(१)
(श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित)
इलाहाबाद,
५ जनवरी, १८९०
प्रिय फकीर,
एक बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ; इसका सदा तुम ध्यान रखना कि मेरे साथ तुम लोगों का पुनः साक्षात्कार नहीं भी हो सकता है। नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्तःकरण पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो – अपने प्राणों के लिए भी कभी न डरो। धार्मिक मतमतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोक ही पापाचरण करते हैं, वीरपुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते – यहाँ तक कि कभी वे अपने मन में भी पापचिन्ता का उदय नहीं होने देते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो तथा राम इत्यादि को भी, जो कि खासकर तुम्हारी ही देखभाल में हैं, साहसी, नीतिपरायण तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनाने की चेष्टा करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है, इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरपन, पाप, असत् आचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाकी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी। राम को कभी नाटक देखने के लिए या अन्य ऐसे किसी प्रकार के खेल-तमाशे में, जिससे चित्त की दुर्बलता बढ़ती हो, स्वयं न ले जाना या जाने न देना।
तुम्हारा,
नरेन्द्रनाथ
(२)
(श्रीयुत लाला गोविन्द सहाय को लिखित)
आबू,
३० अप्रैल, १८९१
प्रिय गोविन्द सहाय,
तुम्हारी शिवपूजा तो अच्छी तरह से चल रही होगी? यदि नहीं तो करने का प्रयास करो। “तुम लोग पहले भगवान् के राज्य का अन्वेषण करो, ऐसा करने पर सब कुछ स्वतः ही प्राप्त कर सकोगे।”(१) भगवान् का अनुसरण करने पर धन-सम्मान अपने आप मिल जायगा। . . . दोनों कमाण्डर साहबों से मेरी आन्तरिक श्रद्धा निवेदन करना; उच्चपदाधिकारी होते हुए भी मुझ जैसे गरीब फकीर के साथ उन दोनों ने अत्यन्त सदय व्यवहार किया है। वत्स, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना इसमें ही समग्र धर्म निहित है। “जो केवलमात्र ‘प्रभु, प्रभु’ की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता की इच्छानुसार कार्य करता है” – वही धार्मिक है।(२) अलवरनिवासी युवको, तुम लोग जितने भी हो, सभी योग्य हो और मैं आशा करता हूँ कि तुममें से अनेक व्यक्ति अविलम्ब ही समाज के भूषण तथा जन्मभूमि के कल्याण के कारण बन सकेंगे।
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
पुनश्च :- यदि संसार की ओर से कभी कभी तुमको थोड़ा-बहुत धक्का भी खाना पड़े तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी।
[१] ‘‘Seek ye first the Kingdom of God and all good things will be added unto you.’’
[२] ‘‘Not he that crieth ‘Lord’ ‘Lord’, but he that doeth the will of the Father.’’
(३)
(खेतड़ी-निवासी पण्डित शंकरलाल को लिखित)
बम्बई,
२० सितम्बर, १८९२
प्रिय पण्डितजी महाराज,
आपका कृपापत्र मुझे यथासमय मिला। न जाने क्यों मेरी इतनी अधिक प्रशंसा हो रही है। ईसा मसीह का कहना है कि “एक ईश्वर को छोड़कर कोई भला नहीं” (None is good, save One, that is God) बाकी सब उसके हाथ की कतपुतलीया (निमित्तमात्र) हैं। उस सर्वशक्तिमान की अथवा अधिकारी पुरुषों की जयजयकार हो, न कि मुझ जैसे अनधिकारी की। यह दास पुरस्कार के सर्वथा अयोग्य है(The servant is not worthy of the hire) और विशेषतः एक फकीर तो किसी प्रकार की प्रशंसा पाने का अधिकारी ही नहीं। क्या केवल अपना कर्तव्य पालन करनेवाले सेवक की आप प्रशंसा करेंगे?
अब दूसरी बात पर आता हूँ :-
हिन्दू मस्तिष्क का झुकाव सदा साधारण सत्य से विशेष सत्य की ओर रहा है, न कि विशेष सत्य से साधारण सत्य की ओर। अपने समस्त दर्शनों में हम सदैव किसी एक साधारण सिद्धान्त को लेकर बाल की खाल निकालने की प्रवृति पाते हैं, फिर वह सिद्धान्त कितना ही भ्रमात्मक एवं बालकोचित क्यों न हो। इन सर्वमान्य सिद्धान्तों में कहाँ तक तथ्य है इस बात के खोजने या जानने की किसी में उत्कण्ठा नहीं। स्वतन्त्र विचार का हमारे यहाँ अभाव-सा रहा है। यही कारण है कि हमारे यहाँ पर्यवेक्षण (Observation) और सामान्यीकरण (Generalisation- विशेष विशेष सत्यों से एक साधारण सिद्धान्त में उपस्थित होना) प्रक्रिया के फलस्वरूप परिणामतः निर्मित होनेवाले विज्ञानों की इतनी कमी है। ऐसा क्यों हुआ? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि यहाँ की जलवायु की भयंकर गर्मी हमें क्रियाशील होने की अपेक्षा आराम से बैठकर विचार करने के लिए बाध्य करती है, और दूसरे यह कि पुरोहित-ब्राह्मण दूर देशों की यात्रा या समुद्रयात्रा न करते थे। दूर देश की यात्रा जल से या थल से करनेवाले यहाँ थे तो अवश्य, पर वे प्रायः व्यापारी थे – अर्थात् वे लोग जिनका बुद्धिविकास पुरोहितों के अत्याचारों के कारण एवं स्वयं के धनलोभ के कारण रूद्ध हो गया था। अतः उनके पर्यवेक्षणों से मानवीय-ज्ञान का विस्तार तो न हो पाया, उलटे उसकी अवनति हो गयी है, क्योंकि उनके निरीक्षण इतने दोषयुक्त थे तथा विभिन्न देशों के उनके वर्णन इतने अयुक्तिपूर्ण और तोड़-मरोड़कर इतने विकृत बनाये गये थे कि उनके द्वारा असलियत तक पहुँचना असम्भव था।
इसलिए हम लोगों को विदेशों की यात्रा करनी चाहिए। यदि हम अपने को एक सुसंगठित राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि दूसरे देशों में किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था चल रही है और साथ ही हमें मुक्त हृदय से दूसरे राष्ट्रों से विचारविनिमय करते रहना चाहिए। सब से बड़ी बात तो यह है कि हमें गरीबों पर अत्याचार करना एकदम बन्द कर देना चाहिए। किस हास्यापद दशा को हम पहुँच गये है! यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता हैं तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है – वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो – तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोकटोक नहीं, ऐसा कोई नहीं जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड़म्बना की बात क्या हो सकती है? आइये, देखिये तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गजब कर रहे है। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या में ईसाई बना रहे है। ट्रावंकोर में जहाँ पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष भर में सब से अधिक हैं, जहाँ जमीन के प्रत्येक टुकड़े के मालिक ब्राम्हण हैं और जहाँ राजघरानों की महिलाएँ तक ब्राम्हणों की उपपत्नी बनकर रहने में गौरव मानती हैं वहाँ लगभग चौथाई जन-संख्या ईसाई हो गयी है! मैं उन बेचारों को क्यों दोष दूँ? हे भगवन्, मनुष्य कब दूसरे मनुष्यों से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेंगे?
आपका ही,
विवेकानन्द
(४)
(कठिन गार्हस्थ्य शोक से पीड़ित एक मद्रासी मित्रश्रीयुत डी. आर. बालाजीराव को लिखित)
२३ मई,१८९३
प्रिय बालाजी,
जो दारुण से दारुण दुःख मनुष्य पर पड़ सकता है, उसे सहते हुए एक यहूदी महात्मा ने सत्य ही कहा था कि “माता के गर्भ से हम नग्न आते हैं; और नग्न ही जाते हैं; भगवान ने दिया और भगवान ही ले गये; भगवान का नाम धन्य है।” इन वचनों में जीवन का रहस्य छिपा है। ऊपरी सतह पर चाहे लहरें उमड़ आयें और आँधी के बवण्डर चलें; परन्तु उसके अन्दर, गहराई में अपरिमित शान्ति, अपरिमित आनन्द और अपरिमित एकाग्रता का स्तर है। कहा गया है “शोकातुर व्यक्ति धन्य हैं क्योंकि वे शान्ति पायेंगे।” और क्यों पायेंगे ? क्योंकि जब कराल काल भेंट करने आता है और पिता की दीन पुकार और माता के विलाप की परवाह न कर हृदय को विदीर्ण कर देता है; जब शोक, ग्लानि और नैराश्य का बोझ असह्य हो जाता है, जब मानसिक क्षितिज में असीम विपद और घोर निराशा छोड़कर कुछ दिखायी नहीं देता, तब अन्तश्चक्षु के पट खुल जाते हैं और अकस्मात् ज्योति के प्रकाश से मन की आँखे चौंधिया जाती हैं, स्वप्न का तिरोभाव होता है और आध्यात्मिक दृष्टि से सृष्टि का महान् रहस्य प्रत्यक्ष दिखलायी देने लगता है। यह सत्य है कि उस बोझ से बहुतेरी दुर्बल नौकाएँ डूब जाती हैं, परन्तु प्रतिभासम्पन्न मनुष्य, जिसमें बल और साहस है, उस समय उस अनन्त, अक्षर परम आनन्दमय ब्रह्म का स्वयं साक्षात्कार करता है, जो ब्रह्म भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है, और जिसकी भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रीति से उपासना होती है। वे बेड़ियाँ, जो इस दुःखमय संसार की बन्धन हैं, कुछ समय के लिए मानो टूट जाती हैं और वह आत्मा स्वतन्त्रतापूर्वक उन्नति-पथ पर आगे बढ़ती है और धीरे धीरे परमात्मा के सिंहासन तक पहुँच जाती है, “जहाँ दुष्ट लोग सताना छोड़ देते हैं और थके-माँदे विश्राम पाते हैं”।
“तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।”
है प्रभु! तुमने अपने सब परिवार को अपनी आँखो के सामने नष्ट होते देखा और उन्हें बचाने को हाथ न उठाया – ऐसे अनन्त धैर्यशाली प्रभु, तुम हमें बल दो। आओ नाथ, तुम हमारे परम गुरू हो, जिसने यह शिक्षा दी है कि सिपाही का धर्म आज्ञापालन है, बात करना नहीं। आओ, हे पार्थ-सारथि, आओ, मुझे भी एक बार यह उपदेश दे जाओ कि तुम्हारे प्रति जीवन अर्पण करना ही मनुष्य-जीवन का सार और परम धर्म है, जिसमें मैं भी पूर्वकाल की महान् आत्माओं के साथ दृढ़ और शान्त भाव से कह सकूँ ‘ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु’। परमात्मा तुम्हें शान्ति प्रदान करें, यही मेरी सतत प्रार्थना है।
विवेकानन्द
(५)
(श्रीमती इन्दुमति मित्र को लिखित)
बम्बई,
२४ मई १८९३
माँ,
तुम्हारा और प्रिय हरिपद बाबाजी का पत्र पाकर प्रसन्न हुआ। हर समय आपको पत्र न लिख सका, इस कारण दुःख न मानिये। मैं सदैव परमात्मा से आपकी कल्याण-कामना करता हूँ। ३१ तारीख को मेरी अमेरिका-यात्रा निश्चित हो चुकी है। इसीलिए मैं अब बेलगाँव न जा सकूँगा। ईश्वर ने चाहा तो अमेरिका और यूरोप से लौटने के बाद में तुमसे मिलूँगा। सदा श्रीकृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण करती रहना। सदा इस बात का ध्यान रखना कि हम प्रभु के हाथ के पुतले हैं। सदा पवित्र रहना। मनसावाचाकर्मणा पवित्र रहने की चेष्टा करती रहना और यथासाध्य दूसरों की भलाई करना। याद रखना, कि मनसावाचाकर्मणा पतिसेवा करना ही स्त्री का मुख्य धर्म है। जब कभी अवकाश मिले, प्रत्येक दिन गीतापाठ करती रहना। तुमने अपने को ‘दासी’ क्यों लिखा है? कौन किसका दास है? सब हरि के दास हैं। अतएक प्रत्येक महिला को अपने पति का गोत्र नाम देना चाहिए, यह पुरानी वैदिक पद्धती है, जैसे इन्दुमति ‘मित्र’ इत्यादि। अधिक क्या लिखूँ; माँ, यह हमेशा याद रखना कि तुम लोगों के कल्याण के लिए मैं सर्वदा प्रार्थना कर रहा हूँ। अमेरिका जाकर वहाँ की आश्चर्यजनक बातें मैं तुमको बीच-बीच में पत्रों द्वारा लिखता रहूँगा। मैं इस समय बम्बई में हूँ और ३१ तारीख तक यहीं रहूँगा। खेतड़ी नरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी मुझे यहाँ तक पहुँचाने आये हैं। किमधिकमिति।
आशीर्वादक,
सच्चिदानन्द
(६)
(श्रीयुत आलासिंगा पैरुमल को लिखित)
ओरियेण्टल होटल,याकोहामा,
१० जुलाई, १८९३
प्रिय आलासिंगा, बालाजी, जि. जि. ,
तथा अन्यान्य मेरे मद्रासी मित्रगण,
अपने कार्यकलाप की सूचना तुम लोगों को बराबर न देते रहने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। यात्रा में जीवन बहुत व्यस्त रहता है; और विशेषतः मुझे तो बहुतसा सामान-असबाब साथ में लिये लिये घूमने की आदत नहीं थी। इन सब वस्तुओं की देखभाल में ही मेरी सारी शक्ति लग रही है। यह सचमुच एक बड़े झंझट का काम है।
बम्बई से कोलम्बो पहुँचा। हमारा स्टीमर वहाँ दिनभर ठहरा रहा। इस बीच में मुझे शहर देखने का अवसर मिला। हमने सारा शहर देख डाला; वहाँ की और सब वस्तुओं में भगवान् बुद्धदेव की निर्वाण के समय की लेटी हुई मूर्ति की याद मेरे मन में अभी तक ताजी है। . . .
दूसरा स्टेशन पेनांग था जो मलय (मलाया) प्रायद्वीप में समुद्र के किनारे का एक छोटासा टापू है। मलयनिवासी सब मुसलमान हैं। किसी जमाने में ये लोग मशहूर समुद्री डाकू थे और व्यापारी इनके नाम से घबराते थे। किन्तु आजकल जहाजी बेड़ों के महाभय से ये लोग डकैती छोड़कर शान्तिपूर्ण धन्धों में लग गये हैं। पेनांग से सिंगापुर जाते हुए हमें उच्च पर्वतमालाओं से युक्त सुमात्रा द्वीप दिखायी दिया। जहाज के कप्तान ने हमें समुद्री डाकुओं के बहुत से पुराने अड्डे दिखाये। सिंगापुर स्ट्रेटस् सेट्लमेण्ट्स की राजधानी है। यहाँ एक सुन्दर बाग है जिसमें ताड़ जाति के तरह तरह के पेड़ लगाये गये हैं। यहाँ पंखेनुमा पत्तोंवाले ताड़ के पेड़ बहुतायत से पाये जाते हैं और ब्रेड फ्रूट (Bread Fruit) नामक पेड़ तो जहाँ देखो वहीं मिलता है। मद्रास में जिस प्रकार आम के पेड़ बहुतायत से होते हैं, उसी प्रकार यहाँ मैंगोस्टीन (Mango Steen) नामक फल बहुत होता है। पर आम तो आम ही है, उसके साथ किस फल की तुलना हो सकती है? यद्यपि यह स्थान भूमध्य रेखा के बहुत निकट है, फिर भी मद्रास के लोग जितने काले होते हैं, यहाँ के लोग उसके अर्धांश भी काले नहीं होते। सिंगापुर में एक बढ़िया अजायबघर भी है। . . .
इसके बाद हांगकांग आता है। यहाँ चीनी लोग इतनी अधिक संख्या में हैं कि यह भ्रम हो जाता है कि हम चीन ही पहुँच गये हैं। ऐसा लगता है कि सभी कारोबार, वाणिज्य व्यवस्याय आदि इन्हीं के हाथों में हैं। और हांगकांग तो वास्तव में चीन ही है। ज्योंही जहाज वहाँ लंगर डालता है कि सैकड़ों संख्या में चीनी डोंगियाँ आपको तट पर ले जाने के लिए घेर लेती है। दो दो पतवारें होने के कारण ये डोंगियाँ कुछ विचित्र-सी लगती हैं। माझी डोंगी पर ही सकुटुम्ब रहता है। पतवारों का संचालन प्रायः स्त्री ही करती है। एक पतवार दोनों हाथों से चलाती रहती है और दूसरी को पैर से। और उनमें से नब्बे फी-सदी स्त्रियों के पीछे उनके बच्चे इस प्रकार बँधे रहते है कि वे आसानी से हाथ पैर डुला सकें। मजे की बात तो यह है कि ये नन्हे नन्हे चीनी बच्चे अपनी माताओं की पीठ पर आराम से झूलते रहते हैं और उनकी माताएँ कभी अपनी सारी शक्ती लगाकर पतवार घुमाती हैं, कभी कभी भारी बोझ उठाती हैं, या कभी बड़ी फुर्ती के साथ एक डोंगी से दूसरी डोंगी पर कूद जाती हैं। लगातार इधर से उधर जानेवाली डोंगियों और वाष्पनौकाओं की भीड़-सी लगी रहती है। हर समय इन चीनी बालगोपालों के शिखायुक्त मस्तकों के चूरचूर हो जाने का डर रहता है। पर उन्हें इसकी क्या परवाह? उन्हें इन बाहर की हलचलों से कोई सरोकार नहीं, वे तो अपनी चाँवल की रोटी कुतर-कुतरकर खाने में मस्त रहते हैं,जो काम के झंझटों से बौखलायी हुई माँ उन्हें दे देती है। चीनी बच्चों को पूरा दार्शनिक ही समझिये। जिस उम्र में भारतीय बच्चे घुटनों के बल भी नहीं चल पाते, उस उम्र में वह स्थिर भाव से चुपचाप काम पर जाता है। अभाव का महत्त्व वह अच्छी तरह सीख और समझ लेता है। चीनी और भारतीयों की नितान्त दरिद्रता ने ही उनकी संस्कृतियों को निर्जीव बना रखा है। साधारण हिन्दू या चीनी के लिए उसका दैनिक अभाव इतना भयंकर लगता है कि उसे और कुछ सोचने की फुरसत नहीं।
हांगकांग एक बड़ा ही सुन्दर नगर है। वह पहाड़ के शिखरों और ऊँची ढालू जगहों पर बसा हुआ है। वहाँ शहर की अपेक्षा अधिक ठण्ड पड़ती है। पहाड़ के ऊपर एक ट्रामगाड़ी प्रायः एकदम सीधी चढ़ती है। लोहे के तारों की रस्सी से खींचकर और भाप के द्वारा वह ऊपर की ओर परिचालित होती है।
हांगकांग में हम लोग तीन दिन रहे। वहाँ से कैण्टन देखने गये। यह शहर एक नदी के चढ़ाव की ओर हांगकांग से प्रायः अस्सी मील पर मिलता है। वहाँ की भीड़भाड़ और वहाँ के व्यस्त जीवन का क्या कहना? नावें तो इतनी अधिक हैं कि मानो उनसे नदी पट गयी हो। ये नावें केवल व्यापार के ही काम नहीं आतीं बल्कि सैकड़ों ऐसी भी हैं जिनमें घर की भाँति लोग रहते है। और इनमें से बहुतेरी बहुत बढ़िया हैं और बड़ी बड़ी हैं। वास्तव में इन्हें पानी पर तैरते हुए घर समझिये। सच पूछो तो ये बड़े बड़े दुमंजिले या तिमंजिले मकानों की भाँति हैं, जिनके चारों ओर बरामदा है और बीच में रास्ते। पर यह सब कुछ पानी के ऊपर तैरता हुआ है। जिस जगह हम लोग उतरे वह चीन सरकार की ओर से विदेशियों के रहने के लिए दी गयी है। हमारे चारों ओर, नदी के दोंनो किनारों पर मीलों तक यह नगर बसा हुआ है – एक असंख्य जनसमूह जिसमें निरन्तर कोलाहल, धक्कामुक्की और परस्पर स्पर्धा काही बोलबाला दिखायी देता है। परन्तु इतनी आबादी, इतनी क्रियाशीलता होते हुए भी मैंने इतना गन्दा शहर अब तक नहीं देखा। अर्थात् जिसे आप लोग भारतवर्ष में गन्दगी समझते हैं उस दृष्टि से नहीं -चीनी लोग कूड़े का एक तिनका भी जाया नहीं होने देते – पर ऐसा जान पड़ता है कि इन लोगों ने कभी न नहाने की कसम खा ली हो। हरएक घर में नीचे दूकान है और छत पर लोग रहते हैं। गलियाँ इतनी सँकरी हैं कि उनमें से गुजरते हूए दोनों ओर की दूकानों को आप हाथ फैलाकर लगभग छू सकते हैं। हर दस कदम पर मांस की दूकानें मिलती हैं। ऐसी दूकानें भी हैं जिनमें कुत्ते-बिल्लियों का मांस बिकता है। हाँ, इस तरह का मांस वही लोग खाते हैं जो बहुत गरीब हैं।
चीनी महिलाएँ बाहर दिखायी नहीं देतीं। उनमें उत्तर भारत के ही समान परदे की प्रथा है। केवल मजदूरो की ही औरतें बाहर दिखायी पड़ती हैं। इनमें भी एकाध स्त्री ऐसी दिखायी पड़ेगी जिसके पैर बच्चे से भी छोटे हैं और वह लड़खड़ाती हुई चलती है।
मैं बहुतसे चीनी मन्दिरों में गया। कैण्टन में जो सब से बड़ा मन्दिर है वह प्रथम बौद्ध सम्राट् और सब से पहले बौद्ध धर्म स्वीकार करनेवाले पाँच सौ पुरुषों का स्मारक-स्वरूप है। मन्दिर के बीचोंबीच बुद्धदेव की मूर्ति स्थापित है, उसके नीचे सम्राट् की और दोनों ओर शिष्यमण्डली की मूर्तियों की कतारें हैं। ये सभी लकड़ी में खूबसूरती से खोदकर बनायी गयी हैं।
कैण्टन से मैं फिर हांगकांग लौटा और वहाँ से जापान पहुँचा। पहला बन्दरगाह नागासाकी था। यहाँ हमारा जहाज कुछ घण्टों के लिए ठहरा और हम लोग गाड़ी में बैठकर शहर घूमने गये। चीनियों में और इनमें कितना अन्तर है! सफाई में जापानी लोग दुनिया में किसी से कम नहीं हैं। सभी वस्तुएँ साफ-सुथरी हैं। रास्ते प्रायःसब चौड़े, सीधे और पक्के हैं। प्रायः प्रत्येक शहर में पिंजड़ों की भाँति छोटे मकान हैं और उन बस्तियों के पीछे चीड़ के वृक्षों के कारण हरीभरी पहाड़ियाँ हैं। जापानी लोग ठिंगने, गोरे और विचित्र वेषभूषावाले हैं। उनकी चालढाल, हावभाव, रंगढंग सभी सुन्दर हैं। जापान सौन्दर्यभूमी है। प्रायः प्रत्येक घर के पिछवाड़े में बगीचा रहता है। इन बगीचों के छोटे छोटे लता वृक्ष, हरे भरे कुंज, छोटे छोटे जलाशय और नालियोंपर बने हुए छोटे छोटे पत्थर के पुल बड़े सुहावने लगते हैं। नागासाकी से चलकर हम कोबे पहुँचे। यहाँ जहाज से उतरकर हम लोग जापान का मध्य भाग देखने के उद्देश्य से स्थलमार्ग से याकोहामा आये। इस मध्य भाग में हमने तीन शहर देखे। महान् औद्योगिक नगर ओसाका, पूर्व राजधानी क्योटो और वर्तमान राजधानी टोकियो कलकत्ते से प्रायः दुगना बड़ा होगा और आबादी भी लगभग दुनी होगी।
बिना पासपोर्ट के किसी भी विदेशी को जापान में भ्रमण करने नहीं दिया जाता।
जान पड़ता है, जापानी लोग वर्तमान आवश्यकताओं के प्रति पूर्ण सचेत हो गये हैं। उनकी एक अच्छी सुव्यवस्थित सेना है जिसमें यहीं के अफसर द्वारा आविष्कृत तोपें काम में लायी जाती हैं और जो संसार में अद्वितीय कही जाती हैं। ये लोग अपनी नौशक्ति बढ़ाते जा रहे हैं। मैंने एक जापानी इंजिनियर की बनायी करीब एक मील लम्बी सुरंग देखी है।
दियासलाई के कारखाने तो देखते ही बनते हैं। जो आवश्यक चिजें उनको लगती हैं उन सब को अपने देश में ही बनाने की चेष्टा में लोग तुले हुए हैं। चीन और जापान के बीच में चलनेवाली एक जापानी स्टीमर लाइन है जिसे ये लोग कुछ ही दिनों में बम्बई और याकोहामा के बीच चलाना चाहते हैं।
यहाँ मैंने बहुतसे मन्दिर देखे। प्रत्येक मन्दिर में कुछ संस्कृत मन्त्र प्राचीन बंग-अक्षरों में लिखे हुए हैं। बहुत थोड़े पुरोहित संस्कृत जानते हैं, पर वे सब के सब बड़े बुद्धिमान हैं। अपनी उन्नति करने का आधुनिक जोश पुरोहितों तक में प्रवेश कर गया हैं। जापानियों के विषय में जो कुछ मेरे मन में है वह सब मैं इस छोटे से पत्र में लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ट संख्या में हमारे नवयुवकों को यहाँ आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? जीवनभर केवल बेकार बातें किया करते हो। आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपालो। सठियाई बुद्धिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी ! अपनी खोपड़ी में वर्षो के अन्धविश्वास का कूड़ा-कर्कट भरे बैठे, सैकड़ों वर्षों से केवल आहार के शुद्ध-अशुद्धि के झगड़े में ही अपनी शक्ति नष्ट करनेवाले, सैकड़ों युगों के सामाजिक अत्याचार से जिनकी सारी मानवता का अस्त हो चुका है, भला बताओ तो सही तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? मूर्खो, किताब हाथ में लिये तुम केवल समुद्रकिनारे फिर रहे हो, यूरोपियनों के मस्तिष्क में निकली हुई बातों को लेकर बेसमझे दुहरा रहे हो। तीस रूपये की मुंशीगिरी के लिए अथवा बहुत हुआ तो एक वकील बनने के लिए जी-जान से तड़फ रहे हो। यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सब से बड़ी महत्त्वाकांक्षा है। तिसपर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्ड बच्चे भी पैदा हो जाते हैं जो भूख से तड़फते हुए उन्हें घेरकर ‘बाबूजी, खाने को दो, खाने को दो’ कहकर चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाऊन और पुस्तकों के समेत डूब मरो?
आओ, मनुष्य बनो। उन पाखण्डी पुरोहितों को जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, बाहर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा। उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षो के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फल-स्वरूप हुई है। पहले इनको जड़मूल निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनो। अपने अन्धकूप से बाहर निकलो और बाहर दृष्टि डालो। देखो अन्य सब देश किस तरह आगे बढ़ रहे हैं। क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? क्या तुम्हें अपने देश से प्रेम है? यदि ‘हाँ’ तो आओ। हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुड़कर मत देखो। अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढ़ते जाओ।
भारतमाता कम से कम एक हजार युवकों का बलिदान चाहती है – मस्तिष्कवाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोड़ने के लिए ही अंग्रेजी राज्य को भारत में भेजा है और मद्रासियों नें ही अंग्रेजों को भारत में पैर जमाने में सब से पहले मुख्य सहायता दी है। मद्रास ऐसे कितने निःस्वार्थी और सच्चे युवक देने के लिए तैयार है जो गरीबों के साथ सहानुभूति रखने के लिए, भूखों को अन्न देने के लिए और सर्वसाधारण में नवजागृति का प्रचार करने के लिए प्राणों की बाजी लगाकर प्रयत्न करने को तैयार हैं और साथ ही उन लोगों को जिन्हें तुम्हारे पूर्वजों के अत्याचारों ने पशुतुल्य बना दिया है उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए अग्रसर होंगे?
तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च :- धीरता और दृढ़ता के साथ चुपचाप काम करना होगा, समाचारपत्रों के जरिये हल्ला मचाने से काम न होगा। सर्वदा याद रखनानाम-यश कमाना अपना उद्देश्य नहीं है।
– वि.
(७)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
ब्रीजी मेडोज, मेटकाफ,
मासाचुसेट्स
२० अगस्त, १८९३
प्रिय आलासिंगा,
कल तुम्हारा पत्र मिला। शायद तुम्हें इस बीच मेरा जापान से लिखा हुआ पत्र मिला होगा। जापान से मैं वैंकुवर पहुँचा। मुझे प्रशान्त महासागर के उत्तरी हिस्से में होकर जाना पड़ा। ठण्ड बहुत थी। गरम कपड़ों के अभाव से बड़ी तकलीफ हुई। अस्तु, किसी तरह वैंकुवर पहुँचकर वहाँ से कनाडा होकर शिकागो पहुँचा। वहाँ लगभग बारह दिन रहा। वहाँ प्रायःहररोज मेला देखने जाता था। वह तो एक विराट् व्यापार है ! कम से कम बिना दस दिन घूमे सब मेले की सैर करना असम्भव था। वरदा राव ने जिन महिला से मेरा परिचय करा दिया था वे और उनके पति शिकागो समाज के बड़े गण्यमान्य व्यक्ति हैं। उन्होंने मुझसे बहुत अच्छा बर्ताव किया। परन्तु यहाँ के लोग जो विदेशियों का सत्कार करते हैं वह केवल औरों को तमाशा दिखाने के ही लिए है; धन की सहायता करते समय प्रायःसभी मुँह मोड़ लेते हैं। इस साल यहाँ भारी अकाल पड़ा है – व्यापार में सभी को नुकसान हो रहा है, इसलिए मैं शिकागो बहुत दिन नहीं ठहरा। शिकागो से मैं बोस्टन आया। लल्लूभाई वहाँ तक मेरे साथ थे। उन्होंने भी मुझसे बड़ा अच्छा बर्ताव किया।
यहाँ बहुत खर्च होता है। तुम जानते हो कि तुमने मुझे १७० पौण्ड के नोट और ९ पौण्ड नगद दिये थे। अब १३० पौण्ड ही रह गये हैं। मेरा औसत एक पौण्ड हररोज खर्च होता है। यहाँ एक चूरट ही का दाम हमारे यहाँ के आठ आने हैं। अमेरिकावाले ऐसे धनी हैं कि वे पानी की तरह रूपया बहा देते है। सैकड़ों बार इच्छा हुई कि इस देश से चल दूँ, फिर मैंने सोचा कि मैं तो जिद्दी स्वभाव का हूँ, और मुझे भगवान का आदेश मिला है। मेरी दृष्टि में रास्ता नहीं दिखायी देता तो न सही, परन्तु उनकी आँखें तो सब कुछ देख रही हैं। चाहे मरूँ या जीऊँ, अपने उद्देश्य को नहीं छोडूँगा।
मैं इस समय बोस्टन के एक गाँव में एक भद्र-महिला का अतिथि हूँ। मेरी इनसे एकाएक रेलगाड़ी पर पहचान हुई थी। ये मुझे निमन्त्रित कर अपने पास लायी हैं। यहाँ पर रहने से मुझे यह सुविधा होती है कि मेरा हररोज एक पौण्ड के हिसाब से जो खर्च हो रहा था वह बच जाता है; और उनको यह लाभ होता है कि वे अपने मित्रों को बुलाकर उनको भारत से आया हुआ एक अजीब जानवर दिखा रही हैं !! इन सब यातनाओं को सहना ही पड़ेगा। अब मुझे अनाहार, जाड़ा और मेरे अनोखे पहनावे के कारण रास्ते के मुसाफिरों की हँसी-मजाक, इन सभी के साथ लड़ाई कर गुजारना पड़ता है। प्रिय वत्स, यह निश्चित जानना कि कोई भी बड़ा काम कठिन परिश्रम और कष्ट उठाये बिना नहीं बना है।…
याद रखो कि यह ईसाइयों का देश है। यहाँ किसी और धर्म या मत की कुछ भी प्रतिष्ठा मानो है ही नहीं। मुझे संसार के किसी भी सम्प्रदाय की शत्रुता का भय नहीं है। मैं तो यहाँ ‘मेरी’ – सुत ईसा की सन्तानों के बीच वास करता हूँ। प्रभु ईसा ही मुझे सहारा देंगे। एक बात मैं देख पाता हूँ कि ये लोग हिन्दूधर्म के उदार मत, और नजारेथ के अवतार पर मेरा प्रेम देखकर बहुत ही आकृष्ट हो रहे हैं। उनसे मैं कहा करता हूँ कि मुझे उस गालिलि के रहनेवाले महापुरूष के विरूद्ध कुछ कहना ही नहीं है; सिर्फ़ जैसे आप लोग ईसा को मानते हैं वैसे ही साथ साथ भारतीय महापुरूषों को मानना चाहिए। यह बात वे आदरपूर्वक सुन रहे हैं। अब तक मेरा काम इतना ही बना है कि लोग मेरे बारे में कुछ जान गये हैं एवं चर्चा करते हैं। यहाँ इसी तरह काम शुरू करना होगा। इसमें काफी समय लगेगा, साथ ही धन की भी आवश्यकता है। जाड़े का मौसम आ रहा है। मुझे सब प्रकार के गरम कपड़े की आवश्यकता होगी, और यहाँ वालों की अपेक्षा हमें अधिक कपड़ों की जरूरत होती है। . . . वत्स, साहस अवलम्बन करो। भगवान की इच्छा से भारत में हमसे बड़े बड़े कार्य सम्पन्न होंगे। विश्वास करो, हम ही बड़े बड़े काम करेंगे, हम गरीब लोग – जिनसे लोग घृणा करते हैं पर जिन्होंने मनुष्य का दुःख सचमुच दिल से अनुभव किया है। राजे-रजवाड़ों से बड़े बड़े काम बनने की आशा बहुत कम है।
कल स्त्री-कैदखाने की व्यवस्थापिका श्रीमती जोन्सन महोदया यहाँ पधारी थीं। यहाँ ‘कैदखाना’ नहीं कहते, किन्तु ‘सुधार-शाला’ कहते हैं। मैंने अमेरिका में जो जो बातें देखी हैं उनमें से यह एक बड़ी आश्चर्यजनक वस्तु है। कैदियों से कैसा सहृदय बर्ताव किया जाता है, कैसे उनका चरित्र सुधर जाता है और वे लौटकर फिर कैसे समाज के आवश्यक अंग बनते हैं, ये सब बातें इतनी अद्भुत और सुन्दर हैं कि तुम्हें बिना देखे विश्वास नहीं होगा। यह सब देखकर जब मैंने अपने देश की दशा सोची, तो मेरे प्राण बेचैन हो गये। भारतवर्ष में हम लोग गरीबों को, साधारण लोगों को, पतितों को क्या समझा करते हैं! उनके लिए न कोई उपाय है, न बचने की राह, और न उन्नति के लिए कोई मार्ग ही। भारत कै दरिद्रों का, भारत के पतितों का, भारत के पापियों का कोई साथी नहीं – उन्हें कोई सहायता देनेवाला नहीं, वे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, उनकी उन्नति का कोई उपाय नहीं। वे दिन-पर-दिन डूबते जा रहे हैं। राक्षस-जैसा नृशंस समाज उन पर जो लगातार चोटें कर रहा है, उसका अनुभव तो वे खूब कर रहे हैं, पर वे जानते नहीं कि वे चोटें कहाँ से आ रही हैं। वे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं। इसका फल हुआ दासत्व और पशुत्व। चिन्ताशील लोग कुछ समय से समाज की यह दुर्दशा समझ गये हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश, वे हिन्दूधर्म के मत्थे ये दोष मढ़ रहे हैं। वे सोचते हैं कि जगत् के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है। सुनो मित्र, प्रभु की कृपा से मुझे इसका रहस्य मालूम हो गया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें यही सिखाता है कि संसार भर के सभी प्राणी तुम्हारी ही आत्मा के विविध रूप है। समाज की इस हीनावस्था का कारण है इस तत्त्व को व्यावहारिक आचरण में लाने का अभाव, सहानुभूती का अभाव – हृदय का अभाव। भगवान तुम्हारे पास बुद्धरूप में आये और तुम्हें गरीबों, दुःखियों और पापियों के लिए आँसू बहाना और उनसे सहानुभूति करना सिखाया, परन्तु तुमने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारे पुरोहितों ने यह भयानक किस्सा गढ़ा कि भगवान भ्रान्त मत का प्रचार कर असुरों को मोहित करने आये थे। सच है; पर असुर हैं हमीं लोग, न कि वे जिन्होंने विश्वास किया। और जिस तरह यहूदी लोग प्रभु ईसा का निषेध कर आज सारी दुनिया में सताये और दुतकारे जाकर भीख माँगते हुए फिर रहे हैं उसी तरह तुम लोग भी, जोभी जाति तुम पर राज्य करना चाहती है उसी के गुलाम बन रहे हो। हाय अत्याचारियो, तुम जानते नहीं कि अत्याचार और गुलामी मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। – वे दोनों एक ही हैं।
बालाजी और जि. जि. को उस दिन की बात याद होगी, जब शाम को पाण्डुचेरी में एक पण्डित से समुद्र-यात्रा के विषय पर हमारा वादविवाद हुआ था। उसके चेहरे की विकट बनावट और उसकी ‘कदापि न’(हरगिज नहीं) यह बात मुझे सदैव याद रहेगी। इनकी अज्ञता की गहराई देखकर आश्चर्य करना पड़ता है। वे जानते नहीं कि भारतवर्ष जगत् का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा है, और सारा जगत् इन तीस करोड़ मनुष्यों को बड़ी घृणा से देखता है। वह देखता है कि ये सब मानो कीड़ों की तरह भारत के रमणीक क्षेत्र पर रेंग रहे हैं और एक दूसरे पर अत्याचार करने की कोशिश कर रहे हैं। समाज की यह दशा दूर करनी होगी – परन्तु धर्म का नाश करके नहीं, वरन् हिन्दूधर्म के महान् उपदेशों का अनुसरण कर और उसके साथ हिन्दूधर्म की स्वाभाविक परिणतिस्वरूप बौद्धधर्म की अपूर्व सहृदयता को युक्त कर लाखों स्त्री-पुरूष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का, सेवा के सन्देश का, सामाजिक उत्थान के सन्देश का, समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे।
पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दूधर्म के समान इतने उच्च स्वरसे मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दूधर्म के समान गरीबों और निम्नजातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो। प्रभु ने मुझे दिखा दिया है कि इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है, वरन् दोष उनका है, जो ढोंगी और दम्भी हैं, जो ‘पारमार्थिक’ और ‘व्यावहारिक’ सिद्धान्तों के रूप में अनेक प्रकार के अत्याचार के अस्त्र निर्माण करते हैं।
हताश न होना। याद रखना कि भगवान गीता में कह रहे हैं, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन(१) “तुम्हारा अधिकार कर्म में है, फल में नहीं।” कमर कस लो, वत्स, प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। जीवनभर मैं अनेक कष्ट उठाते आया हूँ। मैंने प्राणप्रिय आत्मीयों को एक प्रकार अनाहार मरते देखा है। लोगों ने मेरी हँसी और अवज्ञा की है, और कपटी कहा है (मद्रास के बहुतसे लोग अब भी मुझे ऐसा समझते हैं) और ये सब वे ही लोग हैं जिन पर सहानुभूति करने से मुझे यह फल मिला। वत्स, यह संसार दुःख का आगार तो है, पर यही महापुरुषों के लिए शिक्षालय-स्वरूप है। इस दुःख से ही सहानुभूति, सहिष्णुता और सर्वोपरि उस अदम्य दृढ़ इच्छाशक्ति का विकास होता है, जिसके बल से मनुष्य सारे जगत् के चूर चूर हो जाने पर भी रत्तीभर नहीं हिलता। मुझे उन लोगों के लिए दुःख होता है जो मुझे कपटी समझते हैं। वे दोषी नहीं हैं। वे बालक हैं, निरे बच्चे हैं – भले ही समाज में वे बड़े गण्यमान्य समझे जायँ। उनकी आँखे अपने छोटे दृष्टिक्षेत्र से बाहर कुछ नहीं देखतीं। उनके नियमित कार्य केवल खान-पान, अर्थोपार्जन और वंशवृद्धि ही हैं। और ये सब कार्य वे घड़ी के काँटे की तरह नियमित रूप से किये जाते हैं। इसके सिवा उन्हें और कुछ नहीं सूझता। अहा, कैसे सुखी हैं ये बेचारे! उनकी नींद किसी तरह टूटती ही नहीं! सदियों के पाशविक अत्याचार के फलस्वरूप जो दुःख, हीनता, दारिद्र्य की आह भारतगगन को आच्छादित किये हुए हैं उनसे उनके जीवन-सम्बन्धी सुखकर स्वप्न कभी टूटते नहीं। जिन्होंने ईश्वर की प्रतिमारूपी मनुष्य को भारवाही पशु, भगवती की प्रतिमारूपिणी रमणी को सन्तान पैदा करनेवाली दासी, और जीवन को विषमय बना दिया है, उन लोगों को युगों के मानसिक, नैतिक और दैहिक अत्याचारों की बातें कभी सपने में भी याद नहीं आती। परन्तु ऐसे भी अनेक मनुष्य हैं जो देखते हैं, अनुभव करते हैं, और मन ही मन खून के आँसू बहाते हैं – जो सोचते हैं कि इनका इलाज है, और किसी भी कीमत पर इन्हें हटाने को तैयार हैं। यहाँ तक कि अपने प्राण भी देने को प्रस्तुत हैं। इन्हीं लोगों से स्वर्गराज्य बना है। अतएव मित्रो, क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि उच्च स्थान में अवस्थित इन महापुरूषों को उन जघन्य कीड़ों की बकवास सुनने की फुरसत नहीं, जो प्रतिक्षण अपनी शक्तीभर विष उगलने के लिए तैयार हैं?
