Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।10.6।। व्याख्या —[पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने प्राणियोंके भाव-रूपसे बीस विभूतियाँ बतायीं। अब इस श्लोकमें व्यक्ति-रूपसे पचीस विभूतियाँ बता रहे हैं, जो कि प्राणियोंमें विशेष प्रभावशाली और जगत्के कारण हैं।]
‘महर्षयः सप्त’– जो दीर्घ आयुवाले; मन्त्रोंको प्रकट करनेवाले; ऐश्वर्यवान्; दिव्य दृष्टिवाले; गुण, विद्या; आदिसे वृद्ध धर्मका साक्षात् करनेवाले; और गोत्रोंके प्रवर्तक हैं — ऐसे सातों गुणोंसे युक्त ऋषि सप्तर्षि कहे जाते हैं (टिप्पणी प0 540.1)। मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ — ये सातों ऋषि उपर्युक्त सातों ही गुणोंसे युक्त हैं। ये सातों ही वेदवेत्ता हैं, वेदोंके आचार्य माने गये हैं, प्रवृत्ति-धर्मका संचालन करनेवाले हैं और प्रजापतिके कार्यमें नियुक्त किये गये हैं (टिप्पणी प0 540.2)। इन्हीं सात ऋषियोंको यहाँ ‘महर्षि’ कहा गया है।
‘पूर्वे चत्वारः’– सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार– ये चारों ही ब्रह्माजीके तप करनेपर सबसे पहले प्रकट हुए हैं। ये चारों भगवत्स्वरूप हैं। सबसे पहले प्रकट होनेपर भी ये चारों सदा पाँच वर्षकी अवस्थावाले बालकरूपमें ही रहते हैं। ये तीनों लोकोंमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रचार करते हुए घूमते रहते हैं। इनकी वाणीसे सदा ‘हरिः शरणम्’ का उच्चारण होता रहता है (टिप्पणी प0 540.3)। ये भगवत्कथाके बहुत प्रेमी हैं। अतः इन चारोंमेंसे एक वक्ता और तीन श्रोता बनकर भगवत्कथा करते और सुनते रहते हैं।
‘मनवस्तथा’– ब्रह्माजीके एक दिन-(कल्प-) में चौदह मनु होते हैं। ब्रह्माजीके वर्तमान कल्पके स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि नामवाले चौदह मनु हैं (टिप्पणी प0 540.4)। ये सभी ब्रह्माजीकी आज्ञासे सृष्टिके उत्पादक और प्रवर्तक हैं।
‘मानसा जाताः’– मात्र सृष्टि भगवान्के संकल्पसे पैदा होती है। परन्तु यहाँ सप्तर्षि आदिको भगवान्के मनसे पैदा हुआ कहा है। इसका कारण यह है कि सृष्टिका विस्तार करनेवाले होनेसे सृष्टिमें इनकी प्रधानता है। दूसरा कारण यह है कि ये सभी ब्रह्माजीके मनसे अर्थात् संकल्पसे पैदा हुए हैं। स्वयं भगवान् ही सृष्टि-रचनाके लिये ब्रह्मारूपसे प्रकट हुए हैं। अतः सात महर्षि, चार सनकादि और चौदह मनु — इन पचीसोंको ब्रह्माजीके मानसपुत्र कहें अथवा भगवान्के मानसपुत्र कहें, एक ही बात है।
‘मद्भावाः’– ये सभी मेरेमें ही भाव अर्थात् श्रद्धा-प्रेम रखनेवाले हैं।
‘येषां लोकमिमाः प्रजाः’– संसारमें दो तरहकी प्रजा है– स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पन्न होनेवाली और शब्दसे (दीक्षा, मन्त्र, उपदेश आदिसे) उत्पन्न होनेवाली। संयोगसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा ‘बिन्दुज’ कहलाती है और शब्दसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा ‘नादज’ कहलाती है। बिन्दुज प्रजा पुत्रपरम्परासे और नादज प्रजा शिष्य-परम्परासे चलती है।
सप्तर्षियों और चौदह मनुओंने तो विवाह किया था; अतः उनसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा ‘बिन्दुज’ है। परन्तु सनकादिकोंने विवाह किया ही नहीं; अतः उनसे उपदेश प्राप्त करके पारमार्थिक मार्गमें लगनेवाली प्रजा ‘नादज’ है। निवृत्तिपरायण होनेवाले जितने सन्त-महापुरुष पहले हुए हैं, अभी हैं और आगे होंगे, वे सब उपलक्षणसे उनकी ही नादज प्रजा हैं।
सम्बन्ध–चौथेसे छठे श्लोकतक प्राणियोंके भावों तथा व्यक्तियोंके रूपमें अपनी विभूतियोंका और अपने योग-(प्रभाव-) का वर्णन करके अब भगवान् आगेके श्लोकमें उनको तत्त्वसे जाननेका फल बताते हैं।