Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।10.4।। व्याख्या–‘बुद्धिः’–उद्देश्यको लेकर निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम बुद्धि है।‘ज्ञानम्’ — सार-असार, ग्राह्य-अग्राह्य, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य — ऐसा जो विवेक अर्थात् अलग-अलग जानकारी है, उसका नाम ‘ज्ञान’ है। यह ज्ञान (विवेक) मानवमात्रको भगवान्से मिला है।
‘असम्मोहः’ — शरीर और संसारको उत्पत्ति-विनाश-शील जानते हुए भी उनमें ‘मैं’ और ‘मेरा’-पन करनेका नाम सम्मोह है और इसके न होनेका नाम ‘असम्मोह’ है।
‘क्षमा’–कोई हमारे प्रति कितना ही बड़ा अपराध करे, अपनी सामर्थ्य रहते हुए भी उसे सह लेना और उस अपराधीको अपनी तथा ईश्वरकी तरफसे यहाँ और परलोकमें कहीं भी दण्ड न मिले–ऐसा विचार करनेका नाम क्षमा है।
‘सत्यम्’ — सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये सत्यभाषण करना अर्थात् जैसा सुना, देखा और समझा है, उसीके अनुसार अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये न ज्यादा, न कम — वैसा-का-वैसा कह देनेका नाम ‘सत्य’ है।
‘दमः शमः’–परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखते हुए इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयोंसे हटाकर अपने वशमें करनेका नाम ‘दम’ है, और मनको सांसारिक भोगोंके चिन्तनसे हटानेका नाम ‘शम’ है।
‘सुखं दुःखम्’–शरीर, मन, इन्द्रियोंके अनुकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदयमें जो प्रसन्नता होती है, उसका नाम ‘सुख’ है और प्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदयमें जो अप्रसन्नता होती है, उसका नाम,’दुःख’ है।
‘भवोऽभावः’ — सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, भाव आदिके उत्पन्न होनेका नाम ‘भव’ है और इन सबके लीन होनेका नाम ‘अभाव’ है।
‘भयं चाभयमेव च’ — अपने आचरण, भाव आदि शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध होनेसे अन्तःकरणमें अपना अनिष्ट होनेकी जो एक आशङ्का होती है, उसको भय कहते हैं। मनुष्यके आचरण, भाव आदि अच्छे हैं, वह किसीको कष्ट नहीं पहुँचाता, शास्त्र और सन्तोंके सिद्धान्तसे विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता, तो उसके हृदयमें अपना अनिष्ट होनेकी आशङ्का नहीं रहती अर्थात् उसको किसीसे भय नहीं होता। इसीको ‘अभय’ कहते हैं।
‘अहिंसा’ — अपने तन, मन और वचनसे किसी भी देश, काल, परिस्थिति आदिमें किसी भी प्राणीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न देनेका नाम ‘अहिंसा’ है।
‘समता’– तरहतरहकी अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिके प्राप्त होनेपर भी अपने अन्तःकरणमें कोई विषमता न आनेका नाम ‘समता’ है।
‘तुष्टिः’ — आवश्यकता ज्यादा रहनेपर भी कम मिले तो उसमें सन्तोष करना तथा और मिले–ऐसी इच्छाका न रहना ‘तुष्टि’ है। तात्पर्य है कि मिले अथवा न मिले, कम मिले अथवा ज्यादा मिले आदि हर हालतमें प्रसन्न रहना ‘तुष्टि’ है।
‘तपः’ — अपने कर्तव्यका पालन करते हुए जो कुछ कष्ट आ जाय, प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय, उन सबको प्रसन्नतापूर्वक सहनेका नाम तप है। एकादशी-व्रत आदि करनेका नाम भी ‘तप’ है।
‘दानम्’ — प्रत्युपकार और फलकी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी शुद्ध कमाईका हिस्सा सत्पात्रको देनेका नाम ‘दान’ (गीता 17। 20)।
‘यशोऽयशः’ — मनुष्यके अच्छे आचरणों, भावों और गुणोंको लेकर संसारमें जो नामकी प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि होते हैं, उनका नाम ‘यश’ है। मनुष्यके बुरे आचरणों, भावों और गुणोंको लेकर संसारमें जो नामकी निन्दा होती है, उसको ‘अयश’ (अपयश) कहते हैं।