ऊँचे पदवालों या धनिकों का भरोसा न करना। उनमें जीवनीशक्ती नहीं है – वे तो जीते हुए भी मुर्दे के समान हैं। भरोसा तुम लोगों पर है; गरीब, पदमर्यादा-रहित किन्तु विश्वास तुम्ही लोगों पर। ईश्वर पर भरोसा रखो। किसी चालबाजी की आवश्यकता नहीं; उससे कुछ भी नहीं होता। दुखियों का दर्द समझो और ईश्वर के पास सहायता की प्रार्थना करो – सहायता अवश्य मिलेगी। मैं बारह वर्ष तक हृदय में यह बोझ लादे और सिर पर यह विचार लिए बहुतसे तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर-दर घूम चुका, उन्होंने मुझे केवल कपटी समझा। हृदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस विदेश में सहायता माँगने आया। जब मेरे स्वदेश में ही लोग मुझे कपटी समझते हैं तो यदि अमेरिकावाले एक अज्ञात विदेशी भिक्षुक को भिक्षा माँगते देखें, तो वे भला क्या समझेंगे! परन्तु भगवान अनन्त शक्तिमान् हैं – मैं जानता हूँ, वे मेरी सहायता करेंगे। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु मद्रासवासी युवको! मैं गरीब, मूर्खों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथि के मन्दिर में, जो गोकुल के दीनदरिद्र ग्वालों के सखा थे, जो गुहक चण्डाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्ध-अवतार में अमीरों का न्योता इनकार कर एक वारांगना का न्योता स्वीकार किया और उसे उबारा; जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबलि दो, अपने जीवन की बलि दो – उन दरिद्रों, पतितों और उत्पीड़ितों के लिए, जिनके लिए भगवान युग-युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सब से अधिक प्यार करते हैं। और अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार के लिए अर्पण कर देने का व्रत लो, जो दिनोंदिन डूबते जा रहे हैं।
यह एक दिन का काम नहीं, और रास्ता भी भयंकर कँटीला है। परन्तु पार्थसारथि हमारे भी सारथि होने के लिए तैयार हैं – हम यह जानते हैं। उनका नाम लेकर और उन पर अनन्त विश्वास रखकर भारत के शत-शत युगोंसे संचित, पर्वतकाय अनन्त दुःखराशि में आग लगा दो – वह जलकर राख हो ही जायगी। तो आओ भाइयो, साहसपूर्वक इसका सामना करो। यह व्रत गुरूतर है और हम भी क्षुद्रशक्ति हैं। तो भी हम अनन्तज्योतिःस्वरूप भगवान के बच्चे हैं। प्रभु की जय हो, हम अवश्य सफल होंगे। सैकड़ों लोग इसमें खोते रहेंगे, पर सैक़ड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायँगे। प्रभु की जय! सम्भव है कि मैं यहाँ विफल होकर मर जाऊँ, पर कोई और यह काम जारी रखेगा। तुम लोगों ने रोग भी जान लिया और दवा भी, अब केवल विश्वास रखना। हम धनी या अमीर लोगों की परवाह नहीं करते – हृदयहीन, कोरे मस्तिष्कयुक्त लेखकों और समाचार-पत्रों में प्रकाशित उनके निस्तेज लेखों की भी परवाह नहीं करते। विश्वास, सहानुभूति – दृढ़ विश्वास और ज्वलन्त सहानुभूति चाहिए। प्रभु की जय हो। जीवन तुच्छ है, मरण भी तुच्छ है, भूख तुच्छ है और जाड़ा भी तुच्छ है। जय प्रभु! आगे बढ़ते रहो – प्रभु हमारे नायक हैं। पीछे मत देखो कौन गिरा इसकी खबर मत लो – आगे बढ़ो सामने चलो। भाइयो, इसी तरह हम आगे बढ़ते जायँगे, – एक गिरेगा, तो दूसरा वहाँ पर खड़ा हो जायगा।
शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द
[१] श्रीमद्भगवद्गीता ॥२. ४७॥
(८)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
शिकागो,
२ नवम्बर, १८९३
प्रिय आलासिंगा,
कल तुम्हारा पत्र मिला। बोस्टन के निकट एक गाँव में हार्वर्ड युनिर्वसिटी के ग्रीक भाषा के प्रोफेसर डा. राइट् से मेरी जानपहचान हो गयी। उन्होंने मेरे प्रति बहुत सहानुभूती दिखायी और इस बात पर जोर दिया कि मैं सर्वधर्मसम्मेलन में अवश्य जाऊँ, क्योंकि उनके विचार से उसके द्वारा मेरा परिचय सम्पूर्ण अमेरिका से हो जायगा। चूँकि मेरी वहाँ किसी से जानपहचान न थी इसलिए प्रोफेसर साहब ने मेरे लिए सब बन्दोबस्त करने का भार अपने ऊपर लिया और उसके बाद मैं फिर शिकागो आ गया। यहाँ सर्वधर्मसम्मेलन में आये हुए पूर्वी और पश्चिमी देशों के प्रतिनिधियों के साथ एक सज्जन के मकान में मेरे ठहरने की व्यवस्था हो गयी है।
जिस दिन सम्मेलन का उद्घाटन होनेवाला था उस दिन सुबह हम लोग आर्ट पैलेस नामक एक भवन में एकत्रित हुए, जिसमें एक बड़ा और कुछ छोटे छोटे हाँल सम्मेलन के अधिवेशनों के लिए अस्थायी रूप से निर्मित किये गये थे। सभी धर्मों के प्रतिनिधि वहाँ थे। भारत से ब्राह्मसमाज के प्रतिनिधि प्रतापचन्द्र मजूमदार महाशय थे, बम्बई से नगरकर आये थे, जैनधर्म के प्रतिनिधि वीरचन्द गाँधी थे और थिआसफी के प्रतिनिधी श्रीमती एनी बेसेन्ट तथा चक्रवर्ती थे। इन सब में मजूमदार मेरे पुराने मित्र थे और चक्रवर्ती मेरे नाम से परिचित थे। बड़े भारी जुलूस के बाद हम सब लोग मंच पर श्रेणीबद्ध बैठाये गये। कल्पना करो नीचे एक बड़ा हाँल और ऊपर एक बहुत बड़ी गैलरी, दोनों में छः सात हजार आदमी खचाखच भरे हैं जो इस देश के चुने हुए सुसंस्कृत स्त्री-पुरूष हैं, तथा मंच पर संसार की सभी जातियों के बड़े बड़े विद्वान् एकत्रित हैं। और मुझे, जिसने अब तक कभी समाज में भाषण नहीं दिया, इस विराट् जनसमुदाय में भाषण देना होगा!! उसका उद्घाटन बड़े समारोह से संगीत और भाषणों द्वारा हुआ। तदुपरान्त आये हुए प्रतिनिधियों का एक एक करके परिचय दिया गया और वे सामने आकर अपना भाषण देते थे। निःसन्देह मेरा हृदय धड़क रहा था और जबान सूख रही थी। मैं इतना घबड़ाया हुआ था कि सबेरे बोलने की हिम्मत न हुई। मजूमदार की वक्तृता सुन्दर रही। चक्रवर्ती की तो उससे भी सुन्दर। दोनों के भाषणों में खूब करतल-ध्वनि हुई। वे सब अपने भाषण तैयार करके आये थे। मैं अबोध था और बिना किसी प्रकार की तैयारी के था। किन्तु मैं देवी सरस्वती को प्रणाम करके सामने आया और डा. बॅरोज ने मेरा परिचय दिया। मैंने एक छोटासा भाषण दिया। मैंने इस प्रकार सम्बोधन किया – “अमेरिकानिवासी भगिनी तथा भ्रातृगण !” इसके बाद ही दो मिनट तक ऐसी घोर करतल-ध्वनि हुई कि कान में उँगली देते न बनी। फिर मैंने आरम्भ किया। और जब अपना भाषण समाप्त कर बैठा तो भावावेग से मानो मैं अवश हो गया था। दूसरे दिन सब समाचार-पत्रों में छपा कि मेरी ही वक्तृता उस दिन सब से अधिक हृदयस्पर्शी थी। मेरा नाम अमेरिका भर में फैल गया। महान् टीकाकार श्रीधर ने ठीक ही कहा है, ‘मूकं करोति वाचालं’, अर्थात् जिसकी कृपा मूक को भी धाराप्रवाह वक्ता बना देती है, उस प्रभु की जय हो ! उस दिन से मैं विख्यात हो गया और जिस दिन मैंने हिन्दूधर्म पर अपनी वक्तृता पढ़ी उस दिन तो हाँल में इतनी अधिक भीड़ थी जितनी पहले कभी न हुई थी। एक समाचार-पत्र का कुछ अंश उद्धृत करता हूँ – “केवल महिलाएँ ही महिलाएँ कोने कोने में, जहाँ देखो वहाँ ठसाठस भरी हुई दिखायी देती थीं। अन्य सब वक्तृताओं के समाप्त होते तक वे किसी प्रकार सहिष्णुतापूर्वक विवेकानन्द की वक्तृता की बाट जोहती खड़ी रहीं।” तुम्हारे पास यदि मैं समाचारपत्रों की कतरने भेजूँ तो तुम आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु तुम जानते ही हो कि मैं नाम-यश से घृणा करता हूँ। इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जब कभी मैं मंच पर आया तो करतलध्वनि से मेरा स्वागत किया गया। सभी पत्रों ने मेरी प्रशंसा के पुल बाँध दिये और उनमें जो बड़े ही कट्टर थे उनको भी स्वीकार करना पड़ा कि ‘यह मनुष्य अपनी सुन्दर आकृति, आकर्षक व्यक्तित्व और आश्चर्यजनक वक्तृत्व के कारण सम्मेलन में सर्वप्रधान व्यक्ति है’ – इत्यादि इत्यादी।
अमेरिकावासियों की दया का क्या कहना! मुझे अब किसी वस्तु का अभाव नहीं। मैं सन्तुष्ट हूँ। युरोप जाने के लिए आवश्यक धन मुझे यहाँ से मिल जायगा। इसलिए तुम लोगों को कष्ट सहन कर रुपये भेजने की आवश्यकता नहीं। एक बात पूछनी है – क्या तुम लोगों ने ५०० रुपये एक ही साथ भेजे थे? कुक कम्पनी के पास से मुझे केवल ३० पौण्ड ही मिले हैं। तुमने और महाराज ने अलग अलग रुपये भेजे हैं, परन्तु फिर भी अभी तक मझे कुछ भी रकम नहीं मिली। यदि एक साथ ही भेजे हैं, तो एक बार पूछताछ करना। नरसिंहाचार्य नाम का एक युवक हमारी मण्डली में शामिल हो गया है। पिछले तीन साल वह शहर में इधर उधर घूमता फिरा। घूमता रहा हो या कुछ भी करता रहा हो, उसे मैं चाहता हूँ। यदि तुम उसे जानते हो तो उसका पूर्ववृत्तान्त लिखो। वह तुमको जानता है। जिस वर्ष पैरिस में प्रदर्शनी हुई उस वर्ष वह यूरोप गया था।
मुझे अब कुछ भी अभाव नहीं रहा। शहर के कई अच्छे अच्छे घरों में मेरा प्रवेश हो गया है। मैं सदैव किसी न किसी का अतिथि होकर रहता हूँ। जैसी जिज्ञासा इस जाति के लोगों में है वैसी अन्यत्र नहीं। प्रत्येक वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना इन्हें सदैव अभीष्ट रहता है। और इनकी महिलाएँ तो संसार में सब से अधिक उन्नत हैं। सामान्यतः अमेरिकन पुरुषों की अपेक्षा अमेरिकन महिलाएँ बहुत अधिक सुसंस्कृत हैं। पुरुष तो धन कमाने के लिए आजीवन दासत्व की शृंखला में बँधे रहते हैं, परन्तु नारियाँ सदैव अपनी उन्नति के अवसरों की खोज में रहती हैं। ये लोग बड़े दयालुहृदय और स्पष्टवादी हैं। जिन्हें उपदेश देने की आदत पड़ जाती है वे यहाँ आते हैं और मुझे खेद है कि इनमें से बहुतेरे अधकचेरे निकलते हैं। अमेरिकनों में भी दोष हैं और किस जीति में दोष नहीं हैं? परन्तु मेरा निष्कर्ष यह है – एशिया ने सभ्यता की नींव डाली, यूरोप ने पुरूषों की उन्नति की, और अमेरिका महिलाओं और जनसाधारण की उन्नति कर रहा है। यह महिलाओं और श्रमजीवियों के लिए स्वर्गतुल्य है। अब अमेरिकन की प्रजा तथा नारियों की अपने देश की प्रजा तथा नारियों से तुलना करो – भेद स्पष्ट हो जायगा। अमेरिकन लोग द्रुत गति से उदारमना होते जा रहे हैं। उनकी तुलना उन कट्टर ईसाई मिशनरियों से न करो जो तुम्हें भारतवर्ष में दिखायी देते हैं। यहाँ भी वैसे लोग हैं, पर उनकी संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही है। और यह महान् जाति शीघ्रता से उस आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होती जा रही है, जिसका हिन्दुओं को अभिमान है।
हिन्दुओं को अपना धर्म छोड़ने की आवश्यकता नहीं। उन्हें चाहिए कि धर्म को एक उचित मर्यादा के भीतर सीमित रखें और समाज को उन्नतिशील होने के लिए स्वाधीनता दे दें। भारत के सभी समाज-सुधारकों ने पुरोहितों के अत्याचारों और अवनति का उत्तरदायित्व धर्म के मत्थे मढ़ने की एक भयंकर भूल की और एक दुर्भेद्य गढ़ को गिराने का प्रयत्न किया। नतीजा क्या हुआ? असफलता!! बुद्धदेव से लेकर राममोहन राय तक सब ने जीतिभेद को धर्म का एक अंग माना और जातिभेद के साथ ही धर्म पर भी आघात किया और असफल रहे। पुरोहितगण चाहे कुछ भी कहें, जाति-भेद केवल एक सामाजिक विधान ही है। उसका काम हो चुका, अब तो वह भारतीय वायुमण्डल में दुर्गन्ध फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करता। यह तभी हटेगा जब लोगों को उनका खोया हुआ सामाजिक व्यक्तित्व पुनः प्राप्त हो जायगा। इस देस में जन्म लेनेवाला प्रत्येक व्यक्ति अपने को एक ‘मनुष्य’ समझता है। भारत में जन्म लेनेवाला प्रत्येक व्यक्ति समझता है कि वह समाज का एक दास है। और, उन्नति की एकमात्र सहायक स्वाधीनता है। उसके अभाव में अवनति अवश्यम्भावी है। आधुनिक प्रतिस्पर्धा के युग में जातिविचार अपने आप नष्ट होता जा रहा है। उसका नाश करने के लिए किसी धर्म-विज्ञान की आवश्यकता नहीं। उत्तर भारत में दूकानदारी, जूतों का धन्धा और शराब बनाने का काम करनेवाले ब्राह्मण देखने में आते हैं। इसका कारण? – पारस्परिक स्पर्धा। वर्तमान राज-शासन में किसी भी मनुष्य पर इच्छानुसार कोई भीं व्यवसाय करने की रोक-टोक नहीं। फलतः घोर प्रतियोगिता उत्पन्न हो गयी। अतएव हजारों लोग नीचे पड़े रहने की अपेक्षा समाज के उच्चातिउच्च पद के योग्य बनने और उसे पाने के प्रयत्न में हैं।
मैं जाड़े भर इस देश में रहूँगा। फिर यूरोप जाऊँगा। प्रभु सब प्रबन्ध कर देंगे। तुम उसकी चिन्ता न करो। तुम्हारे प्रेम के लिए कृतज्ञता प्रकट करना मेरे लिए असम्भव है।
प्रतिदिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभु मेरे साथ हैं और मैं उनके पीछे पीछे चल रहा हूँ। उनकी इच्छा पूर्ण हो . . . । हम लोग संसार के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य करेंगे और वे सब निःस्वार्थ भाव से, नाम अथवा यश के लिए नहीं। ‘क्यों?’ – यह प्रश्न करने का हमें अधिकार नहीं; हम को अपना कार्य करते करते प्राण छोड़ने हैं (‘Ours not to reason why, ours but to do and die’)। साहसी बनो और इस बात का विश्वास रखो कि हमारे और तुम्हारे द्वारा महान् कार्य होने हैं। भगवान ने बड़े बड़े कार्य करने के लिए हमें निर्दिष्ट किया है और हम उन्हें करेंगे। उसके लिए तयार रहो, अर्थात् पवित्र, विशुद्ध एवं निःस्वार्थ प्रेमसम्पन्न बनो। दरिद्र, दुःखी और पददलित से प्रेम करो। प्रभु तुम्हारा कल्याण करेंगे।
रामनद के राजा और अन्य बन्धुओं से प्रायः मिलते रहो और उनसे आग्रह करो कि वे भारत के साधारण लोगों के प्रति सहानुभूति रखें। उन्हें बतलाओ कि वे किस प्रकार गरीबों के प्रतिबन्धकस्वरूप हैं और यदि वे प्रजा की उन्नति के लिए तैयार नहीं, तो वे मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं। निर्भय होओ। प्रभु तुम्हारे साथ हैं और वे भारत के करोड़ों भूखों और अशिक्षितों का उद्धार करेंगे। एक रेल्वे का कुली इस देश में तुम्हारे युवकों और राजाओं से अधिक सुशिक्षित है। जिस शिक्षा की हिन्दू ललनाएँ कल्पना तक न कर सकती होंगी, उससे कहीं अधिक शिक्षा यहाँ प्रत्येक अमेरिकन महिला को प्राप्त है। हमें वैसी शिक्षा क्यों न प्राप्त हो? अवश्य होनी चाहिए।
अपने को निर्धन मत समझो। धन ही एकमात्र बल नहीं है; साधुता एवं पवित्रता ही बल है। आओ, देखो, सारे संसार में यह बात सत्य है या नहीं? इति,
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
(९)
(श्रीयुत हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो,
१५ नवम्बर, १८९४
प्रिय दीवानजी साहब,
आपका कृपापत्र मुझे मिला। आपने यहाँ भी मुझे याद रखा, यह आपकी दया है। आपके मित्र नारायण हेमचन्द्र से मेरी भेंट नहीं हुई है। मैं समझता हूँ कि वह अमेरिका में नहीं है। मैंने कई विचित्र दृश्य और ठाट-बाट की चीजें देखीं। आपके यूरोप आने की सम्भावना है, मैं यह जानकर प्रसन्न हुआ। जिस तरह भी हो सके उसका लाभ उठाइये। संसार के दूसरे राष्ट्रों से पृथक् रहना हमारी अवनति का कारण हुआ एवं पुनः सभी राष्ट्रों से मिलकर संसार के प्रवाह में आ जाना ही उसको मिटाने का एकमात्र उपाय है। गति ही जीवन का लक्षण है। अमेरिका एक शानदार देश है। निर्धनों एवं नारियों के लिए यह नन्दनवन-स्वरूप है। इस देश में दरिद्र तो समझिये कोई है ही नहीं और कहीं भी संसार में स्त्रियाँ इतनी स्वतन्त्र, इतनी शिक्षित और इतनी सभ्य नहीं है। वे समाज में सर्वशक्तिमान हैं।
यह एक बड़ी शिक्षा है। संन्यास-जीवन का कोई भी धर्म – यहाँ तक कि अपने रहने का तरीका भी मुझे नहीं बदलना पड़ा, फिर भी इस अतिथिवत्सल देश में हर घर मेरे लिए खुला है। जिस प्रभु ने भारत में मुझे मार्ग दिखाया, क्या वे मुझे यहाँ मार्ग न दिखाते? वे तो दिखा ही रहे हैं! आप कदाचित् यह न समझ सके होंगे कि अमेरिका में एक संन्यासी के आने का क्या काम था, परन्तु यह भी आवश्यक था। क्योंकि संसार में परिचित होने के लिए आप लोगों के पास एक ही अधिकार है – वह है धर्म, और यह आवश्यक है कि हमारे धार्मिक पुरुष आदर्श रूप में परदेशों में भेजे जायें जिससे दूसरे राष्ट्रों को मालूम हो कि भारत अभी भी जीवित है।
प्रतिनिधि रूप से कुछ लोगों को भारत से बाहर सब देशों में जाना चाहिए, कम से कम यह दिखलाने को कि आप लोग बर्बर या असभ्य नहीं हैं। भारत में अपने घर में बैठे बैठे शायद आपको इसकी आवश्यकता न मालूम होती हो, परन्तु विश्वास कीजिये कि आपके राष्ट्र की बहुतसी बातें इस पर निर्भर हैं। और वह संन्यासी जिसमें मनुष्यों के कल्याण करने की कोई इच्छा नहीं, वह संन्यास के अयोग्य है – वह तो पशु ही है!
न तो मैं केवल दृश्य देखनेवाला यात्री हूँ, न निरुद्योगी पर्यटक। यदि आप जीवित रहेंगे तो मेरा कार्य देख पायेंगे और आजीवन मुझे आशीर्वाद देंगे। . . . मैं धर्म-महासभा में बोला था, और उसका क्या परिणाम हुआ यह मैं कुछ समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ जो मेरे पास हैं उनमें से उद्धृत करके लिखता हूँ। मैं स्वयं की डींग नहीं हाँकना चाहता, परन्तु आपके प्रेम के कारण, आपमें विश्वास करके मैं यह अवश्य कहूँगा कि किसी हिन्दू ने अमेरिका को ऐसा प्रभावित नहीं किया। और मेरे आने से यदि कुछ भी न हुआ तो इतना अवश्य हुआ कि अमेरिकनों को यह मालूम हो गया कि भारत में अभी तक ऐसे मनुष्य उत्पन्न हो रहे हैं जिनके चरणों में सभ्य से सभ्य राष्ट्र नीति और धर्म का पाठ पढ़ सकते हैं। क्या आप नहीं समझते कि हिन्दू राष्ट्र को अपने संन्यासी यहाँ भेजने के लिए यह पर्याप्त कारण है? पूर्ण विवरण आपको वीरचन्द गांधी से मिलेगा।
कुछ पत्रिकाओं के अंश मैं नीचे उद्धृत करता हूँ –
“अधिकांश भाषण संक्षिप्त होते हुए भी वाक्पटुत्वपूर्ण थे, परन्तु किसी ने भी धर्म महासभा के भाव और परिमितता का इस ढंग से वर्णन नहीं किया जैसा कि हिन्दू संन्यासी ने। मैं उनका भाषण पूरा-पूरा उद्धृत करता हूँ, परन्तु श्रोतागण पर उनका क्या प्रभाव हुआ, इसके बारे में मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि वे दैवीशक्तिसम्पन्न वक्ता हैं एवं उनका शक्तिमान तेजस्वी मुख तथा उनके गेरुए वस्त्र, उनके उत्साह से भरे हुए वचन तथा उनके अमूल्य लयसम्पन्न वाक्यों से कुछ कम आकर्षक न थे। (यहाँ भाषण विस्तारपूर्वक उद्धृत किया गया है) – “न्यूयार्क क्रिटिक”
“उनकी संस्कृति, उनकी वापटुता, उनके आकर्षक एवं अद्भुत व्यक्तित्व ने हमें भारत की सभ्यता का एक नया आलोक दिया है। उनका दीप्तिमान तेजस्वी मुख, उनकी गम्भीर सुललित वाणी, किसी को तत्काल आकर्षित करनेवाली है, इन दैवलब्ध साधनों की सहायता से उन्होंने गिरजे और क्लबों में इतनी बार उपदेश दिया है कि उनके धर्म से अब हम भी परिचित हो गये हैं। बिना किसी प्रकार के नोट्स की सहायता के ही वे भाषण देते हैं, अपने तथ्य तथा निष्कर्ष को वे अपूर्व तरीके से एवं आन्तरिकता के साथ सम्मुख रखते हैं और उनकी स्वतःस्फूर्त प्रेरणा उनके भाषण को कई बार अपूर्व वाक्पटुता से युक्त कर देती है।”
“निश्चय ही धर्ममहासभा में विवेकानन्द सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। उनका भाषण सुनने के बाद यह मालूम होता है कि इस शिक्षित राष्ट्र को धर्मोपदेशक भेजना कितनी मूर्खता है।” – हेरल्ड (यहाँ का सब से बड़ा समाचार-पत्र)
अब मैं उद्धृत करना समाप्त करता हूँ, नहीं तो आप मुझे कहीं घमण्डी न समझ बैठें। परन्तु आप के लिए इतना आवश्यक था, जो कि प्रायः कूपमण्डूक बने बैठे हैं और संसार दूसरे स्थानों में किस गति से चल रहा है यह देखना भी नहीं चाहते। मेरे उदार मित्र! मेरा मतलब आपसे व्यक्तिशः नहीं है, परन्तु सामान्य रूप से हमारे राष्ट्र से है।
मैं यहाँ वैसा ही हूँ जैसा भारत में था। केवल यहाँ इस उन्नत सभ्य देश में गुणग्राहकता है, सहानुभूति है, जो हमारे अशिक्षित मूर्ख स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। वहाँ हमारे स्वजन हम साधुओं को रोटी का टुकड़ा भी सिसक-सिसककर देते हैं। यहाँ एक व्याख्यान के लिए ये लोग एक हजार रुपया देने को और उस शिक्षा के लिए सदा कृतज्ञ रहने को तैयार हैं।
ये विदेशी लोग मेरा इतना आदर करते हैं जितना कि भारत में आज तक कभी न हुआ। यदि मैं चाहूँ तो अपना सारा जीवन सुख स्वाच्छन्द्य में बिता सकता हूँ, परन्तु मैं संन्यासी हूँ, और “हे भारत, तुम्हारे अवगुणों के होते हुए भी मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।” इसलिए कुछ महीनों के बाद मैं भारत वापस आऊँगा और जो लोग न कृतज्ञता जानते हैं, न गुणों का आदर कर सकते हैं, उन्हीं के बीच में नगर नगर में धर्म का बीज बोता हुआ प्रचार करूँगा, जैसा कि मैं पहले किया करता था।
जब मैं अपने राष्ट्र की भिक्षुक मनोवृत्ति, स्वार्थपरता, गुणग्राहकता का अभाव, मूर्खता तथा अकृतज्ञता की याद करता हूँ और यहाँ की सहायता, अतिथि-सत्कार, सहानुभूति और आदर जो मुझ जैसे दूसरे धर्म के प्रतिनिधि को अमेरिकावासियों ने दिखाया – उससे तुलना करता हूँ तो मैं लज्जित हो जाता हूँ। इसलिए अपने देश से बाहर निकलकर दूसरे देश देखिये एवं स्वयं के साथ उनकी तुलना कीजिये।
अब इन उद्धृत अंशों को पढ़ने के बाद क्या आप समझते हैं कि संन्यासियों को अमेरिका भेजना उपयुक्त नहीं है?
कृपया इसे प्रकाशित न करें। मुझे यहाँ अपकर्म द्वारा अपना नाम करवाने से वैसी ही घृणा है जैसी भारत में थी।
मैं ईश्वर का कार्य कर रहा हूँ और जहाँ वे मुझे ले जायेंगे वहाँ मैं जाऊँगा। ‘मूकं करोति वाचालं’ – इत्यादि; जिनकी कृपा से गूंगा वाचाल बनता है और पंगु पहाड़ लाँघता है, वे ही मेरी सहायता करेंगे। मानवी सहायता की मैं परवाह नहीं करता; यदि ईश्वर उचित समझेंगे तो वे भारत में, अमेरिका में या उत्तरी ध्रुवस्थान में भी मेरी सहायता करेंगे। यदि वे सहायता न करें तो कोई भी नहीं कर सकता। भगवान की सदा जय हो।
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
(१०)
(मद्रासी शिष्यों को लिखित)
द्वारा जार्ज डब्ल्यू हेल,
५४१, डियरबोर्न ऐविन्यू, शिकागो
२४ जनवरी, १८९४
प्रिय मित्रो,
मुझे तुम्हारे पत्र मिले। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मेरे सम्बन्ध में इतनी अधिक बातें भारत में पहुँच गयी हैं। ‘इन्टिरियर’ पत्रिका की समालोचना के बारे में तुमने जो उल्लेख किया है, जानना कि वह सभी अमेरिकावासियों का मत नहीं है। इस पत्रिका के बारे में लोगों को कुछ मालूम नहीं है, और वहाँ के लोग इसे ‘नील नाकवाले प्रेसबिटेरियनों’ की पत्रिका कहते हैं। यह बहुत ही कट्टर सम्प्रदाय है। किन्तु ये ‘नील नाकवाले’ सभी लोग दुर्जन हैं, ऐसी बात नहीं है। जिसका सम्मान कर लोग आदर कर रहे हैं, उसके बारे में समालोचना करके प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही इस पत्र ने ऐसा लिखा था। अमेरिकानिवासीगण एवं बहुतसे पादरीगण मेरा सम्मान करते हैं। किसी प्रसिद्ध व्यक्ति को गाली देकर पत्रिका की जानकारी कराना – ऐसे छल को यहाँ के लोग खूब समझते हैं; एवं इसे यहाँ कोई महत्त्व नहीं देता किन्तु भारत के पादरीगण अवश्य ही इस समालोचना का लाभ उठाकर बदनाम करने का प्रयत्न करेंगे। यदि वे ऐसा करें, तो उन्हें कहना – ‘हे यहूदी, याद रखो, तुम पर ईश्वर का न्याय घोषित हुआ है।’ उन लोगों की पुरानी इमारत की नींव भी ढह रही है; पागल के समान वे लोग कितना भी चिल्लायें, उनका नाश अवश्यम्भावी है। उन पर मुझे दया आती है – प्राच्यदेशवासीगण यहाँ बहु संख्या में आने के कारण भारत में जाकर सुखी जीवन बिताने के उपाय कम होते जा रहे हैं। किन्तु इनके प्रधान पादरियों में से एक भी मेरे विरोधी नहीं है। खैर, जो भी हो, जब तालाब में उतरा हूँ, अच्छी तरह से स्नान करूँगा ही।
उन लोगों के समक्ष अपने धर्म के बारे में जो संक्षिप्त विवरण मैंने पढ़ा था, उसका कुछ अंश एक समाचार-पत्र से काटकर भेज रहा हूँ। मेरे अधिकांश भाषण स्वयंस्फूर्त ही होते हैं। आशा है, इस देश से वापस जाने के पहले उन्हें पुस्तक के रुप में तैयार कर सकूँगा। भारत से किसी प्रकार की सहायता की मुझे आवश्यकता नहीं, यहाँ मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। वरन् तुम लोगों के पास जो धन है, उससे इस संक्षिप्त भाषण को छापकर प्रकाशित करो; एवं भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनुवाद कराकर चारों तरफ इसका प्रचार करो। इससे हमारे देश के मानस-पटल पर हमारे उद्देश्य और कार्यप्रणाली अंकित रहेंगे। साथ ही एक मुख्य विद्यालय की बात एवं उससे भारत की चारों दिशाओं में शाखाएँ स्थापित करने की बात न भूलना। सहायता लाभ के लिए यहाँ मैं प्राणपण से प्रयत्न कर रहा हूँ, तुम लोग भी वहाँ प्रयत्न करो। खूब दृढ़भाव से कार्य करो।. . .
जहाँ तक अमेरिकी महिलाओं का प्रश्न है, उनकी कृपा के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट करने में मैं असमर्थ हूँ। प्रभु उनका भला करें। इस देश के प्रत्येक आन्दोलन की जान महिलाएँ हैं और वे राष्ट्र की समस्त संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं, क्योंकि पुरुष तो अपने ही शिक्षा-लाभ में अत्यधिक व्यस्त रहते हैं।
किडी का पत्र मिला। जाति-भेद रहेगा या जायगा, इस प्रश्न से मुझे कुछ मतलब नहीं है। मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्यजाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उसकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन को दी जाय और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाय। जातिभेद रहना चाहिए या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए या नहीं, मुझे इससे कोई वास्ता नहीं। “विचार और कार्य की स्वतन्त्रता ही जीवन, उन्नति और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है।” जहाँ स्वतन्त्रता नहीं है, उस मनुष्य, उस जाति या राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी।
जाति-भेद हो या न हो, लोकाचार हो या न हो, परन्तु जो मनुष्य या मनुष्य-श्रेणी, जाति, राष्ट्र या सम्प्रदाय किसी व्यक्ति के स्वतन्त्र विचार या कर्म में बाधा डालती है, वह राक्षसी है और उसका नाश अवश्य होगा। परन्तु स्मरण रहे कि वह स्वतन्त्रता किसी को हानि पहुँचानेवाली न होनी चाहिए।
जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि एक ऐसा चक्र-प्रवर्तन कर दूँ, जो कि उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार-द्वार पहुँचा दे। फिर स्त्री-पुरूषों को अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करने दो। हमारे पूर्वजों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग क्या कर रहे हैं। फिर उन्हें अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे किसी विशेष आकार को धारण कर लेंगे। अमेरिकन महिलाओं के सम्बन्ध में मेरा वक्तव्य यही है कि वे मेरी परम हितैषी है, सिर्फ़ शिकागो में ही नहीं वरन् समग्र अमेरिका भर। उनकी सहानुभूति के लिए मैं उनका कितनी हद तक कृतज्ञ हूँ, यह व्यक्त करना मेरे लिए असाध्य है। प्रभु उन्हें आशीर्वाद दें। इस देश में महिलाएँ अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की प्रतिनिधिस्वरूप हैं। पुरूष लोग इतने कार्यरत रहते हैं कि स्वयं की उन्नति के लिए उन्हें समय नहीं मिल पाता। इस देश की महिलाएँ प्रत्येक बड़े बड़े आन्दोलनों की प्राणस्वरूप हैं। . . .
परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान पर श्रद्धा रखो। काम शुरू कर दो। मैं भी शीघ्र ही आ जाऊँगा। “धर्म को बिना हानि पहुँचाये जनता की उन्नति” – इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो। याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु खेद है, उन लोगों के लिए कभी किसी ने कुछ नहीं किया। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं का विवाह करने नें लगे हुए हैं। निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानुभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति विधवाओं को पति मिलने पर निर्भर नहीं वरन् जनता की अवस्था पर निर्भर है। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो? क्या उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक-वृत्ति को नष्ट किये, तुम वापस कर सकते हो? क्या अभिन्नता स्वतन्त्रता, कार्य-कौशल, पौरुष में तुम पश्चिमियों के भी गुरू बन सकते हो? क्या उसी के साथ साथ धर्म-विश्वास और स्वाभाविक धार्मिक वृत्ति में हिन्दुओं की परम मर्यादा पर जमे रह सकते हो? यह हमारा काम है और हम इसे करेंगे ही। तुम सब ने इसी के लिए जन्म लिया है। अपने में विश्वास रखो। दृढ़ विश्वास से बड़े-बड़े कर्मों की उत्पत्ति होती है। हमेशा आगे बढ़ो। मरते दम तक गरीब और पद-दलितों के लिए सहानुभूति रखना, यही हमारा आदर्श-वाक्य है। वीर युवको ! आगे बढ़ो!
शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द
(११)
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो,
२९ जनवरी, १८९४
प्रिय दीवानजी साहब,
आपका पिछला पत्र मुझे कुछ दिन पहले मिला। आप मेरी दुःखिनी माँ एवं भाइयों से मिलने गये थे, यह सुनकर मैं प्रसन्न हुआ। किन्तु आपने मेरे ह्रदय के एकमात्र कोमल स्थान को स्पर्श किया है। दीवानजी, आपको यह जानना चाहिए कि मैं कोई पाषाण-हृदय पशु नहीं हूँ। यदि मैं सारे संसार में किसी से प्रेम करता हूँ तो वह अपनी माता से। फिर भी मैं विश्वास करता था और अब भी करता हूँ कि यदि मैं संसार-त्याग न करता तो जिस महान् आदर्श का, मेरे गुरूदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस उपदेश करने आये थे उसका प्रकाश न होता; और वे नवयुवक कहाँ होते जो आजकल के भौतिकवाद और भोग-विलास की उत्ताल तरंगों को परकोटे की तरह रोक रहे हैं? उन्होंने भारत का बहुत कल्याण किया है, विशेषतः बंगाल का, और अभी तो काम आरम्भ ही हुआ है। परमात्मा की कृपा से ये लोग ऐसा काम करेंगे जिससे जगत् युग-युग तक इन्हें आशीर्वाद देगा। इसीलिए एक ओर तो थे भारत एवं सारे संसार के धर्मों के विषय में मेरे कल्पित स्वप्न, और उन लाखों नर-नारियों के प्रति मेरा प्रेम, जो युगों से डूबते जा रहे हैं, और कोई उनकी सहायता करनेवाला नहीं है – यही नहीं, उनकी ओर तो कोई ध्यान भी नहीं देता है – और दूसरी ओर था मेरे निकटस्थ और प्रिय-जनों को दुःखी करना। मैंने पहला पक्ष चुना, “शेष सब प्रभु करेंगे।” यदि मुझे किसी बात का विश्वास है तो वह यह कि प्रभु मेरे साथ हैं। जब तक मैं निष्कपट हूँ तब तक मेरा विरोध कोई नहीं कर सकता, क्योंकि प्रभु ही मेरे सहायक हैं। भारत में अनेकानेक ऐसे व्यक्ति थे जो मुझे समझ न सके, और वे बेचारे समझते भी कैसे, क्योंकि खाने-पीने की दैनिक क्रिया को छोड़कर उनका ध्यान कभी आगे बढ़ा ही न था। आप जैसे कोई-कोई उदार हृदयवाले मनुष्य मेरा मान करते हैं, यह मैं जानता हूँ। भगवान आपका भला करें। परन्तु मान हो या अपमान, मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिए जन्म लिया है। यही क्या, प्रत्येक नगर में सैकड़ों मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मै चाहता हूँ उन्हें अबाध्य गतिशील तरंगों के समान मैं भारत में सब ओर भेजूँ; और जो लोग दीन, हीन, एवं पददलित हैं, उनके द्वार पर सुख-स्वाच्छन्द्य, नीति, धर्म एवं शिक्षा पहुँचाऊँ। और यह कार्य मैं करूँगा, या मरूँगा।
हमारे लोगों में न विचार है, न गुण-ग्राहकता। इसके विपरीत एक सहस्र वर्ष के दासत्व का जो स्वाभाविक फल है, अर्थात् भीषण ईर्ष्या और सन्देहशील प्रकृति, उसके कारण वे प्रत्येक नये विचार का वैरभाव से विरोध करते हैं। फिर ईश्वर महान् है।
आरती तथा अन्य विषय जिनका आपने उल्लेख किया है – भारत के मठों में सब जगह प्रचलित है, और वेदों में पहला धर्म गुरु की पूजा मानी गयी है। इसमें गुण और दोष दोनों ही पक्ष देखने में आते हैं, परन्तु आपको याद रखना चाहिए कि हम एक अनुपम संघ हैं, और हममें से किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने धार्मिक भाव का दूसरों पर बलपूर्वक आरोप करे। हममें से बहुतसे लोग मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं रखते, परन्तु उन्हें दूसरों की मूर्ति-पूजा का खण्डन करने का भी कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से हमारे धर्म का मुख्य सिद्धान्त टूटता है। फिर ईश्वर भी मनुष्य रूप में, और मनुष्य के द्वारा ही जाना जा सकता है। प्रकाश का स्फुरण सब स्थानों में होता है – अँधेरे से अँधेरे कोने में भी – परन्तु वह दीपक के रूप में ही मनुष्य के सामने प्रत्यक्ष दिखायी देता है। इसी तरह यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है परन्तु हम उसे एक विराट् मनुष्य के रूप में ही देख सकते हैं। ईश्वर के लिए जितने विचार हैं – जैसे कि दयालु, पालक, सहायक, रक्षक – ये सब मानवीय भावात्मक (Anthropomorphic) विचार हैं और साथ ही ये सब विचार किसी मनुष्य में गुँथे रहेंगे, चाहे उसे गुरु मानिये, चाहे ईश्वरी दूत या अवतार। मनुष्य अपनी प्रकृती से बाहर नहीं जा सकता जैसे आप शरीर में से बाहर नहीं कूद सकते। यदि कुछ लोग अपने गुरु की उपासना करें तो इसमें क्या हानि है, विशेषतःजब कि वह गुरु सब ऐतिहासिक ईश्वरी दूतों का सम्मिश्रण करने पर भी उनसे सौ बार अधिक पवित्र हो? यदि ईसा मसीह, कृष्ण और बुद्ध की पूजा करने में कोई हानि नहीं है, तो इस मनुष्य को पूजने में क्या हानि हो सकती है, जिसके विचार या कर्म में अपवित्रता छू तक नहीं गयी है, जिसकी बुद्धि अन्तर्ज्ञान द्वारा सब ईश्वरी दूतों से – जो कि एकपक्षवादी हैं – कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है? दर्शन, विज्ञान या अन्य किसी भी विद्या की थोड़ी भी सहायता न लेकर इसी महापुरुष ने जगत् के इतिहास में सर्वप्रथम सत्य-सम्बन्धी इस तथ्य का प्रचार किया कि सभी धर्म सत्य हैं; एवं यही सत्य वर्तमान समय में संसार में सर्वत्र प्रतिष्ठा लाभ कर रहा है।
परन्तु यह भी अनिवार्य नहीं है; और संघ के भ्रातृगणों में से आपसे किसी ने यह न कहा होगा कि आप गुरु-पूजा अवश्य कीजिये। नहीं-नहींनहीं। परन्तु उसके साथ ही हमें यह भी अधिकार नहीं कि किसी दूसरे की पूजा को रोकें। क्यों? क्योंकि ऐसा करने से इस अद्वितीय समाज का – जिसकी संसार में उपमा नहीं पायी जा सकती – पतन हो जायगा। दस मत और दस विचार के दस मनुष्य मेल से रह रहे हैं। थोड़ा धीरज धरिये, दीवानजी, ईश्वर दयालू और महान् हैं, अभी आप बहुत कुछ देखेंगे।
हम केवल सब धर्मों को सहन ही नहीं करते, वरन् उन्हें स्वीकार भी करते हैं, एवं प्रभु की सहायता से सारे संसार में इसका प्रचार करने का प्रयत्न भी मैं कर रहा हूँ।
प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक राष्ट्र को बड़ा बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं –
(१) सौजन्य की शक्ति में विश्वास।
(२) ईर्ष्या और सन्देह का अभाव।
(३) जो धर्म-पथ पर चलने में, और सत् कर्म करने मे संलग्न हो, उनकी सहायता करना।
क्या कारण था कि हिन्दू राष्ट्र अपनी अद्भुत बुद्धि एवं अन्यान्य गुणों के रहते हुए भी टुकड़े-टुकड़े हो गया? मैं इसका उत्तर दूँगा – ईर्ष्या। कभी भी कोई जाति एक दूसरे से क्षुद्रभाव से ईर्ष्या करनेवाली, या एक दूसरे के सुयश से ऐसी डाह करनेवाली न होगी जैसी कि यह दुर्भाग्य हिन्दू जाति, और यदि आप कभी पश्चिमी देशों में आयें, तो सब से पहले पश्चिमी राष्ट्रों में इसके अभाव का अनुभव करेंगे।
भारत में तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पाँच मिनट के लिए भी कोई काम नहीं कर सकते। हरएक मनुष्य अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है और अन्त में पूरे संगठन की दुरवस्था हो जाती है। भगवन्! भगवन्! कब हम ईर्ष्या करना छोड़ेंगे? ऐसे राष्ट्र में विशेषतः बंगाल में, एक ऐसे दल का निर्माण करना जो कि परस्पर मत-भेद रखते हुए भी अटल-प्रेम के सूत्र में बँधे हुए हों, क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है? यह संघ क्रमशः बढ़ता रहेगा, यह अद्भुत उदारता अविरुद्ध गति से सारे भारतवर्ष में फैल जायगी एवं घोर अज्ञान,द्वेष, जाति-भेद, पुराने अन्ध-विश्वास और ईर्ष्या – जो इस दासों के राष्ट्र की पैतृक सम्पत्ति है – इनके होते हुए भी यह उदार भाव इस राष्ट्र में संजीवनी शक्ति का संचार करेगा।
इस महासमुद्र की सर्वव्यापी निश्चलता (Stagnation) के बीच आप उन इनेगिने उदार प्रकृतिवालों मे से हैं जो चट्टान की तरह खड़े हैं। प्रभु आपका सर्वदा कल्याण करें। इति।
सदैव आपका शुभचिन्तक
विवेकानन्द
(१२)
(श्री सिंगारवेलू मुदलियार ‘किडी’ को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एविन्यु, शिकागो
३ मार्च, १८९४
प्रिय किडी,
मुझे तुम्हारा पत्र मिला था, परन्तु मैं निश्चय नहीं कर सका कि इसका क्या जवाब दूँ। तुम्हारा अन्तिम पत्र पाने से कुछ आश्वासन मिला। . . . मैं तुमसे यहाँ तक सहमत हूँ कि विश्वास से अपूर्व अन्तर्दृष्टि मिलती है और केवल विश्वास से भी मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है; पर उससे संकीर्णता आ जाने और भविष्य में उन्नति होने में बाधा पड़ने की आशंका रहती है।
ज्ञानमार्ग अच्छा है, परन्तु उसके शुष्क वादविवाद में परिणत हो जाने का डर रहता है। भक्ति बड़ी ही उच्च वस्तु है, पर उससे निरर्थक भावुकता पैदा होने के कारण असली चीज ही के नष्ट हो जाने की सभ्भावना रहती है। हमें इन सभी का समन्वय ही चाहिए। श्रीरामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत् में बहुत ही कम आते हैं, परन्तु हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते हैं। यदि हम में से प्रत्येक व्यक्ति उस आदर्श की पूर्णता को प्राप्त न कर सके तो भी हम हर एक व्यक्ति के जीवन में एक एक भाव का इस तरह विकास कर सकते हैं जिससे उसकी एकदेशिता दूर हो जाय – जैसे सब जीवनों को मिलकर एक पूर्ण जीवन गठित हो, और एक में जिस चीज की कमी है वह दूसरे के जीवन से पूरी हो जाय। यदि इससे प्रत्येक के जीवन में समन्वय के भाव का प्रकाश न हुआ तो न सही, पर इससे कई एक व्यक्तियों के समष्टि-जीवन में समन्वय तो हुआ। और इसमें सन्देह नहीं कि यह अन्य प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा उन्नति करने के लिए एक अच्छा मार्ग होगा।
कोई भी धर्म लोगों के जीवन पर तभी असर कर सकता है जब कि वे बिलकुल उसी में लवलीन हो जाय। पर सतर्क रहकर चेष्टा करनी होगी कि इससे किसी संकीर्ण सम्प्रदाय की सृष्टि न होने पाये। इससे बचने के लिए हम अपने को एक असाम्प्रदायिक सम्प्रदाय बनाना चाहते हैं। सम्प्रदाय से जो लाभ होते हैं वे भी उसमें मिलेंगे और साथ ही साथ सार्वभौमिक धर्म का उदार भाव भी उसमें रहेगा।
यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है तो भी उसको हम केवल मनुष्यचरित्र के द्वारा ही जान सकते हैं। श्रीरामकृष्ण के जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ, इसलिए हमें चाहिए कि हम उन्हीं को केन्द्र बनाकर उन पर डटे रहें। हाँ, हर एक आदमी उनको अपने अपने ढंग से ग्रहण करे, इसमें कोई रूकावट नहीं डालनी चाहिए। चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने, परित्राता या आचार्य, या आदर्श पुरुष अथवा महापुरुष – जो जैसा चाहे वह उन्हें उसी ढंग से समझे।
हम न तो सामाजिक साम्यवाद का प्रचार करते हैं, न वैषम्यवाद का। पर इतना कहते हैं कि श्रीरामकृष्ण के पास सभी का समान अधिकार है, और हम विशेष ध्यान इसी पर देते हैं कि उनके शिष्यवर्ग को , क्या विचारों में, क्या कार्य में, पूरी स्वतन्त्रता रहे। समाज अपना धन्धा आप ही सम्हाले। हम किसी भी मतावलम्बी को अलग करना नहीं चाहते। वह एकमात्र निराकार ईश्वरको ही माने या चाहे “सर्वं ब्रह्ममयं जगत्” ही कहे, अद्वैतवादी हो चाहे बहु देवताओं का विश्वासी हो, अज्ञेयवादी हो चाहे नास्तिक – हम किसी को अलग करना नहीं चाहते। पर यदि वह शिष्य होना चाहे तो उसे केवल इतना ही करना होगा कि वह अपना चरित्र ऐसा बनाय जो कि जैसा उदार हो वैसा ही गम्भीर भी।
चरित्र-गठन के बारे में भी हम किसी विशेष नैतिक मत को ही ग्रहण करने के लिए नहीं कहते और न खानपान के सम्बन्ध में ही सभी को एक निर्दिष्ट नियम पर चलने को कहते हैं। हाँ, हम उन कामों को करने से लोगों को मना करते है जिससे औरों को कुछ हानि पहुँचे। धर्माधर्म का इतना ही लक्षण बताकर आगे हम लोगों को अपने ही विचारों पर निर्भर रहने का उपदेश देते हैं। पाप या अधर्म वही है जो उन्नति में बाधा डालता हो, या पतन में सहायता करता हो; और धर्म वही है जिससे श्रीरामकृष्ण के तुल्य बनने में सहारा मिले।
इसके बाद कौनसा मार्ग उपयोगी है, किससे अपना लाभ होगा, यह प्रत्येक व्यक्ति स्वयं सोचे और चुन ले और उसी मार्ग से चले; इस विषय में हम सभी को स्वाधीनता देते हैं। एक की शायद मांस खाने से उन्नति सहज में होगी, और दूसरे की फलमूल खाकर जीने से। जो जिसका भाव हो वह उसी राह पर चले। यदि एक व्यक्ति किसी काम को कर रहा है और दूसरा उसका अनुकरण करके अपने को हानि पहुँचाये तो इस दूसरे व्यक्ति को कुछ अधिकार नहीं है कि वह पहले को गाली दे, फिर औरों को अपने मत पर लाने की जिद्द करने की बात तो दूर रही। हो सकता है कि कुछ मनुष्यों को सहधर्मिणी से उन्नति प्राप्त करने में सहायता हो, परन्तु वही दूसरों के लिए विशेष हानिकारक हो सकती है। इस कारण अविवाहित शिष्य को कोई अधिकार नहीं कि वह विवाहित शिष्य से कहे कि तुम गलत राह पर चल रहे हो, फिर उस भाई को अपने नैतिक आदर्श पर लाने की बात तो अलग रही।
हमें विश्वास है कि सभी प्राणी ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो बादल से ढँके हुए सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दूसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला। हमें विश्वास है कि यही सब धर्मों की नींव है, चाहे कोई उसे जाने या न जाने। और मनुष्य की भौतिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति के सारे इतिहास का मूलतत्त्व यही है कि. एक ही आत्मा भिन्न उपाधि या आवरण के द्वारा अपने को प्रकाशित करती है।
हमें विश्वास है कि यही वेद का चरम रहस्य है। हमें विश्वास है कि हरएक मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात् ईश्वर समझकर, सोचे और उससे उसी तरह अर्थात् ईश्वर-दृष्टि से बर्ताव करे; उसकी किसी तरह भी घृणा या निन्दा करना अथवा उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा करना उसे बिलकुल उचित नहीं। यह केवल संन्यासी का ही नहीं, वरन् सभी नर-नारियों का कर्तव्य है।
आत्मा में लिंग या जाति का भेद नहीं है, न उसमें अपूर्णता ही है।
हमें विश्वास है कि सम्पूर्ण वेद, दर्शन, पुराण और तन्त्र में कहीं भी यह बात नहीं है कि आत्मा में लिंग या वर्ण या जाति का भेद है। इसलिए हम उन लोगों से सहमत हैं जो कहते हैं कि धर्म से समाजसुधार का कुछ सरोकार नहीं! फिर उन्हें भी हमारी इस बात को मानना होगा कि उसी कारण धर्म को भी किसी प्रकार का सामाजिक विधान देने या सब जीवों के बीच वैषम्यवाद का प्रचार करने का कोई अधिकार नहीं, जब कि इस कल्पित और भयानक विषमता को बिलकुल मिटा देना ही धर्म का लक्ष्य है।
अगर कोई कहे कि इस विषमता में से जाकर ही हम अन्त में समत्व और एकत्व को प्राप्त कर लेंगे तो हमारा उत्तर यह है कि वही धर्म जिसकी दुहाई देकर ये बातें कहते हैं, बारम्बार कहता है कि कीचड़ से कीचड़ नहीं धुल सकता। विषमता से समता को पहुँचना वैसा ही है जैसा कि बुरे कामों के द्वारा सच्चरित्र बनना।
सामाजिक विधान समाज की नाना प्रकारकी दशाओं के द्वन्द्व से धर्म के अनुमोदन पर बने हैं। धर्म ने यह भारी भूल की कि उसने सामाजिक विषयों में हाथ डाला। फिर अब वह धोखा देकर कहने लगा है कि समाजसुधार से धर्म का क्या मतलब ? ऐसा कहकर धर्म अपना खण्डन आप ही कर रहा है। हाँ, अब हमें इस बात की आवश्यकता हो रही है कि धर्म समाज-सुधार में हाथ न डाले, पर इसीलिए हम यह भी कह देते है कि धर्म समाज का व्यवस्थापक न बने, कम से कम वर्तमान समय में तो कदापि इसकी चेष्टा न करे। औरों के अधिकार पर हाथ मत डालो, अपनी सीमा के भीतर रहो, तभी सब ठीक हो जायगा।
(१) शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता का विकास करना जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
(२) धर्म का अर्थ है उस ब्रह्मत्व का विकास करना जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रूकावटें हटा देना ही है। जैसा मैं सर्वदा कहा करता हूँ कि औरों के अधिकारों पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए – तभी सब ठीक हो जायगा। अर्थात् हमारा कर्तव्य है रास्ता साफ कर देना – शेष सब ईश्वर ही करते हैं।
इसलिए तुम्हें ये बातें विशेषकर याद रखनी चाहिए, क्योंकि मैं देखता हूँ कि तुम्हें रातदिन यह बात खटकती रहती है कि धर्म का केवल आत्मा से ही काम है, सामाजिक विषयों से इसका कुछ सम्बन्ध नहीं। तुम्हें यह भी सोचना चाहिए कि जिस युक्ति के बल से तुम अब धर्म को समाजसुधार से ही अलग कर रहे हो, वही युक्ति धर्म की उस अनधिकार-चर्चा पर दोष देती है जिससे धर्म पहले से ही समाज के लिए विधान बनाकर अनर्थ कर बैठा है। अब धर्म को समाज से अलग करने की चेष्टा ऐसी ही है कि मानो किसी आदमी ने जबर-दस्ती किसी दूसरे आदमी की जमीन छीन ली; और जब वह अपनी जमीन वापस लेने की कोशिश करने लगे तो पहला आदमी रोते हुए मनुष्य मात्र के अधिकार की पवित्रता की घोषणा करे!
पुरोहितों को समाज की प्रत्येक छोटी छोटी बात पर दस्तन्दाजी करने की क्या आवश्यकता थी? इसीलिए तो लाखों आदमी अब कष्ट भोग रहे हैं।
तुमने मांस खानेवाले क्षत्रियों की बात उठायी है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खायँ, या न खायँ वे ही हिन्दूधर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं जिनको तुम महत् और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किसने लिखे थे? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्याससूत्र पढ़ो, या किसी से सुन लो। गीता में मुक्ति की राह पर सभी नरनारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दयारूपी नदी में बाधा खड़ी हो जायगी? अगर वह ऐसा ही है तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं! खैर, यह दिल्लगी की बात जाने दो, प्यारे, तुमसे मुझे यही कहना है कि इस पत्र में मैंने तुमको वह प्रणाली इंगित कर दी है जिससे तुम्हें अपने विचार को नियमित करना होगा।
मुझसे कुछ आशा मत करना। मैं तुमको पहले ही लिख चुका। और तुमसे पहले ही कह दिया है कि मुझे दृढ़ विश्वास है कि स्वदेशियों के द्वारा ही भारत की उन्नति होगी। इसीलिए कहता हूँ कि हे स्वदेशवासी युवको, क्या तुममें से कुछ लोग रामकृष्ण को केन्द्र बनाकर इस नये भाव में एकदम मस्त हो सकते हो? सामग्री इकट्ठी कर श्रीरामकृष्ण की एक छोटीसी जीवनो लिखो। सचेत रहना कि उसमें कोई सिद्धाई घुसने न पाये, अर्थात् वह जीवनी इस ढंग से लिखी जाय कि वह उनके उपदेशों का एक उदाहरण बन जाय। केवल उनकी ही बातें उसमें रहें। खबरदार मुझको या किसी और जीवित व्यक्ति को उसमें मत लाना। तुम्हारा मुख्य उद्देश होगा उनकी शिक्षाओं को जगत् में फैलाना, और वह जीवनी उन्हीं की उदाहरण होगी। उनके जीवन की अन्यान्य घटनाएँ साधारण लोगों के लिए नहीं हैं। मैं खुद अयोग्य होने पर भी मेरे ऊपर एक यह विशेष काम था कि जो रत्न की पेटी मुझे सौंपी गयी थी मैं उसे मद्रास में लाकर तुम्हारे हाथों में दे दूँ। और तुम्हें ही क्यों दूँ? क्योंकि जो लोग कपटी, द्वेषपूर्ण, गुलाम-स्वभाववाले कापुरुष हैं और जिन्हें केवल जड़ वस्तुओं पर विश्वास है, वे कभी कुछ नहीं कर सकते। ईर्ष्या ही हमारे दाससुलभ जातीय चरित्र का धब्बा है। औरों का तो क्या कहना, स्वयं सर्वशक्तिमान ईश्वर भी इस ईर्ष्या के कारण हमारा कुछ भला नहीं कर सकता। . .
