्रकार भगवान्में तल्लीन होना ही असली भजन है।
विशेष बात
सबके मूलमें परमात्मा है और परमात्मासे ही वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, घटना आदि सबको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है — ऐसा ज्ञान होना परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले सभी साधकोंके लिये बहुत आवश्यक है। कारण कि जब सबके मूलमें परमात्मा ही है, तब साधकका लक्ष्य भी परमात्माकी तरफ ही होना चाहिये। उस परमात्माकी तरफ लक्ष्य करानेमें ही सम्पूर्ण विभूतियों और योगके ज्ञानका तात्पर्य है। यही बात गीतामें जगह-जगह बतायी गयी है; जैसे — जिससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रवृत्ति होती है और जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा पूजन करना चाहिये (18। 46); जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें विराजमान है और जो सब प्राणियोंको प्रेरणा देता है, उस परमात्माकी सर्वभावसे शरण जाना चाहिये (18। 61 62); इत्यादि। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग– ये साधन तो अपनी-अपनी रुचिके अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, पर उपर्युक्त ज्ञान सभी साधकोंके लिये बहुत ही आवश्यक है।
सम्बन्ध — अब आगेके श्लोकमें उन भक्तोंका भजन किस रीतिसे होता है– यह बताते हैं।