‘भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः’ — प्राणियोंके ये पृथक्पृथक् और अनेक तरहके भाव मेरेसे ही होते हैं अर्थात् उन सबको सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश मुझ लोकमहेश्वरसे ही मिलता है। तात्पर्य है कि तत्त्वसे सबके मूलमें मैं ही हूँ।
यहाँ ‘मत्तः’ पदसे भगवान्का योग, सामर्थ्य, प्रभाव और ‘पृथग्विधाः’ पदसे अनेक प्रकारकी अलग-अलग विभूतियाँ जाननी चाहिये।
संसारमें जो कुछ विहित तथा निषिद्ध हो रहा है; शुभ तथा अशुभ हो रहा है और संसारमें जितने सद्भाव तथा दुर्भाव हैं, वह सब-की-सब भगवान्की लीला है– इस प्रकार भक्त भगवान्को तत्त्वसे समझ लेता है तो उसका भगवान्में अविकम्प (अविचल) योग हो जाता है (गीता 10। 7)।
यहाँ प्राणियोंके जो बीस भाव बताये गये हैं, उनमें बारह भाव तो एक-एक (अकेले) हैं और वे सभी अन्तःकरणमें उत्पन्न होनेवाले हैं और भयके साथ आया हुआ अभय भी अन्तःकरणमें पैदा होनेवाला भाव है तथा बचे हुए सात भाव परस्परविरोधी हैं। उनमेंसे भव (उत्पत्ति), अभाव, यश और अयश–ये चार तो प्राणियोंके पूर्वकृत कर्मोंके फल हैं और सुख, दुःख तथा भय–ये तीन मूर्खताके फल हैं। इस मूर्खताको मनुष्य मिटा सकता है।यहाँ प्राणियोंके बीस भावोंको अपनेसे पैदा हुए और अपनी विभूति बतानेमें भगवान्का तात्पर्य है कि ये बीस भाव तो पृथक्-पृथक् हैं, पर इन सब भावोंका आधार मैं एक ही हूँ। इन सबके मूलमें मैं ही हूँ, ये सभी मेरेसे ही होते हैं एवं मेरेसे ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं। सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भी भगवान्ने ‘मत्तः एव’ पदोंसे बताया है कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं अर्थात् उनके मूलमें मैं ही हूँ, वे मेरेसे ही होते हैं और मेरेसे ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं। अतः यहाँ भी भगवान्का आशय विभूतियोंके मूल तत्त्वकी तरफ साधककी दृष्टि करानेमें ही है।
विशेष बात
साधक संसारको कैसे देखे? ऐसे देखे कि संसारमें जो कुछ क्रिया, पदार्थ, घटना आदि है, वह सब भगवान्का रूप है। चाहे उत्पत्ति हो, चाहे प्रलय हो; चाहे अनुकूलता हो, चाहे प्रतिकूलता हो; चाहे अमृत हो, चाहे मृत्यु हो; चाहे स्वर्ग हो, चाहे नरक हो; यह सब भगवान्की लीला है। भगवान्की लीलामें बालकाण्ड भी है, अयोध्याकाण्ड भी है, अरण्यकाण्ड भी है और लङ्काकाण्ड भी है। पुरियोंमें देखा जाय तो अयोध्यापुरीमें भगवान्का प्राकट्य है राजा, रानी और प्रजाका वात्सल्यभाव है। जनकपुरीमें रामजीके प्रति राजा जनक, महारानी सुनयना और प्रजाके विलक्षण-विलक्षण भाव हैं। वे रामजीको दामादरूपसे खिलाते हैं, खेलाते हैं, विनोद करते हैं। वनमें (अरण्यकाण्डमें) भक्तोंका मिलना भी है और राक्षसोंका मिलना भी। लंकापुरीमें युद्ध होता है, मार-काट होती है, खूनकी नदियाँ बहती हैं। इस तरह अलग-अलग पुरियोंमें, अलग-अलग काण्डोंमें भगवान्की तरह-तरहकी लीलाएँ होती हैं। परन्तु तरह-तरहकी लीलाएँ होते हुए भी रामायण एक है और ये सभी लीलाएँ एक ही रामायणके अङ्ग हैं तथा इन अङ्गोंसे रामायण साङ्गोपाङ्ग होती है। ऐसे ही संसारमें प्राणियोंके तरहतरहके भाव हैं, क्रियाएँ हैं।
कहींपर कोई हँस रहा है तो कहींपर कोई रो रहा है, कहींपर विद्वद्गोष्ठी हो रही है तो कहींपर आपसमें लड़ाई हो रही है, कोई जन्म ले रहा है तो कोई मर रहा है, आदि-आदि जो विविध भाँतिकी चेष्टाएँ हो रही हैं, वे सब भगवान्की लीलाएँ हैं। लीलाएँ करनेवाले ये सब भगवान्के रूप हैं। इस प्रकार भक्तकी दृष्टि हरदम भगवान्पर ही रहनी चाहिये; क्योंकि इन सबके मूलमें एक परमात्मतत्त्व ही है।