मेरे बारे में समझो कि मुझे जो कुछ करना था वह सब मैं कर चुका – अब मैं मर गया; यही समझो कि सब कामों का भार तुम्हीं पर है। मद्रासवासी युवको, समझो कि तुम्हीं इस काम के लिए विधाता से भेजे हुए हो। तुम काम में लग जाओ, ईश्वर तुम्हारा भला करें। मुझे छोड़ दो, मुझे भूल जाओ, केवल श्रीरामकृष्ण का प्रचार करो, उनके उपदेशों औंर उनके जीवन का प्रचार करो। किसी आदमी या समाज के विरुद्ध कुछ मत कहना। जातिभेद के पक्ष में या विरुद्ध कुछ मत कहना, और किसी सामाजिक कुरीति के विरुद्ध भी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। केवल लोगों से यही कहो कि किसी के अधिकार पर हस्तक्षेप मत करो – बस, सब ठीक हो जायगा।
साहसी, दृढ़ निष्ठावाले और प्रेमी युवको, तुम सब को मेरा आशिर्वाद।
तुम्हारा स्नेही,
विवेकानन्द
(१३)
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
द्वारा जार्ज डब्ल्यू हेल,
५४१, डियरबोर्न एविन्यू, शिकागो,
१९ मार्च, १८९४
प्रिय शशि,
इस देश में आने के बाद मैंने तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा, पर हरिदास भाई(१) के पत्र से सब समाचार मालूम हुए। गिरीशचन्द्र घोष(२) और तुमने हरिदास भाई की अच्छी खातिर की, यह ठीक ही हुआ।
इस देश की-सी महिलाएँ दुनिया भर में नहीं हैं। वे कैसी पवित्र, स्वावलम्बी और दयावती है। महिलाएँ ही यहाँ की सब कुछ हैं। विद्या, बुद्धि आदि सभी उन्हीं में हैं। “या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेषु” (जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं लक्ष्मीरूपिणी हैं) इसी देश में हैं, और “पापात्मनां हृदयेष्वलक्ष्मीः” (पापियों के हृदय में अलक्ष्मीरूपिणी हैं) हमारे यहाँ हैं – बस यही समझ लो। यहाँ की महिलाओं को देखकर तो मेरे होश उड़ गये। “त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्री” (तुम्हीं लक्ष्मी हो, तुम्हीं ईश्वरी हो, तुम्हीं लज्जारूपिणी हो) इत्यादि। “या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता” (जो देवी सब प्राणियों में शक्तिरूप से विराजती हैं) इत्यादी। यहाँ की बर्फ जैसी सफेद है वैसी शुद्ध मनवाली हजारों नारियाँ यहाँ हैं। फिर अपने देश की दस वर्ष की उम्र में बच्चों को जन्म देनेवाली बालिकाएँ!!! प्रभु, मैं सब समझ रहा हूँ। हे भाई, “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” (जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं) – वृद्ध मनु ने कहा है। हम महापापी हैं; स्त्रियों को ‘घृणित कीड़ा’, ‘नरक का द्वार’ इत्यादि कहकर हम अधःपतित हुए हैं। बाप रे बाप! कैसा आकाश-पाताल का अन्तर है! “याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात्।” (जहाँ जैसा उचित हो, ईश्वर वहाँ वैसा कर्मफल का विधान करते हैं। – ईश उप. ) क्या प्रभु झूठी गप्प से भूलनेवाले हैं? प्रभु ने कहा है, “त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी” (तुम्हीं स्त्री हो और तुम्ही पुरुष; तुम्ही कुँवारे हो और तुम्ही क्वाँरी। – श्वेताश्वर उप. ) इत्यादि और हम कह रहे हैं, “दूरमपसर रे चण्डाल” (ऐ चण्डाल, दूर हट) “केनैषा निर्मिता नारी मोहिनी” (किसने इस मोहिनी नारी को बनाया है?) इत्यादि। दक्षिण भारत में उच्च जातियों का नीच जातियों पर क्या ही अत्याचार मैंने देखा है! मन्दिरों में देव-दासियों के नृत्य की ही धूम मची है! जो धर्म गरीबों का दुःख नहीं मिटाता, मनुष्य को देवता नहीं बनाता, क्या वह भी धर्म है? क्या हमारा धर्म धर्म कहलाने योग्य है? हमारा तो छूतमार्ग है – सिर्फ़ “मुझे मत छुओ”, “मुझे मत छुओ।” हे भगवन्! जिस देश के बड़े खोपड़ीवाले आज दो हजार वर्षं से सिर्फ़ यही विचार कर रहे हैं कि दाहिने हाथ से खाऊँ या बायें हाथ से, पानी दाहिनी ओर से लूँ या बायीं और से, . . . उनकी अधोगति न होगी तो किसकी होगी? “कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।” (सभी के सोने पर भी काल जागता ही रहता है, काल को कोई नहीं पार कर सकता।) ईश्वर सब जानते हैं, भला उनकी आँखों में धूल कौन झोंक सकता है?
जिस देश में करोंड़ो मनुष्य महुए के फूल खाकर दिन गुजारते हैं, और दस बीस लाख साधु और दस बारह करोड़ ब्राह्मण उन गरीबों का खून चूसकर पीते हैं और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, क्या वह देश है या नरक? क्या वह धर्म है या पिशाच का नृत्य? भाई, इस बात को गौर से समझो – मैं भारतवर्ष को घूम-घामकर देख चुका और इस देश को भी देखा – क्या बिना कारण के कहीं कार्य होता है? क्या बिना पाप के सजा मिल सकती है?
सर्वशास्त्रपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्॥
– “सब शास्त्रों और पुराणों में व्यास के ये दो वचन हैं – परोपकार से पुण्य होता है और पर-पीड़न से पाप।”
क्या यह सच नहीं है?
भाई, यह सब देखकर – खासकर देश का दारिद्र्य औंर अज्ञता देखकर – मुझे नींद नहीं आती। मैंने एक योजना सोची तथा उसे कार्यान्वित करने का मैंने दृढ़ संकल्प किया। कन्याकुमारी में माता कुमारी के मन्दिर में बैठकर, भारतवर्ष की अन्तिम चट्टान पर बैठकर, मैंने सोचा कि हम जो इतने संन्यासी घूमते फिरते हैं और लोगों को दर्शनशास्त्र की शिक्षा दे रहे हैं, यह सब निरा पागलपन है। क्या हमारे गुरुदेव नहीं कहा करते थे कि खाली पेट से धर्म नहीं होता? वे जो गरीब जानवरों का-सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं उसका कारण अज्ञान है। हम युग युग से उनका खून चूसकर पीते आये हैं और उनको पैरों से कुचला है।
कल्पना करो, . . . यदि कोई निःस्वार्थ परोपकारी संन्यासी गाँव गाँव विद्यादान करते फिरें और भाँति भाँति के उपाय से मानचित्र, कैमेरा, भूगोलक आदि के सहारे चण्डाल तक सब की उन्नति के लिए घूमें तो क्या इससे समय पर मंगल होगा या नहीं? (ये सब संकल्प मैं इतने छोटेसे पत्र में नहीं लिख सकता) बात यह है कि ‘यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न आये तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास जायगा।’ (अर्थात् यदि गरीब के लड़के विद्यालयों में न आ सकें तो उनके घर पर जाकर उन्हें सिखाना होगा।) गरीब लोग इतने बेहाल हैं कि वे स्कूलों और पाठशालाओं में नहीं आ सकते। और कविता आदि पढ़कर उन्हें कोई लाभ नहीं। हमारी जाति अपनी स्वतन्त्र सत्ता खो बैठी है और यही भारत की सारी आपत्ति का कारण है। हमें जाति को उसकी खोई हुई स्वतन्त्र सत्ता (Individuality) वापस देनी ही होगी और निम्नजातियों को उठाना होगा। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी ने उनको पैरोंतले रौंदा है। उनको उठानेवाली शक्ति भी अन्दर से अर्थात् सनातनमार्गी हिन्दुओं से ही आयेगी प्रत्येक देश में बुराइयाँ धर्म के कारण नहीं, बल्कि धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान रहती हैं। अतः धर्म का कोई दोष नहीं, दोष मनुष्य का है।
इसे करने के लिए पहले लोग चाहिए, फिर धन। मेरे गुरुदेव की कृपा से मुझे हरएक शहर में दस पन्द्रह आदमी मिलेंगे। मैं धन की चिन्ता में घूमा, पर भारतवर्ष के लोग भला धन से सहायता करेंगे!!. . . वे तो स्वार्थपरता की मूर्ति हैं – भला वे देंगे! इसलिए मैं अमेरिका आया हूँ; स्वयं धन कमाऊँगा, और तब देश लौटकर अपने जीवन के इस एकमात्र ध्येय की सिद्धि के लिए अपना शेष जीवन निछावर कर दूँगा।
जैसे हमारे देश में सामाजिक गुणों का अभाव है, वैसे यहाँ धर्म का अभाव है। मैं इनको धर्मदान कर रहा हूँ और ये मुझे धन दे रहे हैं। कहाँ तक मेरा उद्देश्य सफल होगा यह तो मैं नहीं जानता।. . . ये लोग कपटी नहीं और इनमें ईर्ष्या बिलकुल नहीं हैं। मैं किसी भी भारतवासी के भरोसे नहीं हूँ। स्वयं प्राणपण चेष्टा से अर्थ संग्रह करके अपना उद्देश सफल करूँगा, अथवा उसी के लिए मर मिटूँगा। “सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति।” (जब मृत्यु निश्चित है तो किसी अच्छे काम के लिए मरना ही बेहतर है।)
शायद तुम सोचोगे कि क्या असम्भव बातें कर रहा है! तुम्हें मालूम नहीं कि मेरे भीतर क्या है। यदि मेरे उद्देश की सफलता के लिए तुममें से कोई मेरी सहायता करे, तो उत्तम ही है, नहीं तो गुरुदेव मुझे पथ दिखायेंगे। इति। श्रीश्रीमाताजी को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम कहना। उनके आशीर्वाद से मेरा कुशल-मंगल है।. . . यह बात सभी को कहना, सभी को पूछना – क्या सभी कोई ईर्ष्या त्यागकर एकत्र रह सकेंगे या नहीं? यदि नहीं रह सकते, तो जो ईर्ष्या किये बिना नहीं रह सकता उसे घर वापस चले जाना ही अच्छा होगा, इससे सभी का भला होगा। हम ईर्ष्या छोड़कर इकट्ठे नहीं रह सकते – यही हमारा जातीय दोष है! वह दोष इस देश में नहीं है, इसी से ये इतने बड़े हैं।
हम जैसे कूपमण्डूक दुनिया भर में नहीं हैं। कोई भी नयी चीज किसी देशसे आये तो अमेरिका उसे सब से पहले अपनायेगा। और हम? अजी, हमारे ऐसे ऊँचे खानदानवाले दुनिया में और हैं ही नहीं! हम तो “आर्यवंशी” जो ठहरे!! किमधिकमिति –
विवेकानन्द
[१] जूनागढ़ के भूतपूर्व दीवान। इन्होंने देशीय राजाओं से स्वामीजी का परिचय करा दिया था।
[२] भगवान श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग अनुगत गृही शिष्य; बंगाल के प्रसिद्ध नाटककार और अभिनेता।
(१४)
(आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
शिकागो,
२८ मई, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
. . . शिक्षित युवकों पर प्रभाव डालो और उनको इकट्ठा कर एक संघ बनाओ। बड़े बड़े काम केवल पूर्ण स्वार्थत्याग से ही बन सकते हैं। स्वार्थ की आवश्यकता नही, न नाम की, न यश की – तुम्हारे भी नहीं, मेरे भी नहीं, यहाँ तक कि हमारे गुरुदेव के भी नहीं। जिससे उद्देश्य एवं लक्ष्य, कार्य में परिणत हो जाय उसी का प्रयत्न करो। ऐ मेरे साहसी, महान् सदाशय बच्चो! काम में जी-जान से लग जाओ। नाम, यश अथवा अन्य तुच्छ विषयों के लिए पीछे मत देखो। स्वार्थ को बिलकुल त्याग दो और कार्य करो। याद रखना – “तृणैर्गुणत्वमापन्नेर्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः” – अर्थात् बहुतसे तिनकों को एकत्र करने से रस्सी बन जाती है जिससे कि मतवाला हाथी बँध सकता है। तुम सब पर भगवान का आशीर्वाद बरसे। उनकी शक्ति तुम सब के भीतर आये। मुझे विश्वास है कि उनकी शक्ति तुममें वर्तमान है ही। वेद कहते हैं “उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत” – उठो, जागो, और लक्ष्य पर पहुँचे बिना मत ठहरो। जागो, जागो, लम्बी रात बीत रही है, सूर्योदय का प्रकाश दिखाई दे रहा है। उँची तरंग उठ रहीं है, उसका भीषण वेग किसी से न रुक सकेगा। यदि मुझे तुम्हारे पत्रों का उत्तर देने में देर हो जाय तो दुःखित या निराश न होना। लिखने में क्या फल है? उत्साह! प्यारे, उत्साह! प्रेम! बच्चो, प्रेम! विश्वास और श्रद्धा! अगर ये रहे तो कुछ डर नहीं। भय ही सब से बड़ा पाप है।
सब को मेरा आशीर्वाद। मद्रास के जिन महाशयों ने हमारे कार्य में सहायता की थी उन सभी को मेरी अनन्त कृतज्ञता और प्रेम। परन्तु मेरी उनसे प्रार्थना है कि वे काम में शिथिलता न करें; चारों ओर भावों को फैलाते रहो। घमण्डी न होना। सब को हठ से किसी संकीर्ण मत में लाने की कोशिश कभी मत करो। किसी मतविशेष के विरुद्ध भी कुछ मत करना। हमारा काम केवल यही है कि हम अलग अलग रासायनिक पदार्थों को एक साथ रख दें। प्रभु ही जानते हैं कि किस तरह और कब वे मिलकर दाने बन जायेंगे। सर्वोपरि, मेरी या अपनी सफलता पर घमण्ड न करना, अभी बड़े बड़े काम करने बाकी हैं। भविष्य में होनेवाली सिद्धि की तुलना में यह बहुत तुच्छ है। विश्वास रखो, विश्वास रखो – प्रभु की आज्ञा है कि भारत की उन्नति अवश्य ही होगी और साधारण तथा गरीब लोग सुखी होंगे और इसलिए प्रसन्न हो कि तुम्हीं लोग उनका कार्य करने के लिए चुने हुए यन्त्र हो। धर्म की बाढ़ आ गयी है। मैं देखता हूँ कि वह दुनिया को बहा ले जा रही है और कोई भी वस्तु उसको रोक नहीं सकती – वह अनन्त और सर्वग्रासी है। तुम सभी आगे बढ़ो, सब की शुभ इच्छा उसके साथ मिलाओ, सभी हाथ उसके मार्ग की बाधाएँ हटा दें। जय! प्रभु की जय!
श्री सुब्रह्मण्य अय्यर, कृष्णस्वामी अय्यर, भट्टाचार्य और मेरे अन्यान्य मित्रों को मेरा आन्तिरिक प्रेम और श्रद्धा कहना। कहना कि यद्यपि अवकाश न मिलने से मैं उनको कुछ लिख नहीं सकता हूँ तो भी मेरा हृदय उनके प्रति बहुत ही आकृष्ट है। मैं उनका ऋण कभी नहीं चुका सकूँगा। प्रभु उन सब को आशीर्वाद दें।
मुझे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं है। तुम लोग कुछ धन इकट्ठा कर एक कोष बनाने का प्रयत्न करो। शहर में जहाँ गरीब से गरीब लोग रहते हैं वहाँ एक मिट्टी का घर और एक हाल बनाओ। कुछ मैजिक लैण्टर्न, थोड़े से नक्शे, ग्लोब और रासायनिक पदार्थ इकट्ठा करो। हररोज शाम को वहाँ गरीबों को – यहाँ तक कि चण्डालों को – एकत्रित करो। पहले उनको धर्म के उपदेश दो, फिर मैजिक लैण्टर्न और दूसरे पदार्थो के सहारे ज्योतिष, भूगोल आदि बोलचाल की भाषा में सिखाओ। एक अति तेजस्वी युवक-दल गठन करो और अपनी उत्साहाग्नि उनमें जला दो। धीरे धीरे इस दल को बढ़ाते रहो – धीरे धीरे उसकी सीमा बढने दो। तुम लोगों से जितना हो सके करो। जब नदी में कुछ पानी नहीं रहेगा तभी पार होंगे, ऐसा सोचकर बैठे मत रहो! समाचारपत्र और मासिकपत्र आदि चलाना है तो ठीक, परन्तु बहुत देर तक चिल्लाने और कलम घिसने की अपेक्षा थोड़ासा सच्चा काम कहीं बढ़कर है। भट्टाचार्य के घर पर एक सभा बुलाओ और कुछ धन जमाकर ऊपर कही हुई चीजें खरीदो। एक कुटिया किराये पर लो और काम में लग जाओ। यही मुख्य है; और पत्रिका आदि गौण साधन हैं। जिस तरह हो सके, साधारण गरीबों की उन्नति अवश्य ही करनी है। कार्य का आरम्भ बहुत मामूली हुआ, यह सोचकर डरो मत। साहस करो। नेता बनना मत चाहो – सेवा करते रहो। नेता बनने की इस पाशविक प्रवृत्ति ने जीवनरूपी समुद्र में बहुतसे बड़े बड़े जहाजों को डुबा दिया है। इस विषय में सावधान रहना, अर्थात् मृत्यु तक को तुच्छ समझकर निःस्वार्थ हो जाओ और काम करो। मुझे जो जो कहना था सब तुमको लिख नहीं सका। ऐ वीर बालको! प्रभु तुम्हें सब समझा देंगे। कार्य में लग जाओ। ऐ प्यारे बच्चो! अब देर करने का अवसर नहीं है। प्रभु की जय हो। किडी को मेरा प्रेम कहना। मुझे सेक्रेटरी साहब का पत्र मिल गया है।
शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द
(१५)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एविन्यू,
शिकागो, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
तुम्हारा पत्र अभी मिला। . . . इस देश में दो तीन वर्ष तक व्याख्यान देने से धन संग्रह किया जा सकता है। मैंने कुछ यत्न किया है और यद्यपि यहाँ जनसाधारण में मेरे काम का बहुत सम्मान है, फिर भी मुझे यह काम अत्यन्त अरुचिकर और मन को निम्न स्तर पर लानेवाला प्रतीत होता है। इसलिए, हे वत्स, मैंने निश्चय किया है कि इस ग्रीष्म ऋतु में ही यूरोप होते हुए भारत वापस लौट जाऊँगा – इसके खर्च के लिए मेरे पास यथेष्ट धन है – “उनकी इच्छा पूर्ण हो।”
भारतीय समाचार-पत्रों के विषय में जो तुम कहते हो, वह मैंने पढ़ा तथा उसकी आलोचना भी। उनका यह छिद्रान्वेषण स्वाभाविक ही है। प्रत्येक दास-जाति का मुख्य दोष ईर्ष्या होता है। ईर्ष्या और मेल का अभाव ही पराधीनता उत्पन्न करता है और उसे स्थायी बनाता है। इस कथन की सचाई तुम नहीं समझ सकते हो, जब तक भारत से बाहर न जाओ। पाश्चात्यवासियों की सफलता का रहस्य यही सम्मिलन-शक्ति है, और उसका आधार है परस्पर विश्वास और गुणग्रहण। जितना ही कोई राष्ट्र निर्बल या कायर होगा, उतना ही यह अवगुण अधिक प्रकट होगा। . . . परन्तु मेरे पुत्र, तुम्हें पराधीन जाति से कुछ आशा न रखनी चाहिए। प्रायः मामला निराशाजनकसा ही है, फिर भी इसे मैं तुम सभी के समक्ष स्पष्ट रूप से कहता हूँ। सदाचार-सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्यत् उन्नति के लिए जो बिलकुल चेष्टा नहीं करते और भलाई करनेवाले को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं – ऐसे मृत जड़-पिण्डों के भीतर क्या तुम प्राण-संचार कर सकते हो? क्या तुम उस वैद्य की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उद्दण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने को कोशिश करता हो? – सम्पादक के सम्बन्ध में मेरा यही वक्तव्य है कि हमारे गुरुदेव से उन्हें थोड़ी डाँट-फटकार मिली थी, इसलिए वे हमारी छाया से भी दूर भागते हैं। अमेरिकन और यूरोपियन विदेश में अपने देशवासी की हमेशा सहायता करेगा, किन्तु कोई हिन्दू, विशेषतः कोई बंगाली, अपने देशवासी को अपमानित होते देखकर हर्षित होता है।
मैं फिर तुम्हें याद दिलाता हूँ “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” – “तुम्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं”। चट्टान के समान दृढ़ रहो। सत्य की हमेशा जय होती है। श्रीरामकृष्ण की सन्तान निष्कपट एवं सत्यनिष्ठ रहें, और शेष सब कुछ ठीक हो जायेगा। कदाचित् हम लोग उसका फल देखने के लिए जीवित न रहेंगे; परन्तु जैसे इस समय हम जीवित हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है, वैसे ही शीघ्र या विलम्ब में इसका फल हमें निःसन्देह प्राप्त होगा। भारत को नव-विद्युत्शक्ति की आवश्यकता है, जो जातीय धमनी में नवीन बल उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है और होगा। निःस्वार्थ भाव से काम करने में सन्तुष्ट रहो और अपनी आत्मा को धोखा न दो। पूर्ण रूप से शुद्ध, दृढ़ और निष्कपट रहो, शेष सब ठीक हो जायेगा! अगर तुमने श्रीरामकृष्ण की सन्तान में कोई विशेषता देखी है, तो वह यह है – वे सम्पूर्णतया निष्कपट हैं। यदि मैं ऐसे सौ आदमी भी भारत में छोड़ जा सकूँ तो मेरा काम पूरा हो जायेगा और मैं शान्ति से मर सकूँगा। परन्तु क्या श्रेय है, यह परमात्मा ही जानते हैं। मूर्ख लोगों को व्यर्थ बकने दो। हम न तो सहायता ढूँढ़ते हैं, न उसे अस्वीकार करते हैं – हम तो उस परम पुरुष के दास हैं। क्षुद्र मनुष्यों के तुच्छ यत्न हमारी दृष्टि में न आने चाहिए। आगे बढ़ो! सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ। सत्य का एक शब्द भी लोप नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल तक चाहे कूड़े के नीचे भले ही दबा पड़ा रहे, परन्तु शीघ्र हो या देर से हो, वह प्रकट होगा ही। सत्य अनश्वर है, गुण अनश्वर है, पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोल चेले नहीं चाहिए। वत्स, दृढ़ रहो – कोई आकर तुम्हारी सहायता करेगा इसका भरोसा न करो, सभी मानवी सहायता की अपेक्षा क्या ईश्वर अनन्तगुने शक्तिमान नहीं हैं? पवित्र बनो, ईश्वर पर विश्वास रखो, हमेशा उन पर निर्भर रहो – फिर तुम्हारा सब ठीक हो जायेगा – कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ कर न सकेगा। अगले पत्र में और भी विस्तारपूर्वक लिखूँगा।
मैं सोच रहा हूँ, इस ग्रीष्मऋतु में यूरोप जाऊँगा एवं शीतऋतु के प्रारम्भ में भारत वापस लौटूँगा। बम्बई में उतरकर शायद राजपूताना जाऊँ, वहाँ से फिर कलकत्ता। कलकत्ते से फिर जहाज द्वारा मद्रास आऊँगा। आओ, हम प्रार्थना करें “तमसो मा ज्योतिर्गमय” – “कृपामयी ज्योति, रास्ता दिखाओ” – और अन्धकार में से एक किरण दिखायी देगी, पथ-दर्शक कोई हाथ आगे बढ़ आयेगा। मैं हमेशा तुम्हारे लिए प्रार्थना करता हूँ, तुम मेरे लिए करो। भारत के करोड़ों पददलितों के लिए, जो दारिद्र्य, पुरोहिताई के छल तथा प्रबलों के अत्याचारों से पीड़ित हैं, दिनरात प्रत्येक आदमी प्रार्थना करे। सर्वदा उनके लिए प्रार्थना करो। मैं धनवान और उच्च श्रेणी की अपेक्षा इन पीड़ितों को ही धर्म का उपदेश देना पसन्द करता हूँ। मैं न कोई तत्त्व-जिज्ञासु हूँ, न दार्शनिक हूँ और न सिद्धपुरुष हूँ। परन्तु मैं निर्धन हूँ और निर्धनों से प्रेम करता हूँ। इस देश में जिन्हें गरीब कहा जाता है उन्हें देखता हूँ – भारत के गरीबों की तुलना में इनकी अवस्था अच्छी होने पर भी यहाँ कितने लोग उनसे सहानुभूति रखते हैं! भारत में और यहाँ महान् अन्तर है। बीस करोड़ नर-नारी जो सदा गरीबी और मूर्खता में फँसे हैं, उनके लिए किसका हृदय रोता है? उनके उद्धार का क्या उपाय है? कौन उनके दुःख में दुखी है? वे अन्धकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, उन्हें शिक्षा नहीं प्राप्त होती है – कौन उन्हें प्रकाश देगा, कौन उन्हें द्वार द्वार शिक्षा देने के लिए घूमेगा? ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं, ये ही तुम्हारे देवता बनें – ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरन्तर इनके लिए सोचो, इनके लिए काम करो, इनके लिए निरन्तर प्रार्थंना करो – प्रभु तुम्हें मार्ग दिखायेंगे। उसे मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिए द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। आओ, हम लोग अपनी इच्छा-शक्ति को ऐक्य भाव से उनकी भलाई के लिए निरन्तर प्रार्थना में लगायें। हम अनजान, बिना सहानुभूति के, विलापरहित, बिना सफल हुए मर जायेंगे, परन्तु हमारा एक भी विचार नष्टे न होगा। वह कभी न कभी फल लायेगा। मेरा हृदय इतना भरपूर हो गया है कि मैं अपने भावों को व्यक्त नहीं कर सकता; तुम्हें यह विदित है, तुम उसकी कल्पना कर सकते हो। जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं हरएक आदमी को विश्वास-घातक समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु आज उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता! वे लोग, जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाठबाट से अकड़कर चलते हैं, वे उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए हैं यदि कुछ न करें, तो वे लोग घृणा के पात्र हैं। हे भ्रातृगण, हम लोग गरीब हैं, हम लोग नगण्य हैं, किन्तु हम जैसे गरीब लोग ही हमेशा उस परम पुरुष के यन्त्र बने हैं। परमात्मा तुम सभी को आशीर्वाद दें।
अति प्रेम से –
विवेकानन्द
(१६)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
संयुक्त राज्य, अमेरिका,
१८९४
प्रिय आलासिंगा,
एक पुरानी कहानी सुनो। एक निकम्मा भिखमंगा सड़क पर चलते चलते एक वृद्ध को अपने मकान के द्वार पर बैठा देखकर रुककर उससे पूछने लगा – ‘अमुक ग्राम कितना दूर है?’ बुड्ढ़ा चुप रहा। भिखमंगे ने कई बार प्रश्न किया; परन्तु उत्तर न मिला। अन्त में जब वह उकताकर वापस जाने लगा, तब बुड्ढे ने खड़े होकर कहा, ‘वह ग्राम यहाँ से एक मील है।’ भिखमंगा कहने लगा – ‘तुम पहले क्यों नहीं बोले, जब मैंने तुमसे कितनी बार पूछा था?’ बुड्ढे ने उत्तर दिया, ‘क्योंकि पहले तुमने जाने के लिए लापरवाही दिखायी थी और दुविधा में मालूम होते थे; परन्तु अब तुम उत्साहपूर्वक आगे बढ़ रहे हो इसलिए अब तुम उत्तर पाने के अधिकारी हो गये हो!’
हे वत्स, क्या तुम यह कहानी याद रखोगे? काम आरम्भ करो, शेष सब कुछ आप ही आप हो जायेगा। “अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।” – गीता। “जो सब कुछ छोड़कर मेरे ही ऊपर भरोसा करता है, मेरा ही चिन्तन करता है उसकी आवश्यकताओं को मैं पूरा करता हूँ।” यह भगवान की वाणी है, न कि स्वप्न या कविकल्पना।
मैं बीच बीच में तुम्हारे पास कुछ रकम भेजता जाऊँगा, क्योंकि पहले कलकत्ते में भी मुझे कुछ रकम भेजनी पड़ेगी – मद्रास की अपेक्षा अधिक भेजनी पड़ेगी। वहाँ का कार्य मुझ पर ही निर्भर करता है; वहाँ कार्य केवल शुरू ही हुआ है ऐसी बात नहीं, बल्कि तीव्र गति से अग्रसर हो रहा है। उसे पहले देखना होगा। साथ ही, कलकत्ते की अपेक्षा मद्रास में सहायता मिलने की आशा अधिक है। मेरी इच्छा है कि ये दोनों केन्द्र आपस में मिलजुलकर काम करें। अभी शुरू शुरू में पूजा-पाठ, प्रचार इत्यादि के रूप में कार्य आरम्भ कर देना चाहिए। सभी के मिलने के लिए एक स्थान चुन लो, एवं प्रतिसप्ताह वहाँ इकट्ठे होकर पूजा करो, साथ ही भाष्यसहित उपनिषद् पढ़ो; इस तरह धीरे धीरे काम और अध्ययन दोनों करते जाए। तत्परता से काम में लगे रहने पर सब ठीक हो जायेगा।
. . .अब काम करो! जि. जि. का स्वभाव भावप्रधान है, तुम्हारी समबुद्धि है, इसीलिए दोनों मिल-जुलकर काम करो। काम में लीन हो जाओ – अभी तो काम का आरम्भ ही हुआ है। प्रत्येक राष्ट्र को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी; हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के लिए अमेरिका की पूँजी पर भरोसा न करो, क्योंकि यह भ्रम ही है। मैसूर एवं रामनद के राजा तथा और भी अन्यान्य लोंगो को इस कार्य की ओर सहानुभूति हो, ऐसा प्रयत्न करो। भट्टाचार्य के साथ परामर्श करके कार्य आरम्भ कर दो। केन्द्र बना सकना बहुत ही उत्तम बात होगी। मद्रास जैसे बडे शहर में इसके लिए स्थान प्राप्त करने का यत्न करो, और संजीवनी शक्ति का चारों ओर प्रसार करो। धीरे धीरे आरम्भ करो। पहले गृहस्थ प्रचारकों से श्रीगणेश करो, धीरे धीरे वो लोग भी आने लगेंगे जो इस काम के लिए अपना जीवन समर्पण कर देंगे। शासन करनेवाले न बनो – वही सब से अच्छा शासन करता है जो सब की सेवा कर सकता है। मृत्युपर्यन्त सत्यपथ से विचलित न होओ। हम काम चाहते हैं – हमें धन, नाम और यश की चाह नहीं। जब कार्यारम्भ इतना सुन्दर हुआ है तब यदि इस समय तुम लोग कुछ न कर सको तो तुम लोगों पर मेरा बिलकुल विश्वास नहीं रहेगा। अपने कार्य का प्रारम्भ अति सुन्दर हुआ है। भरोसा रखो। जि. जि. को अपनी गृहस्थी के भरण-पोषण के लिए कुछ करना तो नहीं पडता – मद्रास में एक स्थायी स्थान करने के लिए वह चन्दा इकट्ठा क्यों नहीं करता? मद्रास में केन्द्र स्थापित हो जाने पर चारों ओर कार्य-विसातर करते चलो – शुरू में प्रतिसप्ताह एकत्र होओ – स्तोत्र-पाठ, शास्त्र-पाठ इत्यादि से प्रारम्भ करो। पूर्णतः निःस्वार्थ बनो – फिर सफलता अवश्यम्भावी है।
स्वयं के कार्य की स्वाधीनता रखते हुए कलकत्ते के भ्राताओं पर सम्पूर्ण श्रद्धाभक्ति रखना – क्योंकी वे सन्यासी जो हैं। मेरी सन्तान को आवश्यकता होने पर एवं अपने कार्य की सिद्धि के लिए आग में कूदने को भी तैयार रहना चाहिए। इस समय केवल काम, काम, काम – बाद में किसी समय काम स्थगित कर किसने कितना है किया यह देखेंगे। धैर्य, अध्यवसाय और पवित्रता चाहिए।
. . .मैं अभी हिन्दू धर्म पर कोई पुस्तक नहीं लिख रहा हूँ। मैं केवल अपने विचारों को स्मरणार्थ लिख लेता हूँ। मुझे मालूम नहीं कि मैं उन्हे कभी प्रकाशित कराऊँगा या नही। किताबों में क्या धरा है? दुनिया पहले ही बहुत मूर्खता से भरी है। यदि तुम वेदान्त के आधार पर एक पत्रिका निकाल सको, तो हमारे कार्य में सहायता मिलेगी। चुपचाप काम करो, दूसरों मे दोष न निकालो। अपना सन्देश दो; जो तुम्हे सिखाना है, सिखाओ; इससे आगे न बढो – शेष परमात्मा जानते हैं। मिशनरी लोगों को यहाँ कौन पूछता है? बहुत चिल्लाने के बाद वे लोग अब चुप हुए हैं। मैं उनकी निन्दा की ओर ध्यान नहीं देता। मेरे बारे में लोगों की अच्छी धारणा है। मुझे और समाचार-पत्र न भेजो।
कार्य के अग्रसर होने के लिए कुछ शोर-गुल की आवश्यकता थी – वह बहुत हो चुका। देखते नहीं, दूसरे लोग बिना किसी भित्ति के ही कैसे अग्रसर हो रहे हैं! और तुम लोगों का कार्य इतने सुन्दर तरीके पर आरम्भ होने के बाद भी यदि तुम लोग कुछ न कर सको, तो मुझे घोर निराशा होगी। यदि तुम सचमुच मेरी सन्तान हो तो तुम किसी वस्तु से न डरोगे, और किसी बात पर न रुकोगे। तुम सिंहतुल्य होगे। हमें भारत को और पूरे संसार को जाग्रत करना है। कायरता को पास न आने दो। मैं अस्वीकृति न सुनूँगा। समझे? मृत्युपर्यन्त सत्यपथ पर अटल रहकर मेरे कथनानुसार लगे रहना होगा – फिर कार्यसिद्धि अवश्यम्भावि हैं। इसका रहस्य है गुरुभक्ति; मृत्युपर्यन्त गुरु में विश्वास। क्या यह तुममें है? – और मेरा पूर्ण विश्वास है कि यह तुममें हैं। और तुम्हें यह भी विदित है कि मुझे तुम पर पूर्ण भरोसा है – इसलिए काम में लग जाओ। सिद्धि अवश्यम्भावी है। तुम्हें पग पग पर मेरा आशीर्वाद हैं; मेरी प्रार्थना सदैव तुम्हारे साथ रहेगी। मेल से काम करो। हर एक के साथ सहनशील होओ। सभी से मुझे प्रेम है। सदैव मेरी दृष्टी तुम पर है। आगे बढ़ो! आगे बढ़ो! अभी तो आरम्भ ही है, क्या तुम जानते हो कि मेरा यहाँ थोड़ासा भी काम भारत में बड़ी आवाज उत्पन्न करता है? मैं यहाँ से जल्दी नहीं लौटूंगा। मेरा विचार स्थायी रूप में यहाँ कुछ कर जाने का है, और इस लक्ष्य को अपने आगे रखकर मैं प्रतिदिन काम कर रहा हूँ। अमेरिकावासियों का मैं विश्वास-पात्र बनता जा रहा हूँ। अपने हृदय और आशाओं को संसार के समान विस्तीर्ण कर दो। संस्कृत का अध्ययन करो, विशेषकर वेदान्त के तीनों भाष्यों का। तैयार रहो, भविष्य के लिए मैंने बहुतसी बातें सोची हैं। आकर्षक वक्ता बनने का प्रयत्न करो। यदि तुममें विश्वास होगा, तो सब चीजें तुम्हे मिल जायेंगी। यही बात ‘क -’ से कह दो, बल्कि वहाँ के मेरें सभी बच्चों से कह दो। समय पाकर वे बड़े बड़े काम करेंगे, जिसे देखकर संसार आश्चर्य करेगा। निराश न होओ और काम करो। देखूँ तो सही तुम क्या कर सकते हो – एक मन्दिर, एक प्रेस, एक पत्रिका एवं मेरे ठहरने के लिए एक मकान करके मुझे दिखाओ। यदि मद्रास में मेरे ठहरने के लिए एक मकान न कर सको, तो फिर मैं वहाँ कहाँ रहूँगा? लोगों में विद्युत्-शक्ति संचार करो! चन्दा इकट्ठा करो एवं प्रचारक बनाओ। . . . अपने जीवन के ध्येय पर दृढ़ रहो। अभी तक जो कार्य हुआ है, बहुत अच्छा हुआ है – और भी अच्छे कार्य करने होंगे; बढ़े चलो, आगे बढ़े चलो। मेरा विश्वास है कि इस पत्र के उत्तर में तुम लिखोगे कि तुमने कुछ काम किया है।
लोगों से लड़ाई न करो; किसी को तुम्हारी ओर से वैरभाव उत्पन्न न हो। यदि अमुक मनुष्य ईसाई बनता है तो हम क्यों बुरा मानें? जो धर्म उन्हें अपने मन के अनुकूल जान पड़ता है, उसका अनुगामी उन्हें बनने दो। वादविवाद में तुम क्यों सम्मिलित होगे? लोगों के भिन्न भिन्न मतों को सहन कर लो। धैर्य, पवित्रता एवं अध्यवसाय की जीत होगी।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(१७)
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो,
२० जून, १८९४
प्रिय दीवान जी,
आज आपका कृपा-पत्र मिला। मुझे बहुत दुःख है कि आप जैसे महामना व्यक्ति को मैंने अपने विवेचनाहीन कठोर शब्दों से चोट पहुँचायी। आपके मृदु सुधारों के आगे में नतमस्तक हूँ। ‘मैं आपका पुत्र हूँ, मुझ नतमस्तक को शिक्षा दीजिये।’ – गीता। परन्तु दीवान जी साहब, आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि मेरे स्नेह ने ही मुझे ऐसा कहने के लिए प्रेरित किया। आपको यह बताना चाहता हूँ कि पीठ-पीछे मेरी निन्दा करनेवालों ने परोक्ष रूप से मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचाया, बल्कि इस दृष्टि से मेरा घोर अपकार ही किया है कि हमारे हिंदू भाइयों ने अमेरिकनों को यह बतलाने के लिए अपनी अँगुली भी नहीं हिलायी कि मैं उनका प्रतिनिधि हूँ। मेरे प्रति अमेरिकनों की सहृदयता के निमित्त, काश, हमारी जनता उनके लिए धन्यवाद के कुछ शब्द प्रेषित कर पाती और यह बताती कि मैं उनका प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ। श्री मजूमदार, बम्बई से आगत नगरकर नाम का एक व्यक्ति तथा पूना से आगत सोराबजी नाम की एक ईसाई लड़की अमेरिकनों से कह रहे हैं कि मैंने अमेरिका में ही संन्यासियों के वस्त्र धारण किये हैं, और मैं एक धूर्त हूँ। जहाँ तक मेरे स्वागत का प्रश्न है, इसका अमेरिकी जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा; परन्तु जहाँ तक धन द्वारा मेरी सहायता का प्रश्न है, इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा, क्योंकि उन्होंने मेरी ऐसी सहायता करने से अपने हाथ खींच लिये। मैं यहाँ एक वर्ष से हूँ, किंतु किसी भी ख्यातिमान भारतीय ने अमेरिकनों को यह बताना उचित नहीं समझा कि मैं प्रवंचक नहीं हूँ। फिर यहाँ मिशनरी लोग सदा मेरे विरुद्ध कही गयी बातों की ताक में रहते हैं, और भारत के ईसाई पत्रों द्वारा मेरे विरुद्ध लिखी गयी बातों को खोजने और उनको यहाँ प्रकाशित कराने में सदा व्यस्त रहते हैं। आपको यह विदित होना चाहिए कि यहाँ के लोग भारत में ईसाई एवं हिन्दू में अंतर के बारे में बहुत कम जानते हैं।
मेरे यहाँ आने का मुख्य प्रयोजन अपनी एक योजना के लिए धन एकत्र करना ही था। मैं आपसे ये बातें फिर कह रहा हूँ।
पूर्व एवं पश्चिम में सारा अंतर यह है कि उनमें जातीयता की भावना है, हम लोगों में नहीं, अर्थात् सभ्यता एवं शिक्षा का प्रसार यहाँ व्यापक है, सर्वसाधारण में व्याप्त है। उच्च वर्ग के लोग भारत और अमेरिका में समान हैं, लेकिन दोनों देशों के निम्न वर्गों में जमीन-आसमान का फ़र्क है। अंग्रजों के लिए भारत को जीतना इतना आसान क्यों सिद्ध हुआ? यह इसलिए कि वे एक जाति हैं, हम नहीं। जब हमारा कोई महापुरुष चल बसता है, तो एक और के लिए हमें सैकड़ों वर्ष बैठे रहना पड़ता है; और ये उनका सर्जन उसी अनुपात में कर सकते हैं, जिस अनुपात में उनकी मृत्यु होती है। जब हमारे दीवान जी साहब नहीं रहेंगे, (जिसे हमारे देश के कल्याण के लिए प्रभु दीर्घ काल तक स्थगित रखें), तो उनके स्थान की पूर्ति के लिए जो कठिनाई होगी, उसका अनुभव देश को तत्काल ही हो जायगा। कठिनाई तो इसी बात से प्रत्यक्ष हो जाती है कि आपकी सेवाओं के बिना लोगों का काम नहीं चलता है। यह महापुरुषों का अभाव है। ऐसा क्यों? क्योंकि महापुरुषों के चुनाव के लिए उनके पास बहुत बड़ा क्षेत्र है, जब कि हमारे पास, बहुत ही छोटा। तीन, चार या छह करोड़ की जातियों की तुलना में तीस करोड़ की जाति के पास अपने महापुरुषों के चुनाव के लिए क्षेत्र सबसे छोटा है। क्योंकि शिक्षित पुरुषों एवं स्त्रियों की संख्या उन जातियों में बहुत अधिक है। आप मेरे विवेचक मित्र हैं, मुझे गलत न समझें, यही हमारे देश का बहुत बड़ा दोष है और इसे दूर करना ही होगा।
सर्वसाधारण को शिक्षित बनाइए एवं उन्नत कीजिए। इसी तरह एक जाति का निर्माण होता है। हमारे सुधारकों को यही नहीं मालूम कि कहाँ चोट है, और वे विधवाओं का विवाह कराके देश का उद्धार करना चाहते हैं; क्या आप यह मानते है कि किसी देश का उद्धार इस बात पर निर्भर है कि उसकी विधवाओं के लिए कितने पति प्राप्त होते हैं? और न इसके लिए धर्म को ही दोषी ठहराया जा सकता है; क्योंकि सिर्फ़ मूर्ति-पूजा से यों कोई अंतर नहीं पड़ता। सारा दोष यहाँ हैः यथार्थ राष्ट्र जो कि झोपड़ियों में बसता है, अपना मनुष्यत्व विस्मृत हो चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, – हरेक के पैरों तले कुचले गये वे लोग यह समझने लगे हैं कि जिस किसी के पास पर्याप्त धन है, उसीके पैरों तले कुचले जाने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व वापस करना होगा। उन्हें शिक्षित करना होगा। मूर्तियाँ रहें या न रहें, विधवाओं के लिए पतियों की पर्याप्त संख्या हो या न हो, जाति-प्रथा दोषपूर्ण है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परेशान नहीं करता। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार अपने आप ही करना पड़ेगा। हमारा कर्तव्य केवल रासायनिक पदार्थों को एकत्र कर देना है, ईश्वरीय विधान से वे अपने आप जम जायेंगे। हमें केवल उनके मस्तिष्क में विचारों को भर देना है, शेष सब वे अपने आप कर लेंगे। इसका अर्थ हुआ सर्वसाधारण को शिक्षित करना। यहाँ ये कठिनाइयाँ हैं। एक अकिंचन सरकार कभी कुछ नहीं कर सकती है, न करेगी; अतः उस दिशा से किसी सहायता की कोई आशा नहीं।
अगर यह भी मान लिया जाय कि प्रत्येक गाँव में हम लोग निःशुल्क पाठशाला खोलने में समर्थ हैं, तब भी ग़रीब लड़के पाठशालाओं में आने की अपेक्षा अपने जीविकोपार्जन हेतु हल चलाने जायेंगे। न तो हमारे पास धन है और न हम उनको शिक्षा के लिए बुला ही सकते हैं। समस्या निराशाजनक प्रतीत होती है। मैंने एक रास्ता ढूँढ़ निकाला है। वह यह है। अगर पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं आता, तो मुहम्मद को पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। यदि ग़रीब शिक्षा के निकट नहीं आ सकते, तो शिक्षा को ही उनके पास हल पर, कारखाने में और हर जगह पहुँचना होगा। यह कैसे? आपने मेरे गुरुभाइयों को देखा है। मुझे सारे भारत से ऐसे निःस्वार्थ, अच्छे एवं शिक्षित सैकड़ों नवयुवक मिल सकते हैं। दरवाजे दरवाजे पर धर्म को ही नहीं, शिक्षा को भी पहुँचाने के लिए इन लोगों को गाँव गाँव घूमने दीजिए, इसलिए विधवाओं को भी हमारी महिलाओं की शिक्षिकाओं के रूप में संगठित करने के लिए मैंने एक छोटे से दल का आयोजन किया है।
अब मान लीजिए कि ग्रामिण अपना दिन भर का काम करके अपने गाँव लौट आये हैं और किसी पेड़ के नीचे या कहीं भी बैठकर हुक्का पीते गप लड़ाते समय बिता रहे हैं। मान लीजिए दो शिक्षित संन्यासी वहाँ उन्हें लेकर कैमरे से ग्रह नक्षत्रों के या भिन्न भिन्न देशों के या ऐतिहासिक दृश्यों के चित्र उन्हें दिखाने लगे। इस प्रकार ग्लोब, नक्शे आदि के द्वारा जबानी ही कितना काम हो सकता है, दीवान जी साहब? केवल आँख ही ज्ञान का एकमात्र द्वार नहीं है, कान से भी यह काम हो सकता है। इस प्रकार नये नये विचारों से, नीति से उनका परिचय होगा एवं वे उन्नततर जीवन की आशा करने लगेंगे। यहाँ हमारा काम खत्म हो जाता है। शेष उन पर छोड़ देना होगा। संन्यासियों को त्याग के इतने बड़े इस कार्य के लिए प्रेरणा कहाँ से मिलेगी? धार्मिक उत्साह से। धर्म के हर नये तरंग के लिए एक केन्द्र की आवश्यकता होती है। पुराने धर्म को केवल एक नया केन्द्र ही पुनरुज्जीवित कर सकता है। अपनी रूढ़ियों एवं पुराने सिद्धान्तों को सूली पर चढ़ा दीजिए, उनसे कोई लाभ नहीं होता। एक चरित्र, एक जीवन, एक केन्द्र, एक ईश्वरीय पुरुष ही मार्गदर्शन करेंगे। इसी केन्द्र के चारों ओर अन्य सभी उपादान एकत्र हो जायँगे एवं एक प्रलयंकर महातरंग की तरह समाज पर जा गिरेंगे तथा सबको बहा कर ले जाते हुए उनकी अपवित्रताओं का भी नाश करेंगे। फिर, जैसे लकड़ी को उसके रेशे की दिशा में ही चीरने में आसानी होती है, वैसे ही पुराने हिन्दू धर्म का संस्कार हिन्दू धर्म से ही हो सकता है, नये नये संस्कार-आन्दोलनों के द्वारा नहीं। साथ ही साथ इन सुधारकों को अपने में पूर्व एवं पश्चिम, दोनों संस्कृतियों का मिलन कराना होगा। क्या आपको यह नहीं मालूम पड़ता कि आपने ऐसे महान आन्दोलन के केन्द्र को प्रत्यक्ष किया है? उस बढ़ते हुए प्लावन की अस्पष्ट गम्भीर गर्जना को सुना है? वह केन्द्र, मार्गदर्शक उस देवमानव का जन्म भारत ही में हुआ। वे थे महान श्रीरामकृष्ण परमहंस। उन्हीं को केन्द्र मानकर यह दल धीरे धीरे बड़ा हो रहा है। इन्हीं लोगों से यह काम होगा।
दीवान जी महाराज अब इसके लिए एक संगठन की आवश्यकता है, रुपयों की जरूरत है – भले ही थोड़े से की, जिससे काम शुरू किया जा सके। भारत में हमें धन कौन देता? इसीलिए, दीवान जी महाराज, मैं अमेरिका चला आया। आपको यह बात शायद याद हो कि मैंने सारा धन गरीबों से माँगा था, और धनियों के दान को मैं इसलिए अस्वीकार कर देता था कि मेरी भावनाओं को वे नहीं समझ पाते। इस देश में पूरे साल भर तक व्याख्यान देते रहने पर भी मुझे अपने कार्य के आरंभ के लिए धनार्जन की अपनी योजना में जरा सी भी सफलता नहीं मिली (निश्चय ही मुझे अपने लिए कोई अभाव नहीं हुआ)। पहली बात यह है कि यह साल अमेरिका के लिए बहुत बुरा है; हजारों ग़रीब बेरोज़गार हैं। दूसरी, मिशनरी तथा . . . मेरी योजनाओं में बाधा डालने का प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरी बात यह है, एक साल गुजर गया और हमारे देशवासी मेरे लिए इतना भी नहीं कर सके कि अमेरिका के लोगों से वे कहते कि मैं एक वंचक नहीं हूँ, बल्कि एक यथार्थ संन्यासी हूँ, कि मैं हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ। इतना भी, इन थोड़े से शब्दों का व्यय भी, वे नहीं कर सके। शाबाश, मेरे देशवासियों! दीवान जी, मैं उनको प्यार करता हूँ। मानवीय सहायता को मैं लात मारता हूँ। मुझे आशा है कि वे जो सदा पर्वतों एवं उपत्यकाओं में, मरुस्थलों एवं वनों में मेरे साथ रहे हैं, मेरे साथ रहेंगे; अगर और ऐसा न हुआ तो फिर भारत में कभी मुझसे भी कहीं अधिक योग्यता-सम्पन्न किसी और वीर का उदय होगा जो इस कार्य को सम्पन्न करेगा। आज मैं आपको सभी कुछ कह गया। दीवान जी, मेरे लम्बे पत्र के लिए मुझे क्षमा करें। आप मेरे अच्छे मित्र है, उन बहुत थोड़ों में से एक, जो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं, जो मेरे ऊपर यथार्थ में कृपालु हैं। आप यह सोच सकते हैं कि मैं एक स्वप्नविलासी हूँ या एक कल्पनाप्रिय व्यक्ति हूँ; लेकिन आप कम से कम इतना विश्वास रखें कि मैं पूर्णतः ईमानदार हूँ, और मुझमें सबसे बड़ा दोष यही है कि मुझे अपने देश के प्रति अधिक, बहुत अधिक प्रेम है। मेरे प्रिय मित्र, आप और आपके सम्बन्धी जन सदा ही कल्याण के भागी हों। जो आपके प्रिय हों, उन सब पर भगवान् की दया-दृष्टि सदा बनी रहे। मैं आपके प्रति चिरंतन कृतज्ञ हूँ। आपके प्रति मैं अत्यधिक ऋणी हूँ, केवल इसीलिए नहीं कि आप मेरे मित्र हैं, बल्कि इसलिए भी कि आपने इतनी अच्छी तरह अपनी मातृभूमि की एवं प्रभु की जिन्दगी भर सेवा की है।
आपका सतत कृतज्ञ,
विवेकानन्द
(१८)
(मैसूर के महाराजा को लिखित)
शिकागो,
२३ जून, १८९४
महाराज,
श्रीनारायण आपका और आपके कुटुम्ब का मंगल करें। आपकी उदार सहायता से ही मेरा इस देश में आना सम्भव हो सका। यहाँ आने के बाद से यहाँ के लोग मुझे खूब जान गये हैं और इस देश के अतिथिपरायण अधिवासियों ने मेरे सब अभाव दूर कर दिये हैं। यह एक अद्भुत देश है और यह जाति भी कई बातों में एक अद्भुत जाति है। कोई जाति अपने दैनिक कामों में इतने कलपुर्जों का व्यवहार नहीं करती, जितने कि यहाँ के लोग। यहाँ केवल कल-ही-कल है! फिर देखिये, ये लोग संसार की सारी लोक-संख्या के सामने पाँच प्रतिशत मात्र हैं। पर तो भी संसार के कुल धन के पूरे षष्ठांश के ये मालिक हैं। इनके धन तथा विलास की सामग्रियों का कोई ठिकाना नहीं है। पर फिर भी यहाँ सभी चीजें बहुत महँगी हैं। मजदूरों का मिहनताना यहाँ दुनिया में सब जगह से ज्यादा है, पर मजदूरों और पूँजीपतियों के बीच झगड़ा सदा ही चला रहता है।
अमेरिका की महिलाओं को जितने अधिकार प्राप्त हैं उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं। धीरे-धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि शिक्षित पुरूषों की अपेक्षा यहाँ शिक्षित स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है। हाँ, उच्च प्रतिभा का विकास अधिकतर पुरुषों में ही है। पाश्चात्यवासी हमारे जातिभेद की चाहे जितनी कडी समालोचना करें पर उनके भी बीच एक ऐसा जातिभेद है जो हमारे यहाँ से भी बुरा है – और वह है अर्थगत जातिभेद। अमेरिकानिवासी कहते हैं कि सर्वशक्तिमान डालर यहाँ सब कुछ कर सकता है।. . . संसार के अन्य किसी देश में इतने कानून नहीं हैं, जितने कि यहाँ। पर यहाँ उनकी जितनी कम परवाह की जाती है, उतनी अन्य किसी भी देश में नहीं।
सब ओर से देखने पर हमारे गरीब हिन्दू लोग किसी भी पाश्चात्यदेशवासी से लाखों गुने अधिक नीतिपरायण हैं। धर्म के विषय में यहाँ के लोग या तो कपटी होते हैं या हठी। विचारशील लोग अपने कुसंस्कारपूर्ण धर्मों से ऊब गये हैं और नये प्रकाश के लिए भारत की ओर ताक रहे हैं। महाराज, आप बिना देखे यह समझ नहीं सकेंगे कि ये लोग पवित्र वेदों के उदात्त भावों का एक छोटासा कण भी किस चाव से ग्रहण करते हैं; क्योंकि आधुनिक विज्ञान धर्म पर जो पुनः पुनः तीव्र आक्रमण कर रहा है, उससे लोहा लेने में केवल वेंद ही समर्थ हैं और वे ही धर्म के साथ विज्ञान का सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं। शून्य से सृष्टि का होना, आत्मा का एक सृष्ट पदार्थ होना, स्वर्ग नामक स्थान में सिंहासन पर बैठे हुए एक महाक्रूर और अत्याचारी ईश्वर का होना, अनन्त नरक का होना – ये सब जो इन लोगों के मत हैं, उनसे सभी शिक्षित लोगों का जी ऊब गया है और सृष्टि और आत्मा के अनादित्व तथा परमात्मा की हमारी अपनी आत्मा में अवस्थिति-सम्बन्धी वेदों के उदात्त भावों को वे शीघ्र ही किसी न किसी रूप में ग्रहण कर रहे हैं। पचास वर्ष के भीतर ही संसार के सभी शिक्षित लोग आत्मा और सृष्टि दोनो के अनादित्त्व पर विश्वास करने लगेंगे, और ईश्वर को हमारी ही आत्मा का उच्चतम और श्रेष्ठ रूप मानने लगेंगे जैसा कि हमारे पवित्र वेद शिक्षा दे रहे हैं। अभी से ही उनके विद्वान पादरियों ने बाइबल की वैसी ही व्याख्या करना आरम्भ कर दिया है। मेरा सिद्धान्त यह है कि उन्हें और भी धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता है एवं हमें और भी अधिक ऐहिक अथवा भौतिक शिक्षा की।
भारतवर्ष के सभी अनर्थों की जड़ है – जनसाधारण की गरीबी। पाश्चात्य देशों के गरीब तो निरे पशु हैं, उनकी तुलना में हमारे यहाँ के गरीब तो देवता हैं। इसीलिए हमारे यहाँ के गरीबों की उन्नति करना अपेक्षाकृत सहज है। अपने निम्नश्रेणीवालों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य है – उनको शिक्षा देना, उन्हें सिखाना कि इस संसार में तुम भी मनुष्य हो, तुम लोग भी प्रयत्न करने पर अपनी सब प्रकार उन्नति कर सकते हो। अभी वे लोग यह भाव खो बैठे हैं। हमारे जनसाधारण और देशी राजाओं के सम्मुख यही एक विस्तृत कार्यक्षेत्र पड़ा हुआ है। अब तक इस ओर कुछ काम नहीं हुआ। पुरोहिती शक्ति और विदेशी विजेतागण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलस्वरूप भारत के गरीब बेचारे यह तक भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं। उनमें विचार पैदा करना होगा। उनके चारों ओर दुनिया में क्या क्या हो रहा है, इस सम्बन्ध में उनकी आँखे खोल देनी होंगी; बस फिर वे अपनी मुक्ति स्वयं सिद्ध कर लेंगे। प्रत्येक जाति, प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री को अपनी अपनी मुक्ति सिद्ध करनी पड़ेगी। उनमें विचार पैदा कर दो – बस, उन्हें उसी एक सहायता का प्रयोजन है, और शेष सब कुछ इसके फलस्वरूप आप ही आ जायेंगा। हमें केवल रासायनिक सामग्रियों को इकट्ठा भर कर देना है, उनका निर्दिष्ट आकार प्राप्त करना – रवा बँध जाना तो प्राकृतिक नियमों से ही साधित होगा। हमारा कर्तव्य है उनमें भावों का संचार कर देना – बाकी वे स्वयं कर लेंगे।
भारतवर्ष में बस यही करना है। बहुत समय से यही विचार मेरे मन में काम कर रहा है। भारत में इसे मैं कार्य रूप में परिणत न कर सका, और यही कारण था कि मैं इस देश में आया। गरीबों को शिक्षा देने में मुख्य बाधा यह है, – मान लीजिये महाराज, आप ने हर एक गाँव में एक निःशुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा, क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाय खेतों में अपने माता-पिता को मदद देना या दूसरे किसी उपाय से रोटी कमाने का प्रयत्न करना अधिक पसन्द करेंगे। अच्छा, यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास क्यों न जायँ? यदि गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर तक न आ सके, तो शिक्षा को ही उसके पास जाना चाहिए।
हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं, जो गाँव-गाँव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोग सुनियन्त्रित रूप से ऐहिक विषयों के भी शिक्षक बनाये जायँ तो गाँव-गाँव दर-दर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा ही नहीं देंगे, बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे। कल्पना कीजिये कि उनमें से एक-दो, शाम को साथ में एक मैजिक लैण्टर्न, एक गोलक और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गाँव में गये। इसकी सहायता से वे अनपढ़ लोगों को बहुत कुछ गणित, ज्योतिष और भूगोल सिखा सकते हैं। विभिन्न जातियों के सम्बन्ध की कहानियाँ सुनाकर वे गरीबों को नाना प्रकार के समाचार दे सकते हैं। जितनी जानकारी वे गरीब जीवनभर पुस्तकें पढ़ने से न पा सकेंगे, उससे कहीं सौगुनी अधिक वे इस तरह बातचीत द्वारा पा जायेंगे। इसके लिए एक नियन्त्रित कार्यप्रणाली की आवश्यकता है, जो पुनः धन पर निर्भर रहती है। इस प्रस्ताव को कार्यरूप में परिणत करने के लिए भारत में मनुष्य तो बहुत हैं, पर हाय! वे निर्धन हैं। किसी पहिये को पहले-पहल गतिशील करना बड़ा कठिन काम है, पर एक बार गतिशील हुआ कि वह क्रमशः अधिकाधिक वेग से चलने लगता है। अपने देश में सहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी तब मैं महाराज की सहायता से इस दूर देश में आया। अमेरिकावासियों को इस बात की तनिक भी परवाह नहीं कि भारत के गरीब जियें या मरें। और भला वे परवाह भी क्यों करने लगे, जब कि हमारे अपने देशवासी सिवाय अपने स्वार्थ की बातों के और किसी विषय की चिन्ता नहीं करते?
