Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।10.14।। व्याख्या —‘सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ‘– क नाम ब्रह्माका है, ‘अ’ नाम विष्णुका है, ‘ईश’ नाम शंकरका है और ‘व’ नाम वपु अर्थात् स्वरूपका है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर जिसके स्वरूप हैं, उसको ‘केशव’ कहते हैं। अर्जुनका यहाँ ‘केशव’ सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप ही,संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं।
सातवेंसे नवें अध्यायतक मेरे प्रति आप ‘यत्’ — जो कुछ कहते आये हैं, वह सब मैं सत्य मानता हूँ; और,‘एतत्’ — अभी दसवें अध्यायमें आपने जो विभूति तथा योगका वर्णन किया है, वह सब भी मैं सत्य मानता हूँ। तात्पर्य है कि आप ही सबके उत्पादक और संचालक हैं। आपसे भिन्न कोई भी ऐसा नहीं हो सकता। आप ही सर्वोपरि हैं। इस प्रकार सबके मूलमें आप ही हैं– इसमें मेरेको कोई सन्देह नहीं है।भक्तिमार्गमें विश्वासकी मुख्यता है। भगवान्ने पहले श्लोकमें अर्जुनको परम वचन सुननेके लिये आज्ञा दी थी, उसी परम वचनको अर्जुन यहाँ ‘ऋतम्’ अर्थात् सत्य कहकर उसपर विश्वास प्रकट करते हैं।
‘न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः’ — आपने (गीता 4। 5 में) कहा है कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म बीत चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। इसी प्रकार आपने ( 10। 2 में) कहा है कि मेरे प्रकट होनेको देवता और महर्षि भी नहीं जानते। अपने प्रकट होनेके विषयमें आपने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। कारण कि मनुष्योंकी अपेक्षा देवताओंमें जो दिव्यता है, वह दिव्यता भगवत्तत्त्वको जाननेमें कुछ भी काम नहीं आती। वह दिव्यता प्राकृत– उत्पन्न और नष्ट होनेवाली है। इसलिये वे आपके प्रकट होनेके तत्त्वको, हेतुको पूरा-पूरा नहीं जान सकते। जब देवता भी नहीं जान सकते, तो दानव जान ही कैसे सकते हैं? फिर भी यहाँ ‘दानवाः’ पद देनेका तात्पर्य यह है कि दानवोंके पास बहुत विलक्षण-विलक्षण माया है, जिससे वे विचित्र प्रभाव दिखा सकते हैं। परन्तु उस माया-शक्तिसे वे भगवान्को नहीं जान सकते। भगवान्के सामने दानवोंकी माया कुण्ठित हो जाती है। कारण कि प्रकृति और प्रकृतिकी जितनी शक्तियाँ हैं, उन सबसे भगवान् अतीत हैं। भगवान् अनन्त हैं, असीम हैं और दानवोंकी माया-शक्ति कितनी ही विलक्षण होनेपर भी प्राकृत, सीमित और उत्पत्ति-विनाशशील है। सीमित और नाशवान् वस्तुके द्वारा असीम और अविनाशी तत्त्वको कैसे जाना जा सकता है।
तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य, देवता, दानव आदि कोई भी अपनी शक्तिसे, सामर्थ्यसे, योग्यतासे, बुद्धिसे भगवान्को नहीं जान सकते। कारण कि मनुष्य आदिमें जितनी जाननेकी योग्यता, सामर्थ्य, विशेषता है, वह सब प्राकृत है और भगवान् प्रकृतिसे अतीत हैं। त्याग, वैराग्य, तप, स्वाध्याय आदि अन्तःकरणको निर्मल करनेवाले हैं, पर इनके बलसे भी भगवान्को नहीं जान सकते। भगवान्को तो अनन्यभावसे उनके शरण होकर उनकी कृपासे ही जान सकते हैं। (गीता 10। 11 11। 54)।