हे महामना राजन्, यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोगविलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है। महाराज, आप जैसे एक उन्नत, महामना देशीय राजा भारत को फिर से अपने पैरोंपर खड़ा कर देने के लिए बहुत-कुछ कर सकते हैं। और इस तरह भावी वंशजों के लिए एक ऐसा नाम छोड़ जा सकते हैं जो चिरकाल तक पूजित होता रहे।
ईश्वर आपके महान् हृदय में भारत के उन लाखों नरनारियों के लिए गहरी सहानुभूति पैदा कर दें, जो अज्ञता में गड़े हुए दुःख झेल रहे हैं – यही विवेकानन्द की प्रार्थना है।
भवदीय,
विवेकानन्द
(१९)
(एक मद्रासी शिष्य को लिखित)
५४१, डीयरबोर्न एविन्यू, शिकागो,
२८ जून, १८९४
प्रिय -,
उस दिन मैसूर से जि. जि. का एक पत्र मिला। मुझे दुःख है कि जि. जि. की दृष्टि में मैं सर्वज्ञ बन चुका हूँ, नहीं तो वह पत्र में अपने कर्नाटकीय अद्भुत पते का उल्लेख और भी स्पष्ट रूप से करता। शिकागो के सिवाय और किसी पते पर मुझे पत्र लिखना बहुत भारी भूल है। हालाँकि यह भूल पहले मुझसे ही हुई – अपने मित्रों की सूक्ष्म बुद्धि के बारे में मुझे विचार करना चाहिए था – वे तो मेरे पत्रों के ऊपर लिखे हुए किसी भी पते को देखकर जी चाहे जिस पते से मुझे पत्र भेज रहे हैं। मेरे मद्रासी बृहस्पतियों से कहना कि उनको यह तो अच्छी तरह से मालूम ही है कि उनके पत्रों के पहुँचने से पहले ही वहाँ से हजार मील की दूरी पर मैं पहुँच जाता हूँ, क्योंकि मैं तो बराबर घूम ही रहा हूँ। शिकागो में मेरे एक मित्र हैं, उनका मकान ही मेरा प्रधान केन्द्र है। यहाँ पर मेरे कार्य के प्रसार की कोई विशेष आशा नहीं है। यद्यपि उसकी बहुत कुछ सम्भावना थी, किन्तु निम्नलिखित कारणों से वह आशा एकदम निर्मूल हो चुकी है –
(१) भारत से मुझे जो समाचार मिल रहे हैं, उनका आधार एकमात्र मद्रास के पत्र ही हैं। तुम लोगों के पत्रों से मुझे यह समाचार बराबर मिल रहा है कि भारत में सभी लोग मेरी बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं – किन्तु यह तो घरेलू बातों में परिणत होता जा रहा है, क्योंकि इस बात को तुम जानते हो और मैं जान रहा हूँ। आलासिंगा के भेजे हुए एक समाचार-पत्र के तीन वर्ग-इंच अंश को छोड़कर अन्य किसी भी भारतीय पत्र में मेरे बारे में कुछ प्रकाशित हुआ है – ऐसा मुझे देखने को नहीं मिला है। जहाँ कि दूसरी ओर ईसाइयों के वक्तव्यों को भलीभाँति संग्रह कर मिशनरी लोग नियमित रूप से प्रकाशित कर रहे हैं, तथा घर घर जाकर यह प्रयास कर रहे हैं कि जिससे मेरे मित्रवर्ग मुझे त्याग दें, वे अपने उद्देश्य में पूर्णतया सफल हो चुके हैं, क्योंकि भारत से मेरे लिए कोई भी व्यक्ति एक शब्द का भी उच्चारण नहीं कर रहा है। भारत की हिन्दू पत्रिकाएँ अत्यन्त बढ़ा-चढ़ाकर मेरी प्रशंसा कर सकती हैं, किन्तु उनकी एक भी बात अमेरिका नहीं पहुँची है। इसलिए यहाँ के बहुतसे लोग मुझे ठग समझ रहे हैं। एक तो मिशनरी लोग ही मेरे पीछे पड़े हुए हैं, साथ ही यहाँ के हिन्दू भी ईर्ष्या के कारण उनका साथ दे रहे हैं – ऐसी दशा में उनको जवाब देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। अब तो मेरी यह धारणा बनती जा रही है कि केवलमात्र मद्रास के कुछ एक छोकरों के आग्रह से धर्मसभा में योगदान करना मेरे लिए मूर्खता हुई, क्योंकि आखिर तो वे छोकरे ही हैं। हालाँकि मैं उन लोगों का चिरकृतज्ञ हूँ, किंन्तु फिर भी वे तो कुछ एक युवक मात्र ही हैं – उनमें कार्य करने की क्षमता एकदम नहीं है। मैं अपने साथ कोई निदर्शन-पत्र नहीं लाया हूँ, किन्तु आर्थिक सहायता की आवश्यकता को पूरी करने के लिए निदर्शन-पत्र का रहना नितान्त आवश्यक है, अन्यथा मिशनरी तथा ब्राम्हसमाजियों के सम्मुख मैं ठग नहीं हूँ यह बात कैसे प्रमाणित की जा सकती है? मैंने सोचा था कि कुछ-एक वाक्यों का प्रयोग करना भारत के लिए विशेष कोई कठिन कार्य न होगा। मेरी धारणा थी कि मद्रास तथा कलकत्ते में कुछ भद्र-पुरुषों को एक सभा के रूप में एकत्रित कर उसमें मुझे तथा अमेरिकावासियों को मेरे प्रति सदय व्यवहार के लिए धन्यवादसूचक एक प्रस्ताव स्वीकृत कराकर, उसकी एक-एक प्रतिलिपि नियमानुसार अर्थात् उन उन समाजों के मन्त्रियों द्वारा अमेरिका में डा. बैरोज के समीप भेजकर उनसे विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने के लिए प्रार्थना करना तथा उसी प्रकार बोस्टन, न्यूयार्क तथा शिकागो की विभिन्न पत्रिकाओं में भेजना कोई विशेष कठिन कार्य न होगा। किन्तु अब मैं देख रहा हूँ कि भारत के लिए यह कार्य भी अत्यन्त कष्टसाध्य तथा कठिन है। एक वर्ष के अन्दर भारत से किसी ने मेरे लिए एक शब्द तक न कहा – और यहाँ पर सभी लोग मेरे विपक्ष में है। तुम अपने घर में बैठकर मेरे बारे में चाहे जो भी कुछ क्यों न कहो, यहाँ उसे कौन जानता है? आलासिंगा को मैंने इस बारे में लिखा था, इस बात को दो महीने से भी अधिक समय हो गया, किन्तु उसने मेरे पत्र का जवाब तक नहीं दिया। मुझे ऐसी शंका है कि उसका उत्साह समाप्त हो चुका है। इसीलिए मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि पहले इस विषय में तुम स्वयं विचार-विमर्श कर लेने के बाद फिर मद्रासियों को वह पत्र दिखाना। इधर मेरे गुरुभाई लोग नासमझों की तरह कोई विशेष प्रमाण दिये बिना ही केशव सेन के बारे में नाना प्रकार की आलोचनाएँ कर रहे हैं और मद्रासी लोग भी थियासाफिस्टों के बारे में मैं जो कुछ लिख रहा हूँ, उस विषय को उनके सामने रख रहे हैं – इससे केवलमात्र शत्रुओं की संख्या ही बढ़ रही है। हाय, यदि भारत में कोई बुद्धिमान् कार्यशील व्यक्ति मुझे सहायता करने को मिलता! किन्तु प्रभु की इच्छा ही पूर्ण होगी – मैं तो इस देश में ठग ही प्रतिपन्न हुआ। यह मेरी मूर्खता हुई कि कोई निदर्शनपत्र लिए बिना मैं धर्मसभा मे शामिल हो गया – आशा थी कि बहुत मिल जायेंगे। किन्तु अब मैं देख रहा हूँ कि मुझे अकेला ही शनैः शनैः कार्य करना पड़ेगा। अमेरिकन लोग साधारणतया हिन्दुओं से लाखों गुने अच्छे हैं और अकृतज्ञ तथा हृदयहीनों के देश की अपेक्षा यहाँ पर मैं कहीं अधीक कार्य कर सकता हूँ। अस्तु, कर्म के अनुष्ठान के द्वारा मुझे अपना प्रारब्धक्षय करना होगा। मेरी आर्थिक स्थिति के बारे में इतना ही कहना है कि है कि मेरी आर्थिक स्थिति ठीक है तथा ठीक ही रहेगी। गत मर्दमशुमारी में थियासाफिस्टों की संख्या समग्र अमेरिका में ६२५ थी, उनके साथ सम्मिलित हो जाने से मुझे सहायता मिलना तो दूर रहा, क्षणभर में मेरा तमाम काम चौपट हो जायेगा। आलासिंगा ने मुझे लन्दन जाकर श्री ओल्ड के साथ भेंट करने के लिए लिखा है। मूर्ख की तरह वह निरर्थक बातें बना रहा है। बालकों की तरह उसे स्वयं यह पता नहीं है कि वह क्या कह रहा है। इन मद्रासी शिशुओं में किसी भी विषय को छिपाने तक की सामर्थ्य नहीं हैं!! दिनभर व्यर्थ की बातें बनाते रहते हैं और जब काम करने का समय आता है तब कहीं भी किसी का पता नही चलता!!! पचास-साठ व्यक्तियों को एकत्रित कर दो चार सभाएँ करके अभी तक मेरी सहायता के लिए दो चार प्रस्ताव भी नहीं भिजवा सके – वे पुनः समग्र जगत् को शिक्षा प्रदान करने की लम्बी-चौड़ी बातें हाँकते हैं।
मैंने तुमको फोनोग्राफ के बारे में लिखा था। यहाँ पर एक प्रकार का बिजली का पंखा है, जिसका मूल्य २० डालर है – बहुत अच्छी तरह से चलता है – बैटरी से १०० घण्टे तक बराबर चलता रहता है, उसके बाद फिर कहीं से बिजली-संचय कर लेने पर पुनः काम देता है।
बिदा! मैने हिन्दुओं को काफी परख लिया है। अब जो कुछ प्रभु की इच्छा है, वही पूर्ण हो! नतमस्तक होकर सब कुछ स्वीकार करने को मैं तैयार हूँ। अस्तु, मुझे अकृतज्ञ न समझना, मद्रासियों ने मेरे लिए जो कुछ किया है, मैं उसके योग्य नहीं था और उन्होंने अपनी शक्ति से अधिक मेरी सहायता की है। यह मेरी ही मूर्खता थी कि क्षणभर के लिए भी मुझे यह ख्याल नहीं हुआ कि हम लोग – हिन्दू लोग अभी मनुष्यता हासिल नहीं कर पाये हैं – आत्मनिर्भरता को खोकर मैं हिन्दुओं पर निर्भरशील हो चुका था – इसीलिए मुझे इतना कष्ट उठाना पड़ा। प्रतिक्षण मैं यही आशा लगाये बैठा था कि भारत से मुझे कुछ सहायता अवश्य मिलेगी, किन्तु कुछ भी नहीं मिली! खासकर गत दो महींनो से प्रतिक्षण मेरी उत्कण्ठा तथा यातना की कोई सीमा नहीं थी – भारत से एक समाचार-पत्र तक मुझे प्राप्त नहीं हुआ!! मेरे बन्धुवर्ग महीनों तक प्रतीक्षा करते रहे – जब कुछ भी समाचार नहीं मिला – एक आवाज तक नहीं सुनायी दी – तब बहुतों का उत्साह भंग हो गया और उन लोगों ने मुझे त्याग दिया। मनुष्यों पर, पशुधर्मियों पर निर्भर रहने का यह दण्ड मुझे मिला – क्योंकि मेरे देशवासियों में अभी तक मनुष्यता का विकास नहीं हुआ है। अपनी प्रशंसा सुनने के लिए वे अत्यन्त उत्सुक हैं, किन्तु जब दूसरों की सहायता के लिए कुछ कहने का अवसर आता है, तब उनकी चुटिया तक का पता नहीं चलता। मद्रासी युवकों को अनन्तकाल के लिए मैं धन्यवाद देता हूँ – प्रभु उन्हें आशीर्वाद प्रदान करें। किसी मतवाद को प्रचार करने के लिए अमेरिका जगत् में सब से उपयुक्त स्थान है, अतः शीघ्र अमेरिका छोड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं है। और छोड़ा ही क्यों जाय! जहाँ मुझे खाने तथा पहनने को मिल रहा है – अनेक व्यक्ति सदय व्यवहार कर रहे हैं और ये सब कुछ मुझे दो चार अच्छी बातें कहने के बदले में मिल रहे हैं। ऐसी सहृदय जाति को छोड़कर पशु-प्रकृति, अकृतज्ञ, बुद्धिहीन, अनन्तकाल से कुसंस्कार में फँसे हुए, दयाहीन, ममतारहित भाग्यहीनों के देश में मैं क्यों जाने लगा? अतः पुनः कहता हूँ कि बिदा! अच्छी तरह से विचार-विमर्श के बाद यदि चाहो तो इस पत्र को दूसरों को दिखा सकते हो। मद्रासी लोगों ने यहाँ तक कि आलासिंगा ने भी, जिस पर कि मैं इतनी आशा लगाये हुए था, बुद्धिमत्ता से काम लिया हो – यह नहीं कहा जा सकता। हाँ, क्या तुम मजुमदारजी के लिखे हुए रामकृष्णदेव के संक्षिप्त जीवन-चरित्र की कुछ प्रतियाँ शिकागो भेज सकते हो? कलकत्ते में उक्त पुस्तकें बहुत हैं। ५४१ नं. डीयरबोर्न एविन्यू (स्ट्रीट नहीं), शिकागो अथवा C/o टामस कुक, शिकागो, मेरे इन दोनों पतों को न भूलना – अन्य पते से भेजने पर बहुत विलम्ब तथा गड़बड़ी होगी – क्योंकि अब मैं बराबर भ्रमण कर रहा हूँ और शिकागो ही मेरा प्रधान केन्द्र है। किन्तु यह बात मेरे मद्रासी बन्धुओं के दिमाग में नहीं समायी। कृपया जि. जि. , आलासिंगा, सेक्रेटरी तथा अन्यान्य सम्बधित व्यक्तियों से मेरा चिर आशीर्वाद कहना – मैं उन लोगो की मंगल-कामना कर रहा हूँ। उन पर मैं बिल्कुल असन्तुष्ट नहीं हूँ, मुझे अपने पर ही असन्तोष है। अपने जीवन में मेरे लिए यह पहला मौका है कि मैंने दूसरों की सहायता पर निर्भर रहने की भयानक भूल की और उसी का फल मैं भोग रहा हूँ। यह दोष मेरा ही है, उन लोगों का नहीं। प्रभु मद्रासियों को आशीर्वाद प्रदान करे – उनका हृदय बंगालियों की अपेक्षा बहुत कुछ उन्नत है। बंगालियों का केवल वाणीमात्र सार है – उनका हृदय नहीं है, वे सारहीन हैं। बिदा! बिदा! समुद्र के वक्षस्थल पर मैं अपनी नाव छोड़ चुका हूँ – जो कुछ होना हो होने दो। मेरी कठोर आलोचना के लिए मुझे क्षमा करना। वास्तव में किसी पर मेरा कोई दावा नहीं है। मुझे जितना मिलना चाहिए था, उससे कहीं अधिक तुम लोगों ने मेरे लिए किया है। जैसा मेरा भाग्य है, उसके अनुसार ही मुझे फल मिलेगा, बाकी सब कुछ मुझे चुपचाप सहन ही करना पड़ेगा। प्रभु तुम लोगों को आशीर्वाद प्रदान करें। इति।
विवेकानन्द
(२०)
(स्वामी रामकृष्णानन्द के नाम, गुरुभाईयों को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
ग्रीष्मकाल, १८९४
प्रिय शशि,
तुम्हारे पत्रों से सब समाचार विदित हुए। बलराम बाबू की स्त्री का शोक-संवाद पढ़कर मुझे बड़ा दुःख हुआ। प्रभु की इच्छा। यह कार्यक्षेत्र है, भोगभूमि नहीं, काम हो जाने पर सभी घर जायेंगे – कोई आगे, कोई पीछे। फकीर चला गया है, प्रभु की इच्छा। महोत्सव बड़ी धूम-धाम से समाप्त हुआ, यह अच्छी बात है। उनके नाम का जितना ही विस्तार हो, उतना ही अच्छा है। परन्तु एक बात याद रखो : महापुरूषगण शिक्षा देने के लिए आते हैं, नाम के लिए नहीं; परन्तु उनके चेले उनके उपदेशों को पानी में बहाकर नाम के लिए हाथापाई करने लग जाते हैं – बस यही संसार का इतिहास है। लोग उनका नाम लें या न लें, इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं, केवल उनके उपदेश, जीवन और शिक्षाएँ जिस उपाय से संसार में प्रचारित हों, उसी के लिए प्राणों का होम कर प्रयत्न करता रहूँगा। मुझे अधिक भय ठाकुरघर का है। ठाकुरघर बात बुरी नहीं, परन्तु उसी को यथासर्वस्व समझकर पुराने ढर्रे के अनुसार काम कर डालने की जो एक वृत्ति है, उसी से मैं डरता हूँ। मैं जानता हूँ, क्यों पुरानी जीर्ण अनुष्ठान पद्धतियों को लेकर वे इतना व्यस्त हो रहे है। उनकी अन्तरात्मा काम चाहती है, बाहर जाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं – इसीलिए घण्टी हिलाकर सारी शक्ति गँवा रहे हैं।
तुम्हें एक नयी युक्ति बताऊँ। अगर इसे कार्यान्वित कर सको तो समझूँ, तुम सब ‘आदमी’ हो और काम के योग्य हो। . . . सब मिलकर एक कार्यक्रम ठीक करो। कुछ कैमेरा, थोड़ेसे नक्शे, ग्लोब, कुछ रासायनिक पदार्थ आदि हों। फिर तुम्हें एक बड़े मकान की आवश्यकता है। इसके बाद कुछ गरीबों को इकट्ठा कर लेना है। फिर उन्हें ज्योतिष, भूगोल आदि के चित्र दिखलाओ और उन्हें श्रीरामकृष्णदेव के उपदेश सुनाओ। किस देश में क्या होता है, क्या हो रहा है, यह दुनिया क्या है, आदि बातों पर जिससे उनकी आँखें खुलें ऐसी चेष्टा करो। वहाँ जितने गरीब अनपढ़ रहते हों, सुबह-शाम उनके घर जाकर उनकी आँखें खोल दो। पोथी-पत्रों का काम नहीं – जबानी शिक्षा दो। फिर धीरे धीरे अपने केन्द्र बढ़ाते जाओ – क्या यह कर सकते हो? – या सिर्फ़ घण्टी हिलाना ही आता है?
तारकदादा की बातें मद्रास से सब मालूम हो गयीं। वहाँ के लोग उन्हें बहुत चाहते हैं। तारकदादा, तुम अगर कुछ दिन मद्रास में जाकर रहो तो बड़ा काम हो। परन्तु वहाँ जाने के पूर्व इस कार्य का श्रीगणेश कर जाओ। स्त्री-भक्त जितनी हैं, क्या विधवाओं को शिष्या नहीं बना सकतीं? और तुम लोग उनके मस्तिष्क में कुछ विद्या भर नहीं सकते? इसके बाद उन्हें घर घर में श्रीरामकृष्ण की उपासना कराने और साथ ही पढ़ाने-लिखाने के लिए भेज नहीं सकते? . . .
आओ! उठकर काम में लग जाओ तो सही। अजी, गप्पें लड़ाने और घण्टी हिलाने का जमाना गया, समझे? अब काम करना होगा। जरा देखूँ भी, बंगाली के धर्म की दौड़ कहाँ तक होती है! निरंजन ने लाटू के लिए गर्म कपड़े माँगे हैं। यहाँवाले गर्म कपड़े यूरोप और भारत से मँगाते हैं। जो कपड़े यहाँ खरीदूँगा, वही कलकत्ते में चौथाई किमत में मिलेंगे। . . . नहीं मालूम, कब यूरोप जाऊँगा। मेरा सब कुछ अनिश्चित है, – यहाँ किसी तरह चल रहा है। . . .
योगेश को शायद अब अच्छी तरह आराम हो गया होगा। मालूम होता है सारदा का बेकार घूमने का रोग अभी तक दूर नहीं हूआ। आवश्यकता है संघ-परिचालनाशक्ति की, समझे? क्या तुममें से किसी में यह कार्य करने की बुद्धि है? यदि है, तो तुम कर सकते हो। तारकदादा, शरत् और हरि भी यह कार्य कर सकेंगे। – में मौलिकता बहुत कम है, परन्तु है बड़े काम का और अध्यवसायशील मनुष्य, उसकी जरूरत भी बड़ी है, सचमुच बड़ा कारगुजार आदमी है। . . . हमें कुछ चेले भी चाहिए – वीर युवक – समझे? – बुद्धि के तीव्र और हिम्मत के पूरे – यम का सामना करनेवाले – तैरकर समुद्र पार करने को तैयार – समझे? हमें ऐसे सैकड़ों चाहिए – स्त्री और पुरूष दोनों। जी जान से इसी के लिए प्रयत्न करो। चेले बनाओ और हमारे पवित्र करनेवाले साँचे में डाल दो।
. . . श्री रामकृष्णदेव नरेन्द्र को ऐसा कहते थे, वैसा कहते थे, ‘इण्डियनमिरर’ को यह सब क्यों कहने गये – इतनी सब अजब अजब तरह की करामाती बातें? श्रीरामकृष्णदेव को जैसे और कुछ काम ही नहीं था, क्यों? – केवल मन की बात समझना और व्यर्थ की करामात! . . . सान्याल आया जाया करता है, यह अच्छी बात है। गुप्त को तुम लोग पत्र लिखना – मेरा प्यार कहना और उसकी खातिरदारी करना। धीरे धीरे सब आयेंगे ही। मुझे अधिक पत्र लिखने का विशेष अवकाश नहीं मिलता। व्याख्यान आदि लिखकर नहीं देता। एक व्याख्यान लिखकर पढ़ा था, वही तुमने छपाया है। बाकी सब, खड़ा हुआ और कह चला, स्वयं-स्फूर्त भाषण; गुरुदेव मेरे पीछे हैं। कागज-पत्र के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। एक बार डेट्रियाट में तीन घण्टे लगातार व्याख्यान दिया। कभी कभी मुझे ही आश्चर्य होता है कि ‘बेटा, तेरे पेट में भी इतनी विद्या थी’!! ये बस कहते हैं, पुस्तक लिखो; जान पड़ता है, अब कुछ लिखना ही पड़ेगा। परन्तु यही तो मुश्किल है, कागज-कलम लेकर कौन ऊधम मचाये!
समाज में, संसार में, बिजली की शक्ति के समान काम करना होगा। बैठे बैठे गप्पें लड़ाने और घण्टी हिलाने से काम न चलेगा। घण्टी हिलाना गृहस्थों का काम है। तुम लोगों का काम है भावप्रवाह का विस्तार करना। यदि यह कर सकते हो तब तो ठीक है। . . .
चरित्र-संगठन हो जाय, फिर मैं तुम लोगों के बीच आता हूँ, समझे? दो हजार, दस हजार, बीस हजार संन्यासी चाहिए, स्त्री-पुरुष दोनों, समझे? चेले चाहिए, जिस तरह भी हों। . . . तुम लोग अपनी जान की बाजी लगाकर कोशिश करो। गृहस्थ चेलों का काम नहीं, त्यागी चाहिए – समझे? तुममें से प्रत्येक सौ सौ सिर घुटवा डालो तो कहूँ कि तुम बहादुर हो। – शिक्षित युवक चेले चाहिए, मूर्ख नहीं। उथलपुथल मचा देनी पड़ेगी, कमर कसकर लग जाओ – मद्रास और कलकत्ते के बीच में बिजली की तरह चक्कर लगाते रहो। जगह-जगह केन्द्र खोलो, केवल चेले मूड़ो, स्त्री- पुरुष जिसकी भी ऐसी इच्छा हो – मूड़ लो, फिर मैं आता हूँ। आध्यात्मिकता की बड़ी भारी बाढ़ आ रही है – साधारण व्यक्ति महान् बन जायेंगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पण्डितों के आचार्य बन जायेंगे – “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्त वरान्निबोधत” – उठो, जागो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो तब तक न रुको। सदा विस्तार करना ही जीवन है और संकोच मृत्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आराम-तलब है, आलसी है, उसके लिए नरक में भी जगह नहीं है। जीवों के लिए जिसमें इतनी करुणा होती है कि खुद उनके लिए नरक में भी जाने को तैयार रहता है – उनके लिए कुछ कसर उठा नहीं रखता, वही श्रीरामकृष्ण का पुत्र है, – इतरे कृपणाः – दूसरों को हीनबुद्धिवाले समझना। जो इस समय पूजा के महासन्धि-मुहूर्त में कमर कसकर खड़ा हो जायेगा, गाँव गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है – वही उनका पुत्र है। यही परीक्षा है – जो रामकृष्ण के पुत्र हैं, वे अपना भला नहीं चाहते, प्राण निकल जाने पर भी दूसरों की भलाई चाहते हैं – प्राणात्ययेऽपि परकल्याणचिकीर्षवः। जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपनी जिद के सामने सब का सिर झुका हुआ देखना चाहते हैं वे हमारे कोई नहीं, वे हमसे राजी-खुशी से पहले ही अलग हो जायें। उनका चरित्र, उनकी शिक्षा इस समय चारों ओर फैलाते जाओ – यही साधन है, यही भजन है, यही साधना है, यही सिद्धि है। उठो, उठो, बड़े जोरों की तरंग आ रही है, Onward, Onward (आगे बढ़ो, आगे बढ़ो), स्त्री पुरुष आचण्डाल सब उनके निकट पवित्र हैं। Onward, Onward (आगे बढ़ो, आगे बढ़ो)। नाम का समय नहीं है, यश का समय नहीं है, मुक्ति का समय नहीं है, भक्ति का समय नहीं है, इनके बारे में फिर कभी देखा जायेगा। अभी इस जन्म में उनके महान् चरित्र का, उनके महान् जीवन का, उनकी महान् आत्मा का अनन्त प्रचार करना होगा। काम केवल इतना ही है, इसको छोड़ और कुछ नहीं। जहाँ उनका नाम जायेगा, कीट-पतंग तक देवता हो जायेंगे, हो भी रहे हैं, देखकर भी नहीं देखते? यह बच्चों का खेल नहीं, यह बुजुर्गी छाँटना नहीं, यह मजाक नहीं – “उत्तिष्ठत जाग्रत” (उठो, जागो) – प्रभु प्रभु! वे अपने पीछे हैं। मैं और लिख नहीं सकता – Onward (आगे बढ़ो) – केवल इतना ही कहता हूँ कि जो जो मेरा यह पत्र पढ़ेंगे, उन सब में मेरा भाव भर जायेगा, विश्वास करो। Onward (आगे बढ़ो) – प्रभु प्रभु! मुझे अनुभव हो रहा है मानो कोई मेरा हाथ पकड़कर लिखा रहा है। Onward (आगे बढ़ो) – प्रभु प्रभु! सब बह जायेंगे – होशियार – वे आ रहे हैं। जो जो उनकी सेवा के लिए – उनकी सेवा नहीं वरन् उनके पुत्र दीन-दरिद्रों, पापी-तापियों, कीट-पतंगों तक की सेवा के लिए तैयार होंगे, उन्हीं के भीतर उनका आविर्भाव होगा। उनके मुख पर सरस्वती बैठेंगी, उनके हृदय में महामाया महाशक्ति आकर विराजित होंगी। जो नास्तिक हैं, अविश्वासी हैं, किसी काम के नहीं हैं, दिखाऊ हैं, वे अपने को उनके शिष्य क्यों कहते हैं? वे चले जायें।
मैं और नहीं लिख सकता। इति –
चिरस्नेहास्पद,
विवेकानन्द
(२१)
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एविन्यू, शिकागो,
१८९४
प्रिय शशि,
तुम लोगों के पत्र मिले। बड़ा आनन्द हुआ। मजुमदार की लीला सुनकर अत्यन्त दुःख है। जो दूसरे को धक्के देकर आगे बढ़ना चाहता है, उसका आचरण ऐसा ही होता है। मेरा कोई अपराध नहीं। वह दस वर्ष पहले यहाँ आया था, उसकी बड़ी खातिरदारी हुई और खूब सम्मान मिला। अब मेरे पौबारह हैं। श्रीगुरु की इच्छा, मैं क्या करूँ! इसमें गुस्सा होना मजुमदार की नादानी है। खैर, उपेक्षितव्यं तद्वचनं भवत्सदृशानां महात्मनाम्। अपि कीट दंशन भी रुकाः वयं रामकृष्णतनयाः तद्हृदयरुधिरपोषिताः। “अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकं निन्दन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्” इत्यादीनि संस्मृत्य क्षन्तव्योऽयं जाल्मः।(१) प्रभु की इच्छा है कि इस देश के लोगों में अन्तर्दृष्टि प्रबोधित हो। फिर मजुमदार की क्या शक्ति है कि उसकी गति का रोध करे? मुझे नाम की आवश्यकता नहीं – I want to be a voice without a form(२)। हरमोहन – आदि किसी को मेरा समर्थन करने की आवश्यकता नहीं – कोऽहं तत्पादप्रसरं प्रतिरोद्धुं समर्थयितुं वा, के वान्ये हरमोहनादयः? तथापि मम हृदयकृतज्ञता तान् प्रति। “यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते” – नैषः प्राप्तवान् तत् पदवीमिति मत्वा करुणादृष्ट्या द्रष्टव्योऽयमिति(३)। प्रभु की इच्छा से अभी तक नामयश की आकांक्षा हृदय में उत्पन्न नहीं हुई, शायद होगी भी नहीं। मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं! वे इस यन्त्र द्वारा इस दूर देश में हजारों हृदयों में धर्मभाव उद्दीप्त कर रहे हैं।
. . .मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्(४), – मुझे उनकी कृपा पर आश्चर्य हो रहा है। जिस शहर में जाता हूँ उथल-पुथल मच जाती है। यहाँवाले मुझे कहते हैं – Cyclonic Hindu(५)। याद रखना, सब उनकी ही इच्छा से होता है – I am a voice without a form.
इंग्लैण्ड जाऊँगा या यमलैण्ड (यमपुरी) जाऊँगा, प्रभु जानें। वे ही सब बन्दोबस्त कर देंगे। इस देश में एक चुरुट की कीमत एक रुपया है। एक बार किराये की गाड़ी पर चढ़ेने से तीन रुपये खर्च हो जाते हैं – एक कुर्ते की कीमत १०० रुपया है। नौ रुपये रोज का होटल खर्च है – सब प्रभु जुटा देते हैं। . . . जय प्रभु, मैं कुछ नहीं जानता। ‘सत्यमेव जयते नानृतं सत्येनैव पन्था विततो देवयानः।’(६) ‘अभीः’ होना चाहिए। डरते हैं कापुरुष, वे ही आत्मसमर्थन भी करते हैं। हममें से कोई भी मेरा समर्थन करने के लिए लोहा न ले। मद्रास की खबर मुझे बीच बीच में मिलती रहती है; और राजपूताने की भी। Indian Mirror (इण्डियन मिरर) ने तबेले की बला बन्दर के सिर लादनेवाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मुझसे खूब चुटकियाँ ली हैं – सुनी किसकी बात और डाल दी गयी किस पर! सब खबरें पाता हूँ। अरे भाई, ऐसी आँखें हैं जो ७००० कोस दूर तक देखती हैं, यह बात सच है। अभी चुप रहना, धीरे धीरे सब बातें निकल पड़ेंगी – जहाँ तक उनकी इच्छा होगी उनकी एक भी बात झूठ नहीं होने की। भाई, कुत्ते बिल्ली की लड़ाई देखकर क्या कहीं मनुष्य दुःख करते हैं? इसी तरह साधारण मनुष्यों की लड़ाई, झगड़ा और ईर्ष्याद्वेष देखकर तुम लोगों के मन में कोई दूसरा भाव न आना चाहिए। दादा, आज छः महीने से कह रहा हूँ कि पर्दा हट रहा रहै – धीरे धीरे उठता जाता है, slow but sure (धीरे धीरे परन्तु निश्चित रूप से) – समय में प्रकाश होगा। वे जानें – “मन की बात क्या कहूँ? सखी! – कहने की मनाई है।” भाई, ये सब लिखने कहने की बातें नहीं। तुम लोगों को छोड़ मेरा पत्र कोई न पढ़े। पतवार न छोड़ना, दबाये बैठे रहो – पकड़ बिलकुल ठीक है, इसमें जरा भी भूल नहीं; रही पार जाने की बात, सो आज या कल – बस इतना ही। दादा, Leader (नेता) क्या कभी बनाया जा सकता है? नेता पैदा होता है, समझे? और फिर लीडरी करना बड़ा कठिन काम है – दासस्य दासः – हजारों आदमियों का मन रखना। Jealousy, selfishness (ईर्ष्या, स्वार्थपरता) जब जरा भी न हों, तब नेता है। पहले तोby birth (जन्मसिद्ध), फिर unselfish (निःस्वार्थ) हो, तब है नेता। सब ठीक हो रहा है, सब ठीक आयेंगे। वे जाल फेंक रहे हैं, ठीक जाल खींच रहे हैं – वयमनुसरामः, वयमनुसरामः, प्रीतिः परमसाधनम(७), – समझे? Love conquers in the long run(८) , हैरान होने से काम नहीं चलेगा – wait, wait (ठहरो) – धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है। . . .
तुमसे कहता हूँ, भाई, जैसा चलता है चलने दो – परन्तु देखना कोईform (बाहरी अनुष्ठानपद्धति) आवश्यक न हो – Unity in variety (बहुत्व में एकत्व) सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो।Everything must be sacrificed if necessary for that one sentiment – universality.(९) मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता – Perfect acceptance, not tolerance only, we preach and perform. Take care how you trample on the least rights of others.(१॰) इसी भँवर में बड़े बड़े जहाज डूब जाते हैं। पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोड़कर, दिखानी होगी, याद रखना। उनकी कृपा से सब ठीक हो जायेगा। . . . सब की इच्छा है कि नेता बने – परन्तु वह तो पैदा होता है – यही न समझने के कारण इतना अनिष्ट होता है। – प्रभु की कृपा से रामदादा शीघ्र ही ठण्डे हो जायेंगे एवं समझ सकेंगे। उनकी कृपा से कोई भी वंचित न रहेगा। जी. सी. घोष क्या कर रहे हैं?
हमारी माताएँ कुशल हैं तो? गौरी माँ कहाँ हैं? हजारों गौरी माँ की आवश्यकता है – उनके जैसे noble stirring spirit (महान् एवं तेजोमय भाव) की। आशा है, योगेन माँ आदि सभी कुशल होंगे। भैया, मेरा हृदय इतना भरपूर हो रहा है, मालूम होता है कि बाद में भाव को सम्हाल न सकूँ। महिम चक्रवर्ती क्या कर रहा है? उसके पास आना-जाना करते रहना, वह भला आदमी है। हम सभी को चाहते हैं – It is not at all necessary that all should have the same faith in our Lord as we have, but we want to unite powers of goodness against all the powers of evil.(११) मास्टर महाशय को मेरी ओर से अनुरोध करो।He can do it (वे यह कर सकते हैं)। हममें एक बड़ा दोष है – संन्यास की प्रशंसा। पहलेपहल उसकी आवश्यकता थी, अब तो हम लोग पक गये हैं, उसकी अब बिलकुल आवश्यकता नहीं। समझे? संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद न देखेगा, तभी तो यथार्थ संन्यासी है। सभी को बुलाकर कहना – मास्टर, जी. सी. घोष, रामदादा, अतुल इत्यादि सभी को – कि ५-७ लड़कों ने, जिनके पास एक पैसा भी न था, मिलकर एक काम शुरू किया – वही अब इस तरह की accelerated (क्रम क्रम से बढ़नेवाली) गति से बढ़ता जा रहा है – यह क्या कोरी आवाज है या प्रभु की इच्छा? यदि प्रभु की इच्छा है तो तुम लोग गुट्टबाजी Jealousy (ईर्ष्या) छोड़कर united action (एक होकर कार्य) करो। Shameful (लज्जा की बात है) – हम लोग Universal religion (सार्वजनीन धर्म) कर रहे हैं गुट्टबाजी करके! . . .
सभी यदि किसी दिन एक क्षणभर के लिए भी समझ सकें कि सिर्फ़ इच्छा होने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता – जिसे वे उठाते हैं वही उठता है, – जिसे वे गिराते हैं वह गिर जाता है, तो कुछ उलझन सुलझ जाय। परन्तु वही ‘अहं’ – खोखला अहं – जिसके जरा हाथ हिलाने की भी शक्ति नहीं, अगर दूसरे को कहे ‘उठने न दूँगा’ तो होता क्या है? वही Jealousy (ईर्ष्या), absence of conjoined action (सम्मिलित होकर कार्य करने की शक्ति का अभाव) गुलाम जाति का nature (स्वभाव) है; परन्तु हमें इसे उखाड़ फेंकने की चेष्टा करनी चाहिए। . . . यही terrible jealousy हमारी characteristic है (यही भयानक ईर्ष्या हमारा प्रधान लक्षण है) – खासकर बंगालियों का; क्योंकि we are the most worthless and superstitious and the most cowardly and lustful of all the Hindus.(१२) दस पाँच देश देखने ही से यह अच्छी तरह मालूम हो जायेगा। यहाँवालों से स्वाधीनता पाये हुए हमारे समधर्मी निग्रो – जिनमें से अगर कोई भी बड़ा आदमी हो गया तो white (गोरों) के साथ मिलकर उसे नेस्तनाबूद कर देने के लिए जी-जान से प्रयत्न करते हैं। हम ठीक वैसे ही हैं। गुलाम कीड़े – पैर उठाकर रखने की भी ताकत नहीं – बीबी का आँचल पकड़े ताश खेलते और हुक्का गुड़गुड़ाते हुए जिन्दगी पार कर देते हैं, और अगर उनमें से कोई एक कदम बढ़ जाता है तो सब के सब उसके पीछे पड़ जाते हैं – हरे हरे!
At any cost, any price, any sacrifice (जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पड़े – चाहे कितना ही त्याग करना पड़े) यह भाव हमारे भीतर न घुसने पाये – हम दस ही क्यों न हों – दो क्यों न रहें – do not care (परवाह नहीं) परन्तु जितने हों perfect character (सम्पूर्ण शुद्धचरित्र) हों। हमारे भीतर जो आपस में किसी की चुगली करे या सुने, उसे निकाल देना उचित है। यह चुगली ही सर्वनाश का मूल कारण है – समझे तो? हाथ दर्द करने लगा। . . . अब अधिक नहीं लिख सकता। ‘माँगो भलो न बाप से, रघुवर राखें टेक।’ रघुवर टेक रखेंगे दादा – इस विषय में तुम निश्चिन्त रहो। बंगाल में उनके नाम का प्रचार हो या न हो, इसकी मुझे परवाह नहीं – क्या वे मनुष्य हैं? राजपूताना, पंजाब, N.W.P. (उत्तर पश्चिम प्रान्त), मद्रास, इन्हीं सब प्रान्तों में उनका प्रचार करना होगा। राजपूताने में जहाँ “रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाइ पर वचन न जाई” – अभी तक विद्यमान है।
चिड़िया उड़ते उड़ते एक जगह पहुँचती है – जहाँ से अत्यन्त शान्त भाव से नीचे की ओर देखती है। क्या तुम वहाँ पहुँच चुके हो? जो लोग वहाँ नहीं पहुँचे हैं उन्हें दूसरे को शिक्षा देने का अधिकार नहीं। हाथ पैर ढीले करके बह जाओ – ठीक पहुँच जाओगे।
शीतदेव भाग रहे हैं – जाड़ा तो मैंने किसी तरह काट डाला। जाड़े में यहाँ तमाम देह मे electricity (विद्युत्) भर जाती है। Shake-hand करो (साहबों से हाथ मिलाओ) तो Shock (धक्का) लगता है और उससे आवाज आती है – अँगुलियों से गैस जलायी जा सकती है। और जाड़े का हाल तो मैंने लिखा ही है। सारे देश में अपनी धाक जमाये फिरता हूँ, परन्तु शिकागो मेरा ‘मठ’ है – घूम-फिरकर शिकागो में आ जाता हूँ। इस समय पूरब को जा रहा हूँ – कहाँ बेड़ा पार होगा, वही जानें। माताजी जयरामवाटी गयी हैं, आशा है उनका स्वास्थ्य अब ठीक हो गया होगा। तुम लोगों का कैसा चल रहा है, कौन चला रहा है? क्या रामकृष्ण, उनकी माँ, तुलसीराम इत्यादि उड़ीसा गये हैं?
कैसा है? – दासु की तुम लोगों पर वैसी ही प्रीति है न? वह प्रायः आया करता है न? भवनाथ कैसा है और वह क्या कर रहा है? तुम लोग उसके पास जाते हो या नहीं – तुम लोग उसे श्रद्धाभक्ति करते हो या नहीं? सुनो, संन्यासी फंन्यासी झूठ बात है – मूकं करोति वाचालं इत्यादि, किसके भीतर क्या है समझ में नहीं आता। उन्होंने उसे बड़ा बनाया है – वह हमारा पूज्य है। यदि इतना देख-सुनकर भी तुम लोगों को विश्वास न हो तो धिक्कार है तुम लोगों को! वह तुम्हें प्यार करता है न! उसे मेरा आन्तरिक प्यार कहना। कालीकृष्णबाबू को भी मेरा प्यार – वे बड़े उन्नतमना व्यक्ति हैं। रामलाल कैसा है? उसे कुछ विश्वास-भक्ति हुई? उसे मेरा प्यार एवं नमस्कार। सान्याल कोल्हू में ठीक घूम रहा है न? उसे धैर्य रखना होगा – कोल्हू ठीक चलता रहेगा। सब को मेरा हार्दिक प्यार।
अनुरागैकहृदयः,
विवेकानन्द
पु. – पूजनीय माताजी को उनके जन्मजन्मातर के दास का धूल्यवलुण्ठित साष्टांग प्रणाम – उनके आशीर्वाद से मेरा सर्वतोमंगल है।
[१] तुम जैसे महात्माओं को चाहिए की उसकी उपेक्षा करो। हम रामकृष्णतनय हैं, उन्होंने अपने हृदय के रुधिर से हमें हृष्टपुष्ट किया है। क्या हम कीड़े के काटने से डर जायें? “मन्दबुद्धि मनुष्य महात्माओं के असाधारण और सहज ही जिनका कारण नहीं बतलाया जा सकता, ऐसे आचरणों की निन्दा किया करते हैं।” (कुमार-सम्भव) आदि वाक्यों का स्मरण करके इस मूर्ख को क्षमा करना।
[२] मैं निराकार वाणी हो जाना चाहता हूँ।
[३] उनके प्रभावविस्तार की गति में बाधा देनेवाला या उसकी सहायता करनेवाला मैं कौन हूँ? हरमोहन इत्यादि भी कौन हैं? तथापि सब के प्रति मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। “जिस अवस्था में स्थित हो जाने पर मनुष्य कठिन दुःख में भी विचलित नहीं होता” (गीता) – इस मनुष्य को अभी वह अवस्था नहीं मिली, यह सोचकर इसके प्रति दयादृष्टि रखनी चाहिए।
[४] मूक को वाक्शक्तिसम्पन्न और लंगड़े को पर्वत पार कर जाने में समर्थ करते हैं।
[५] आँधी की तरह, अपने सामने जिस किसी को पाता है, उलटपुलट देता है- ऐसा शक्तिशाली हिन्दू।
[६] विजय सत्य की ही होती है, मिथ्या की नहीं। सत्यबल से ही देवयानमार्ग की प्राप्ति होती है (प्रश्नोपनिषत्)। वेदान्त के मत से, मृत्यु के पश्चात्, जितनी गतियाँ होती हैं, उनमें से देवयान द्वारा प्राप्त गति श्रेष्ठ है। वनों में उपासना करनेवाले और भिक्षापरायण निष्काम संन्यासियों की ही यह गति होती है।
[७] हम लोग उनका अनुसरण करेंगे, प्रीति ही परम साधन है।
[८] अन्त में प्रेम की ही विजय होती हैं।
[९] यदि आवश्यक हो तो “सार्वजनीनता” के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोड़ना होगा।
[१॰] हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, “दूसरों के धर्म का द्वेष न करना”; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उनका ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं। हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं। सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना।
[११] इसकी कोई आवश्यकता नहीं कि हमारे ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) पर हमारे ही जैसे विश्वास सब का हो। हम केवल संसार की सम्पूर्ण अहितकारी शक्तियों के विरुद्ध सम्पूर्ण कल्याणकारी शक्तियाँ एकत्र करना चाहते हैं।
[१२] सारी हिन्दू जातियों में हमीं सब से अधिक अपदार्थ, कुसंस्कारों से भरे, कापुरुष और कामी हैं।
(२२)
(गुरुभाईयों को लिखित)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अमेरिका, १८९४
प्रिय भ्रातृवृन्द,
इससे पहले मैंने तुम लोगों को एक पत्र लिखा है, किन्तु समयाभाव से वह बहुत ही अधूरा रहा। राखाल एवं हरि ने लखनऊ से एक पत्र में लिखा था कि हिन्दू समाचारपत्र मेरी प्रशंसा कर रहे थे, और वे लोग बहुत ही खुश थे कि श्री रामकृष्ण के वार्षिकोत्सव के अवसर पर बीस हजार लोगों ने भोजन किया। इस देश में मैं बहुत कुड़्छ कार्य और कर सकता था, किन्तु ब्राह्म समाजी एवं मिशनरी लोग मेरे पीड़्छे दौड़ रहे हैं। एवं भारतीय हिन्दुओं ने भी मेरे लिए कुछ नहीं किया। मेरा तात्पर्य यह है कि अगर कलकत्ता या मद्रास के हिन्दुओं ने एक सभा बुलाकर मुझे अपना प्रतिनिधि स्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पारित करवाया होता तथा मेरे प्रति किये गये उदारतापूर्ण स्वागत के लिए अमेरिकावासियों को साधुवाद दिया होता, तो यहाँ पर कार्य में अच्ड़्छे ढंग से प्रगति होती। लेकिन एक साल बीत गया, और कुछ नहीं हुआ – निश्चय ही मैंने बंगालयों पर कुड़्छ भी भरोसा नहीं किया था, पर मद्रासी लोग भी तो कुड़्छ नहीं कर सके।. . .
हमारी जाति से कोई भी आशा नहीं की जा सकती। किसी के मस्तिष्क में कोई नवीन विचार जाग्रत नहीं होता – उसी एक चिथड़े से सब कोई चिपके हुए हैं – रामकृष्णदेव ऐसे थे और वैसे थे, वही लम्बी-चौड़ी कहानी – जिसका न कोई आदि है और न अन्त। हाय भगवन्, तुम भी तो ऐसा कुछ करके दिखलाओ कि जिससे यह पता चले कि तुम लोगों में भी कुछ असाधारणता है – अन्यथा आज घण्टा आया तो कल बिगुल और परसों चमर; आज खाट मिली, कल उसके पायों को चाँदी से मढ़ा गया – आज खाने के लिए लोगों को खिचड़ी दी गयी और उनको दो हजार लम्बीचौड़ी कहानियाँ सुनायी गयीं – वही चक्र गदा शंख पद्म तथा शंख गदा पद्य चक्र – यह सब निरा पागलपन नहीं तो और क्या है? अंग्रेजी में इसी को imbecility (शारीरिक तथा मानसिक कमजोरी) कहा जाता है। जिन लोगों के मस्तिष्क में इस प्रकार के ऊलजलूलों के सिवाय और कुछ नहीं है, उन्हीं को imbecile कहते हैं। घण्टा दायीं ओर बजना चाहिए अथवा बायीं ओर, चन्दन माथे पर लगाना चाहिए या अन्यत्र कहीं, आरती दो बार उतारनी चाहिए या चार बार – इन विषयों को लेकर जो दिनरात माथापच्ची किया करते हैं उन्हीं का नाम भाग्यहीन है और इसीलिए हम लोग श्रीहीन तथा जूतों की ठोकर खानेवाले हो गये तथा पश्चिम के लोग जगद्विजयी। आलस्य तथा वैराग्य में आकाश-पाताल का अन्तर है।
यदि भलाई चाहते हो तो घण्टा इत्यादि को गंगाजी में सौंपकर साक्षात् भगवान नारायण की – विराट् और स्वराट् की – मानव देहधारी प्रत्येक मनुष्य की पूजा में तत्पर होओ। यह जगत् विराट्रूप है – उसकी पूजा का अर्थ है उसकी सेवा – इसी को कर्म कहते हैं। घण्टे के बाद चमर लेने का अथवा भोजन की थाली सामने रखकर दस मिनिट बैठना चाहिए या आधा घण्टा, इस प्रकार के विचारविमर्श का नाम कर्म नहीं है, यह तो पागलपन है। लाखों रुपये खर्च कर काशी तथा वृन्दावन के मन्दिरों का पट खुलता और लगता है। कहीं ठाकुरजी वस्त्र बदल रहे हैं, तो कहीं भोजन अथवा और कुछ कर रहे हैं, जिसका ठीक ठीक तात्पर्य हम नहीं समझ पाते, किन्तु दूसरी ओर जीवित ठाकुर भोजन तथा विद्या के बिना मरे जा रहे हैं। बम्बई के बनिया लोग खटमलों के अस्पताल बनवा रहे हैं, किन्तु मनुष्यों की ओर उनका कुछ भी ध्यान नहीं है – चाहे वे मर ही क्यों न जायें। तुम लोगों में इन बातों को समझने तक की भी बुद्धि नहीं है, यही हमारे देश की सब से बड़ी बीमारी है, यह देश नहीं, पागलखाना है।. . . तुम लोग अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ और उस विराट् की उपासना का प्रचार करो – जो कि कभी हमारे देश में नहीं हुआ है। लोगों के साथ विवाद करने से काम न होगा, सब से मिलकर चलना पड़ेगा।. . .
गाँव गाँव तथा घर घर में जाकर इस आदर्श का प्रचार करो तभी यथार्थ में कर्म का अनुष्ठान होगा; अन्यथा चुपचाप पड़े रहना तथा बीच बीच में घण्टा हिलाना – यह तो एक प्रकार का रोगविशेष है। स्वतन्त्र बनो, स्वतन्त्र-बुद्धि से काम लेना सीखो – अन्यथा अमुक तन्त्र के अमुक पटल (अध्याय) में घण्टे की लम्बाई का जो उल्लेख है, उससे हमें क्या लाभ? प्रभु की इच्छा से लाखों तन्त्र, वेद, पुराणादि सब कुछ तुम्हारी वाणी से अपने आप प्रकट होंगे। यदि कुछ करके दिखा सको, एक वर्ष के अन्दर यदि भारत के विभिन्न स्थलों में दो-चार लाख चेले बना सको, तब मैं तुम्हारी बहादुरी समझूँगा।
क्या तुम उस छोकरे को जानते हो, जो कि माथा मुँड़ाकर बम्बई से रामेश्वर गया है? वह अपने को रामकृष्णदेव का शिष्य बतलाता है। उसने न तो कभी अपने जीवन में उनको देखा और न सुना ही – क्या यह खिलवाड़ है? गुरु-परम्परा के बिना कोई भी कार्य नहीं हो सकता – क्या यह बच्चों का खेल है? वैसे ही शिष्य हो गया – क्या मजे की बात है! यदि वह कायदे से न चले तो उसे निकाल बाहर करना। गुरु-परम्परा अर्थात् जो शक्ति गुरु से शिष्य में आती है तथा उनसे उनके शिष्यों में संक्रमित होती है – उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। वैसे ही अपने को रामकृष्णदेव का शिष्य कह देना – क्या यह तमाशा है? जगमोहन ने पहले मुझसे कहा था कि एक व्यक्ति अपने को मेरा गुरुभाई बतलाता है, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह वही छोकरा है; अपने को गुरुभाई कहता है, क्योंकि शिष्य कहने में लज्जा आती है। एकदम गुरु बनना चाहता है! यदि उसका आचरण ठीक न हो तो उसे अलग कर देना।
किसी कार्य का न होना ही सुबोध तथा तुलसी की मानसिक अशान्ति का कारण है। गाँव गाँव तथा घर घर में जाकर लोकहित एवं ऐसे कार्यों में आत्मनियोग करो, जिससे कि जगत् का कल्याण हो सके। चाहे अपने को नरक में क्यों न जाना पड़े, परन्तु दुसरों की मुक्ति हो। मुझे अपनी मुक्ति की चिन्ता नहीं है। जब तुम अपने लिए सोचने लगोगे, तभी मानसिक अशान्ति आकर उपस्थित होगी। अरे भाई, तुम्हें शान्ति की क्या आवश्यकता हैं? जब तुम सब कुछ छोड चुके हो, तब शान्ति तथा मुक्ति की अभिलाषा को भी त्याग दो। किसी प्रकार की चिन्ता अवशिष्ट न रहने पाये। स्वर्ग, नरक, भक्ति अथवा मुक्ति की परवाह न करो। घर घर जाकर भगवन्नाम का प्रचार करो। दूसरों की भलाई से ही अपनी भलाई होती है, अपनी मुक्ति तथा भक्ति भी दूसरों की मुक्ति तथा भक्ति से ही सम्भव है, अतः उसी में संलग्न हो जाओ, तन्मय रहो तथा उन्मत्त बनो। जैसे कि श्रीरामकृष्णदेव तुमसे प्रीति करते थे, मैं तुमसे प्रीति करता हूँ, वैसे ही तुम भी जगत् से प्रीति करो।
सब को एकत्रित करो, गुणनिधि कहाँ है? उसे अपने पास बुलाओ। उससे मेरी अनन्त प्रीति कहना। गुप्ता कहाँ है? यदि वह आना चाहे तो आने दो। मेरे नाम से उसे अपने पास बुलाओ। निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखो –
(१) हम लोग संन्यासी हैं, भक्ति-मुक्ति सब कुछ हमारे लिए त्याज्य हैं।
(२) जगत् का कल्याण करना, प्राणिमात्र का कल्याण करना हमारा व्रत है, चाहे उससे मुक्ति मिले अथवा नरक।
(३) जगत् के कल्याण के लिए श्रीरामकृष्णदेव का आविर्भाव हुआ था। अपनी अपनी भावनानुसार उनको तुम मनुष्य, ईश्वर, अवतार – जो कुछ कहना चाहो – कह सकते हो।
(४) जो कोई उनको प्रणाम करेगा, तत्काल ही वह सुवर्ण बन जायेगा। इस सन्देश को लेकर तुम घर घर जाओ तो सही – देखोगे कि तुम्हारी सारी अशान्ति दूर हो गयी है। डरने की जरूरत नहीं – डरने का कारण ही कहाँ है? तुम्हारी कोई आकांक्षा तो है नहीं अब तक तुमने उनके नाम तथा अपने चरित्र का जो प्रचार किया है, वह ठीक है; अब organised (संगठित) होकर प्रचार करो, प्रभु तुम्हारे साथ हैं, डरने की कोई बात नहीं है।
चाहे मैं मर जाऊँ या जीवित रहूँ, भारत लौटूँ या न लौटूँ, तुम लोग प्रेम का प्रचार करते रहो। गुप्ता को इस कार्य में जुटा दो। किन्तु यह याद रखना कि दूसरों को मारने के लिए अस्त्रशस्त्र की आवश्यकता है – “सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति।” (मृत्यु जब अवश्यम्भावी है, तब सत्कार्य के लिए प्राणत्याग करना ही श्रेय है।)
प्रेमपूर्वक तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च:-पहली चिट्ठी की बात याद रखना – पुरुष तथा नारी दोनों ही आवश्यक हैं। आत्मा में नारी-पुरुष का कोई भेद नहीं है; रामकृष्णदेव को अवतार मात्र कह देने से ही काम चलेगा, शक्ति का विकास आवश्यक है। हजारों की संख्या में पुरुष तथा नारी चाहिए, जो कि अग्नि की तरह हिमालय से कन्याकुमारी तथा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक तमाम दुनिया में फैल जायेंगे। यह बच्चों का खेल नहीं है और न उसके लिए समय ही है। जो बच्चों का खेल खेलना चाहते हैं, उन्हें इसी समय पृथक् हो जाना चाहिए, नहीं तो आगे उनके लिए बड़ी विपत्ति ड़्खड़ी हो जायेगी। Organisation (संगठन) चाहिए, आलस्य को दूर कर दो, प्रचार करते रहो, अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ। मुझ पर भरोसा न रखो, चाहे मैं मर जाऊँ अथवा जीवित रहूँ – तुम लोग प्रचार करते रहो।
विवेकानन्द
(२३)
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
न्यूयार्क,
२५ सितम्बर, १८९४
प्रिय शशि,
तुम लोगों के कई पत्र मिले। शशी आदि जो प्रलय मचाये हुए हैं इससे मुझे बडी खुशी है। प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनिया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह गुरु की फतह! अरे भाई, ‘श्रेयांसि बहुविघ्नानि’ (अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं), उन्हीं विघ्नों की रेलपेल में आदमी तैयार होता है।. . . मिशनरीफिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले! . . . बडे बडे बह गये, अब गड़रिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल वाहवाही देता है तो दुसरा दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? ‘सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः।’ (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नही; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।) . . . धीरे धीरे सब होगा।
अद्भुत चमकदमक और बल का विकास है – कितना बल, कैसी कार्यकुशलता, कैसी ओजस्विता! हाथी जैसे घोड़े बड़े बड़े मकान जैसी गाड़ियाँ खींच रहे हैं। . . . महाशक्ति का विकास है – ये सब वाममार्गी हैं। उसी की सिद्धि यहाँ हुई! खैर – इस देश की नारियों को देखकर मेरे तो होश उड़ गये हैं। मुझे बच्चे की तरह घर-बाहर, दुकान-बाजार में लिये फिरती हैं। सब काम करती हैं। मैं उसका चौथाई हिस्सा भी नहीं कर सकता! ये रूप में लक्ष्मी और गुण में सरस्वती हैं – ये साक्षात् जगदम्बा हैं, इनकी पूजा करने से सर्वसिद्धि मिल सकती है। अरे राम भजो, हम भी आदमी हैं? इस तरह की माँ जगदम्बा अगर अपने देश में एक हजार तैयार करके मर सकूँ तो निश्चिन्त होकर मर सकूँगा। तभी तुम्हारे देश के आदमी आदमी कहलाने लायक हो सकेंगे। तुम्हारे देश के पुरुष इस देश की नारियों के पास भी आने योग्य नहीं है – तुम्हारे देश की नारियों की बात तो अलग रही! हरे हरे, महापापी हैं! दस साल की कन्या का विवाह कर देते हैं। हे प्रभु, हे प्रभु! किमधिकमिति।
मैं इस देश की महिलाओं को देखकर आश्चर्यचकित हो जाता हूँ। जगदम्बा की यह कैसी कृपा है! ये कैसी महिलाएँ हैं, बाप रे! मर्दें को एक कोने में ठूँस देना चाहती हैं। मर्द गोते खा रहे हैं। माँ, तेरी ही कृपा है। . . . स्त्रीपुरुष-भेद की जड़ नहीं रखूँगा। आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद है? स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा है। शरीराभिमान छोड़कर खड़े हो जाओ। कहो अस्ति, अस्ति; नास्ति नास्ति करके देश गया। सोऽहम् सोऽहम् शिवोऽहम्। कैसा उत्पात! हर एक आत्मा में अनन्त शक्ति है। अरे, नहीं नहीं करके क्या तुम कुत्ता-बिल्ली हो जाओगे? नहीं है? क्या नहीं है? किसके नहीं है? शिवोऽहम् शिवोऽहम्। नहीं नहीं सुनने पर मेरे सिर पर वज्रपात होता है। यह जो दीन-हीन भाव है, यह एक बीमारी है – क्या यही दीनता है? – यह गुप्त अहंकार है। न लिंगं धर्मकारणं, समता सर्वभूतेषु एतन्मुक्त्तस्य लक्षणम्। अस्ति, अस्ति, अस्ति, सोऽहम्, सोऽहम्, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्। निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। विशाल बर्फराशि (Avalanche) की तरह दुनिया पर टूट पड़ो – दुनिया फट जाये चर चर करते, – हर हर महादेव! उद्धरेदात्मनात्मानम् (अपने ही सहारे अपना उद्धार करना पड़ेगा)।
. . . इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड़ नहीं है – बड़े आदमी वे हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं – यही सदा से होता आया है – एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हजारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोऽहम् शिवोऽहम्, (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो – मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ)। . . .
मुझे मालूम होता है कि अब काम ठीक चलेगा। . . . माताजी(१) के लिए एक निवास-स्थान कर सकने पर मैं बहुत-कुछ निश्चिन्त हो जाऊँगा। समझे? दो-तीन हजार रुपये तक खरीदने लायक कोई जमीन देखो। जमीन थोड़ी बड़ी होनी चाहिए। कम से कम पहले मिट्टी का मकान तैयार करो, बाद में वहाँ एक अट्टालिका निर्मित हो जायेगी। शीघ्र ही जमीन ढूँढ़ो। मुझे पत्र लिखना। कालीकृष्ण बाबू से पूछना कि मैं किस तरह रकम भेजूँ – कुक कम्पनी के द्वारा किस तरह भेजूँ? यथाशीघ्र यह काम करो। यह होने पर मैं बहुत-कुछ निश्चिन्त हो जाऊँगा। जमीन बड़ी होनी चाहिए, बाकी सब बाद में देखा जायेगा। कलकत्ते के जितने समीप होगी, उतना ही अच्छा। एक बार निवास-स्थान ठीक हो जाने पर माताजी को केन्द्र बना गौरी माँ, गोपाल माँ को भी कार्य की धूम मचा देनी होगी।
मद्रास में खूब आन्दोलन मच गया, यह खुश खबर है। सुना था, तुम लोग एक मासिक-पत्रिका निकालना चाहते हो, उसकी क्या खबर है? सब के साथ मिलना होगा, किसी के पीछे पड़ने से काम नहीं होगा। अशुभ शक्तियों के विरुद्ध शुभ शक्तियों का प्रयोग करना होगा – असल बात यही है। हमारे गुरु पर जबरन लोगों को विश्वास करने के लिए न कहना। . . . तुम लोगों को एक मासिक-पत्रिका का सम्पादन करना होगा। उसमें आधी बंगला रहेगी, आधी हिन्दी – हो सके तो एक अंग्रेजी में भी। . . . केवल घूमते रहने से क्या होगा? जहाँ जाओगे वहीं एक स्थायी प्रचारकेन्द्र खोलना होगा। तभी व्यक्तियों में परिवर्तन होगा। मैं एक पुस्तक लिख रहा हूँ। इसके समाप्त होते ही बस एक ही दौड़ में घर आ जाऊँगा। . . . सदा याद रखना कि श्रीरामकृष्णदेव संसार के कल्याण के लिए आये थे – नाम या मान के लिए नहीं। वे जो कुछ सिखाने आये थे, वही फैलाओ। उनके नाम की आवश्यकता नहीं – उनका नाम आप ही होगा। हमारे गुरुदेव को मानना पड़ेगा यह कहने ही से दलबन्दी होगी। और सब सत्यानाश हो जायेगा – सावधान! सभी से मधुर-भाषण – गुस्सा करने ही से सब काम बिगड़ता है। जिसका जो जी चाहे कहे, आप में मस्त रहो – दुनिया तुम्हारे पैरोंतले आ जायेगी, चिन्ता मत करो। लोग कहते हैं – इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो; मैं कहता हूँ – पहले अपने आप पर विश्वास करो। अपने पर विश्वास करो – सब शक्ति तुममें है – इसकी धारणा करो और शक्ति जगाओ – कहो, हम सब कुछ कर सकते हैं। “नहीं नहीं कहने से साँप में विष भी नहीं रह जाता।” “नहीं नहीं” मत कहो, कहो ‘हाँ हाँ’, ‘सोऽहम्’ ‘सोऽहम्।’
किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्तिः
आमन्त्रयस्व भगवन् भगदं स्वरूपम्।
त्रैलोक्यमेतदखिलं तव पादमूले
आत्मैव हि प्रभवते न जडः कदाचित्॥(२)
महा हुंकार के साथ कार्य का आरम्भ कर दो। भय क्या है? किसकी शक्ति है जो बाधा डाले? कुर्मस्तारकचर्वणम् त्रिभुवन मुत्पाटयामो बलात् । किं भो न विजानास्यस्मान् – रामकृष्णदासा वयम्।(३) भय? किसका भय? किन्हें भय?
क्षीणा स्म दीनाः सकरुणा जल्पन्ति मूढ़ा जनाः
नास्तिक्यन्त्विदन्तु अहह देहात्मवादातुराः।
प्राप्ताः स्म वीरा गतभया अभयं प्रतिष्ठां यदा।
आस्तिक्यन्त्विदन्तु चिनुमः रामकृष्णदासा वयम्॥
पीत्वा पीत्वा परमममृतं वीतसंसाररागाः
हित्वा हित्वा सकलकलहप्रापिणीं स्वार्थसिद्धिम्।
ध्यात्वा ध्यात्वा गुरुवरपदं सर्वकल्याणरूपं
नत्वा नत्वा सकलभुवनं पातुमामन्त्रयामः॥
प्राप्तं यद्वै त्वनादिनिधनं वेदोदधिं मथित्वा।
दत्तं यस्य प्रकरणे हरिहरब्रह्मादिदेवैर्बलम्।
पूर्णं यत्तु प्राणसारैर्भैमनारायणानाम्
रामकृष्णस्तनुं धत्ते तत्पूर्णपात्रमिदं भोः॥(४)
अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों में कार्य का प्रभाव करना होगा। ‘त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः’ (एकमात्र त्याग के द्वारा अमृतत्व की प्राप्ति होती हैं)। त्याग, त्याग – इसी का प्रचार अच्छी तरह करना होगा। त्यागी हुए बिना तेजस्विता नहीं आने की। . . .
बाबूराम, योगेन इतना क्यों भोग रहे हैं? शायद दीनहीन भाव की ज्वाला से। बीमारी-सीमारी सब झाड़ फेंकने को कहो – घण्टेभर के भीतर सब बीमारी हट जायेगी। आत्मा को भी कभी बीमारी जकड़ती है? झूठ! कहो घण्टाभर बैठकर सोचे – मैं आत्मा हूँ – मुझे फिर कैसा रोग? सब दूर हो जायेगा। तुम सब सोचो – हम अनन्तबलशाली आत्मा हैं – फिर देखो, कैसा बल मिलता है। कैसा दीन भाव? मैं ब्रम्हमयी का पुत्र हूँ। कैसा रोग, कैसा भय, कैसा अभाव? दीनहीन भाव पूँक मारकर बिदा कर दो। सब अच्छा हो जायेगा। ‘नास्ति’ का भाव न रहे, सब में ‘अस्ति’ का भाव चाहिए। कहो, मैं हूँ, ईश्वर हैं, और सब कुछ मुझमें है। मेरे लिए जो कुछ चाहिए – स्वास्थ्य, पवित्रता, ज्ञान – सब मैं अवश्य अपने भीतर से जगाऊँगा। अरे ये विदेशी मेरी बातें समझने लगे और तुम लोग बैठे बैठे दीन भाव की बीमारी में कराहते हो? किसकी बीमारी? कैसी बीमारी? झाड़ फेंकों। . . . वीर्यमसि वीर्य, बलमसि बलम्, ओजोऽसि ओजः, सहोऽसि सहो मयि धेहि। (तुम वीर्यस्वरूप हो, मुझे वीर्य दो; तुम बलस्वरूप हो, मुझे बल दो; तुम ओजःस्वरूप हो, मुझे ओज दो; तुम सामर्थ्यस्वरूप हो, मुझे सामर्थ्य दो।) प्रतिदिन पूजा के समय यह जो आसन -प्रतिष्ठा है – आत्मानं अच्छिद्रं भावयेत् (आत्मा को अच्छिद्र सोचना चाहिए) – इसका क्या अर्थ है? कहो – हमारे भीतर सब कुछ है – इच्छा होने ही से प्रकाशित होगा। तुम अपने मन ही मन कहो – बाबूराम, योगेन आत्मा हैं, – वे पूर्ण हैं, उन्हें फिर रोग कैसा ? घण्टेभर के लिए दो-चार दिन तक कहो तो सही, सब रोग-शोक छूट जायेंगे। किमधिकमिति।
साशीर्वाद,
विवेकानन्द
[१] श्रीरामकृष्णदेव की लीलासहधर्मिणी परमाराध्या श्री माँ सारदादेवी।
[२] हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो? सब शक्ति तो तुम्हीं में है। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ की कोई शक्ति नहीं – प्रबल शक्ति आत्मा की ही है।
[३] हम ताराओं को अपने दाँतों के नीचे पीस दे सकते हैं, बलपूर्वक तीनों लोकों का उत्पाटन कर सकते हैं। हमें नहीं जानते? हम श्रीरामकृष्ण के दास हैं!
[४] जो लोग देह को आत्मा मानते हैं, वे ही करुण कण्ठ से कहते हैं – हम क्षीण हैं, हम दीन हैं। यह नास्तिक्य हैं। हम लोग जब कि अभयपद पर स्थित हैं तो हम भयरहित वीर क्यों न हों, यही आस्तिक्य है। हम रामकृष्ण के दास हैं।
संसार में आसक्त्ति से रहित होकर, सब कलहों की जड़ आसक्त्ति का त्याग करके, परम अमृत का पान करते हुए, सर्वकल्याणस्वरूप श्रीगुरु के चरणों का ध्यान कर, समस्त संसार को नतमस्तक होकर उस अमृत का पान करने के लिए बुला रहे हैं।
अनादि अनन्त वेदरूप समुद्र का मन्थन करके जो कुछ मिला है, ब्रम्हा-विष्णु-महेश आदि देवताओं ने जिसमें अपनी शक्ति का नियोग किया है, जिसे पार्थिव नारायण कहना चाहिए अर्थात् जिसमें भगवदावतारों के प्राणों का सारपदार्थ है, श्रीरामकृष्ण अमृत के पूर्ण पात्रस्वरूप उसी देह को लेकर आये थे।
(२४)
(स्वामी शिवानन्द को लिखित)
संयुक्त राज्य, अमेरिका,
१८९४
प्रिय शिवानन्द,
तुम्हारा पत्र अभी मिला। कदाचित् तुम्हें मेरे पहले पत्र मिल चुके होंगे और तुम्हें मालूम हो गया होगा कि और कुछ सामान अमेरिका भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। समाचार-पत्रों की इस भिनभिनाहट ने निःसन्देह मुझे प्रसिद्ध कर दिया है परन्तु इसका प्रभाव भारत में अधिक है और यहाँ कम। इसके विपरीत निरन्तर समाचार-पत्रों की घोषनाएँ ऊँचे वर्ग के मनुष्यों के मन में एक अरुचि-सी पैदा कर देती है, अतएव जो हुई सो पर्याप्त है। अब तुम भारत में इन सभाओं के ढंग पर अपने आप को संगठित करने की चेष्टा करो। इस देश में तुम्हें कुछ और भेजने की आवश्यकता नहीं। धन के विषय में बात यह है कि मैंने परम पूजनीय माताजी के लिए मकान बनाने का संकल्प कर लिया है, क्योंकि महिलाओं को उसकी पहले आवश्यकता है। . . . माँ के स्थान के लिए मैं लगभग ७००० रुपये भेज सकता हूँ। यदि वह पहले हो जाये तो फिर मुझे किसी बात की चिन्ता नहीं। मुझे आशा है कि इस देश से जाने के बाद भी मुझे १६०० रुपये प्रतिवर्ष मिलते रहेंगे। वह रुपया मैं माताओं के स्थान के लिए रखूँगा, इससे कार्य आगे बढ़ता जायेगा। मैंने तुम्हें जमीन के बारे में पहले ही लिखा है। . . .
मैं इससे पहले ही भारत को लौट आता, परन्तु भारत में धन नहीं है। सहस्रों लोग श्रीरामकृष्णदेव का आदर करते हैं, परन्तु कोई फूटी कौड़ी भी नहीं देगा – यह है भारत! यहाँ लोगों के पास धन है, और वे लोग दान भी करते हैं। अगले शीतकाल में मैं भारत आ जाँऊगा। तब तक तुम लोग मिल-जुलकर रहो।
संसार सिद्धान्तों की कुछ परवाह भी नहीं करता। वह मनुष्य ही को मानता है। जो मनुष्य उन्हें प्रिय होगा उसके वचन वे शान्ति से सुनेंगे, चाहे वे कैसे ही निरर्थक हों; परन्तु जो मनुष्य उन्हें अप्रिय होगा उसके वचन नहीं सुनेंगे। इस पर विचार करो और अपने आचरण में यथोचित परिवर्तन करो। सब बातें ठीक हो जायेंगी। यदि तुम नेता बनना चाहते हो तो सब के दास बनो। यह सच्चा रहस्य है। यदि तुम्हारे वचन कठोर भी होंगे तब भी तुम्हारा प्रेम स्वतः जान पड़ेगा। मनुष्य प्रेम को पहचानता है, चाहे वह किसी भी भाषा में प्रकट हो।
मेरे प्यारे भाई, श्रीरामकृष्णदेव ईश्वर के अवतार थे इसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है, परन्तु वे कहते थे कि लोगों को स्वयं देखने दो, जबरदस्ती क्या कोई किसी को दिखा सकता है? – और यही मेरी आपत्ति है।
लोगों को अपना मत प्रकट करने दो। हमें इसमें क्या आपत्ति है? श्रीरामकृष्णदेव का अध्ययन किये बिना वेद-वेदान्त, भागवत और अन्य पुराणों का महत्त्व समझना असम्भव है।
His life is a searchlight of infinite power thrown upon the whole mass of Indian religious thought. He was the living commentary to the Vedas and to their aim. He had lived in one life the whole cycle of the national religious existence in India.(१)
भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था या नहीं, यह मुझे मालूम नहीं और बुद्ध, चैतन्य इत्यादि एकदेशीय हैं; पर श्रीरामकृष्णदेव the latest and the most perfect (सब की अपेक्षा आधुनिक और सब से पूर्ण) हैं – ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, उदारता और लोकहितैषणा – इन सब गुणों के वे मूर्तस्वरूप हैं। किसी दूसरे के साथ क्या उनकी तुलना हो सकती है? जो उनके गुणों का आदर नहीं कर सकता है उसका जीवन व्यर्थ है। मैं परम भाग्यशाली हूँ कि मैं जन्मजन्मान्तर से उनका दास रहा हूँ। उनका एक शब्द भी मेरे लिए वेद-वेदान्त से अधिक मूल्यवान है। तस्य दासदासदासोऽहम् – अरे, मैं तो उनके दासों के दासों का दास हूँ। परन्तु क्षूद्र संकीर्णता उनके सिद्धान्तों के विरूद्ध है, उसी से मुझे दुःख होता है। उनका नाम चाहे विस्मरण हो जाये परन्तु उनका उपदेश फलप्रद हो! क्यों, क्या वे नाम के दास थे? कुछ मछुओं और अनपढ़ लोगों ने ईसामसीह को ईश्वर कहा था, परन्तु शिक्षित लोगों ने उन्हें मार डाला; अपने जीवन में बुद्धदेव ने बहुतसे व्यापारियों और ग्वालों से सम्मान पाया; परन्तु श्रीरामकृष्णदेव अपने जीवन में पूजे गये थे – उसी उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में – विश्वविद्यालय के असाधारण योग्यता रखनेवाले विद्वानों ने उन्हें ईश्वर का अवतार माना। . . . (कृष्ण, बुद्ध, ईसामसीह इत्यादि) के विषय में केवल थोड़ीसी बातें लिखी गयी हैं। बंगाली कहावत है कि “जिसके साथ हम कभी नहीं रहे हैं वह व्यक्ति अवश्य ही उत्तम गृहस्वामी होगा।” परन्तु ये तो ऐसे एक महापुरुष हैं जिनकी संगति में हम दिन-रात रहे हैं और फिर भी हम इनका व्यक्तितत्व उन सब से बढ़ा-चढ़ा मानते हैं। क्या तुम इस अद्भुत घटना को समझ सकते हो?
‘माँ’ के जीवन का विलक्षण महत्त्व तुम लोग अभी नहीं समझ सके हो – तुममें से एक भी नहीं, परन्तु धीरे-धीरे तुम जानोगे। शक्ति के बिना संसार का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि संसार के सब देशों में हमारा देश ही सब से अधिक बलहीन और पिछड़ा हुआ है? इसका कारण यही है कि वहाँ शक्ति का निरादर होता है। उस अनुपम शक्ति को भारत में पुनः जाग्रत करने के लिए माँ का जन्म हुआ है, और उन्हें केन्द्र बनाकर फिर से गार्गी और मैत्रेयी का जन्म संसार में होगा। प्रिय भाई, अभी तुम बहुत थोड़ा समझते हो, परन्तु धीरे-धीरे तुम सब जान जाओगे। इसलिए मैं उनका मठ पहले चाहता हूँ। . . . शक्ति की कृपा बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। अमेरिका और यूरोप में मैं क्या देखता हूँ? – शक्ति की उपासना। परन्तु अज्ञानवश वे उसकी उपासना इन्द्रियभोगद्वारा करते हैं। फिर कल्पना करो कि जो पवित्रता से सात्त्विक भाव द्वारा अपनी माता के रूप में उसे पूजेंगे वे कितने कल्याण को प्राप्त करेंगे! दिन पर दिन सब बातें मेरी समझ में आ रही हैं। मेरी अन्तर्दृष्टि का धीरे-धीरे विकास हो रहा है। इसलिए हमें माँ का मठ पहले बनाना चाहिए। पहले माँ और उनकी पुत्रियाँ, फिर पिता और उनके पुत्र – क्या तुम यह समझ सकते हो? . . . मेरे लिए माँ की कृपा पिता की कृपा से लाखों बार अधिक मूल्यवान है। माँ की कृपा, माँ का आशीष मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है। कृपया मुझे क्षमा करो, मैं माँ के विषय में कुछ कट्टर हूँ। यदि माँ की आज्ञा होगी तो उनके भूत कुछ भी काम कर सकते हैं। अमेरिका के लिए प्रस्थान करने से पहले मैंने माँ को लिखा था कि वे मुझे आशीर्वाद दें। उनका आशीर्वाद आया और एक ही छलाँग में मैंने समुद्र पार कर लिया। देखा तुमने! इस विकट शीतकाल में मैं स्थानस्थान में भाषण कर रहा हूँ और विषम बाधाओं से लड़ रहा हूँ जिससे कि माँ के मठ के लिए कुछ धन एकत्रित हो सके।. . . निरंजन की लड़वैये की-सी वृत्ति है। परन्तु उसे माँ के लिए बड़ी भक्ति है, और उसकी झक को मैं सहन कर सकता हूँ। वह अब बहुत ही आश्चर्यजनक काम कर रहा है। मैं सब खबर रखता हूँ। और तुमने मद्रासियों के साथ सहयोग करके बहुत अच्छा किया। प्रिय भाई, मुझे तुमसे बड़ी आशा है। तुम सब को साथ मिलकर काम करने के लिए संगठित करो। जैसे ही तुम माँ के लिए जमीन ले लोगे मैं सीधा भारत के लिए चल दूँगा। जमीन का टुकड़ा बड़ा होना चाहिए। शुरू में मिट्टी का घर होने दो, समय पर मैं सुन्दर भवन बनवा दूँगा। डरो नहीं।
मलेरिया का मुख्य कारण पानी होता है, क्यों नहीं तुम दो तीन फिलटर बनाते? यदि तुम पहले पानी को उबाल लोगे, फिर छानोगे तब वह हानिकारक न होगा। . . . कृपा करके दो बड़े ‘पैसचर’ के फिलटर मोल लो जो कीटाणुओं से सुरक्षित हों। उसी में खाना पकाओ और पीने के काम में लाओ तो तुम मलेरिया का नाम कभी न सुनोगे। आगे बड़ो, आगे बढ़ो; काम, काम, काम – अभी तो काम का आरम्भ ही है।
किमधिकमिति
विवेकानन्द
[१] उनका जीवन भारतीय धार्मिक विचार के समूह पर एक अनन्त शक्ति का तीव्र प्रकाश है। वेदों के और उनके ध्येय के वे जीवित भाष्य हैं, भारत के जातीय धार्मिक जीवन का एक समग्र कल्प उन्होंने एक जीवन में पूरा कर दिया था।
(२५)
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते श्री रामकृष्णाय
संयुक्त्त राज्य अमेरिका,
१८९४
प्राणाधिकेषु,
तारक दादा और हरि का पहला पत्र अब मिला। उससे मालूम हुआ कि वे लोग कलकत्ता आ रहे हैं। मेरे पूर्व पत्र से सभी ज्ञात हुए हो। रामदयाल बाबू का भी पत्र मिला, तदनुसार फोटो भेजूँगा। माता जी के लिए जमीन खरीदना होगा। इफलहाल मिट्टी का ही मकान हो, बाद में देखा जायगा। लेकिन जमीन बड़ी होनी चाहिए। किस तरह किसको रुपया भेजूँगा, लिखना। तुममें से कोई विषय-कर्म का भार सँभालो। . . . विमला (कालीकृष्ण ठाकुर के दामाद) ने एक लम्बी चिट्ठी भेजी है कि उन्हें हिन्दू धर्म में बहुत ज्ञान प्राप्त हो गया है। प्रतिष्ठा से बचने के लिए मुझे बहुत सारे सुन्दर उपदेश दिया है और अपने गुरु शशि बाबू की आर्थिक दुर्दशा के बारे में लिखा है। शिव! शिव! . . . विमला ने शशि बाबू की लिखी एक पुस्तक भेजी है; उसमें सूक्ष्म तत्त्व की वैज्ञानिक व्याख्या की गयी है। विमला की इच्छा है कि इस देश से पुस्तक छपाने की सहायता मिल जाय। इसका मेरे पास कोई उपाय नहीं। क्योंकि ये लोग बंगला बिल्कुल नहीं जानते। इफर ईसाई लोग हिन्दू धर्म की सहायता क्यों करेंगे? अब विमला को सहज ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ है : पृथ्वी में हिन्दू श्रेष्ठ हैं और उनमें भी ब्राह्मण! और इन ब्राह्मणों में भी विमला और शशि – इन दोनों के अलावा दूसरे कोई धर्मलाभ नहीं कर सकते। धर्म क्या अभी भारत में रह गया है, भाई? ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, सबका पलायन। और अब बचा है केवल छुआछूत-मार्ग – ‘मुझे मत छुओ’, ‘मुझे मत छुओ’। सारा संसार अपवित्र है, मैं ही केवल शुद्ध हूँ! सहज ब्रह्मज्ञान! वाह! हे भगवान्! आजकल ब्रह्म न तो हृदय-कन्दर में हैं, न गोलोक में और न सब जीवों में – अब यह भातकी हाँड़ी में है! पहले महत् का लक्षण था – त्रिभुवन-मुपकारश्रेणिभिः प्रीयमाणः – ‘सेवा के अनेक कामों से तीनों लोकों को प्रसन्न रखना’ परन्तु अब है – मैं पवित्र हूँ और सब संसार अपवित्र, – रुपये लाओ, धरो मेरे पैरों के नीचे। . . . जिन महापुरुष ने मुझसे अपने कर्मकोलाहल बन्द करके घर लौटने के लिए लिखा है उनसे कहना कि कुत्ते की तरह किसीके पैर चाटना मेरा स्वभाव नहीं है। उससे कहो कि अगर वह मर्द है, तो मठ बनाकर फिर मुझे बुलाये। अन्यथा मैं किसके घर में लौट आऊँ? यह देश ही मेरा घर है – भारत में क्या रखा है? वहाँ धर्म का आदर कौन करता है? विद्या का सम्मान कौन करता है? घर वापस आओ!!! घर कहाँ है?
इस बार ऐसे महोत्सव करो कि जैसे पहले कभी न हुआ हो। मैं एक ‘परमहंस महाशय का जीवन चरित’ लिख भेजूँगा। उसे छपवा कर तथा अनुवाद कराकर बेचोगे। मुफ्त वितरण करने पर लोग पढ़ते नहीं हैं, कुछ दाम लेना। कोलाहल का अन्त!!! अभी तो आरम्भ ही हुआ है। मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः – (‘वसन्त की तरह लोग का हित करते हुए’) – यही मेरा धर्म है। मैं आलसी, निष्ठुर, निर्दय और स्वार्थी मनुष्यों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। जिसके भाग्य में होगा, वह इस महाकार्य में सहायता कर सकता है। . . . सावधान! सावधान! यह सब क्या बच्चों का खेल है? सपना है? . . . भाई, एक बार कमर कसके काम में जुट जाओ। . . . तुम लोग मनुष्य बनो। . . . समाचारपत्र भेजने की अब आवश्यकता नहीं। यहाँ ढेर लग गया है। तुममें से किसी में संगठन-शक्ति नहीं है। बड़े दुःख की बात है। सबको मेरा प्यार कहना, मैं सबकी सहायता चाहता हूँ, खबरदार! किसीसे झगड़ा न करना। याद रखो कि न धन का कोई मूल्य है, न नाम का, न यश का, न विद्या का – केवल चरित्र ही कठिनाईयों के दुर्भेद्य पत्थर की दीवारों में से गुजर सकता है। लोगों के मतामत की अवहेलना न करना उससे वे बड़े ही क्रुद्ध हो जाते हैं। स्थान स्थान पर केन्द्र स्थापित करना होगा। यह तो बड़ा आसान है। जहाँ जहाँ तुम लोग जाओगे, वहीं वहीं एक केन्द्र स्थापित कर दोगे। इसी तरह काम होगा। जहाँ भी पाँच लोग उन्हें मानते हों, वहीं एक डेरा बनाओ। ऐसे ही करते रहो और सभी से पत्र-व्यवहार बनाये रखो।
प्रेम में सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
(२६)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
वाशिंगटन,
२७ अक्ट्बर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
तुम्हें मेरा शुभ आशीर्वाद। इस बीच तुम्हें मेरा पत्र मिला होगा। कभी कभी मैं तुम लोगों को चिट्ठी द्वारा डाँटता हूँ, इसलिए कुछ बुरा न मानना। तुम सभी को मैं किस हद तक प्यार करता हूँ यह तुम अच्छी तरह जानते ही हो।
तुम मेरे कार्यकलाप के बारे में पूर्ण विवरण जानना चाहते हो कि मैं कहाँ कहाँ गया था, क्या कर रहा हूँ; साथ ही मेरे भाषण के सारांश भी जानना चाहते हो। साधारण तौर पर यह जानना कि मैं यहाँ वही काम कर रहा हूँ जो भारतवर्ष में करता था। सदा ईश्वर पर भरोसा रखना और भविष्य के लिए कोई संकल्प न करना।
. . . तुम्हें याद रखना चाहिए कि मुझे इस देश में निरन्तर काम करना पड़ता है और अपने विचारों को पुस्तकाकार में लिपिबद्ध करने का मुझे अवकाश नहीं है – यहाँ तक कि इस लगातार परिश्रम ने मेरे स्नायुओं को कमजोर बना दिया है और मैं इसका अनुभव भी कर रहा हूँ। तुम और मद्रासवासी सब मित्रों ने मेरे लिए जो अत्यन्त निःस्वार्थ और वीरोचित काम किया है, इसके लिए अपनी कृतज्ञता मैं किन शब्दों में प्रकट करूँ? संघ बनाने की शक्ति मुझमें नहीं है – मेरी प्रकृति अध्ययन और ध्यान की तरफ स्वतः झुकती है। मैं सोचता हूँ कि मैं बहुत-कुछ कर चुका – अब मुझे विश्राम की आवश्यकता है और मैं उनको थोड़ी-बहुत शिक्षा देना चाहता हूँ जिन्हें मेरे गुरुदेव ने मुझे सौंपा है। अब तो तुम जान गये कि तुम क्या कर सकते हो, क्योंकि, हे मद्रासवासी युवको, तुम्हीं ने वास्तव में सब कुछ किया है; मैं तो केवल चुपचाप खड़ा रहा। मैं एक त्यागी संन्यासी हूँ और मैं केवल एक ही वस्तु चाहता हूँ। मैं उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं करता जो न विधवाओं के आँसू पोंछ सकता है और न अनाथों के मुँह में एक टुकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है। किसी धर्म के सिद्धान्त कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हों, मैं उसे तब तक नहीं मानता जब तक वह कुछ ग्रन्थों और मतों तक ही परिमित है। हमारी आँखें सामने की ओर कपाल में हैं – पीछे नहीं। सामने बढ़ते रहो और जिसे तुम अपना धर्म कहकर गौरव का अनुभव करते हो उसे कार्यरूप में परिणत करो। ईश्वर तुम्हें आशीर्वाद देंगे।
मेरी ओर मत ताको, अपनी ओर देखो। मुझे इस बात का आनन्द है कि मैं थोड़ासा उत्साह संचार करने का साधन बना। इससे लाभ उठाओ, इसी के सहारे बढ़ चलो, बस, तभी सब कुछ ठीक हो जायेगा। वत्स, प्रेम कभी निष्फल नहीं होता; कल हो चाहे परसों, या युगों के बाद, पर सत्य की जय अवश्य होगी। प्रेम ही मैदान जीत लेगा। क्या तुम अपने भाईमनुष्यजाति – को प्यार करते हो? ईश्वर को फिर कहाँ ढूँढ़ने चले हो, – ये सब गरीब, दुःखी, दुबले मनुष्य क्या ईश्वर नहीं हैं? इन्हीं की पूजा पहले क्यों नहीं करते? गंगातट पर फिर कुँआ खोदने की चेष्टा क्यों? प्रेम की असाध्य-साधिनी शक्ति पर विश्वास करो। इस झूठे जगमगाहटवाले नाम-यश की परवाह कौन करता है? समाचार-पत्रों में क्या छपता है क्या नहीं, उसकी मैं कभी खबर ही नहीं लेता हूँ। क्या तुम्हारे पास प्रेम है? तब तो तुम सर्वशक्तिमान हो। क्या तुम सम्पूर्ण निःस्वार्थ हो? तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है? चरित्र ही की सर्वत्र विजय होती है। समुद्र के तल में भी भगवान ही अपनी सन्तानों की रक्षा करते हैं। तुम्हारे देश के लिए वीरों की आवश्यकता है – वीर बनो।
सब लोग मुझे भारत लौटने को कहते हैं। वे सोचते हैं कि मेरे लौटने पर अधिक काम हो सकेगा। मित्र, यह उनकी भूल है। इस समय वहाँ जो उत्साह पैदा हुआ है वह तनिक-सा देशप्रेम भर ही है – उसका कुछ मूल्य नहीं। यदि वह सच्चा उत्साह है, तो बहुत शीघ्र देखोगे कि सैकड़ों वीर सामने आकर उस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं। अतएव जान लो कि वास्तव में तुम्हीं ने सब कुछ किया है, और आगे चलो। मेरे भरोसे मत रहो। विस्तृत कार्यक्षेत्र सामने पड़ा है। धार्मिक मत-मतान्तरों से मुझे क्या काम? मैं तो ईश्वर का दास हूँ, और सब प्रकार के उच्च भावों के विस्तार के लिए इस देश से अच्छा क्षेत्र मुझे कहाँ मिलेगा? यहाँ तो यदि एक आदमी मेरे विरुद्ध रहे तो सौ आदमी मेरी सहायता करने को तैयार हैं; सब से अच्छी जगह यही है, जहाँ मनुष्य मनुष्य से सहानुभूति रखता है और जहाँ नारियाँ देवियाँ हैं। प्रशंसा मिलने पर मूर्ख भी खड़ा हो सकता है और कायर भी साहसी का-सा डौल दिखा सकता है – पर तभी जब कि सब कामों का परिणाम शुभ होना निश्चित हो; परन्तु सच्चा वीर चुपचाप काम करता जाता है। एक बुद्ध के प्रकट होने के पूर्व कितने बुद्ध चुपचाप काम कर गये! वत्स, मुझे ईश्वर पर विश्वास है, साथ ही मनुष्य पर भी। दुःखी लोगों की सहायता करने में मैं विश्वास करता हूँ और दूसरों को बचाने के लिए मैं नरक तक जाने के लिए भी तैयार हूँ। अगर पाश्चात्य देशवालों की बात कहो तो उन्होंने मुझे भोजन और आश्रय दिया, मुझसे मित्र का-सा व्यवहार किया और मेरी रक्षा की – यहाँ तक कि अत्यन्त कट्टर ईसाई लोगों ने भी। परन्तु हमारी जाति उस समय क्या करती है जब इनका कोई पादरी भारतवर्ष में जाता है? तुम उसको छूते तक नहीं – वे तो म्लेच्छ हैं! प्यारे, कोई मनुष्य, कोई जाति, दूसरों से घृणा करते हुए जी तक नहीं सकती। भारत के भाग्य का निपटारा उसी दिन हो चुका जब उसने इस म्लेच्छ शब्द को ढूँढ़ निकाला, दूसरों से अपना नाता तोड़ दिया। खबरदार जो तुमने इस भाव की पुष्टि की! वेदान्त की बातें बघारना तो खूब सरल है पर इसके छोटे से छोटे सिद्धान्तों को काम में लाना कितना कठिन है!
तुम्हारा चिरकल्याणाकांक्षी,
विवेकानन्द
पु. – इन दो चीजों से बचे रहना – सत्ताप्रियता और ईर्ष्या। सदा आत्मविश्वास का अभ्यास करना।
वि.
(२७)
(राजा प्यारीमोहन मुखर्जी को लिखित)
न्यूयार्क,
१८ नवम्बर, १८९४
प्रिय महाशय,
कलकत्ता टाउनहाल की सभा में हाल ही में जो प्रस्ताव स्वीकृत हुए तथा मेरे अपने नगरवासियों ने जिन सुहावने शब्दों में मुझे याद किया है उन्हें मैंने पढ़ा।
महाशय, मेरी तुच्छ-सी सेवा के लिए आपने जो आदर प्रकट किया है उसके लिए आप मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिये।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि कोई भी मनुष्य या राष्ट्र अपने को दूसरों से अलग रखकर जी नहीं सकता, और जब कभी गौरव, नीति या पवित्रता की भ्रान्त धारणा से ऐसा प्रयत्न किया गया तब उसका परिणाम उस पृथक् होनेवाले पक्ष के लिए सदैव घातक सिद्ध हुआ।
मेरी समझ में भारतवर्ष के पतन और अवनति का एकमात्र मुख्य कारण जाति के चारों ओर रीति-रिवाजों की एक दीवार खड़ी कर देना ही था, जिसकी भित्ति दूसरों की घृणा पर स्थापित थी, और जिसका यथार्थ उद्देश्य प्राचीनकाल में हिन्दू-जाति को आसपासवाली बौद्ध जातियों के संसर्ग से अलग रखना था।
प्राचीन या नवीन तर्कजाल इसे चाहे जिस तरह ढाँकने का प्रयत्न करे, पर इसका अनिवार्य फल – उस नैतिक साधारण नियम की सिद्धि, कि कोई भी बिना अपने को अधःपतित किये दूसरों से घृणा नहीं कर सकता – यह हुआ कि जो जाति सभी प्राचीन जातियों में सर्वश्रेष्ठ थी उसका नाम पृथ्वी की जातियों में एक घृणा-सूचक साधारण शब्द-सा हो गया है। हम उस सार्वभौमिक नियम की अवहेलना के परिणाम के प्रत्यक्ष दृष्टान्तस्वरूप ही हो गये हैं, जिसका हमारे ही पूर्वजों ने पहले-पहल आविष्कार और विवेचन किया था।
लेन-देन ही संसार का नियम है और यदि भारत फिर से उठना चाहे तो यह परमावश्यक है कि वह अपने रत्नों को बाहर लाकर पृथ्वी की जातियों में बिखेर दे, और इसके बदले में वे जो कुछ दे सकें उसे सहर्ष ग्रहण करे। विस्तार ही जीवन है और संकोच मृत्यु; प्रेम ही जीवन है और द्वेष मृत्यु। हमने उसी दिन से मरना शुरू किया जब से हम अन्यान्य जातियों से घृणा करने लगे, और यह मृत्यु बिना इसके किसी दूसरे उपाय से रुक नहीं सकती कि हम फिर से विस्तार को अपनायें जो कि जीवन हैं।
अतएव हमें संसार की सभी जातियों से मिलना पड़ेगा। और प्रत्येक हिन्दू जो विदेश भ्रमण करने जाता है, उन सैकड़ो मनुष्यों से अपने देश को अधिक लाभ पहुँचाता है जो केवल कुसंस्कार और स्वार्थपरता की समष्टि हैं और जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य ‘न खाये, न खाने दे’ कहावत के अनुसार, न अपना हित करना है, न पराये का। पाश्चात्य जातियों ने जातीय जीवन के जो आश्चर्यजनक प्रासाद बनाये हैं वे चरित्ररूपी सुदृढ़ स्तम्भों पर खड़े हैं, और जब तक हम बहुसंख्यक वैसे चरित्र न गढ़ सकें तब तक हमारे लिए किसी शक्तिविशेष के विरुद्ध अपना असन्तोष प्रकट करते रहना निरर्थक है।
क्या वे लोग स्वाधीनता पाने योग्य हैं जो दूसरों को स्वाधीनता देने के लिए प्रस्तुत नहीं? व्यर्थ का असन्तोष जताते हुए शक्तिक्षय करने के बदले हम चुपचाप और वीरता के साथ काम करते चले जायें। मेरा तो पूर्ण विश्वास है कि संसार की कोई भी शक्ति किसी से वह वस्तु अलग नहीं रख सकती जिसके लिए वह वास्तव में योग्य हो। अतीत तो हमारा गौरवमय था ही, पर मुझे हार्दिक विश्वास है कि भविष्य और भी गौरवमय होगा।
शंकर हमें पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय में अविचलति रखें।
भवदीय विश्वस्त,
विवेकानन्द
(२८)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल आदि भक्त्तों को लिखित)
न्यूयार्क,
१९ नवम्बर, १८९४
ऐ वीरहृदय युवको,
तुम्हारा गत ११ अक्ट्बर का पत्र कल पाकर बड़ा ही आनन्द हुआ। यह बड़े सन्तोष की बात है कि अब तक हमारा कार्य बिना रोकटोक के उन्नति ही करता चला आ रहा है। जैसे भी हो सके, हमें संघ को दृढ़- प्रतिष्ठ और उन्नत बनाना होगा और इसमें हमें सफलता मिलेगी, – अवश्य मिलेगी। ‘नहीं’ कहने से न बनेगा। और किसी बात की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है केवल प्रेम, अकपटता और धैर्य की। जीवन का अर्थ ही वृद्धि, अर्थात् विस्तार, यानी प्रेम है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, यही जीवन का एकमात्र गतिनियामक है और स्वार्थपरता ही मृत्यु है। इहलोक एवं परलोक में यही बात सत्य है। यदि कोई कहे कि देह के विनाश के पीछे और कुछ नहीं रहता तो भी उसे यह मानना ही पड़ेगा कि स्वार्थपरता ही यथार्थ मृत्यु है।
परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। जितने नरपशु तुम देखते हो उनमें नब्बे प्रतिशत मृत हैं, वे प्रेत हैं; क्योंकि, ऐ बच्चो, जिसमें प्रेम नहीं है वह तो मृतक है। ऐ बच्चो, सब के लिए तुम्हारे दिल में दर्द हो – गरीब, मूर्ख, पददलित मनुष्यों के दुःख का तुम अनुभव करो, समवेदना से तुम्हारे हृदय की क्रिया रुक जाय, मस्तिष्क चकराने लगे, तुम्हें ऐसा प्रतीत हो कि हम पागल तो नहीं बन रहे हैं – फिर ईश्वर के चरणों में अपना दिल खोल दो, तभी शक्ति, सहायता और अदम्य उत्साह तुम्हें मिल जायेगा। गत दस वर्षों से मैं मेरा मूलमन्त्र घोषित करते आया हूँ – प्रयत्न करते रहो। और अब भी मैं कहता हूँ कि अविराम प्रयत्न करते चलो। जब चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दीखता था तब मैं कहता था – प्रयत्न करते रहो; अब तो थोड़ा थोड़ा उजाला दिखायी दे रहा है, पर अब भी मैं कहता हूँ कि प्रयत्न करते जाओ। वत्स, डरो मत। अनन्त नक्षत्र-खचित आकाश की ओर उस भयभीत दृष्टि से मत ताको कि वह हमें कुचल डालेगा। धीरज धरो। फिर तो देखोगे कि कुछ घण्टों में वह सब का सब तुम्हारे पैरोंतले आ गया है। धीरज धरो, न धन से काम होता है। न नाम से; न यश काम आता है, न विद्या; प्रेम ही से सब कुछ होता है। चरित्र ही कठिनाइयों की संगीन दीवारें तोड़कर अपना रास्ता बना लेता है।
अब हमारे सामने यह समस्या है – स्वाधीनता के बिना किसी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं। हमारे पूर्वजों ने धार्मिक-चिन्ता में स्वाधीनता दी थी और उसी से हमें एक आश्चर्यजनक धर्म मिला है, पर उन्होंने समाज के पैर बड़ी बड़ी जंजीरों से जकड़ दिये और इसके फलस्वरूप हमारा समाज थोडे शब्दों में भयंकर और पैशाचिक हो गया। पाश्चात्य देशों में समाज को सदैव स्वाधीनता मिलती रही, इसलिए उनके समाज को देखो। इसके अलावा उनके धर्म को भी देखो।
उन्नति की पहली शर्त है स्वाधीनता। जैसे मनुष्य को विचारने और उसे व्यक्त करने की स्वाधीनता मिलनी चाहिए वैसे ही उसे खान-पान, पोशाक-पहनावा, विवाह-शादी हर एक बात में स्वाधीनता मिलनी चाहिए, जब तक कि वह दूसरों को हानि न पहुँचाये।
हम मूर्खों की तरह भौतिक सभ्यता की निन्दा किया करते हैं। अंगूर खट्टे हैं न! उस मुर्खोचित बात को मान लेने पर भी यह कहना पड़ेगा कि सारे भारतवर्ष में लगभग एक लाख यथार्थ धार्मिक नरनारी हैं। अब प्रश्न यह है कि क्या इतने लोगों की धार्मिक उन्नति के लिए भारत के तीस करोड़ आधिवासियों को बर्बरों का-सा जीवन व्यतीत करना और भूखों मरना होगा? क्यों कोई भूखों मरे? मुसलमानों के लिए हिन्दुओं को जीतना कैसे सम्भव हुआ? हिन्दुओं का भौतिक सभ्यता का निरादर करना ही इसका कारण था। सिले हुए कपड़े तक पहनना मुसलमानों ने सिखलाया। क्या अच्छा होता यदि हिन्दु मुसलमानों से साफ ढंग से खाने की तरकीब सीख लेते जिसमें रास्ते का गर्द भोजन के साथ न मिलने पाता! भौतिक सभ्यता, नहीं नहीं, भोगविलास की भी जरूरत होती है – क्योंकि उससे गरीबों को काम मिलता है। अन्न! अन्न! मुझे इस बात का विश्वास नहीं है कि वह भगवान जो मुझे यहाँ पर अन्न नहीं दे सकता, स्वर्ग में मुझे अनन्त सुख देगा। राम कहो! भारत को उठाना होगा, गरीबों को खिलाना होगा, शिक्षा का विस्तार करना होगा और पौरोहित्य की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वे चकराती हुई एकदम ऐटलाण्टिक महासागर में जा गिरें। ब्राह्मण हो या संन्यासी – किसी की बुराई को क्षमा न मिलनी चाहिए। पौरोहित्य की बुराइयों और सामाजिक अत्याचारों का कहीं नाम-निशान न रहे। सब के लिए अन्न अधिक सुलभ हो जाय और सब को अधिकाधिक सुविधा मिलती रहे। हमारे मूर्ख नौजवान अंग्रेजों से अधिक राजनैतिक अधिकार पाने के लिए सभाएँ बुलाते हैं। इस पर वे केवल हँस देते हैं। स्वाधीनता पाने का अधिकार उसे नहीं जो औरों को स्वाधीनता देने को तैयार न हो। मान लो कि अंग्रेजों ने तुम्हें सब अधिकार दे दिये – पर उससे क्या फल होगा? कोई न कोई सम्प्रदाय प्रबल होकर सब लोगों से सारे अधिकार छीन लेगा और पौरोहित्यशक्ति को घूस देकर लोगों को दबाने को कहेगा और स्वयं भी उनका गला काटेगा। गुलाम तो शक्ति चाहता है दूसरों को गुलाम बनाने के लिए।
किन्तु यह अवस्था धीरे धीरे लानी पड़ेगी – अपने धर्म पर अधिक जोर देकर और समाज को स्वाधीनता देकर यह करना होगा। प्राचीन धर्म से पौरोहित्य की बुराइयों को उखाड़ दो, तभी तुम्हें संसार का सब से अच्छा धर्म मिल जायेगा। मेरी बात समझते हो? भारत का धर्म लेकर एक युरोपिय समाज गढ़ सकते हो? मुझे विश्वास है कि यह सम्भव है और एक दिन ऐसा अवश्य होगा। इसके लिए सब से अच्छा उपाय मध्य-भारत में एक उपनिवेश की स्थापना करना जहाँ वे ही लोग रहेंगे जो तुम्हारे विचारों को मानेंगे। फिर ये ही मुट्ठीभर लोग सारे संसार में अपने विचार फैला देंगे। इसके लिए धन की आवश्यकता है सही, पर यह धन आ ही जायेगा। इस बीच में एक मुख्य केन्द्र बनाओ और भारत भर में उसकी शाखाएँ खोलते जाओ। अब केवल धर्मभित्ति पर इसकी स्थापना करो और अभी किसी उथल- पुथल मचानेवाले सामाजिक सुधार का प्रचार मत करो, साथ ही किसी मूर्खता- प्रसूत कुसंस्कारों को सहारा न देना। जैसे पूर्वकाल में रामानुज ने सब को समान समझकर मुक्ति में सब का समान अधिकार घोषित किया था वैसे ही समाज को पुनः गठित करने की कोशिश करो। रामानुज, चैतन्य आदि नामों के सहारे प्रचारित होने पर लोग इन बातों को जल्दी ग्रहण कर लेते हैं। उसके साथ ही नगर-संकीर्तन आदि का भी प्रबन्ध करो।
कल्पना करो कि पहले समिति खोलते समय तुमने एक महोत्सव किया। झण्डे आदि लेकर रास्तों में घूमते हुए नगरकीर्तन किया, फिर व्याख्यानादि हुए। इसके बाद, सप्ताह में एक बार, या इससे अधिक, समिति के अधिवेशन होते रहे। उत्साह से हृदय भर लो और सब जगह फैल जाओ। काम करो, काम करो। नेतृत्व करते समय सब के दास हो जाओ। निःस्वार्थ होओ और कभी एक मित्र को पीछे पीछे दूसरे कि निन्दा करते मत सुनो। अनन्त धैर्य रखो, तभी सफलता तुम्हारे हाथ आयेगी। भारत के कोई अखबार या किसी के पते अब मुझे भेजने की आवश्यकता नहीं। मेरे पास उनके ढेर जमा हो गये; अब बस करो। अब इतना ही समझो कि जहाँ जहाँ तुम कोई सार्वजनिक सभा बुला सके वहीं काम करने का तुम्हें थोड़ा मौका मिल गया। उसी के सहारे काम करो। काम करो, काम करो, औरों के हित के लिए काम करना ही जीवन का लक्षण है। मैंने श्री आयर को अलग पत्र नहीं लिखा, पर अभिनन्दन-पत्र का जो उत्तर मैंने दिया, शायद वही पर्याप्त हो। उनसे और मेरे अन्यान्य मित्रों से मेरा हार्दिक प्रेम, सहानुभूति और कृतज्ञता ज्ञापन करना। वे सभी महानुभाव हैं। हां, एक बात पर सतर्क रहना। दूसरों पर अपना रोब जमाने की कोशिश मत करो। मैं सदा तुम्हीं को पत्र भेजता हूँ – इसलिए तुम मेरे अन्यान्य मित्रों से अपना अधिक महत्त्व जाहिर करने की फिक्र में न रहना। में जानता हूँ कि तुम इतने निर्बोध न होगे, पर तो भी मैं तुम्हें सतर्क कर देना अपना कर्तव्य समझता हूँ। सभी संगठना का सत्यानाश इसी से होता है। काम करो, काम करो, दूसरों के भलाई के लिए काम करना ही जीवन है।
मैं चाहता हूँ कि हममें किसी प्रकार की कपटता, कोई दुरंगी चाल, कोई दुष्टता न रहे। मैं सदैव प्रभु पर निर्भर रहा हूँ – सत्य पर निर्भर रहा हूँ जो कि दिन के प्रकाश की भाँति उज्ज्वल है। मरते समय मेरी विवेकबुद्धि पर यह धब्बा न रहे कि मैंने नाम या यश पाने के लिए, यहाँ तक की परोपकार करने के लिए दुरंगी चालों से काम लिया था। दुराचार की गन्ध या बदनीयती का नाम तक न रहने पाये।
किसी प्रकार का टालमटोल या छिपे तौर से बदमाशी या गुप्त शठता हममें न रहे – पर्दे की आड़ में कुछ न किया जाय। गुरु का विशेष कृपापात्र होने का कोई भी दावा न करे – यहाँ तक कि हममें कोई गुरु भी न रहे। मेरे साहसी बच्चो, आगे बढ़ो – चाहे धन आये या न आये, आदमी मिलें या न मिले, क्या तुम्हारे पास प्रेम है? क्या तुम्हें ईश्वर पर भरोसा है? बस, आगे बढ़ो, तुम्हें कोई न रोक सकेगा।
भारत से प्रकाशित थियासाफिस्टों की पत्रिका में लिखा है कि थियासाफिस्टों ने ही मेरी सफलता की राह साफ कर दी थी। ऐसा! यह सरासर फजूल बात है – थियासाफिस्टों ने मेरी राह साफ की!!
सतर्क रहो! जो कुछ असत्य है उसे पास न फटकने दो। सत्य पर डटे रहो, बस तभी हम सफल होंगे – शायद थोड़ा अधिक समय लगे, पर सफल हम अवश्य होंगे। इस तरह काम करते जाओ कि मानो मैं कभी था ही नहीं। इस तरह काम करो कि मानो तुममें से हरएक के ऊपर सारा काम निर्भर है। भविष्य की पचास सदियाँ तुम्हारी ओर ताक ही हैं – भारत का भविष्य तुम पर निर्भर है! काम करते जाओ। इंग्लैण्ड से अक्षय का एक सुन्दर पत्र मुझे मिला था। पता नहीं कि कब मैं देश लौटूँगा। यहाँ काम करने का बड़ा अच्छा क्षेत्र है। भारत में लोग अधिक से अधिक मेरी प्रशंसा भर कर सकते हैं – पर वे किसी काम के लिए एक पैसा भी न देंगे और दें भी तो कहाँ से! वे स्वयं भिखारी हैं न? फिर गत दो हजार या उससे भी अधिक वर्षों से वे परोपकार करने की वृत्ति ही खो बैठे हैं। ‘देश’, ‘जनसाधारण’ इत्यादि के भाव वे अभी अभी सीख रहे हैं। इसलिए मुझे उनकी कोई शिकायत नहीं करनी है। आगे और भी सविस्तार लिखूँगा। तुम लोंगों को सदैव मेरा आशीर्वाद। इति –
विवेकानन्द
पु. – तुम्हें फोनोग्राफ के बारे में और पूछताछ करने का कोई प्रयोजन नहीं। अभी खेतड़ी से मुझे खबर मिली है कि वह अच्छी दशा में वहाँ पहुँच गया है।
– वि.
(२९)
(श्रीयुत हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एविन्यू,
शिकागो,
नवम्बर, १८९४
प्रिय दीवानजी,
आपका पत्र पाकर मैं अति आनन्दित हुआ। मैं आपका उपहास खूब समझा, परन्तु मैं कोई बालक नहीं हूँ जो इस हँसी से टाल दिया जाऊँ। लीजिये, अब मैं कुछ और लिखता हूँ, उसे भी ग्रहण कीजिये।
संगठन एवं मेल ही पाश्चात्यदेशवासियों की सफलता का रहस्य है। यह तभी सम्भव है जब परस्पर भरोसा, सहयोग और सहायता का भाव हो। उदाहरणार्थ यहाँ जैनधर्मावलम्बी श्री वीरचन्द गाँधी हैं, जिन्हें आप बम्बई में अच्छी तरह जानते थे। ये महाशय इस विकट शीतकाल में भी निरामिष भोजन करते हैं, और अपने देशवासियों एवं अपने धर्म का दृढ़ता से समर्थन करते हैं। यहाँ के लोगों को वे बहुत अच्छे लगते हैं, परन्तु जिन लोगों ने उन्हें भेजा वे क्या कर रहे हैं? – जातिच्युत करने की चेष्टा में लगे हैं! दासों में ही स्वभावतः ईर्ष्या उत्पन्न होती है और फिर वह ईर्ष्या ही उन्हें पतितावस्था की खाई में ले जाती है।
यहाँ – थे; वे सब चाहते थे कि व्याख्यान देकर कुछ धन उपार्जन करें। कुछ उन्होंने किया भी, परन्तु मैंने उनसे अधिक सफलता प्राप्त की – क्यों – क्योंकि मैंने उनकी सफलता में कोई बाधा नहीं डाली। यह सब ईश्वर की इच्छा से ही हुआ। परन्तु ये लोग केवल – को छोड़, मेरे पीठ पीछे मेरे बारे में इस देश में भीषण झूठ रचकर प्रचार कर रहे हैं। अमेरिकावासी ऐसी नीचता की ओर कभी दृष्टिपात न करेंगे, न वे ऐसी नीचता दिखायेंगे।
. . . यदि कोई मनुष्य यहाँ आगे बढ़ना चाहता है तो सभी लोग यहाँ उसकी सहायता करने को प्रस्तुत हैं। किन्तु, यदि आप भारत में मेरी प्रशंसा में एक भी पंक्त्ति किसी समाचार-पत्र (‘हिन्दू’) में लिखियेगा तो दूसरे ही दिन सब मेरे विरुद्ध हो जायेंगे। क्यों? यह दासों का स्वभाव है। वे अपने किसी भाई को अपने से तनिक भी बढ़ता हुआ देखकर सह नहीं सकते। . . . क्या आप ऐसे क्षुद्रों की स्वतन्त्रता, स्वावलम्बन और भ्रातृ-प्रेम से उद्बद्ध इस देश के लोगों के साथ तुलना करना चाहते हैं? संयुक्त राज्य के स्वतन्त्र किये हुए दास – निग्रो ही हमारे देशवासियों के सब के निकट आते हैं। दक्षिण अमेरिका में वे दो करोड़ निग्रो अब स्वतन्त्र हैंः वहाँ गोरे तो बहुत थोड़े हैं, फिर भी वे उन्हें दबाकर रखते हैं। जब उन्हें राजनियम से सब अधिकार मिले हुए हैं तब क्यों इन दासों को स्वतन्त्र करने के लिए भाई-भाई में खून की नदियाँ बहीं? वही अवगुण ईर्ष्या ही इसका कारण था। इनमें से एक भी निग्रो अपने निग्रो भाई का यश सुनने को या उसकी उन्नति देखने को तैयार न था। तुरन्त ही वे गोरों से मिलकर उसे कुचलने का प्रयत्न करते हैं। भारत से बाहर आये बिना आप इसे कभी भी समझ न सकेंगे। यह ठीक है कि जिनके पास बहुत-सा धन है और मान है वे संसार को अपनी गति से यथावत् चलने दें, परन्तु जिनका भोगविलास में लालनपालन और शिक्षा लाखों पददलित परिश्रमी गरीबों के हृदय के रक्त से हो रही है और फिर भी जो उनकी ओर ध्यान नहीं देते, उन्हें मैं विश्वासघातक कहता हूँ। इतिहास में कहाँ, और किस काल में आपके धनवान पुरुषों ने, कुलीन पुरुषों ने, पुरोहितों ने और राजाओं ने गरीबों की ओर ध्यान दिया था – वे गरीब, जिन्हें कोल्हू के बैल की तरह पेलने से ही उनकी शक्ति संचित हुई थी?
परन्तु ईश्वर महान् हैं। आगे पीछे बदला मिलना ही था, और जिन्होंने गरीब का रक्त चूसा, जिनकी शिक्षा उनके धन से हुई, जिनकी शक्ति उनकी दरिद्रता पर बनी, वे अपनी पारी में सैकड़ों और हजारों की गिनती में दास बनाकर बेचे गये, उनकी सम्पत्ति हजार वर्ष तक लुटती रही, और उनकी स्त्रियाँ और कन्याएँ अपमानित की गयीं। क्या आप समझते हैं कि यह अकारण ही हुआ?
भारत के गरीबों में इतने मुसलमान क्यों हैं? यह सब मिथ्या बकवास है कि तलवार की धार पर उन्होंने धर्म बदला। . . . जमींदार और . . . पुरोहितों से अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया और फलतः आप देखेंगे कि बंगाल में जहाँ जमींदार अधिक हैं वहाँ हिन्दुओं से अधिक मुसलमान किसान हैं। लाखों पददलित और पतितों को ऊपर उठाने की किसे चिन्ता है? विश्वविद्यालय की उपाधि लेनेवाले कुछ हजार व्यक्तियों से राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। कुछ धनवानों से राष्ट्र नहीं बनता। यह सच है कि हमारे पास सुअवसर भी कम हैं, परन्तु फिर भी तीस करोड़ व्यक्तियों को खिलाने और कपड़ा पहनाने के लिए, उन्हें आराम से रखने के लिए, नहीं नहीं, उन्हें भोग में रखने के लिए, हमारे पास पर्याप्त अवसर है। हमारे देश में नब्बे प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं – किसे इसकी चिन्ता है? वे बाबू – वे देशभक्त्त कहलानेवाले?
इतना होने पर भी मैं आपसे कहता हूँ – ईश्वर हैं – यह ध्रुवसत्य हैं, हँसी की बात नहीं। वे ही हमारे जीवन का नियमन कर रहे हैं, और यद्यपि मैं जानता हूँ कि जातिसुलभ स्वभाव-दोष के कारण ही दासगण अपने हितकर्ता का ही दंशन करते हैं, फिर भी आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिये – आप जो उन इने-गिने लोगों में से हैं जिन्हें सत्कार्यों से, सदुद्देश्यों से सच्ची सहानुभूति है, जो सच्चे और उदार स्वभाववाले हैं, हृदय और बुद्धि से सर्वथा निष्कपट हैं – आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिये – “हे कृपामयी ज्योति! चारों ओर के घिरे हुए अन्धकार में पथ-प्रदर्शन करो, – तमसो मा ज्योतिर्गमय!”
मुझे चिन्ता नहीं कि लोग क्या कहते हैं। मैं अपने ईश्वर से, अपने धर्म से, अपने देश से और सर्वोपरि जो मेरे जैसे निर्धन भिक्षुक हैं, उनसे प्रेम करता हूँ। जो दरिद्र हैं, अशिक्षित हैं, दलित हैं, उनसे मैं प्रेम करता हूँ। उनके लिए मेरा हृदय द्रवित होता है, कितनी आन्तरिकता से ऐसा होता है भगवान ही जानते हैं। वे ही मुझे रास्ता दिखायेंगे। मानवी सम्मान या छिद्रान्वेषण की मैं तनिक भी परवाह नहीं करता। मैं उनमें से अधिकांश को शोर मचानेवाले नादान बालक समझता हूँ। सहानुभूति एवं निःस्वार्थ प्रेम का मर्म समझना इनके लिए कठिन है।
मुझे श्रीरामकृष्ण के आशीर्वाद से वह अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई है। मैं अपनी छोटी-सी मण्डली के साथ काम करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वे भी मेरे समान निर्धन भिक्षुक हैं। आपने उन्हें देखा है। दैवी कार्य सदैव गरीबों व दीन मनुष्यों के द्वारा ही हुए हैं। आप मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैं अपने प्रभु में, अपने गुरु में और अपने आपमें अखण्ड विश्वास रख सकूँ।
प्रेम और सहानुभूति – यही एकमेव मार्ग है। प्रेम ही एकमेव उपासना है।
प्रभु आपकी और आपके स्वजनों की सदा सहायता करें।
साशीर्वाद,
विवेकानन्द
(३०)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
संयुक्त-राज्य, अमेरिका,
३० नवम्बर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
. . . हमें अपनी धार्मिक संस्था के आर्थिक भाग को प्रणालीबद्ध करना चाहिए, परन्तु आध्यात्मिक विषय में हमें यह प्रयत्न करना उचित है कि सम्प्रदाय न बनने पाये।
यह विचार रखते हुए कि श्रीरामकृष्ण कौनसा कार्य करने तथा क्या सिखाने आये थे, यदि उनका कोई वास्तविक जीवन लिख सकता है, तो लिखने दो; अन्यथा नहीं। उनका जीवन और कथन बिगाड़ना उसके लिए उचित नहीं है। यदि किडी उनके प्रेम, उनके ज्ञान, उनका सर्वधर्मसमन्वय आदि सम्बन्धी कथाओं एवं उनके अन्यान्य उपदेशों का अनुवाद कर सकता है, तो करने दो। इस आधार पर उनका जीवन-चरित लिखो : श्रीरामकृष्ण का जीवन एक असाधारण ज्योतिर्मय दीपक है, जिसके प्रकाश से हिन्दूधर्म के विभिन्न अंग एवं आशय समझ में आ सकते हैं। शास्त्रों में जो सब ज्ञान मतवाद के रूप में है उसका वे प्रत्यक्ष उदाहरणरूप थे। ऋषि और अवतार हमें जो वास्तविक शिक्षा देना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने जीवन द्वारा दिखा दिया है। शास्त्र मतवाद मात्र हैं – और श्रीरामकृष्ण हैं उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति। उन्होंने ५१ वर्ष में पाँच हजार वर्ष का जातीय आध्यात्मिक जीवन व्यतीत किया और इस तरह से वे भविष्य की सन्तान के लिए अपने आपको एक शीक्षाप्रद उदाहण बना गये। विभिन्न मत एक एक अवस्था या क्रम मात्र हैं – उनके इस सिद्धान्त से वेदों का अर्थ समझ में आ सकता है और शास्त्रों में सामंजस्य स्थापित हो सकता है। दूसरे धर्म या मत के लिए हमें केवल सहनशीलता का प्रयोग नहीं करना चाहिए, परन्तु उन्हें स्वीकार कर प्रत्यक्ष जीवन में परिणत करना चाहिए। सत्य ही सब धर्मों की नींव है। अब इस ढंग पर एक अत्यन्त मनोहर और सुन्दर जीवनी लिखी जा सकती है। अस्तु, सब काम अपने समय से होंगे। . . . स्वाधीनता से काम करते रहो। “जब भोजन पक जाता है, तब बहुत लोग खाने आ जाते हैं।” सावधान रहो और काम करते जाओ।
आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
(३१)
(डा. नांजुन्दाराव को लिखित)
संयुक्त-राज्य, अमेरिका,
३० नवम्बर, १८९४
प्रिय,
तुम्हारा सुन्दर पत्र मुझे अभी अभी मिला। तुम श्रीरामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष है। तुम्हारे तीव्र वैराग्य से मुझे और भी आनन्द मिला। ईश्वरप्राप्ति का यही एक आवश्यक अंग है। पहले ही से मुझे मद्रास से बड़ी आशा थी, और अभी भी विश्वास है कि मद्रास से वह आध्यात्मिक तरंग उठेगी जो सारे भारत को प्लावित कर देगी। मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि ईश्वर तुम्हारे शुभ संकल्पों का वेग उत्साह के साथ बढ़ाते रहें; परन्तु वत्स यहाँ कठिनाइयाँ भी हैं। पहले तो किसी मनुष्य को शीघ्रता नहीं करनी चाहिए; दूसरे, तुम्हें अपनी माता और स्त्री के सम्बन्ध में सहृदयतापूर्वक विचारों से काम लेना उचित हैं। सच है, तुम कह सकते हो की आप श्रीरामकृष्ण के शिष्यों ने संसार-त्याग करते समय अपने मातापिता की सम्मति की अपेक्षा नहीं की। मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ – बड़े बड़े काम बिना बड़े स्वार्थत्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारतमाता अपनी उन्नति के लिए अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती हैं, और यह मेरी आन्तरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होगे।
जगत् के इतिहास से तुम जानते हो कि महापुरुषों ने बड़े बड़े स्वार्थत्याग किये, और उनके शुभ फल का भोग जनता ने ही किया। अगर तुम अपनी ही मुक्ति के लिए सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा? क्या तुम संसार के कल्याण के लिए अपनी मुक्त्तीकामना तक छोड़ने को तैयार हो? तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो, इस पर विचार करो। मेरी सम्मति में तुम्हें कुछ दिनों के लिए ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिए। अर्थात् कुछ काल के लिए स्त्रीसंगवर्जन करके अपने पिता के घर में ही रहो; यही ‘कुटीचक’ अवस्था है। संसार की हितकामना पर अपने महान् स्वार्थत्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। अगर तुममें ज्वलन्त विश्वास, सर्वविजयिनी प्रीति और सर्वशक्तिमयी शुद्धि है, तो तुम्हारे शीघ्र सफल होने में मुझे कुछ भी सन्देह नहीं। शरीर, मन और अपने प्राणों का उत्सर्ग करके श्रीरामकृष्ण की शिक्षाओं का विस्तार करते जाओ, क्योंकि कर्म पहला सोपान है। खूब मन लगाकर संस्कृत का अध्ययन करो और साधना का भी अभ्यास करते रहो। कारण, तुम्हें मनुष्यजाति का श्रेष्ठ शिक्षक होना है। हमारे गुरूदेव कहते थे, कोई आत्महत्या करना चाहे तो वह नहरनी ही से काम चला सकता है, परन्तु दूसरों को मारना हो तो तोप तलवार की आवश्यकता होती है। समय आने पर तुम्हें वह अधिकार प्राप्त हो जायेगा, जब तुम संसार में चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार करोगे। तुम्हारा संकल्प शुभ और पवित्र है। ईश्वर तुम्हें उन्नत करें, परन्तु जल्दी में कुछ कर न बैठना। पहले कर्म और साधना द्वारा अपने को पवित्र करो।
भारत चिरकाल से दुःख सह रहा है; सनातन धर्म दीर्घकाल से अत्याचारपीड़ित है। परन्तु ईश्वर दयामय हैं – वे फिर अपनी सन्तानों के परित्राण के लिए आये हैं – पुनः पतित भारत को उठने का सुयोग मिला है। श्रीरामकृष्ण के पदप्रान्त में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, – हिन्दुसमाज के अंग में – रोम रोम में उन्हें भरना होगा। यह कौन करेगा? श्रीरामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिए विचरण करनेवाला है कोई? नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग का, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का बलिदान करके अवनति का प्रवाह रोकनेवाला है कोई? कुछ इनेगिने युवक इस पुराने किले के जीर्ण खण्ड में कूद पड़े हैं, उन्होंने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे ही मनुष्य कई हजार हो जायें। वे आयें, उनका स्वागत है। मुझे हर्ष है कि हमारे प्रभु ने तुम्हारे मन में उन्हीं में से एक होने के भाव भरे। वह धन्य है जिसे प्रभु ने चुन लिया। तुम्हारा संकल्प शुभ है, तुम्हारी आशाएँ उच्च हैं, घोर अन्धकार में डूबे हुए हजारों मनुष्यों को प्रभु के ज्ञानालोक के सम्मुख करनेवाला तुम्हारा लक्ष्य संसार के सब लक्ष्यों से महान् है।
परन्तु वत्स, इस मार्ग में बाधाएँ भी हैं। जल्दबाजी से कोई काम नहीं होता। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय, इन्हीं तीनों गुणों से सफलता मिलती है, और सर्वोपरि है प्रेम। तुम्हारे सामने अनन्त समय हैं, अतएव अनुचित शीघ्रता आवश्यक नहीं। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो तो सब काम ठीक हो जायेंगे। हमें तुम्हारे जैसे हजारों की आवश्यकता है जो समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं वे जायें, वहीं नये जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें। ईश्वर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करें।
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
(३२)
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
१८९५
प्राणाधिक,
समाचारपत्र इत्यादि अब बहुत कुछ इकट्ठे हो चुके हैं, और भेजने की आवश्यकता नहीं है। अब भारत में ही आन्दोलन चलने दो।. . .
. . . किन्तु यह जो देशव्यापी आन्दोलन चल रहा है, इसी के आधार पर तुम लोग चारों ओर फैल जाओ अर्थात् जगह जगह शाखा स्थापित करने का प्रयत्न करो। मौका खाली न जाने पाये। मद्रासियों से मिलकर जगह जगह समिति इत्यादि की स्थापना करनी होगी। . . . अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति न मिली तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े तो हानि ही क्या है? क्या यह बात असत्य है? –
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीयमाणः।
परगुणपरमाणुं पर्वतीकृत्य केचित्
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥(१) -भर्तृहरि
भले ही न हो तुम्हारी मुक्ति। क्या यह ठीक नहीं है? राम राम! नहीं है, नहीं है कहने से क्या साँप का जहर नहीं उतर जाता? यह कैसा विनय है कि ‘मैं कुछ नहीं जानता’, ‘मैं कुछ भी नहीं हूँ’ – ये किस प्रकार के वैराग्य और विनय हैं भाई? इस प्रकार के दीन-हीन भावों को दूर करना होगा। यदि मैं नहीं जानता हूँ तो और कौन जानता है? यदि तुम नहीं जानते हो तो अब तक तुमने क्या किया? ये सब नास्तिकों की बात है, गयेबीतों का विनय है। हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठकर म्यूँ म्यूँ करते रहेंगे। – लिखते हैं कि आन्दोलन बहुत-कुछ हो चुका है, और अधिक की क्या आवश्यकता है, अब घर लौटना चाहिए। मैं तो उनको मर्द तब जानता जब कि मेरे रहने के लिए कोई घर बनवाकर वे मुझे बुलाते। मेरे दस वर्ष के अनुभव ने मुझे पक्का बना दिया है। केवलमात्र बातों से कुछ होने-जाने का नहीं है। जिसके मन में साहस तथा हृदय मे प्रीति है, वही मेरा साथी बने – मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है – जगन्माता की कृपा से मैं अकेला ही एक लाख के बराबर हूँ तथा स्वयं ही बीस लाख बन जाऊँगा।. . . मेरा भारत लौटना अभी अनिश्चित है। मेरे लिए जैसे वहाँ भ्रमण करना, वैसे यहाँ भी है, भेद केवलमात्र इतना ही है कि यहाँ पर पण्डितों का संग है, वहाँ मूर्खों का – यही स्वर्गनरक का भेद है। यहाँ के लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं और हम लोगों के तमाम कार्यों में वैराग्य यानी आलस्य है, हिंसा इत्यादि के कारण सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
बीच बीच में बहुत ही लम्बा-चौड़ा पत्र लिखते हैं, उसका आधा भी मैं पढ़ नहीं पाता, हालाँकि यह मेरे लिए परम लाभजनक ही है। क्योंकि उसमें अधिकांश समाचार इस प्रकार के होते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक की दूकान पर बैठकर मेरे विरूद्ध इस प्रकार की बातें बना रहा था, जो कि उनके लिए असहनीय होने के कारण उससे उनका झगड़ा हो गया इत्यादि। मेरा पक्ष समर्थन करने के लिए सब को अनेक धन्यवाद। किन्तु मुझे कौन क्या कह रहा है, उसे विशेष रूप से सुनने की मुख्य बाधा यही है कि ‘स्वल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः’ (समय अत्यन्त कम है और विघ्न अनेक हैं)।. . .
एक Organised Society (संगठित समिति) की आवश्यकता है। शशी घरेलू कार्यों की व्यवस्था करे, रुपया-पैसा तथा बाजार इत्यादि का भार सन्याल सम्हाले तथा शरत Secretary (मन्त्री) बने अर्थात् पत्र-व्यवहार इत्यादि कार्य वह करता रहे। एक स्थायी केन्द्र स्थापित करो, क्यों व्यर्थ के झगड़े में पड़े हुए हो, समझे न? अखबारी प्रकाशन बहुत-कुछ हो चुका है, अब तो कुछ करके दिखलाओ। यदि कोई मठ बना सको, तब मैं समझूँगा कि तुम बहादुर हो, नहीं तो कुछ नहीं। मद्रासियों से परामर्श कर कार्य करना, उनमें कार्य करने की बड़ी भारी शक्ति है।. . .
श्रीरामकृष्णदेव की एक अत्यन्त संक्षिप्त जीवनी अंग्रेजी में लिखकर मैं भेज रहा हूँ। उसके बंगानुवाद के साथ उसे छपवाकर महोत्सव में बेचना; वितरण करने से लोग प्रायः नहीं पढ़ते हैं, इसलिए कुछ मूल्य रखना चाहिए। खूब धूमधाम के साथ महोत्सव करना।. . .
बुद्धि प्रशस्त होनी चाहिए, तब कहीं कार्य होता है। गाँव अथवा शहर में जहाँ कहीं भी जाओ, रामकृष्णदेव के प्रति श्रद्धासम्पन्न दस व्यक्ति भी जहाँ मिलें, वहीं एक सभा स्थापित करो। गाँवों मे जाकर अब तक तुमने क्या किया? हरिसभा इत्यादि को धीरे धीरे स्वाहा करना होगा। क्या कहूँ, यदि मुझ जैसा एकभूत और मुझे मिलता! समय आने पर प्रभु सब कुछ जुटा देंगे।. . . यदि शक्ति विद्यमान है तो उसका विकास अवश्य दिखाना होगा।. . . मुक्तिभक्ति की भावना को दूर कर दो। ‘परोपकाराय हि सतां जीवितं परार्थं प्राज्ञ उत्सृजेत्’ (साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियों को दूसरों के किए सब कुछ त्याग देना चाहिए) – संसार में यही एकमात्र रास्ता है। तुम्हारी भलाई करने से मेरी भी भलाई है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, बिलकुल नहीं है।. . . तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ और मनुष्य भगवान दुनिया में सब कुछ कर रहा है, फिर क्या भगवान कहीं अन्यत्र बैठे हुए हैं? अतः कार्य में संलग्न हो जाओ।
ग्रन्थों का अध्ययन कर विमला को यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि इस दुनिया में जितने भी लोग हैं, सभी अपवित्र हैं तथा उन लोगों के संस्कार ही इस प्रकार के हैं कि उनसे धर्म का अनुष्ठान हो ही नहीं सकता, केवलमात्र भारतीय ब्राह्मण लोग ही धर्मानुष्ठान कर सकते हैं। उनमें भी शशी (सन्याल) और विमला चन्द्रसूर्य-स्वरूप हैं। शाबास, कितना शक्तिशाली धर्म है! खासकर बंगाल में इस प्रकार का धर्मानुष्ठान अत्यन्त ही सहज है। ऐसा कोई दूसरा सहज मार्ग ही नहीं है। यही तो तप-जप इत्यादि का सार सिद्धान्त है कि मैं पवित्र हूँ और बाकी के लोग सब अपवित्र! यह कितना पैशाचिक, राक्षसी तथा नारकीय धर्म है! यदि अमेरिका के लोग धर्मानुष्ठान नहीं कर सकते, यदि इस देश में धर्म का प्रचार उचित नहीं है तो फिर इन लोगों से सहायता माँगने की क्या आवश्यकता है? एक ओर अयाचितवृत्ति का गुणगान और दूसरी ओर पोथी में ऐसे आक्षेपों की भरमार कि मुझे कोई भी कुछ नहीं देता है। विमला तो इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि यदि भारत के लोग शशी (सन्याल) तथा विमला के चरणों पर धनराशि अर्पित नहीं करते तो इसका अर्थ यह है कि भारत का सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। क्योंकि शशीबाबू को सूक्ष्म व्याख्या मालूम है और उसे पढ़कर विमला को यह निश्चित रूप से विदित हो चुका है कि उनके सिवाय इस दुनिया में और कोई भी पवित्र नहीं है। इस रोग की दवा क्या है? शशीबाबू से कहना कि वे मलाबार चले जायें। वहाँ के राजा ने प्रजा से जमीन छीनकर ब्राह्मणों के चरणों में अर्पित की है। धन कमायेंगे, सर्वनाश करेंगे, साथ ही यह भी कहेंगे कि हमें न छूना। और उनका काम बस इतना ही बतलाना मात्र है कि यदि आलू से बैंगन का स्पर्श हो जाये तो कितने समय के अन्दर यह ब्रह्माण्ड रसातल को पहुँच जायेगा तथा चौदह बार हाथ में मिट्टी न लगाने से चौदह पुरुष नरकगामी होते हैं अथवा चौबीस पुरुष। इन कठिन प्रश्नों की मीमांसा में ये लोग आज दो हजार वर्षों से लगे हुए हैं; जबकि दूसरी ओर one-fourth of the people are starving (जनता का एक-चौथाई भाग भूखा मर रहा है।)।
तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल में बहुतसी चीजें अच्छी भी थीं और बुरी भी। उत्तम वस्तुओं की रक्षा करनी होगी, किन्तु Ancient India (प्राचीन भारत) से Future India (भविष्यकालीन भारत) अधिक महत्त्वपूर्ण होगा। जिस दिन श्रीरामकृष्णदेव ने जन्म लिया है, उसी दिन से Modern India (वर्तमान भारत) तथा सत्ययुग का आविर्भाव हुआ है। तुम लोग सत्ययुग का उद्घाटन करो और इसी विश्वास को लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होओ।
एक ओर तो तुम श्रीरामकृष्णदेव को अवतार कहते हो और उसके साथ ही साथ अपने को अज्ञ भी बतलाते हो, यही कारण है कि मैं बिना किसी संकोच के तुम लोगों को Liar (झूठा) कहता हूँ। यदि श्रीरामकृष्णदेव सत्य हैं तो तुम भी सत्य हो। किन्तु तुमको यह प्रमाणित कर दिखाना होगा।. . . तुम्हारे अन्दर महाशक्ति विद्यमान है, नास्तिकों में कुछ भी नहीं है। आस्तिक लोग वीर होते हैं, जो महाशक्ति उनमें विद्यमान है, उसका विकास अवश्य होगा और उससे जगत् परिप्लावित हो जायेगा। “गरीबों का उपकार करना ही दया है”, “मनुष्य भगवान है, नारायण है,” “आत्मा में स्त्री-पुरुष-नपुंसक तथा ब्राह्मण-क्षत्रियादि भेद नहीं हैं”, “ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त सब कुछ नारायण हैं।” कीट less manifested (स्वल्प अभिव्यक्त्त) तथा ब्रह्म more manifested(अधिक अभिव्यक्त्त) हैं। Every action that helps a being manifest its divine nature more and more is good, every action that retards is evil. The only way of getting our divine nature manifested is by helping others do the same. If there is inequality in nature still there must be equal chance for all–or if greater for some and for some less – the weaker should be given more chance than the stronger.(२)
अर्थात चाण्डाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है, उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं। यदि किसी ब्राह्मण के पुत्र के लिए एक शिक्षक आवश्यक हो तो चाण्डाल के लड़के के लिए दस शिक्षक चाहिए। कारण यह है कि जिसकी बुद्धि की स्वाभाविक प्रखरता प्रकृति के द्वारा नहीं हुई है, उसके लिए अधिक सहायता करनी होगी। चिकने-चुपड़े पर तेल लगाना पागलों का काम है। The poor, the downtrodden, the ignorant, let these be your God (दरिद्र, पददलित तथा अज्ञ लोग तुम्हारे ईश्वर बनें।)
तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है – उससे सावधान रहना; सब कोई उस दलदल में पँसकर खतम हो जाते है। वर्तमान हिन्दुओं का धर्म न तो वेद में है और न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में – धर्म तो भोजन-पात्र में समा चुका है – यही वह दलदल है। वर्तमान हिन्दू धर्म न तो विचारप्रधान ही है और न ज्ञानप्रधान, ‘मुझे न छूना, मुझे न छूना’ इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एक मात्र अवलम्बन है, बस इतना ही। इस घोर वामाचाररूप अस्पृश्यता में पँसकर तुम अपने प्राणों से हाथ न धो लेना। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” क्या यह वाक्य केवलमात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिए है? जो लोग गरीबों को रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकते, वे फिर मुक्ति क्या दे सकते हैं? दूसरों के श्वास-प्रश्वासों से जो अपवित्र बन जाते हैं, वे फिर दूसरों को क्या पवित्र बना सकते हैं? Don’t-touchism is a form of mental disease, (अस्पृश्यता एक प्रकार की मानसिक व्याधि है) उससे सावधान रहना। All expansion is life, all contraction is death. All love is expansion, all selfishness is contraction. Love is therfore the only law of life. He who loves, lives, he who is selfish is dying. Therefore love for love’s sake, because, it is only law of life just as you breathe to live. This is the secret of selfless love, selfless action and the rest.(३)
यदि हो सके तो शशी (सन्याल) की कुछ भलाई का प्रयत्न करना। वह अत्यन्त उदार तथा निष्ठावान है, किन्तु उसका हृदय संकीर्ण है। दूसरों के दुःख में दुखी होना सब के लिए सम्भव नहीं है। हे प्रभो, सब अवतारों में श्री चैतन्य महाप्रभु श्रेष्ठ हैं, किन्तु उनमें (प्रेम के सदृश्य) ज्ञान का अभाव था; श्रीरामकृष्णावतार में ज्ञान भक्ति तथा प्रेम – तीनों ही विद्यमान हैं। उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त कर्म तथा प्राणियों के लिए अनन्त दया है। अभी तक तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ है। “श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।” (इनके बारे में सुनकर भी कोई कोई इनको जान नहीं पाते हैं।)
What the whole Hindu race has thought in ages, he lived in one life. His life is the living commentary to the Vedas of all nations.(४) लोगों को धीरे धीरे इसका पता लगेगा। मेरी तो यही पुरानी वाणी है – Struggle, struggle up to light! Onward! (अपनी पूरी शक्ति के साथ ज्योति की ओर अग्रसर होओ।) इति।
दास
विवेकानन्द
[१] ऐसे साधु कितने हैं, जिनके कार्य, मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं और जो विभिन्न उपकरणों के द्वारा त्रिभुवन का प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणुतुल्य अर्थात् अत्यन्त स्वल्प गुण को भी पर्वतप्रमाण बढ़ाकर अपने हृदयों का विकास साधित करते हैं।
[२] धीरे धीरे ब्रह्मभाव की अभिव्यक्ति के लिए जिन कार्यो से जीव को सहायतामिलती है, वे ही अच्छे हैं और जिनके द्वारा उसमें बाधा पहुँचती है, वे बुरे हैं। अपनेमें ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरोंकी सहायता करना। यदि स्वभाव में समता न भी हो तो भी सब को समान सुविधा मिलनीचाहिए। फिर भी यदि किसी को अधिक तथा किसी को कम सुविधा देना हो तो बलवानकी अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करना आवश्यक है।
[३] सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है।जहाँ प्रेम है, वहीं विस्तार है ओर जहाँ स्वार्थ है, वहीं संकोच। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है। जो प्रेमिक है, वही जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक हैःजबकि प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है, अतः जैसे श्वास-प्रश्वास लिये बिना जीवित नहीं रहा जा सकता, वैसे ही प्रेम के बिना जीवनधारण भी असम्भव है औरैसीलिए अहैतुक प्रेम आवश्यक है। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यहीरहस्य है।
[४] युग-युगान्त से समग्र हिन्दू जाति के लिए जो चिन्तन का विषय रहा, उन्होंने अपने एक ही जीवन में उसकी उपलब्धि की। उनका जीवन समग्र जाति के सम्पूर्ण शास्त्रों का सजीव टीकास्वरूप है।
(३३)
(श्रीयुत जि. जि. नरसिंहाचारियर को लिखित)
शिकागो,
११ जनवरी, १८९५
प्रिय जि. जि. ,
तुम्हारा पत्र अभी मिला। – अन्य धर्मो की अपेक्षा ईसाई धर्म की बड़ाई दिखाने के लिए धर्म-सभा (Parliament of Religions) की रचना हुई थी; परन्तु तत्त्वज्ञान से पुष्ट हिन्दुओं का धर्म, फिर भी अपने पद का समर्थन करने में विजयी हुआ। डाक्टर बैरोज और उस श्रेणी के लोगों से जो कि बड़े कट्टर हैं, में सहायता की आशा नहीं रखता। . . . भगवान ने मुझे इस देश में बहुतसे मित्र दिये हैं और उनकी संख्या सदैव बढ़ती ही जाती है। . . . ईश्वर उनका कल्याण करें। मैं बराबर न्यूयार्क और बोस्टन के बीच में यात्रा करता रहा। इस देश के ये ही दो बड़े केन्द्र हैं, जिनमें से बोस्टन की मस्तिष्क से तुलना की जा सकती है और न्यूयार्क की जेब से। दोनों स्थानों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। मैं समाचार-पत्रों के वर्णन से उदासीन हूँ, इसलिए तुम यह आशा मुझसे न करो कि उनमें से किसी के उल्लेख मैं तुम्हें भेजूँगा। काम आरम्भ करने के लिए थोड़ेसे शोर की आवश्यकता थी, वह जरूरत से अधिक हो चुका है।
मैं मणि अय्यर को लिख चुका हूँ और तुम्हें आदेश दे चुका हूँ। अब तुम मुझे दिखाओ कि तुम क्या कर सकते हो। अब व्यर्थ बकवास का नहीं, असली काम का समय है; हिन्दुओं को अपनी बातों का काम से समर्थन करना है; यदि वे ऐसा नहीं कर सकते, तो वे किसी वस्तु के योग्य नहीं हैं। बस, इतनी बात है। – मेरा क्या है, मैं तो सत्य की शिक्षा देना चाहता हूँ, चाहे वह यहाँ हो या कहीं और!
तुम्हारे या मेरे अनुकूल या विरूद्ध लोग क्या कहते हैं, भविष्य में इस पर ध्यान न दो। काम करो, सिंह के समान बनो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दें। मृत्युपर्यन्त निरन्तर काम करता रहूँगा। और मुत्यु के बाद भी संसार की भलाई के लिए काम करता रहूँगा। सत्य का प्रभाव असत्य की अपेक्षा अनन्त है; और उसी तरह से अच्छाई का। यदि तुममें ये गुण हैं, तो उनकी आकर्षण-शक्ति से ही तुम्हारा मार्ग साफ हो जायेगा।
. . . सहस्रों सज्जन मेरा अति सम्मान करते हैं। तुम यह जानते हो; इसलिए भगवान् पर भरोसा रखो। इस देश में धीरधीरे मैं ऐसा प्रभाव डाल रहा हूँ, जो समाचार-पत्रों के ढिंढ़ोरा पीटने से नहीं हो सकता था। . . .
यह है चरित्र का प्रभाव, पवित्रता का प्रभाव, सत्य का प्रभाव, व्यक्तित्व का प्रभाव। जब तक ये गुण मुझमें हैं, तब तक चिन्ता का कुछ कारण नहीं; कोई मेरा बाल बाँका न कर सकेगा। यदि वे यत्न करेंगे, तो भी असफल होंगे। . . . ऐसा भगवान ने कहा है। . . . सिद्धान्त और पुस्तकों को छोड़ो। जीवन सर्वोच्च है और जनता के हृदय-स्पन्दन का यही एक मार्ग है – इसमें व्यक्तिगत आकर्षण होता है। . . . दिन-प्रतिदिन भगवान मेरी अन्तर्दृष्टि को तीव्र करते जा रहे हैं। काम करो, काम करो, काम करो, . . . व्यर्थ बकवास को विश्राम करने दो, प्रभु-चर्चा करो। जीवन अतिशय अल्प है और झक्की तथा कपटी मनुष्यों की बातों में बिताने के लिए समय कहाँ?
हमेशा याद रखो कि प्रत्येक राष्ट्र को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक मनुष्य को भी अपनी-अपनी रक्षा करनी होगी। दूसरों से सहायता की आशा न रखो। कठिन परिश्रम से मैं कभी-कभी थोड़ासा रुपया तुम्हारे काम के लिए भेज सकूँगा; परन्तु इससे अधिक मैं कुछ नहीं कर सकता। यदि तुम्हें उसकी प्रतीक्षा करनी है, तो काम बन्द कर दो। यह समझते रहो कि मेरे विचारों के लिए यह एक विशाल क्षेत्र है और मुझे इसकी परवाह नहीं है कि यहाँ के लोग हिन्दू, मुसलमान या ईसाई हैं। जो ईश्वर से प्रेम करता है, मैं उसकी सेवा में सदैव तत्पर रहूँगा।
मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ हैं। यदि तुम मेरे अनुगामी बनना चाहते हो तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्ण रूप से स्वार्थ त्याग करो, – और सब से अधिक – पूर्ण रूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। संग्राम के बाद किसने क्या किया इसकी तुलना करेंगे, और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा करेंगे। अब बातें न करो; काम करो, काम करो, काम करो! मैंने तुम्हारा किया हुआ कोई स्थायी काम नहीं देखा – मैं तुम्हारा स्थापित किया हुआ कोई केन्द्र नहीं देखता हूँ, मैं तुम्हारा बनाया हुआ कोई मन्दिर या सभागृह नहीं देखता हूँ, मैं किसी को तुम्हें सहयोग देते नहीं देख रहा हूँ। बातें, बातें, बातें! इसकी कमी नहीं है! ‘हम बड़े हैं,’ ‘हम बड़े हैं’! यह तो बकवास है! हम शक्तिहीन हैं; यही हम हैं! यह नाम और यश की प्रबल आकांक्षा, और अन्य सब पाखण्ड – ये सब मेरे लिए क्या हैं? मुझे उनकी क्या परवाह है? मैं सैकड़ों को परमात्मा के पास आते हुए देखना चाहता हूँ। वे कहाँ है? मुझे उनकी आवश्यकता है, मै उन्हें देखना चाहता हूँ। तुम उन्हें ढूँढ़ निकालो। तुम मुझे केवल नाम और यश देते हो। नाम और यश को छोड़ो। काम में लगो। मेरे वीरो, काम में लगो! तुमने अभी तक मेरे भीतर जो आग जल रही है उसे नहीं जाना – उसके संस्पर्श से अभी तक तुम्हारा ह्रदय अग्निमय नहीं हो उठा। तुमने अभी तक मुझे नहीं पहचाना, तुम आलस्य और सुख-भोग की लकीर पीट रहे हो। आलस्य का त्याग करो, लोक और परलोक के सुखभोग को दूर हटाओ। आग में कूद पड़ो और लोगों को परमात्मा की ओर ले आओ।
मेरे भीतर जो आग जल रही है वही तुम्हारे भीतर जल उठे, तुम अत्यन्त निष्कपट बनो, संसार के रणक्षेत्र में तुम्हारी वीरों की मृत्यु हो – यही मेरी निरन्तर प्रार्थना है।
विवेकानन्द
पु. – आलासिंगा, किडी, डाक्टर, बालाजी और अन्यान्य सभी को यह कहो कि राम श्याम हरि कोई भी व्यक्ति हमारे पक्ष में या हमारे विरुद्ध जो कुछ भी कहे उसको लेकर माथापच्ची न करें, वरन् अपनी समस्त शक्ति एकत्रित कर कार्य में लगायें। इति।
वि.
(३४)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
अमेरिका,
१२ जनवरी, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
कल मैंने जि. जि. को एक पत्र लिखा है, किन्तु और भी कुछ बातें आवश्यक प्रतीत होने के कारण तुम्हें लिख रहा हूँ:-
सब से पहली बात तो यह है कि कतिपय पत्रों में मैं पहले ही तुम लोगों को लिख चुका हूँ कि पुस्तक व समाचार-पत्र इत्यादि और मुझे भेजने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं देख रहा हूँ कि तुम बराबर भेज रहे हो – इससे मैं अत्यन्त दुःखित हूँ। क्योंकि उनको पढ़ने तथा उस ओर ध्यान देने का मुझें एकदम अवकाश नहीं है। कृपया ऐसी चीजें पुनः न भेजी जायें। मिशनरी, थियासाफिस्ट या उस प्रकार के लोगों की मैं कुछ भी परवाह नहीं करता – वे सब मिलकर जो कुछ करना चाहें करें। उनके बारे में आलोचना करने का अर्थ उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाना है। मद्रास अभिनन्दन का उत्तर श्रीमती – को भेजना तुम्हारे लिए उचित नहीं हुआ है। वे एक कट्टर प्राचीनपन्थी ईसाई हैं, अतः प्राचीन-पन्थियों के बारे में मैंने उसमें जो समालोचना की है, वह उन्हें अच्छी प्रतीत नहीं होगी। अस्तु, जिसका अन्त अच्छा होता है, वही अच्छा हुआ करता है।
अब इस बात को तुम हमेशा के लिए जान रखो कि नाम, यश या उसी प्रकार की व्यर्थ की चीजों की मैं एकदम परवाह नहीं करता हूँ। जगत् के कल्याण के लिए मैं अपने भावों का प्रचार करना चाहता हूँ। तुम लोगों ने निःसन्देह बहुत ही विशाल कार्य किया है, किन्तु जहाँ तक कार्य अग्रसर हुआ है, उससे मुझे केवलमात्र प्रशंसा ही मिली है। जगत् में एकमात्र प्रशंसा लाभ करने की अपेक्षा मुझे मेरे जीवन का मूल्य कहीं अधिक प्रतीत होता है। यह निश्चय जानना कि उस प्रकार के मूर्खतापूर्ण कार्यों के लिए मेरे पास बिलकुल समय नहीं है। भारत में मेरे भावों के प्रचार तथा स्वयं संघबद्ध होने के लिए अब तक तुमने क्या किया है? – कुछ भी नहीं।
ऐसे एक संघ की नितान्त आवश्यकता है – जो कि हिन्दुओं में पारस्परिक सहयोगिता तथा अच्छे भावों के समादर करने की शिक्षा प्रदान कर सके। मुझे धन्यवाद प्रदान करने के लिए कलकत्ते में ५००० व्यक्ति एकत्रित हुए थे – अन्यान्य स्थानों में भी सैकड़ों व्यक्ति इकट्ठे हुए थे – ठीक है, किन्तु उनसे यदि एक पैसा प्रति-व्यक्ति सहायता माँगी जाये तो तत्क्षण ही वे चल देंगे। हमारी समग्र जाति का चरित्र बालक की तरह दूसरों पर निर्भरशील मनोवृत्ति से पूर्ण है। यदि कोई उनके सामने भोजन की सामग्री उपस्थित करे तो वे खाने के लिए सदा प्रस्तुत हैं और कुछ व्यक्ति तो ऐसे हैं कि यदि उन वस्तुओं को उनके मुँह में डाल दिया जाये तो और भी अच्छा है। अमेरिका तुम्हारे लिए आर्थिक सहायता नहीं कर सकता है और करने ही क्यों लगा? यदि तुम लोग स्वयं अपनी सहायता नहीं कर सकते हो तो तुम जीवित रहने के अधिकारी नहीं हो। तुमने जो पत्र लिखकर मुझसे यह जानना चाहा कि अमेरिका से प्रतिवर्ष कुछ एक हजार रुपयों की निश्चित आशा की जा सकती है या नहीं, इसको पढ़कर मैं एकदम निराश हो चुका हूँ। तुमको एक पैसा भी नहीं मिलेगा। रुपये-पैसे का संग्रह तुमको स्वयं करना होगा; कहो, कर सकते हो?
जनता की शिक्षा के बारे में मेरी जो कल्पना थी, इस समय उसे मैंने स्थगित रखा है। धीरे धीरे वह कार्य में परिणत होती रहेगी। अब तो मैं ऐसे प्रचारकों का एक दल चाहता हूँ, जो कि अपने विचारों में पक्का हो। विभिन्न धर्मों की तुलनात्मक आलोचना, संस्कृत एवं कुछ पाश्चात्य भाषाओं तथा वेदान्त के विभिन्न मतवादों की शिक्षा प्रदान करने के लिए मद्रास में एक कालेज की स्थापना करनी ही होगी। उसके मुखपत्रस्वरूप अंग्रेजी तथा देशीय भाषाओं में समाचारपत्र प्रकाशित होंगे; साथ ही एक प्रेस भी होगा। इनमें से किसी भी एक कार्य को सम्पन्न करो, तब मैं समझूँगा कि तुम लोगों ने कोई कार्य किया है – केवलमात्र मुझे आसमान पर चढ़ाकर प्रशंसा करने से कुछ भी लाभ नहीं होगा।
तुम्हारी जाति भी तो यह दिखाये कि वह भी कुछ करने के लिए तैयार है। यदि तुम लोग भारत में इन कार्यों में से कुछ भी न कर सको तो मुझे अकेला ही कार्य करने दो। जगत् को देने के लिए मेरे पास जो भी कुछ है, जो उसे आदरपूर्वक ग्रहण तथा कार्य में परिणत करने को प्रस्तुत हैं, उनके लिए मुझे उस वस्तु को प्रदान करने दो। ग्रहण करनेवाला चाहे कोई भी व्यक्ति या जाति क्यों न हो, उसकी मुझे कोई परवाह नहीं है। “जो मेरे पिता की अभिलाषा को कार्य में परिणत करेगा” (He who doeth the will of my Father) वही मेरा अपना है।
अस्तु, मैं फिर भी यह कहना चाहता हूँ कि इस कार्य के लिए तुम लोग पूर्ण प्रयास करते रहना – इसे एकदम छोड़ न देना। इस बात को याद रखना कि मेरी अत्यन्त प्रशंसा हो – मैं नहीं चाहता। मैं यह देखना चाहता हूँ कि मेरे भावों को कार्य में परिणत किया जा रहा है। सभी महापुरुषों के शिष्यों ने अपने गुरु के उपदेशों को उस एक व्यक्ति के साथ ही सदा अच्छेद्य रूप से जोड़ने की चेष्टा की है और अन्त में उसी एक व्यक्ति के साथ ही साथ उनके भावों को भी नष्ट कर दिया है। श्रीरामकृष्ण के शिष्यों को अवश्य ही इस बात से सदा सावधान रहना होगा। भावों का विस्तार करने का तुम लोग प्रयास करते रहो – प्रभु तुम्हें आशीर्वाद प्रदान करें।
चिर आशीर्वादक,
विवेकानन्द
(३५)
(श्रीमती ओलि बुल को उनके पिता की मृत्यु के अवसर पर लिखित)
ब्रुकलिन,
२० जनवरी, १८९५
. . . आपके पिता के वृद्धशरीर त्यागने के पूर्व मुझे भान हुआ था, परन्तु मेरा यह नियम नहीं है कि जब किसी से माया की प्रतिकूल लहर टकरानेवालि हो तो मै उसे पहले ही से लिख दूँ। ये जीवन परिवर्तन करनेवाले अवसर होते हैं, और मैं जानता हूँ कि आप विचलित नहीं हुई हैं। समुद्र के ऊपरी भाग का बारी-बारी से उत्थान व पतन होता है, परन्तु विवेकी आत्मा को – जो ज्योति की सन्तान है – उसके पतन में गम्भीरता, और समुद्र की थाह में मोती और मूँगों की तहें ही प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं। आना और जाना यह केवल भ्रम है। आत्मा न आती है, न जाती है। वह किस स्थान में जायेगी जब सम्पूर्ण देश (Space) आत्मा में ही स्थित है? प्रवेश और प्रस्थान का कौन समय होगा जब समस्त काल आत्मा में ही है? पृथ्वी घूमती है, परन्तु सूर्य के घुमने का भ्रम उत्पन्न होता है; सूर्य नहीं घूमता। इसी प्रकार प्रकृति या माया चंचल और परिवर्तनशील है। पर्दे पर पर्दा हटता है, इस विशाल पुस्तक का पन्ने पर पन्ना बदलता है और साक्षी आत्मा स्वयं अविचल और अपरिणामी रहकर ज्ञान का पान करती है। जितनी जीवात्माएँ हो चुकी हैं या होंगी सभी वर्तमानकाल में हैं – और जड़जगत् की एक उपमा की सहायता लेकर हम कह सकते हैं कि वे सब रेखागणित के एक बिन्दु (Geometrical Point) पर स्थित हैं। आत्मा में देश का भाव नहीं रहता, इसलिए जो हमारे थे, वे हमारे हैं, और सर्वदा हमारे रहेंगे। वे सर्वदा हमारे साथ हैं, सर्वदा हमारे साथ थे, और हमारे साथ रहेंगे। हम उनमें हैं, वे हममें। इन कोष्ठों को देखो। यद्यपि प्रत्येक पृथक् है तथापि वे सब क, ख (देह और प्राण), इन दो बिन्दुओं में अभिन्न भाव से संयुक्त हैं। वहाँ सब एक हैं। प्रत्येक का अलग अलग एक व्यक्तित्व है परन्तु वे सब क ख बिन्दुओं में एक हैं। कोई भी उस क ख अक्षरेखा से निकलकर भाग नहीं सकता, और परिधि चाहे कितनी टूटी या फटी हो परन्तु अक्षरेखा में खड़े होने से हम किसी भी कोष्ठ में प्रवेश कर सकते हैं। यह अक्षरेखा ईश्वर है। वहाँ उनसे हम अभिन्न हैं, सब सब में है, और सब ईश्वर में हैं।
चन्द्रमा के मुख पर बादल चलते हैं, वे यह भ्रम उत्पन्न करते हैं कि चन्द्रमा चल रहा है। इसी प्रकार प्रकृति, शरीर और जड़ (matter) ये गतिशील हैं। और उनकी गति ही यह भ्रम उत्पन्न करती है कि आत्मा गतिशील है। इस प्रकार अन्त में हमें यह पता लगता है कि जिस सहजज्ञान – Instinct – (अथवा दैवप्रेरणा – inspiration?) द्वारा सब जातियों के उच्च-नीच मनुष्य मृत व्यक्तियों की उपस्थिति अपने समीप ही अनुभव करते आ रहे हैं, वह युक्ति की दृष्टि से भी सत्य है।
प्रत्येक जीवात्मा एक नक्षत्र है, और ये सब नक्षत्र ईश्वररूपी उस अनन्त निर्मल नील आकाश में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप, वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरूप है, वही प्रत्येक का प्रकृत व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा-रूप नक्षत्रों में से कुछ के (जो हमारी दृष्टि के अतीत प्रदेश में चले गये हैं) अनुसन्धान से ही धर्म का आरम्भ हुआ और यह अनुसन्धान तभी समाप्त हुआ जब उन सब को हमने परमात्मा में पाया, एवं अपने आप को भी उन्हीं में पाया। अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और वे वहीं अवस्थित हैं जहाँ वे अनन्तकाल से थे। इस लोक में या किसी और लोक में क्या फिर वे ऐसा ही और एक वस्त्र तैयार करके परिधान करेंगे? मैं सच्चे दिल से भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे यह बात पूरे ज्ञान के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने पूर्वकर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाये। मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त हो जायें अर्थात् वे यह जानें कि वे मुक्त हैं। और यदि उन्हें फिर कोई स्वप्न देखना हो तो वह सब आनन्द और शान्ति के स्वप्न हों। . . .
आपका,
विवेकानन्द
(३६)
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
न्युयार्क,
२५ जनवरी, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
स्टर्डी के पते पर भेजा हुआ आपका कृपापूर्ण पत्र मुझे यहाँ भेज दिया गया है। मुझे भय है कि इस वर्ष कार्यभार से मैं थका जा रहा हूँ। मुझे विश्राम की परम आवश्यकता है। इसलिए आपका यह कहना कि बोस्टन का काम मार्च के अन्त में आरम्भ किया जाये, बहुत अच्छा है। अप्रैल के अन्त में मैं इंग्लैण्ड के लिए चल दूँगा।
“आत्मा ही एक एवं अखण्ड सत्तास्वरूप और शेष सब असत् है” – यह ज्ञान होने पर कौनसा व्यक्ति या कौनसी वासना मानसिक उद्वेग का कारण हो सकती है? माया द्वारा कल्याण करने के विचार आदि मेरे मस्तिष्क में आये – अब वे मुझे छोड़ रहे हैं। मेरा यह विश्वास अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है कि कर्म का ध्येय केवल चित्त की शुद्धि है, जिससे ज्ञान प्राप्त करने का वह अधिकारी हो। यह संसार गुण और दोषसहित अनेक रूपों में चलता रहेगा। पुण्य और पाप केवल नये नाम और नये स्थान बना लेंगे। मेरी आत्मा निरवच्छिन्न और अनश्वर शान्ति और विश्राम के लिए लालायित है।
“अकेले रहो, अकेले रहो, जो अकेले रहता है उसका किसी से विरोध नहीं होता – वह किसी की शान्ति भंग नहीं करता, न उसकी शान्ति कोई दूसरा भंग करता है।” हा ! मैं तरसता हूँ – अपने चिथड़ों के लिए, अपने मुण्डित मस्तक के लिए, वृक्ष के नीचे सोने के लिए, और भिक्षा के भोजन के लिए मैं तरसता हूँ ! भारत में अपने दोष होते हुए भी वही एकमात्र स्थान है जहाँ आत्मा अपनी मुक्ति, अपने ईश्वर को पाती है। यह पश्चिमी चमक-दमक केवल मिथ्या है और आत्मा का बन्धन है। संसार की निःसारता का मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी दृढ़ता से अनुभव नहीं किया था। प्रभु सब को बन्धन से मुक्त करें – माया से सब लोग निकल सकें – यही मेरी नित्य प्रार्थना है।
विवेकानन्द
(३७)
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
नं. ५४, पश्चिम, ३३ नं. रास्ता, न्यूयार्क,
१ फरवरी, १८९५
प्रिय बहन,
तुम्हारा सुन्दर पत्र मुझे अभी मिला। . . . कभी-कभी कर्म के लिए कर्म करने को आबद्ध होना, यहाँ तक कि अपने परिश्रम के फल के भोग से भी वंचित रहना यह एक अच्छी साधना है। . . . तुम्हारे आक्षेप से मैं प्रसन्न हूँ एवं मुझे तनिक भी दुःख नहीं। कुछ दिन हुए श्रीमती थर्सबी के यहाँ एक प्रेसबेटीरियन सज्जन के साथ उत्तेजित विवाद हुआ। सामान्य रीति से उन सज्जन का पारा चढ़ गया और वे क्रोध से दुर्वचन कहने लगे। परन्तु बाद में श्रीमती बुल ने मुझे बहुत झिड़का क्योंकि इस प्रकार की बातें मेरे काम में बाधा डालती हैं। ऐसा मालूम होता है कि तुम्हारा भी यही मत है।
मुझे प्रसन्नता है कि तुमने इसी समय इस प्रसंग को उठाया, क्योंकि मैं इस पर बहुत विचार करता रहा हूँ। पहली बात यह कि मुझे इन बातों का तनिक भी दुःख नहीं। कदाचित् तुम्हें इससे नाराजी होगी – होने की ही बात है। मैं जानता हूँ कि किसी की भी सांसारिक उन्नति के लिए मधुरता कितना मूल्य रखती है। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँ परन्तु जब अन्तरस्थ सत्य से विकट समझौता करने का अवसर आता है तब मैं रुक जाता हूँ। मैं दीनता में विश्वास नहीं रखता। मैं समदर्शित्व में विश्वास रखता हूँ – अर्थात् सब के लिए समभाव। अपने ‘ईश्वर’ – स्वरूप समाज की आज्ञा पालन करना साधारण मनुष्यों का धर्म है, परन्तु जो ‘ज्योति के बालक’ (children of light) होते हैं वे ऐसा कभी नहीं करते। यह एक अटल नियम है। एक व्यक्ति अपनी बाह्य परिस्थिति व अपने सामाजिक विचारों के अनुकूल अपने आपको बनाता है, और समाज, जो कि उसका सब प्रकार से कल्याण करनेवाला है, उससे सब प्रकार की अच्छी चीजें, सुख-सुविधाएँ प्राप्त कर लेता है। दूसरा अकेला खड़ा रहता है और समाज को अपनी ओर खींच लेता है। समाज के अनुकूल रहनेवाले मनुष्य का मार्ग फूलों से आच्छादित रहता है, और प्रतिकूल का काँटों से। परन्तु लोकमत के उपासकों का तुरन्त ही विनाश होता है और सत्य की सन्तान सदा जीवित रहती है।
सत्य की तुलना मैं एक अनन्त शक्तिवाले क्षयकर (Corrosive) पदार्थ से करूँगा। वह जहाँ भी गिरता है जलाकर अपना स्थान बना लेता है – यदि नरम वस्तु पर गिरे, तो तुरन्त ही; यदि कठोर पाषाण पर, तो धीरे-धीरे, परन्तु जलाता अवश्य है। जो लिखा है सो लिखा है। मैं विवश हूँ बहन, कि प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं हो सकता हूँ। इसके लिए मैंने आजीवन कष्ट उठाया है परन्तु मैं वैसा नहीं कर सकता। मैंने प्रयत्न पर प्रयत्न किया है, परन्तु मैं वैसा नहीं कर सकता। अन्त में मैंने उसे त्याग दिया। ईश्वर महिमामय हैं। वे मुझे कपटी नहीं बनने देते। अब जो मन में है उसे प्रकट होने दो। मैंने कोई ऐसा मार्ग नहीं पाया जिससे मैं सब को प्रसन्न रख सकूँ और मैं वही रहूँगा जो मैं प्रकृत रूप से हूँ, अपनी अन्तरात्मा के प्रति स्थिरलक्ष्य होकर। “सौन्दर्य और यौवन का नाश होता है, जीवन और धन का नाश होता है, नाम और यश का नाश होता है, पर्वत भी चूर-चूर होकर मिट्टी हो जाते हैं, मित्रता और प्रेम भी नश्वर हैं। एकमात्र सत्य ही चिरस्थायी है।” हे सत्यरूपी प्रभु, आप ही मेरे एकमात्र पथ-दर्शक बनिये। अब मेरी आयु बीती जा रही है, और अब मैं केवल मीठा, केवल मधुवत् नहीं बन सकता। जैसा मैं हूँ मुझे वैसा ही रहने दो। “हे संन्यासी, निर्भय होकर तुम दूकानदारी वृत्ति छोड़ दो, शत्रु-मित्र में भेद न रखकर सत्य में दृढ़-प्रतिष्ठ रहो और इसी क्षण से लोक, परलोक और भविष्य के सब लोकों का – उनके भोग और उनकी असारता का त्याग करो। हे सत्य, तुम ही मेरे एक पथ-दर्शक हो।” मुझे धन या नाम या यश या भोग की कोई इच्छा नहीं है। बहन, मेरे लिए वे धूल के समान हैं। मैं अपने भाइयों की सहायता करना चाहता हूँ। प्रभु की कृपा से मुझमें धनोपार्जन का चातुर्य नहीं है। हृदयस्थ सत्य की वाणी का आज्ञापालन न कर, क्यों मैं लोगों की सनक के अनुरूप व्यवहार करने का प्रयत्न करूँ? बहन, मन अभी दुर्बल है और कभी-कभी यन्त्रवत् लौकिक सहायता को पकड़ना चाहता है। परन्तु मैं डरता नहीं। मेरा धर्म सिखाता है कि भय ही सब से बड़ा पाप है। प्रेसबिटेरियन पादरी से पिछली झपट के बाद, और फिर श्रीमती बुल से लम्बे झगड़े के पश्चात्, जो मनु ने संन्यासी से कहा वह स्पष्ट रूप से दिखायी देता है अर्थात् “अकेले रहो और अकेले चलो।” सब मित्रताएँ और प्रेम बन्धन हैं। कोई ऐसी मित्रता न हुई, विशेषतः स्त्रियोंकी, जिसमें ‘मुझे दो मुझे दो’ का भाव न हो। हे महर्षियो! आप ठीक कहते थे। जो किसी व्यक्तिविशेष के आसरे रहता है वह उस सत्यरूपी प्रभु की सेवा नहीं कर सकता। शान्त हो मेरी आत्मा, निःसंग बनो! और परमात्मा तुम्हारे साथ रहेगा। जीवन मिथ्या है, मृत्यू भ्रम है! परमात्मा का ही अस्तित्त्व है, इन सब का नहीं! डरो नहीं मेरी आत्मा, निःसंग बनो। बहन, मार्ग लम्बा है, समय थोड़ा है, सन्ध्या हो रही है। मुझे शीघ्र ही घर जाना है। मुझे शिष्टाचार सीखने का समय नहीं है। मुझे अपना सन्देश देने का समय तो मिलता ही नहीं। तुम गुणवती हो, दयावती हो, मैं तुम्हारे लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ; परन्तु अप्रसन्न न हो, मैं तुम सब को निरे बालक ही समझता हूँ।
स्वप्नों को त्यागो। आह, हे मेरी आत्मा, स्वप्न को त्यागो। संक्षेप में मुझे एक सन्देश देना है। मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है; और मधुर बनने का प्रत्येक यत्न मुझे कपटी बनाता है। चाहे स्वदेश हो या विदेश, परन्तु इस मूर्ख संसार की प्रत्येक आवश्यकता पूरी करने की अपेक्षा तथा निम्नतम स्तर का असार जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मैं सहस्र बार मरना अच्छा समझता हूँ। यदि तुम श्रीमती बुल की तरह समझती हो कि मुझे कुछ कार्य करना है तब यह तुम्हारी भूल है – नितान्त भूल है। इस जगत् में या अन्य किसी जगत् में मेरे लिए कोई कार्य नहीं है। मेरे पास एक सन्देश है, वह मैं अपने ढंग से ही दूँगा। मैं अपने सन्देश को न हिन्दू धर्म, न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा। बस, मैं केवल उसे अपने ही साँचे में ढालूँगा। मुक्ति ही मेरा एकमात्र धर्म है और जो भी उसमें रूकावट डालेगा उससे मैं लड़कर या भागकर बचूँगा। छीः! मैं और पादरियों को प्रसन्न करूँ!! बहन, बुरा न मानना। तुम बालक हो और बालकों को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। तुम लोगों को उस स्त्रोत का आस्वाद नहीं मिला जो तर्क को तर्कशून्य, मर्त्य को अमर, संसार को शून्य और मनुष्य को ईश्वर बना देता है। यदि तुम निकल सकती हो, तो इस मूर्खता का जाल जिसे संसार कहते हैं, इसमें से निकलो। तभी मैं तुम्हें प्रकृत साहसी और मुक्त कह सकूँगा। यदि नहीं तो जो इस झूठे ईश्वर अर्थात् समाज से भिड़ने का और उसके उद्दण्ड कपट को पैरों के नीचे कुचलनें का साहस रखते हैं उनको उत्साहित करो। यदि तुम उत्साह नहीं दिला सकती हो तो कृपया मौन धारण करो किन्तु उन्हें संसार के अनुकूल बनने के, और मधुर और कोमल बनने के झूठे मिथ्यावाद के कीचड़ में पँसाने का प्रयत्न न करो।
यह संसार – यह स्वप्न – यह अति भयानक दुःस्वप्न – इसके मन्दिर और छल-कपट, इसके ग्रन्थ और दुष्टता, इसके सुन्दर मुख और कलुषित हृदय, इसके धर्म का बाहरी ढोंग और अन्तःकरण का अत्यन्त खोखलापन, और सब से अधिक इसकी धर्म के नाम पर दूकानदार की-सी वृत्ति – मुझे इससे अत्यन्त घृणा है। क्या संसार के हाथ बिके हुए दासों की नाप से मेरी आत्मा की तौल होगी? छीः ! बहन, तुम संन्यासी को नहीं जानती, मेरे वेद कहते हैं कि “वह (संन्यासी) वेदशीर्ष है” क्योंकि वह मन्दिर, सम्प्रदाय, धर्ममत, ऋषि (Prophet), ग्रन्थ और इनके समान सब वस्तुओं से मुक्त है। धर्मोपदेशक हों या और कोई हों, उन्हें चिल्लाने दो, मेरे ऊपर जिस प्रकार भी आक्रमण कर सकें, करने दो। मैं उन्हें वैसा ही समझता हूँ जैसा भर्तृहरि ने कहा है, “हे संन्यासी, अपने रास्ते जाओ! कोई कहेगा यह कौन पागल है? कोई कहेगा यह कौन चण्डाल है? कोई तुम्हें साधु जानेगा। संसारियों की बकवास से योगी न तो रुष्ट होता है, न तुष्ट; वह सीधा अपने मार्ग से जाता है।” परन्तु जब वे आक्रमण करें तब यह जानो कि बाजार में हाथी के पीछे कुत्ते अवश्य लगते हैं परन्तु वह उनकी चिन्ता नहीं करता। वह सीधा अपनी राह पर जाता है। इसी तरह से जब कोई महात्मा प्रकट होता है तब उसके पीछे बकनेवाले बहुत लग जाते हैं।
मैं लैण्ड्स्बर्ग (Landsberg) के साथ ५४ पश्चिम, ३३ नं. रास्ते में रहता हूँ। यह वीर और उदारआत्मा है। परमात्मा उसका भला करें। कभीकभी मैं गर्नसी (Guernsey) परिवार के घर सोने जाता हूँ। परमात्मा की कृपा तुम पर सर्वदा रहे और वह तुम्हें इस महा पाखण्ड अर्थात् संसार से शीघ्र निकाले। यह संसाररूपी वृद्धा राक्षसी कभी तुम्हें मोहित न कर सके! शंकर तुम्हारे सहायक हों! उमा तुम्हारे लिए सत्य का द्वार खोल दें और तुम्हारे मोह को नष्ट कर दें!
प्रेम और आशीर्वादपूर्वक तुम्हारा –
विवेकानन्द
(३८)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
१९ नं. पश्चिम, ३८ नं. रास्ता,
न्यूयार्क,
१८९५
प्रिय आलासिंगा,
तुमने ठीक किया है। नाम तथा ‘मोटो’ (ध्येयवाक्य)(१) दोनों ही ठीक हैं। व्यर्थ के समाज-सुधार में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं, पहले आध्यात्मिक सुधार हुए बिना समाज-सुधार नहीं हो सकता। तुमसे यह किसने कहा कि मैं समाज-सुधार चाहता हूँ? मैं तो उसका पक्षपाती नहीं हूँ। भगवान के नाम का प्रचार करते रहो, कुरीति तथा सामाजिक जंजालों के पक्ष अथवा विपक्ष में कुछ भी न कहो। तुम्हारे पत्र के लिए “संन्यासी का गीत”(२) ही मेरा पहला लेख है। निरुत्साह न होना और अपने गुरु तथा ईश्वर में विश्वास न खोना। वत्स, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरु तथा ईश्वर में विश्वास – ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी – तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोंदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालको, कार्य करते रहो।
सदा आशीर्वादक,
विवेकानन्द
[१] स्वामीजी की प्रेरणा से ता. १४ सितम्बर,१८९५ ई. में मद्रास से अंग्रेजी में ‘ब्रह्मवादिन्’ नामक एक पाक्षिक (बाद में मासिक) पत्र प्रकाशित हुआ था। उनके नाम तथा ‘मोटो’ – ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ – को लक्ष्य कर ही स्वामीजी की उपर्युक्त्त उक्त्ति है। १९१४ ई. में उक्त पत्र बन्द हो गया।
[२] Song of the Sannyasin नामक स्वामीजी की प्रसिद्ध कविता ‘ब्रह्मवादिन्’ पत्र के प्रथम वर्ष के द्वितीय अंक में (२८ सितम्बर १८९५) सबसे प्रथम प्रकाशित हुई। इसका अनुवाद रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा प्रकाशित स्वामी विवेकानन्दकृत ‘कवितावली’ पुस्तक में देखिये।
(३९)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
अमेरिका,
७ मई, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
आज सबेरे मुझे तुम्हारा पिछला पत्र और रामानुजाचार्य-भाष्य का पहला खण्ड मिला। कुछ दिन पहले मुझे तुम्हारा दूसरा पत्र भी मिला था। श्री मणि अय्यर का पत्र भी मुझे मिल गया। मैं ठीक हूँ और उसी पुरानी रफ्तार से सब कुछ चल रहा है। तुमने श्री लंड के भाषणों के विषय में लिखा है। मैं नहीं जानता कि वह कौन है और कहाँ है। रह हो सकता है, चर्चो में व्याख्यान देता हों, क्योंकि उसके पास यदि बड़े प्लेटफार्म होते, तो हम लोग उसे अवश्य सुनते। खैर, वह कुछ पत्रों में अपने भाषणों को प्रकाशित कराता है और उन्हें भारत भेजता है। शायद मिशनरी लोग इससे लाभ भी उठाते है। हाँ, तुम्हारे पत्रों से इतनी ध्वनि निकलती है।
यहाँ पर जनता में इस विषय में किसी प्रकार की चर्चा नहीं है, जिससे आत्म-पक्ष-समर्थन करना पड़े। क्योंकि ऐसा होने से यहाँ प्रतिदिन मुझे सैकड़ों लोगों से जूझना पड़ेगा। क्योंकि अब यहाँ भारत की धूम मच गयी है, और डॉ. बरोज के साथ साथ कट्टर ईसाई और बाकी लोग इस आग को बुझाने में बेहद प्रयत्नशील है। दूसरी बात, भारत के विरुद्ध इन सभी कट्टर ईसाइयों के व्याख्यानों में मुझे लक्ष्य बनाकर खूब गाली-गलौज होनी चाहिए। कट्टर ईसाई नर-नारी जो मेरे विरुद्ध गन्दी अफवाहें फैला रहे हैं, उन्हें थोड़ा भी सुनो, तो आश्चर्यचकित रह जाओ। अब, क्या तुम कहना चाहते हो कि इन स्वार्थी नर-नारियों कायरतापूर्ण और पाशविक आक्रमणों के विरुद्ध एक संन्यासी को निरन्तर आत्मसमर्थन करना पड़ेगा? यहाँ मेरे कई एक बहुत प्रभावशाली मित्र हैं, जो बीच बीच में उनको करारा जवाब देकर बैठा देते हैं। यदि हिन्दू सब निद्रित अवस्था में रहेंगे, तो मैं हिन्दूधर्म का समर्थन करने में अपनी शक्ति क्यों क्षीण करूँ? तुम तीस करोड़ आदमी वहाँ क्या कर रहे हो? विशेषतः वे, जिन्हें अपनी विद्वत्ता आदि का अभिमान है? तुम क्यों नहीं इस संग्राम का भार अपने कन्धों पर लेते और मुझे केवल शिक्षा और प्रचार करने का अवकाश देते? मैं यहाँ अपरिचित लोगों में दिनरात झगड़ रहा हूँ। . . . भारत से मुझे क्या सहायता मिलती है? कभी संसार में कोई ऐसा देशभक्ति-हीन राष्ट्र देखा है, जैसा की भारत है? अगर तुम यूरोप और अमेरिका में उपदेश देने के लिए बारह सुशिक्षित दृढ़चेता मनुष्यों को यहाँ भेज सको, और कुछ साल तक उन्हें यहाँ रख सको तो इस भाँति राजनीतिक और नैतिक दृष्टि से, दोनों तरह की भारत की अपरिमित सेवा हो जाये। जो मनुष्य नैतिक दृष्टि से भारत के प्रति सहानुभूतिसम्पन्न होता है वह राजनीतिक विषयों में भी उसका मित्र हो जाता है। बहुतसे पश्चिमी राष्ट्र तुम्हें अर्धनग्न बर्बर समझते हैं। इसलिए वे तुम्हें कोड़े के जोर से सभ्य बनाना उचित समझते हैं। क्यों नहीं तुम इनको इसके विपरीत दिखाते हो? . . . दूर देश में एक आदमी अकेला क्या कर सकता है? जो मैंने किया भी है, उसके योग्य भी तुम नहीं हो। अमेरिकन पत्रिकाओं में अपने पक्षसमर्थन संबंधी लेख तुम क्यों नहीं भेजते? तुम्हें क्या बाधा है? तुम कायरों की जाति – शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से। तुम जानवर लोग, जिनके सामने दो ही भाव हैं – काम और कांचन – जैसे हो, तुम्हारे साथ वैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए. तुम ‘साहब लोगों’ से, यहाँ तक कि मिशनरियों से भी डरते हो। और एक संन्यासी को जीवन भर लढ़ाई में रत, हमेशा रत रहने देना चाहते हो। और तुम लोग बड़े काम करोगे, छिः। क्यों नहीं, तुममें से कुछ लोग एक सुन्दर हिन्दू धर्म-समर्थनयुक्त्त लेख लिखते और बोस्टन की ‘ऐरेना पब्लिशिंग कम्पनी’ को भेजते? ‘ऐरेना’ एक ऐसा पत्र है, जो खुशी से उसे प्रकाशित करेगा और शायद काफी पैसा भी दे। इत्यलम्। इस पर सोचो, जब तुम अहमक की तरह मिशनरियों से प्रलोभित होते हो!
अब तक जितने हिन्दू पश्चिमी देशों में गये हैं, उन्होंने प्रशंसा या धन के लोभ में अधिकतर अपने धर्म और देश का छिद्रान्वेषण ही किया है। तुम जानते हो कि नाम और यश ढूँढ़ने मैं नहीं आया था। वह मुझे अनिच्छित मिला है। मैं क्यों भारत में लौटकर जाऊँ? मेरी वहाँ कौन सहायता करेगा? मद्रास में वे मनुष्य कहाँ हैं, जो धर्म का प्रचार करने के लिए संसार त्याग देंगे? मैं ही एक व्यक्ति हूँ जिसने अपने देश के पक्ष में बोलने का साहस किया है, और मैंने उन्हें ऐसे विचार प्रदान किये हैं, जिनकी आशा हिन्दुओं से वे स्वप्न में भी न रखते थे। इस देश में हजारों मेरे मित्र हैं और सैकड़ों मेरा मृत्यु-पर्यन्त अनुसरण करेंगे। प्रतिवर्ष वे बढ़ते जायेंगे और यदि मैं उनके साथ रहकर काम करता रहा, तो मेरे जीवन का ध्येय और धर्म का मेरा आदर्श पूरा होगा। यह तुम समझते हो?
अमेरिका में जो सार्वजनीन मन्दिर (Temple Universal) बननेवाला था, उसके विषय में मैं अब बहुत नहीं सुनता; परन्तु फिर भी न्यूयार्क जो अमेरिकन जीवन का केन्द्र है, उसमें मैंने सुदृढ़ जड़ पकड़ ली है, और इसलिए मेरा काम चलता रहेगा। मैं अपने कुछ शिष्यों को, ग्रीष्म-काल के निमित्त बने हुए एक एकान्त स्थान में ले जा रहा हूँ। वहाँ योग, भक्ति और ज्ञान में उनकी शिक्षा समाप्त होगी और फिर वे काम करने में सहायता कर सकेंगे।
खैर, जो भी हो, वत्स, मैंने तुम लोगों को बहुत डाँटा है; डाँटने की आवश्यकता भी थी। वत्स, अब काम करो। एक माह के भीतर मैं पत्रिका के लिए कुछ धन भेज सकूँगा। हिन्दू भिखारियों से भिक्षा मत माँगो। मैं अपने मस्तिष्क और बाहुबल द्वारा ही स्वयं सब करूँगा। मैं किसी मनुष्य से सहायता नहीं चाहता, चाहे वह यहाँ हो, या भारत में। . . . श्रीरामकृष्ण को अवतार मानने के लिए लोगों पर जोर न दो।
अब मैं तुम्हें अपने एक नूतन आविष्कार के बारे में बतलाता हूँ। समग्र धर्म वेदान्त में ही है अर्थात् वेदान्त-दर्शन के द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत, इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति की क्रम से ये तीन भूमिकाएँ हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यही सार रूप से धर्म है। भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार-व्यवहारों और धर्ममतों में वेदान्त के प्रयोग का नाम है ‘हिन्दूधर्म’। यूरोप की जातियों के विचारों में उसकी पहली भूमिका अर्थात द्वैत का प्रयोग है ‘ईसाईधर्म’। सेमेटिक (Semetic) जातियों में उसका ही प्रयोग है ‘इस्लामधर्म’। अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ ‘बौद्ध धर्म’ – इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदान्त; उसका प्रयोग विभिन्न जातियों कें विभिन्न प्रयोजन, पारिपार्श्विक अवस्था एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्त्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त्त आदि हरएक ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठानपद्धति में उसे रूपान्तरित कर लिया है। अब अपनी पत्रिका में तुम इन तीन प्रणालियों पर अनेक लेख लिखो, जिनमें उनका सामंजस्य दिखाओ कि वे अवस्थाएँ कैसे एक के बाद एक क्रमानुसार आती हैं। उसके साथ साथ धर्म के आनुष्ठानिक अंग को बिलकुल दूर रखो; अर्थात् दार्शनिक एवं आध्यात्मिक भाव का प्रचार करो और लोगों को अपने अपने अनुष्ठानों एवं क्रियाकलापादि में उसका प्रयोग करने दो। मैं इस विषय पर पुस्तक लिखना चाहता हूँ; इसलिए मैं तीनों भाष्य चाहता था। परन्तु अभी तक रामानुज-भाष्य का एक ही भाग मुझे मिला है!
अमेरिकी थियोसॉइफस्ट दूसरों से अलग हो गये है और अब वे भारत से नफरत करते हैं। टुच्ची बात! और इंग्लैण्ड के स्टर्डी ने, जो हाल में भारत गये थे और मेरे भाई शिवानन्द से मिले थे, मुझे एक पत्र लिखा है, जिसमें वह जानना चाहता है कि मैं कब इंग्लैण्ड जा रहा हूँ। मैंने उसे एक अच्छी चिट्ठी लिखी है। बाबू अक्षयकुमार घोष के क्या हाल हैं? मैने उनके विषय में और अधिक कुछ नहीं सुना। मिशनरी लोगों और दूसरों को उनका प्राप्य दे दो। हममें से कुछ बहुत मजबूत लोग उठें और भारत के वर्तमान धार्मिक पुनर्जागरण पर अच्छे ढंग से, एक सुन्दर और जोरदार लेख लिखें तथा कुछ अमेरिकी पत्रों में उसे भेजें। मैं उनमें से केवल एक या दो से अवगत हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं कोई विशेष लेखक नहीं हूँ। मुझे द्वार-द्वार भीख माँगने का अभ्यास नहीं है। मैं चुपचाप बैठता हूँ और अपने आप जिस चीज को आना हो, आने देता हूँ। . . . मेरे बच्चो, यदि मैं संसारी, पाखण्डी होता, तो यहाँ पर एक बड़ा संघ स्थापन करने में बड़ी भारी सफलता प्राप्त करता। हाय! यहाँ इतने ही में धर्म है; धन और उसके साथ नाम-यश की लालसा – यही है पुरोहितों का दल; और धन के साथ काम का योग देने से होता है साधारण गृहस्थों का दल। मैं मनुष्य जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अन्तःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य अति मन्दगति से होगा। उस समय तक तुम अपना काम करो और मैं अपनी नौका को सीधा चलाकर ले जाऊँगा। पत्रिका को बकवादी न होना चाहिए; परन्तु शान्त स्थिर और उच्च आदर्श-युक्त्त। . . . उत्तम और नियमित रूप से लिखनेवाले लेखकों का दल ढूँढ़ लो। . . . पूर्णतः निःस्वार्थ हो स्थिर रहो, और काम करो। हम बड़े बड़े काम करेंगे, डरो मत। एक बात और है। सब के सेवक बनो। और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होती है और सब काम नष्ट हो जाता है। . . . आगे बढ़ो। तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से सहायता लेंगे – अन्य सहायता हम नहीं चाहते। आत्मविश्वास रखो, सच्चे और सहनशील रहो। मेरे अन्यान्य मित्रों के विरुद्ध मत जाओ। सब से मिलकर मेल से रहो। सब को मेरा असीम प्यार।
आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
पु. – यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा। . . . यदि सफल होना चाहते हो तो पहले ‘अहं’ का नाश कर डालो।
(४०)
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
संयुक्त राज्य, अमेरिका,
१८९५
कल्याणीय,
तुम लोगों के एक पत्र में बहुत समाचार ज्ञात हुए। किन्तु उसमें सब लोगों का विशेष समाचार नहीं है। निरंजन के पत्र से पता चला कि वह लंका जा रहा है। सारदा जो कुछ कर रहा है वही मेरा अभिमत है; परन्तु श्रीरामकृष्णदेव अवतार हैं इत्यादि प्रचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। परोपकार के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, अपने ख्याति-विस्तार के लिए नहीं। शिष्यवर्ग गुरु की ख्याति करते हैं, किन्तु जिस बात की शिक्षा देने के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, उसे वे एकदम त्याग देते हैं और उसका फल होता है दलबन्दी इत्यादि। . . . कर्मकाण्ड को त्यागने का प्रयास करना, . . . जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो तभी तक कर्म आवश्यक है। दलबन्दी, गुटबन्दी, कूपमण्डूकता में मैं नहीं हूँ, चाहे और कहीं मेरा सहयोग क्यों न हो। एकमात्र परोपरकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकी सब कुकर्म हैं। इसीलिए मुझे श्रीबुद्धदेव का शरणागत होना पड़ा। मैं वैदान्तिक हूँ, मेरी अपनी आत्मा का महान् रूप सच्चिदानन्द है, उसके अतिरिक्त और कोई दूसरा ईश्वर मेरी नजरों में प्रायः नहीं दिखायी दे रहा है। अवतार का अर्थ है जीवन्मुक्त्त अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त किया है। अवतारविषयक और कोई विशेषता मेरी दृष्टि में नहीं है। ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त सभी प्राणी समय आने पर जीवन्मुक्ति को प्राप्त करेंगे, उस अवस्थाविशेष की प्राप्त में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहायता का नाम धर्म है, बाकी अधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है, बाकी कुकर्म है; मुझे और कुछ नहीं दिखायी दे रहा है। विभिन्न प्रकार के तान्त्रिक अथवा वैदिक कर्मों के द्वारा भी फल की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु उससे केवलमात्र व्यर्थ में ही जीवन नष्ट हो जाता है – क्योंकि पवित्रतारूप कर्मफल की प्राप्ति एकमात्र परोपकार से ही सम्भव है। यज्ञादि कर्मों से भोगादि की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु आत्मा की पवित्रता असम्भव है। . . . प्राणिमात्र की आत्मा में सब कुछ विद्यमान है। जो अपने को मुक्त कहता है, वही मुक्त होगा और जो यह कहता है कि मैं बद्ध हूँ, वह बद्ध ही रहेगा। मेरे मतानुसार अपने को दीन-हीन समझना पाप तथा अज्ञता है। “नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।” (दुर्बल व्यक्ति इस आत्मतत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता।) “अस्ति ब्रह्म वदसि चेत् अस्ति भविष्यसि, नास्ति ब्रह्म् वदसि चेत् नास्त्येव भविष्यसि।” (यदि कहो कि ब्रह्म-आत्मा – है, तो अस्तिस्वरूप हो जाओगे और यदि कहो कि ब्रह्म-आत्मा – नहीं है, तो नास्ति-स्वरूप हो जाओगे।) जो सदा अपने को दुर्बल समझता है, वह कभी भी शक्तिशाली नहीं बन सकता; और जो अपने को सिंह समझता है, वह “निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केशरी” (पिंजरे से सिंह की तरह वह इस जगत्रूपी जाल को भेदकर निकल जाता है।) दूसरी बात यह है कि श्रीरामकृष्णदेव किसी नवीन तत्त्व को प्रचार करने के लिए आविर्भूत नहीं हुए थे, किन्तु उसे प्रकाश में लाना उनका उद्देश्य था, अर्थात् He was the embodiment of all past religious thoughts of India. His life alone made me understand what the Shastras really meant, and the whole plan and scope of the old Shastras. (वे भारत की समग्र अतीव धार्मिक भावनाओं के मूर्त विग्रह-स्वरूप थे। प्राचीन शास्त्रों का यथार्थ तात्पर्य क्या है और उसकी रचना किस प्रणाली के अनुसार तथा किस उद्देश्य से हुई, इन तत्त्वों को केवलमात्र उनके जीवन से ही मैं हृदयंगम कर सका हूँ।)
मिशनरियों का उद्देश्य इस देश में सफल न हो सका। भगवदिच्छा से ये लोग मुझसे प्रीति करते हैं, ये किसी की बातों में आनेवाले नहीं हैं। मेरे ideas (विचारों) को ये लोग जितना अधिक समझते हैं, उतना मेरे देशवासी भी नहीं समझ पाते, साथ ही ये लोग अत्यन्त स्वार्थी भी नहीं हैं। यानी जब कोई कार्य करना होता है तब ये लोग jealousy (ईर्ष्या) तथा आत्मप्राधान्य आदि संकुचित भावनाओं को अपने पास नहीं फटकने देते। इस समय सब लोग मिल-जुलकर किसी योग्य अनुभवी व्यक्ति के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। इसी से ये लोग इतने उन्नत हैं। किन्तु ये लोग ‘धनदेवता’ के उपासक हैं, हर बात में पैसे का ही प्राधान्य है; हमारे देश के लोग धन के विषय में अत्यन्त उदार हैं, किन्तु इन लोगों में उस प्रकार की उदारता नहीं है। सर्वत्र कंजूसी है, और इसे धर्म माना जाता है। किन्तु अन्याय आचरण करने पर उन्हें पादरियों के चक्कर में आना पड़ता है, तब धन देकर स्वर्ग पहुँचते हैं! ऐसी घटनाएँ प्रायः सबी देशों में समान हैं, इसी का नाम है – priestcraft (पुरोहितबाजी)। मैं कब तक भारत लौटूँगा अथवा नहीं – इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। मेरे लिए तो यहाँ भी भ्रमण करना है और वहाँ भी। किन्तु यहाँ पर हजारों व्यक्ति मेरी बातें सुनते हैं, समझते हैं – हजारों व्यक्तियों का भला होता है; वहाँ क्या है? मद्रास तथा बम्बई में मेरे मनोनुकूल अनेक व्यक्ति हैं। वे विद्वान हैं तथा सब बातों को समझते हैं, साथ ही दयालु भी हैं; अतः परहितचिकीर्षा क्या वस्तु है – यह भलीभाँति समझ सकते हैं। . . . मेरे जीवन की अतीत घटनाओं की पर्यालोचना से मुझे किसी प्रकार का अनुताप नहीं होता है। लोगों को कुछ न कुछ शिक्षा देते हुए मैंने विभिन्न देशों का पर्यटन किया है और उसके बदले रोटियों के टुकड़ों से अपनी उदर-पूर्ति की है। यदि मैं यह देखता कि लोगों को ठगने के सिवाय मैंने और कुछ भी कार्य नहीं किया है तो आज स्वयं अपने गले में फाँसी लगाकर मैं मर जाता। लोगों को शिक्षा देने में जो अपने को अयोग्य समझते हैं, ऐसे लोग शिक्षकों का चोगा पहनकर क्यों दूसरों को ठगकर अपना पेट भरते हैं? क्या यह महापाप नहीं है? . . .
नरेन्द्र
(४१)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
अमेरिका,
१ जुलाई, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
तुम्हारी भेजी हुई मिशनरियों की पुस्तक के साथ रामनद के राजासाहब का फोटो मुझे मिला। राजासाहब तथा मैसूर के दीवान साहब इन दोनों को ही मैंने पत्र लिखा है। रमाबाई के दल के लोगों के साथ डा. जेन्स के वादविवाद से यह स्पष्ट है कि मिशनरियों की उक्त पुस्तक बहुत दिन पहले ही यहाँ आ पहुँची है। उस पुस्तक में एक बात असत्य है। मैंने इस देश में किसी बड़े होटल में कभी भोजन नहीं किया है, साथ ही मैं होटल में रहा भी बहुत ही कम हूँ। चूँकि ‘बाल्टिमोर’ के छोटे होटलवाले अज्ञ हैं – निग्रो समझकर किसी काले आदमी को वे स्थान नहीं देते, इसलिए डा. व्ह्रूमैन को – जिनका कि मैं अतिथि था – मुझे वहाँ के एक बड़े होटल में ले जाने को बाध्य होना पड़ा था; क्योंकि उन लोगों को निग्रो तथा विदेशियों का भेद मालूम है। आलासिंगा, मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम लोगों को स्वयं अपनी रक्षा करनी होगी। दूधमुँहे बच्चों की तरह तुम क्यों आचरण कर रहे हो? यदि कोई तुम्हारे धर्म पर आक्रमण करता है तो क्यों नहीं तुम अपना समर्थन करते तथा उसके मुँह पर जवाब देते? मेरे लिए तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं है; यहाँ पर शत्रुओं की अपेक्षा मेरे मित्रों की संख्या कहीं अधिक है। यहाँ के निवासियों में ईसाइयों की संख्या एकतिहाई मात्र है और पढ़े-लिखे व्यक्तियों में से बहुत ही कम लोग मिशनरियों की परवाह करते हैं। साथ ही एक बात और है कि मिशनरी लोग जिस विषय का विरोध करते हैं, शिक्षित व्यक्ति उस विषय को इसीलिए पसन्द करते हैं कि मिशनरी लोग उसके विपक्ष में हैं। मिशनरियों का प्रभाव अब यहाँ काफी घट चुका है तथा दिनोंदिन और भी घटता जा रहा है। हिन्दूधर्म पर उनके आक्रमण करने से यदि तुम्हें चोट पहुँचती है तो झुँझलाये हुए बच्चों की तरह क्यों तुम मेरे पास अपना रोना रोते हो? क्या तुम उसका जवाब नहीं दे सकते तथा धर्म के दोषों को नहीं दिखला सकते? कायरता तो कोई धर्म नहीं है!
इस अल्पकाल में ही यहाँ के भद्र-समाज के कुछ व्यक्तियों ने मेरी भावनाओं को अपनाया है। आगामी वर्ष मैं उनका संगठन इस प्रकार से करूँगा, जिससे वे लोग कार्यक्षम हो सकें; तब कार्य अच्छी तरह से चलता रहेगा। तदनन्तर मेरे भारत चले जाने पर भी यहाँ मेरे ऐसे अनेक मित्र रहेंगे, जो कि यहाँ पर मेरे सहायक होंगे तथा भारत में भी मेरी सहायता करते रहेंगे; अतः तुम्हारे लिए डरने की कोई बात नहीं है। किन्तु जब तक तुम लोग मिशनरियों द्वारा किये गये आक्रमण का कोई प्रतिकार न कर केवलमात्र चिल्लाते तथा कूदते रहोगे, तब तक मैं तुम्हारे कृत्यों को देखकर हँसता रहूँगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोग तो मानो बच्चों के हाथ के खिलौने हो, नहीं तो और क्या हो? “स्वामीजी, मिशनरी लोग हमें काट रहे हैं, उफ, बड़ी जलन है, क्या करना चाहिए?” स्वामीजी आखिर बूढ़े बालकों के लिए कर ही क्या सकते हैं?
वत्स, मैं तो यह समझता हूँ कि वहाँ जाकर मुझे तुम लोगों को मनुष्य बनाना होगा। मैं यह जानता हूँ कि भारत में केवलमात्र नपुंसक तथा नारियों का निवास है। इसमें नाराज तथा परेशान होने की कोई बात नहीं है। भारत में कार्य करने के लिए मुझे धन की भी व्यवस्था करनी होगी। दुर्बलमस्तिष्क तथा अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में मैं नहीं पड़ना चाहता हूँ।
तुम लोगों को घबड़ाना नहीं चाहिए; जितना सम्भव हो कार्य करते रहो, चाहे वह कितना भी कम क्यों न हो। मुझे अकेला ही आद्योपान्त सब कुछ करना है। कलकत्ते के लोग इतने संकुचित मनोवृत्ति के हैं! और तुम मद्रासी लोग इतने डरपोक हो कि कुत्ते की आवाज से भी चौंक उठते हो!! “नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।” ‘कायर लोग इस आत्मतत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते।’ मेरे लिए तुम्हें डरना नहीं चाहिए, प्रभु मेरे साथ है। तुम लोग केवलमात्र अपनी ही रक्षा करते रहो और मुझे यह दिखलाओ कि तुम इस कार्य को कर सकते हो, तभी मुझे सन्तोष होगा। कौन मेरे बारे में क्या कह रहा है, इस विषय को लेकर मुझे तंग न करो। किसी मूर्ख की समालोचना सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है। तुम बच्चे हो, तुम्हें क्या पता है कि असीम धैर्य, महान् साहस तथा कठोर प्रयत्न से ही उत्कृष्ट फल की प्राप्ति हुआ करती है। किडी की अन्तरात्मा जिस प्रकार रह-रहकर चक्कर लगाने में अभ्यस्त है, मुझे शंका है कि उसके फलस्वरूप उसके भावों का भी परिवर्तन हो रहा है। जरा बाहर निकलकर वह कलम क्यों नहीं पकड़ता? ‘स्वामीजी, स्वामीजी’ की रट न लगाकर क्या मद्रासी लोग उन दुष्टों के विरुद्ध संग्राम की घोषणा नहीं कर सकते, जिससे कि उन्हें दयाप्रार्थी बनकर ‘त्राहि, त्राहि’ की आवाज लगानी पड़े? तुम्हें डर किस बात का है? केवल साहसी व्यक्ति ही महान् कार्यों को कर सकते हैं – कायर व्यक्ति नहीं। अविश्वासियो, सदा के लिए यह जान रखना कि प्रभु मेरे हाथ पकड़े हुए हैं। जब तक मैं पवित्र तथा उनका दास बना रहूँगा, तब तक कोई भी मेरा बाल बाँका न कर सकेगा।
तुम लोग जल्दी ही पत्रिका प्रकाशित कर डालो। जैसे भी हो मैं बहुत शीघ्र ही तुम लोगों को और रुपये भेज रहा हूँ तथा बीच बीच में भेजता रहूँगा। कार्य करते चलो! अपनी जाति के लिए कुछ करो – इससे वे लोग तुम्हारी सहायता करेंगे। पहले मिशनरियों के विरुद्ध चाबुक लेकर उनकी खबर लो। तब समग्र जाति तुम्हारे साथ होगी। साहसी बनो, साहसी बनो – मनुष्य सिर्फ़ एक बार ही मरा करता है। मेरे शिष्य कभी भी किसी भी प्रकार से कायर न बनें।
सदा प्रीतिबद्ध,
विवेकानन्द।
(४२)
(श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित)
१९ नं. पश्चिम, ३८ नं. रास्ता,
न्यूयार्क,
९ अगस्त, १८९५
प्रिय मित्र,
. . . यह उचित ही होगा कि मैं अपने कुछ विचार आपके सामने प्रकट करूँ। मैं पूर्ण विश्वास करता हूँ कि मानवी समाज में धर्म की सामयिक खलबली मचती है और शिक्षित समाज में आजकल ऐसी ही खलबली फैली हुई है। यद्यपि ऐसी खलबली अनेक छोटे-छोटे विभागों में विभक्त्त दिखायी देती है परन्तु मूलतः ये सब विभाग एक ही तत्त्व या तत्त्व-समष्टि से उद्भूत हैं और यह बात उनके पारस्परिक सादृश्य से प्रमाणित होती है। वह धर्मभाव जिससे इस समय विचारवान व्यक्ति दिन-प्रतिदिन अत्यधिक मात्रा में प्रभावित होते जा रहे हैं – उसका एक वैशिष्ट्य यह है कि उससे जितने क्षुद्र क्षुद्र मतवाद उत्पन्न हो रहे हैं वे सब उसी एक अद्वैत तत्त्व की अनुभूति एवं अनुसन्धान में ही सचेष्ट हैं। भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में यह एक भाव दिखायी दे रहा है कि विभिन्न मतवादसमूह क्रमशः अधिकाधिक उदार होते हुए उसी शाश्वत अद्वैत तत्त्व की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस कारण वर्तमान काल के सभी आन्दोलन जान या अनजान में एकत्ववाद का जो सर्वोत्तम दर्शन आविष्कृत हो चुका है, उसके अर्थात् अद्वैत वेदान्त के प्रतिरूप हैं।
फिर यह भी सर्वदा देखा गया है कि प्रत्येक युग में इन समस्त विभिन्न मतवादों के संघर्ष के फलस्वरूप अन्त में एक ही मतवाद जीवित रहता है। अन्य सब तरंगें उसी मतवाद में विलीन होने के लिए एवं उसे एक बृहत् भाव-तरंग में परिणत करने के लिए ही उठती हैं। फिर यह प्रबल भावस्त्रोत समाज को अप्रतिहत वेग के साथ प्लावित कर देता है।
इस समय भारत, अमेरिका व इंग्लैण्ड में (जिन देशों का हाल मैं जानता हूँ) सैकड़ों ऐसे मतवादों का संघर्ष चल रहा है। भारत में द्वैतवाद क्रमशः क्षीण हो रहा है, केवल अद्वैतवाद ही सब क्षेत्रों में प्रभावशाली है। अमेरिका में प्राधान्य-लाभ के लिए अनेक मतवादों के बीच संघर्ष उपस्थित हुआ है। ये सभी अल्प या अधिक मात्रा में अद्वैत भाव के प्रतिरूप हैं, और जो भाव-परम्परा जितनी अधिक तीव्र गति से फैल रही है वह उतनी ही मात्रा में अन्य भावों की अपेक्षा अद्वैत वेदान्त के अधिक अनुरूप प्रतीत होती है। अब मुझे यदि कुछ स्पष्ट दिखायी देता है तो वह यह कि इनमें से एक ही भाव-परम्परा जीवित रहेगी, एवं वह सब को निगलकर भविष्य में शक्तिमान होगी। किन्तु वह कौनसी भावप्रणाली होगी?
यदि हम इतिहास को देखें तो विदित होगा कि जो विचारधारा सर्वश्रेष्ठ होगी वही जीवित रहेगी; और निष्कलंक चरित्र के समान अन्य ऐसी कौनसी शक्ति है जो मनुष्य को यथार्थ योग्यता प्रदान कर सकती है? विचारशील मनुष्यजाति का ही भविष्य-धर्म अद्वैत होगा, इसमें सन्देह नहीं। और सब सम्प्रदायों में उन्हीं की विजय होगी जो अपने जीवन में सब से अधिक चरित्र का उत्कर्ष दिखा सकेंगे – चाहे वे सम्प्रदाय कितने ही दूर भविष्य में क्यों न जन्म लें।
एक मेरी निजी अनुभव की बात सुनिये। जब मेरे गुरुदेव ने शरीर त्यागा था तब हम लोग बारह निर्धन और अज्ञात नवयुवक थे। हमारे विरुद्ध अनेक शक्तिशाली संस्थाएँ थीं जो हमें कुछ सफलता प्राप्त होने से पहले ही नष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रही थीं। परन्तु श्रीरामकृष्णदेव ने हमें एक बड़ा दान दिया था – वह यह कि केवल बातें ही न कर यथार्थ जीवन बनाने की इच्छा, आजीवन उद्योग और विरामहीन साधना के लिए अनुप्रेरणा। और आज सारा भारत मेरे गुरुदेव को जानता है और पूज्य मानता है और वे सत्यसमूह जिनकी उन्होंने शिक्षा दी थी अब दावानल के समान फैल रहे हैं। दस वर्ष हुए उनका जन्मोत्सव मनाने के लिए मैं सौ मनुष्यों को भी इकट्ठा नहीं कर सकता था और पिछले वर्ष पचास सहस्र थे।
संख्याबल, धन, पाण्डित्य, वाक्चातुर्य – इनका कोई विशेष मूल्य नहीं है, परन्तु पवित्रता, शुद्ध जीवन एवं आत्मानुभूतिसम्पन्न महान् व्यक्ति ही संसार में बड़े बड़े कार्य कर सकते हैं। प्रत्येक देश में ऐसी सिंह-आत्मा के समान दस-बारह व्यक्ति होने दो जिन्होंने अपने बन्धन तोड़ डाले हैं, जिन्होंने ‘अनन्त’ का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्मानुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की – और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे।
यही जीवन का रहस्य है। योग प्रवर्तक पतंजलि कहते हैं, “जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है तभी उसे धर्ममेघ नामक समाधि प्राप्त होती है” (“प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः”)। वह परमात्मा के दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तद्रूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसी का प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी बिन्दुमात्र प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता।
सभाएँ और संस्थाएँ अपने आप हो जायेंगी। क्या वहाँ ईर्ष्या हो सकती है जहाँ ईर्ष्या करने की कोई वस्तु ही न हो? जो हमें हानि पहुँचाना चाहेंगे ऐसे लोग असंख्य होंगे। परन्तु हमारे ही पक्ष में सत्य है, इसका क्या यह निश्चित प्रमाण नहीं है? जितना ही मेरा विरोध हुआ है उतनी ही मेरी शक्ति का विकास हुआ है। राजाओं ने मुझे अनेक बार निमन्त्रित किया है और पूजा है। पुरोहितों और जनसाधारण ने मेरी निन्दा की है। परन्तु इससे क्या? सब को आशीर्वाद! वे सब तो मेरी स्वयं आत्मा हैं और क्या उन्होंने कमानीदार-पटले (Spring-board) के समान मेरी सहायता नहीं की जहाँ से उछलकर मेरी शक्ति ने अधिकाधिक विकास कर लिया है?
. . . एक रहस्य का मैंने पता लगा लिया है – वह यह कि धर्म की केवल बातें करनेवालों से मुझे भय नहीं है। और जो सत्यद्रष्टा महात्मा हैं, वे कभी किसी से वैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हें नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढ़व्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म-जन्म सत्य का ही सतत अनुसरण करेंगे। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद केवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोड़कर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया। हरिः ॐ।
. . . एक बात और। निश्चय ही मुझे भारत से प्रेम है। परन्तु दिन-प्रतिदिन मेरी दृष्टि निर्मल होती जा रही है। हमारे लिए भारत या इंग्लैण्ड या अमेरिका क्या है? हम उस प्रभु के दास हैं जिसे अज्ञानी कहते हैं ‘मनुष्य’। जो जड़ में पानी डालता है वह क्या पूरे वृक्ष को नहीं सींचता?
सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक कल्याण की एक ही नींव है – और वह यह जानना कि ‘मैं और मेरा भाई एक हैं’। यह सब देशों और सब जातियों के लिए सत्य है। और मैं यह कह सकता हूँ कि पश्चिमी लोग उसका पूर्वीयों से शीघ्र अनुभव करेंगे – वे पूर्वीय जन जिन्होंने इस नींव के निर्माण में तथा कुछ थोड़ेसे अनुभूतिसम्पन्न व्यक्तियों को उत्पन्न करने में प्रायः अपनी सारी शक्ति व्यय कर दी है।
आओ, हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एवं लोभ – इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें। और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा!
भगवत्पदाश्रित,
विवेकानन्द
(४३)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
पेरिस,
९ सितम्बर, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
संयुक्त्तराज्य, अमेरिका का चक्कर लगाता हुआ तुम्हारा तथा जि. जि. का पत्र अभी अभी मुझे मिला।
मुझे यह आश्चर्य है कि तुम लोग मिशनरियों की मूर्खतापूर्ण व्यर्थ को बातों को इतना महत्व दे रहे हो। . . . एक पैसे की सहायता करने की तो सामर्थ्य है नहीं, किन्तु आगे बढ़कर उपदेश झाड़ते हैं – इससे मुझे तो हँसी ही आती है।
मिशनरी लोग यदि यह कहते हों कि कामिनीकांचन-त्यागरूप संन्यासियों के दोनों ही व्रत मैंने तोड़े हैं तो उनसे कहना कि वे झूठ बोलते है। मिशनरी हयूम को पत्र लिखकर तुम यह पूछना कि उन्होंने मेरा क्या असदाचरण देखा है – तुम्हें स्पष्ट लिखें; अथवा जिन व्यक्तियों से उन्होंने इस बारे में सुना है, उनके नाम लिखें। साथ ही उनसे यह भी पूछना कि उन घटनाओं को उन्होंने स्वयं देखा है या नहीं। ऐसा करने पर प्रश्न का समाधान अपने आप हो जायेगा तथा उनकी झूठ का भी पता लग जायेगा। इसी तरीके से डा जेन्स ने उन मिथ्यावादियों को पकड़वाया था।
मेरे बारे में सिर्फ़ इतना ही जान रखना कि मैं किसी के कथनानुसार नहीं चलूँगा। मेरे जीवन का क्या व्रत है, यह मैं स्वयं जानता हूँ। किसी जातिविशेष पर न मेरा तीव्र अनुराग है और न घोर विद्वेष ही । मैं जैसे भारत का हूँ, वैसे ही समग्र जगत् का भी हूँ। इस विषय को लेकर मनमानी बातें बनाना निरर्थक है। मुझसे जहाँ तक हो सकता था मैंने तुम लोगों की सहायता की है, अब तुम्हें स्वयं अपनी सहायता करनी चारिए। ऐसा कौनसा देश है, जो कि मुझ पर विशेष अधिकार रखता है? क्या मैं किसी जाति का खरीदा हुआ हूँ? अविश्वासी नास्तिको, तुम लोग ऐसी व्यर्थ की मूर्खतापूर्ण बातें न बनाओ।
यहाँ पर मैंने कठोर परिश्रम किया है और मुझे जो कुछ धन मिला है, उसे मैं कलकत्ते तथा मद्रास भेजता रहा हूँ। यह सब कुछ करने के बाद अब मुझे उन लोगों के मूर्खतापूर्ण निर्देशानुसार चलना होगा? क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती? क्या मैं उन लोगों का ऋणी हूँ? क्या मैं उन लोगों की प्रशंसा की कोई परवाह करता हूँ या उनकी निन्दा से डरता हूँ? वत्स, मैं एक ऐसा विचित्र स्वभाव का व्यक्ति हूँ कि मुझे पहचानना तुम लोगों के लिए भी अभी सम्भव नहीं है। तुम अपने काम करते रहो, यदि नहीं कर सकते हो तो चुपचाप बैठ जाओ; किन्तु अपनी मूर्खता द्वारा मुझसे अपने मनमुताबिक कार्य कराने की चेष्टा न करो। मुझे अपने पीछे एक ऐसी शक्ति दिखायी दे रही है, जो कि मनुष्य, देवता या शैतान की शक्तियों से कहीं अधिक सामर्थ्यशाली है। मुझे किसी की सहायता नहीं चाहिए, जीवनभर मैं ही दूसरों की सहायता करता रहा हूँ। ऐसे व्यक्तियों का दर्शन तो अभी तक मुझे नहीं मिला है, जिनसे कि मुझे कोई सहायता प्राप्त हुई हो। अब तक बंगदेश में जितने व्यक्ति जन्म लिये हैं, उनमें सर्वश्रेष्ठ श्रीरामकृष्णदेव के कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए जहाँ के निवासियों में दो-चार रुपये भी एकत्रित करने की शक्ति नहीं है, वे लोग लगातार व्यर्थ की बातें बना रहे है और उस व्यक्ति पर अपना हूक्म चलाना चाहते हैं, जिसके लिए उन्होंने कुछ भी नहीं किया, प्रत्युत जिसने उन लोगों के लिए जहाँ तक हो सकता था, सब कुछ किया। जगत् ऐसा ही अकृतज्ञ है!! क्या तुम यह कहना चाहते हो कि जिन्हें तुम शिक्षित हिन्दू मानते हो, ऐसे जातिभेद-जर्जरित, कुसंस्कारयुक्त्त, दयारहित, कपटी, नास्तिक कायरों में से एक बनकर जीने-मरने के लिए मैं पैदा हुआ हूँ! मैं कायरता को घृणा की दृष्टि से देखता हूँ। कायर तथा राजनैतिक मूर्खता के साथ मैं अपना सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। किसी प्रकार की राजनीति (Politics) में मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही जगत् में एकमात्र राजनीति है, बाकी सब कूड़ा-करकट है। . . .
सदा आशीर्वादक,
विवेकानन्द
(४४)
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
द्वारा श्री ई. टी. स्टर्डी,
हाईव्हयू, कैवरशम्, रीडिंग,
४ अत्तूबर, १८९५
प्रिय राखाल,
तुम जानते हो कि अब मैं इंग्लैण्ड में हूँ। करीब एक महीना यहीं रहकर फिर अमेरिका चला जाऊँगा। अगली ग्रीष्म ऋतु में फिर इंग्लैण्ड आऊँगा। इस समय इंग्लैण्ड में विशेष कुछ होने की आशा नहीं है, परन्तु प्रभु सर्वशक्तिशाली हैं। धीरे-धीरे देखा जायेगा।
इसके पहले शरत के आने के लिए रुपये भेजे हैं तथा पत्र भी लिखा है। शरत या शशी इन दोनों में से किसी एक को भेजने का बन्दोबस्त करना। यदि शशी पूर्णरूपेण आरोग्य हो गया हो, तो उसे भेजना। शीतप्रधान देश में चर्मरोग बढ़ता नहीं है – यहाँ अत्यन्त ठण्ड के कारण रोग दूर हो जायेगा। नहीं तो शरत को भेजना। इस समय – का आना असम्भव है। अर्थात् रुपये स्टर्डी साहब के हैं वे जिस तरह का आदमी चाहते हैं, वैसा ही लाना होगा। श्री स्टर्डी ने मुझसे मन्त्रदीक्षा ली है; ये बहुत उद्यमी और सज्जन व्यक्ति हैं। थियासफी के झमेले में पड़कर वृथा समय नष्ट किया, इसलिए इन्हें बड़ा अफसोस है।
पहले तो ऐसे आदमी की जरूरत है, जिसे अंग्रेजी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान हो। – यहाँ आने पर जल्दी अंग्रेजी सीख लेंगे, यह सच है, परन्तु मैं यहाँ सीखने के लिए मनुष्य अभी नहीं बुला सकता, जो सिखा सकें पहले उन्हीं की आवश्यकता है। दूसरी बात यह है कि जो सम्पत्ति और विपत्ति में मुझे न छोड़े, ऐसे ही मनुष्य का मुझे विश्वास है। बड़ा ही विश्वासी मनुष्य होना चाहिए। फिर नींव डाली जा चुकने पर, जिसकी जितनी इच्छा, गुलगपाड़ा मचाओ, कुछ भय नहीं। . . . दादा, माना कि श्रीरामकृष्णदेव एक नाचीज थे, माना कि उनके आश्रय में जाना बड़ी भूल का काम हुआ, परन्तु अब उपाय क्या है? यही नहीं कि एक जन्म मुफ्त ही बीता, पर क्या मर्द की बात भी टलती है? क्या दस पति भी होते हैं? तुम लोग चाहे जिसके दल में जाओ, मेरी ओर से कोई रूकावट नहीं – जरा भी नहीं। परन्तु दुनिया भर में घूमकर देखा, उनके घर को छोड़ और सभी जगह मन में कुछ और मुख में कुछ और है। जो उनके हैं, उन पर मेरा पूर्ण प्रेम और पूर्ण विश्वास है। क्या करूँ? हठी कहो तो कह लेना, परन्तु यही मेरी असल बात है। जिसने उन्हें आत्मसमर्पण किया है, उसके पैरों में काँटा चुभा तो वह मेरे हाड़ों में बेधता है; यों तो मैं सभी को प्यार करता हूँ। मेरी तरह असाम्प्रदायिक संसार में बिरला ही कोई होगा, परन्तु उतना ही मेरा हठ है, माफ करना। उनकी दुहाई नहीं तो और किसकी दुहाई दूँ? अगले जन्म में कोई बड़ा गुरू देख लिया जायेगा, इस जन्म और इस शरीर को तो इसी मूर्ख ब्राह्मण ने मोह लिया है।
पेट की बात खोलकर कही दादा, गुस्सा न करना, मैं तुम लोगों का गुलाम हूँ जब तक तुम उनके गुलाम हो, बालभर इसके बाहर हुए कि जैसे तुम वैसा ही मैं। . . .
देखते हो, देश में और विदेश में सब को उन्होंने पहले ही से निगलकर पेट में डाल लिया है दादा – “मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।” (मेरे द्वारा ये सब पहले ही से हत हो चुके हैं, हे अर्जुन, तुम्हें केवल निमित्तमात्र होना है।) आज हो या कल, वे सब तुम लोगों के अंग में मिल जायेंगे। हाय रे अल्प विश्वास! उनकी कृपा से “ब्रह्माण्डं गोष्पदायते” (ब्रह्माण्ड गोष्पद हो जाता है)। नमकहराम न होना, इस पाप का प्रायश्चित्त नहीं है। नाम-यश, सुकर्म, यज्जुहोषि, यत्तपस्यसि, यदश्नासि इत्यादि सब उनके चरणों में समर्पण कर दो। हमें और क्या चाहिए? उन्होंने ग्रहण कर लिया तो और क्या चाहिए? भक्ति स्वयं फलस्वरूपा है – और क्या चाहिए? हे भाई, जिन्होंने खिलापिलाकर, विद्या-बुद्धि देकर मनुष्य बनाया, जिन्होंने हमारी आत्मा की आँखें खोल दीं, जिन्हें रातदिन सजीव ईश्वर देखा, जिनकी पवित्रता, प्रेम और ऐश्वर्य का राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, चैतन्य आदि में कणमात्र प्रकाश है, उनके निकट नमकहरामी! . . . बुद्ध, कृष्ण, आदि का तीन-चौथाई हिस्सा कपोल-कल्पना के सिवा और क्या है? . . . अरे तुम ऐसे दयालु देव की दया भूलते हो? बुद्ध, कृष्ण, ईसा पैदा हुए थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण नहीं है। और साक्षात् भगवान को देखकर भी तुम्हें कभी कभी मतिभ्रम होता है! तुम लोगों के जीवन को धिक्कार है! मैं और क्या कहूँ? देश-विदेश में नास्तिक-पाखण्डी भी उनकी मूर्ति की पूजा करते हैं, और तुम लोगों को समय समय पर मतिभ्रम होता है! तुम्हारे जैसे लाखों वे अपने निश्वास से गढ़ लेंगे। तुम लोगों का जन्म धन्य है, कुल धन्य है, देश धन्य है कि उनके पैरों की धूलि मिली। मैं क्या करूँ, मुझे लाचार होकर ऐसा कट्टर होना पड़ रहा है। मुझे तो उनके जनों को छोड़ और कहीं पवित्रता और निःस्वार्थता देखने को नहीं मिलती। सभी जगह ‘मुँह में राम बगल में छुरी’ है – सिर्फ़ उनके जनों को छोड़कर। वे रक्षा कर रहे हैं, यह मैं देख जो रहा हूँ। अरे पागल, परी जैसी औरतें, लाखों रुपये, ये सब मेरे लिए तुच्छ हो रहे हैं, यह क्या मेरे बल पर? – या वे रक्षा कर रहे हैं इसलिए! उनके सिवा दूसरे किसी को एक भी रुपया या स्त्री के बारे में मैं विश्वास जो नहीं कर सकता। उन पर जिसका विश्वास नहीं है और परमाराध्या माताजी पर जिसकी भक्ति नहीं है उसका कहीं कुछ भी न होगा – यह सीधी भाषा में कह दिया, याद रखना।
. . . हरमोहन ने अपनी मन्द अवस्था का हाल लिखा है और शीघ्र ही जगह छोड़ने को लिखा है। लेक्चर माँगे हैं – लेक्चर-वेक्चर अभी कुछ नहीं है, परन्तु कुछ रुपये अभी कमर में हैं, उसे भेज दूँगा, डरने की कोई बात नहीं। पत्र पाते ही भेज दूँगा, परन्तु सन्देह हो रहा है कि मेरे (पहले के) रुपये बीच में ही मारे गये, इसलिए फिर नहीं भेजे। दूसरे किस पते पर भेजूँ, सो भि नहीं मालूम। मद्रासवाले, जान पड़ता है, पत्रिका न निकाल सके। हिन्दू-जाति में व्यवहार-कुशलता बिलकुल ही नहीं है। जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय उसे करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है रुपये-पैसे की बात में पत्र मिलते ही अति शीघ्र उत्तर देना चाहिए। . . . यदि मास्टर महाशय राजी हों तो उन्हें मेरा कलकत्ते का एजेण्ट होने के लिए कहना; उन पर मेरा पूर्ण विश्वास है और वे इन विषयों को अच्छा समझते हैं। लड़कपन और जल्दबाजी का काम नहीं है। उन्हें कोई ऐसा केन्द्र ठीक करने के लिए कहना जो पता क्षण-क्षण में न बदले और जहाँ मैं कलकत्ते के सभी पत्र भेज सकूँ। . . . काम काम ही है (Business is business.)।
किमधिकमिती,
नरेन्द्र
(४५)
(स्वामी अखण्डानन्द को लिखित)
लन्दन,
१३ नवम्बर, १८९५
प्रिय अखण्डानन्द,
तुम्हारा पत्र पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। तुम जैसा काम कर रहे हो वह बहुत अच्छा है। रा – बड़े उदार और मुक्तहस्त हैं, पर इसलिए उन पर जुल्म न हो। श्रीमान् – का अर्थ-संग्रह करने का संकल्प अच्छा है, पर भैया, यह संसार बड़ा ही विचित्र है – काम-कांचन से पिण्ड छुड़ाना ब्रह्मा-विष्णु तक के लिए दुष्कर है। जहाँ रुपये-पैसे का सम्बन्ध है वहीं गड़बड़ होने की सम्भावना है। अतः मठ के लिए अर्थ-संग्रह इत्यादि का काम किसी को न करने देना। मेरे या हमारे नाम से कोई गृहस्थ मठ के लिए या किसी दूसरी बाबत चन्दा वसूल कर रहे हैं, यह सुनते ही उन पर सन्देह करना और उनका साथ न देना। विशेषकर गरीब गृहस्थ अपना अभाव दूर करने के लिए तरह तरह के बहाने किया करते हैं। अतएव यदि कभी कोई धनी, विश्वासी, भक्त और सहृदय गृहस्थ मठ आदि बनाने के लिए उद्योग करे, अथवा संगृहीत अर्थ कोई धनी और विश्वासी गृहस्थ के पास जमा हो तो अच्छी बात, नहीं तो उससे अलग रहना। वरन् औरों को भी इस कार्य से मना करना। तुम अभी बालक हो, कांचन की माया नहीं समझते। मौका मिलने पर अत्यन्त नीति-परायण मनुष्य भी प्रतारक बनता है। यही संसार है। रा – से रुपये-पैसे के बारे में कुछ न कहना। चार आदमी मिलकर कोई काम करना हमारी आदत ही नहीं। इसीलिए हमारी इतनी दुर्दशा हो रही है। जो आज्ञापालन करना जानते हैं, वे ही आज्ञा देना भी जानते हैं। पहले आदेशपालन करना सीखो। इन सब पाश्चात्य जातियों में स्वाधीनता का भाव जैसा प्रबल है, आदेशपालन करने का भाव भी वैसा ही प्रबल है। हम सभी अपने आपको बड़ा समझते हैं, इससे कोई काम नहीं बनता। महान् उद्यम, महान् साहस, महावीर्य और सब से पहले आज्ञापालन – ये सब गुण व्यक्तिगत या जातिगत उन्नति के लिए एकमात्र उपाय हैं। और ये गुण हममें हैं ही नहीं।
तुम जैसा काम कर रहे हो वैसा ही करते जाओ। परन्तु अपने विद्याभ्यास पर विशेष दृष्टि रखना। य – बाबू ने एक हिन्दी पत्रिका मुझे भेजी है, उसमें अलवर के पण्डित रा – ने मेरी शिकागोवक्तृता का अनुवाद किया है। दोनों सज्जोनों को मेरी विशेष कृतज्ञता और धन्यवाद ज्ञापित करना।
अब तुम्हारे लिए कुछ लिखता हूँ। राजपूताने में एक केन्द्र खोलने का विशेष प्रयत्न करना। जयपुर या अजमेर जैसी किसी सदर जगह में वह होना चाहिए। इसके बाद अलवर, खेतड़ी आदि शहरों में उसके शाखाकेन्द्र स्थापित करना। सब के साथ मिलना, किसी से विरोध की आवश्यकता नहीं। पण्डित ना – जी को मेरा प्रेमालिंगन देना, वे बड़े उद्यमी हैं, भविष्य में विशेष कार्यदक्ष होंगे। मा – साहब और – जी से भी मेरा यथोचित प्रीतिसम्भाषण कहना। धर्ममण्डली नाम की क्या एक संस्था अजमेर में कायम हुई है? – वह क्या है, मुझे सविशेष लिखना। य – बाबू लिखते हैं कि उन्होंने मुझे पत्र लिखे, पर वे मुझे अभी तक नहीं मिले। . . . मठ आदि कलकत्ते में क्या बनाओगे? वाराणसी ही ऐसे कार्यों के लिये उपयुक्त स्थान है। ऐसे मेरे बहुतसे विचार हैं – पर उनके लिए रुपये की आवश्यकता है। धीरे धीरे तुम्हें सब मालूम हो जायेगा। तुमने अखबारों में देखा होगा कि इंग्लैण्ड में कार्य अपनी नींव जमा रहा है। यहाँ सभी काम धीरे धीरे होते हैं। परन्तु अंग्रेजों के पट्ठे एक बार जिस काम में हाथ डालते हैं उसे फिर नहीं छोड़ते। अमेरिकावासी बहुत फुर्तीले हैं सही, पर प्रायः फूस की आग की तरह होते है। रामकृष्णदेव अवतार हैं, इत्यादि मत सर्वसाधारण में प्रचारित नहीं करना। . . . में मेरे कई चेले हैं, उनकी खबर रखना। . . . महाशक्ति तुममें आयेगी – डरो मत। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ।
लड़कों के विवाह के विरुद्ध शिक्षा देना। लड़कों के विवाह का समर्थन किसी भी शास्त्र में नहीं है। पर छोटी छोटी लड़कियों के ब्याह के विरुद्ध अब कुछ मत कहना। लड़कों का ब्याह रोक दोगे तो लड़कियों का ब्याह भी अपने आप रुक जायेगा। लड़की तो फिर लड़की से ब्याही नहीं जायेगी! लाहौर आर्यसमाज के मन्त्री को लिखना कि अच्युतानन्द नाम के जो संन्यासी उनके साथ रहते थे वे अब कहाँ हैं? उनकी विशेष खोज करना। . . . डर क्या है?
प्रेमपूर्वक तुम्हारा,
विवेकानन्द
(४६)
(स्वामी सारदानन्द को लिखित)
२२८ पश्चिम ३९ वाँ रास्ता,
न्यूयार्क,
२३ दिसम्बर, १८९५
प्रिय शरत्,
तुम्हारे पत्र से केवल मुझे दुःख ही हुआ। मालूम होता है कि तुम एकदम हतोत्साह हो चुके हो। मैं तुम सभी लोगों के बारे में जानता हूँ कि तुम लोगों में कितनी शकि है और तुम लोगों की क्या सीमाएँ हैं। तुम लोग जिस कार्य को नहीं कर सकते, ऐसे किसी कार्य को करने के लिए कहने का मेरा कोई अभिप्राय नहीं था। मेरी तो सिर्फ़ इतनी ही इच्छा थी कि तुम लोग प्राथमिक संस्कृत की शिक्षा दो तथा ‘कोष’ इत्यादि की सहायता से ‘स’ को उसके अनुवाद एवं शिक्षणकार्य में सहायता प्रदान करो। मैं तुम लोगों को इस कार्य के लिए उपयोगी बना लेता, यदि तुममें से कोई भी इस कार्य को कर सकता; केवल थोड़े से संस्कृत-ज्ञान की आवश्यकता है। खैर, सब कुछ अच्छे के लिए ही होता है। यदि यह प्रभु का कार्य हो, तो उचित समय पर योग्य व्यकि अवश्य ही तदनुरूप कार्य में आकर सम्मिलित होंगे। इसलिए तुम लोगों को व्यर्थ में असन्तुष्ट नहीं होना चाहिए।
जहाँ तक सान्याल का सम्बन्ध है, कौन धन ले रहा है और कौन नहीं, इसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं है, किन्तु बाल-विवाह से मुझे अत्यन्त घृणा है। इसके लिए मैंने अनेक कष्ट भोगे हैं और इस महापाप के लिए हमारे राष्ट्र को भी बहुत कुछ कष्ट उठाना पड़ रहा है। इसलिए इस प्रकार की पैशाचिक प्रथा को परोक्ष अथवा अपरोक्ष किसी भी प्रकार से सहायता पहुँचाना मेरी दृष्टि में नितान्त घृणास्पद कार्य है। इस विषय में मैंने अपना विचार तुमको स्पष्ट लिख दिया है। सान्याल को कानून तथा अदालत का आश्रय लेकर अपने को मुक्त करने के लिए मुझे इस प्रकार धोखा देने का कोई भी अधिकार नहीं है; मैंने उसका कोई अनिष्ट नहीं किया है। उसके इस कपटाचरण से मैं दुःखी हूँ। यही दुनिया है! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्व नहीं देंगे, किंतु ज्यों ही तुम उस कार्य को बन्द कर दो, वे तुरन्त (ईश्वर न करे) तुम्हें बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेरे जैसे भावुक व्यकि अपने सगे-स्नेहियों द्वारा सदा ठगे जाते हैं। यह संसार बेरहम है। इसमें जब हम मोल लिये हुए दासों की तरह रह सकेंगे, तभी लोग हमारे प्रति सहानुभूति दिखायेंगे, अन्यथा नहीं। मेरे लिए यह दुनिया बहुत बड़ी है, उसमें मेरे लिए किसी भी कोने में थोड़ा सा स्थान अवश्य होगा । यदि भारत के लोग मुझे न चाहें, तो भारत के बाहर मुझे चाहनेवाले कुछ लोग अवश्य मिल जायँगे। इस राक्षसी बालविवाह-प्रथा के विरुद्ध मैं यथासाध्य लड़ता रहूँगा। इससे तुम लोगों के लिए किसी प्रकार की निन्दा नहीं होगी। यदि तुम डर गये हो, तो दूर रहो। जिस प्रथा के अनुसार अबोध बालिकाओं का पाणिग्रहण होता है, उसके साथ मैं किसी प्रकार का संबंध रखने में असमर्थ हूँ। ईश्वर करे कि उन लोगों के साथ मुझे कभी भी सम्बन्धित न रहना पड़े। म-बाबू के बारे में सोचो तो सही, ऐसा डरपोक तथा निष्ठर व्यकि क्या कभी तुमने देखा है? जो व्यकि किसी अबोध बालिका के लिए पति ढूँढता है, मैं उसकी हत्या तक कर सकता हूँ। बात यह है कि मैं अपने कार्य में सहायता करने के लिए ऐसे व्यकि चाहता हूँ, जो वीर, साहसी, उत्साही तथा तेजस्वी हों। अन्यथा मैं अकेला ही कार्य करूँगा। मुझे संसार में एक खास उद्देश्य पूरा कर जाना है। मैं अकेला ही उसे कार्य में परिणत करूँगा । किसीने मेरी सहायता की या नहीं की, इसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं है। सान्याल को संसार ने ग्रस लिया है। बच्चे, इससे सतर्क रहो – यही मेरा कुल उपदेश है, जिसे कर्तव्य से प्रेरित होकर मैं तुम्हें दे रहा हूँ। यह ठीक है कि तुम लोग अब बहुत कुछ समझदार बन चुके हो – तुम्हारे समीप अब मेरी बात का कोई मूल्य नहीं है। किंतु मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में तुम लोगों के लिए ऐसा समय आयेगा, जब तुम्हारी दृष्टि खुल जायगी, तब बहुत कुछ समझ सकोगे और दूसरे तरीके से सोच सकोगे।
अब विदा दो। और अधिक मैं तुम लोगों को परेशान करना नहीं चाहता, तुम्हारा मंगल हो। अगर तुम ऐसा मानते हो, तो मुझे खुशी है कि कभी कभी मैं तुम लोगों के थोड़े-बहुत काम आ सका हूँ। मेरे गुरुदेव ने जो कर्तव्य का बोझ मेरे कन्धों पर छोड़ा है, उसे सम्पादन करने का मैं भरसक प्रयत्न कर रहा हूँ, इसके लिए मैं अपने से संतुष्ट हूँ और चाहे मेरा प्रयास सम्यक् रूप से कार्य में परिणत हुआ हो या नहीं, मैंने प्रयास किया, इसीसे मैं संतुष्ट हूँ। अतः मैं विदा चाहता हूँ। सान्याल से कहना कि उसके प्रति मेरे मन में कोई क्रोध नहीं है, किंतु मैं दुःखी, बहुत दुःखी हूँ। रूपये का मूल्य ही क्या है! रूपयों ने मुझे कोई कष्ट नहीं पहुँचाया, किंतु इसकी चालाकी तथा नीति की अवहेलना से मैं व्यथित हूँ। उससे भी विदा, और तुम लोगों से विदा। मेरे जीवन का एक परिच्छेद समाप्त हो चुका है। अब क्रमानुसार और लोग आकर कार्य करें। वे आकर देखेंगे कि मैं सर्वथा प्रस्तुत हूँ। मेरे लिए तुम लोगों को कुछ भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं, मैं किसी भी देश के किसी मानव से किसी प्रकार की सहायता नहीं चाहता। ईश्वर तुम्हारा निरन्तर मंगल करे। विदा।
विवेकानन्द
(४७)
(गुरुभाईयों को लिखित)
अमेरिका,
१८९५
प्रियवर,
सन्याल ने जो पुस्तकें भेजी थीं, वे मिल गयीं – मैं यह लिखने में भूल जाता हूँ; उसे यह समाचार देना। तुम लोगों को मैं निम्नलिखित बातें बतलाना चाहता हूँ –
(१) पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना। अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति प्रदर्शन करना चाहते हो तो याद रखो उसी से भविष्य में कलह का बीजारोपण होगा।
(२) यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे तो तुम उस ओर बिलकुल ध्यान न दो – ऐसा सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा।
(३) दूसरों के दोषों को सर्वदा सहन करना, लाख अपराध होने पर भी उसे क्षमा करना। यदि निःस्वार्थ भाव से तुम सब से प्रीति करोगे तो उसका फल यह होगा कि सब कोई आपस में प्रीति करने लगेंगे। एक का स्वार्थ दूसरे पर निर्भर है, इसका विशेष रूप से ज्ञान होने पर सब कोई ईर्ष्या को त्याग देंगे; दस व्यक्ति मिलकर किसी कार्य को सम्पादन करने की भावना हमारे जातीय चरित्र में सुलभ नहीं है; अतः इस प्रकार की भावना को जाग्रत करने के लिए हमें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ेगा तथा उसके लिए हमें अपेक्षा भी करनी होगी। मैं तुम लोगों में किसी को छोटा-बड़ा नहीं देख पाता हूँ; मैं यह अनुभव करता हूँ कि कार्य करने के समय सब कोई विशाल शक्ति का परिचय दे सकते हैं। शशी का कितना सुन्दर व्यक्तित्व है, उसकी दृढ़निष्ठा महान् आधार-स्वरूप है। काली तथा योगेन ने कैसी अच्छी तरह से ‘टाउनहाल’ की मीटिंग को सफल बनाया – कितना कठिन कार्य था। निरंजन ने ‘सिलोन’ (लंका) इत्यादि स्थानों में बहुत-कुछ कार्य किया है। सारदा ने विभिन्न देशों में पर्यटन कर कितने ही महान् कार्यों का बीजारोपण किया। हरि के अद्भुत त्याग, दृढ़ बुद्धि तथा तितिक्षा से मुझे नवीन प्रेरणा मिलती रहती है। तुलसी, गुप्ता, बाबूराम, शरत इत्यादि सभी के अन्दर एक विशाल शक्ति विद्यान है। वे (श्रीरामकृष्ण) जौहरी थे, इस बारे में अब भी यदि किसी को सन्देह हो तो उसमें तथा एक पागल में क्या अन्तर है? इस देश में सैकड़ों व्यक्तियों ने प्रभु को सब अवतारों में से श्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा करना प्रारम्भ कर दिया है। महान् कार्य धीरे धीरे सम्पन्न होता है। बारूद के स्तरों को धीरे धीरे सजाना पड़ता है, फिर एक दिन सामान्य अग्नि ही पर्याप्त है – उसी से चारों ओर ज्वालाएँ दौड़ने लगती हैं।
वे स्वयं कर्णधार हैं, फिर डरने की क्या बात है? तुम लोग अनन्तशक्ति के आधार हो – थोड़ी-सी ईर्ष्या तथा अहन्ताबुद्धि को प्रशमित करने के लिए तुम्हें कितना समय चाहिए? जिस समय उस प्रकार की बुद्धि का उदय हो, तत्क्षण ही प्रभु की शरण लो। अपने शरीर तथा मन को उनके कार्यों में सौंप दो, देखोगे सारी विपत्ति दूर हो जायेगी।
इस समय तुम लोग जिस मकान में हो, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है। एक बड़े मकान की आवश्यकता है, अर्थात् एक कोठरी के अन्दर संकुचित रूप से सब कोई रहें – ऐसा आवश्यक नहीं है। सम्भव होने पर एक कोठरी में दो व्यक्तियों से अधिक लोगों का रहना उचित नहीं है। एक बड़ा ‘हाल’ भी चाहिए, जहाँ पर पुस्तकादि रखी जा सकें।
मैं चाहता हूँ कि प्रतिदिन प्रातः तथा सायंकाल काली, हरि, तुलसी, शशी आदि परस्पर कुछ शास्त्रचर्चा करें एवं सायंकाल शास्त्रचर्चा के बाद कुछ समय ध्यान-धारणा तथा संकीर्तन होना चाहिए। किसी दिन योग, किसी दिन भक्ति तथा किसी दिन ज्ञान-सम्बन्धी आलोचनाएँ हों। इस प्रकार क्रम के अनुसार चलने पर बहुत-कुछ लाभ होगा – सायंकालिन कार्यक्रम में साधारण लोगों को शामिल करना चाहिए तथा प्रति रविवार को दस बजे से रात्रि तक क्रमशः शास्त्रचर्चा तथा कीर्तनादि होने चाहिए। यह अनुष्ठान साधारण जनता के लिए हो। इस प्रकार के नियमादि बनाकर कुछ दिन प्रयासपूर्वक आयोजन करने पर आगे चलकर अपने आप वह चलता रहेगा। यदि परिश्रम कर धीरे धीरे तुम इस प्रकार की व्यवस्था कर सको तो मैं समझूँगा कि बहुत-कुछ कार्य सम्पन्न हुआ। किमधिकमिति –
विवेकानन्द
पु. – मैंने सुना था कि हरमोहन एक पत्रिका प्रकाशित करने में लगा हुआ है। वह कार्य कहाँ तक अग्रसर हुआ? काली, शरत, हरि, मास्टर, जी. सी. घोष आदि सब मिलकर यदि ऐसी व्यवस्था कर सकें तो बहुत ही अच्छा हो।
(४८)
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
संयुक्त राज्य, अमेरिका,
१८९५
प्रिय शशी,
कल तुम्हारा पत्र मुझे मिला, जिसमें समाचार कुछ अल्प अंश में था, परन्तु सविस्तर वर्णन किसी चीज का न था। मैं पहले से बहुत अच्छा हूँ। ईश्वर की कृपा से इस वर्ष के विकट शीत से मैं सुरक्षित हूँ। अरे यहाँ की भयंकर ठण्ड! परन्तु वैज्ञानिक ज्ञान से ये लोग इसे सब दबाकर रखते हैं। हर मकान में जमीन के नीचे एक तलघर होता है जहाँ एक बहुत बड़ा पानी उबालने का पात्र है, वहाँ की भाप दिनरात हर कमरे में घुमायी जाती है। इस प्रकार कमरे गर्म रहते हैं परन्तु इसमें एक दोष है, वह यह कि घरों के अन्दर यद्यपि ग्रीष्म ऋतु होती है परन्तु बाहर शून्य से तीस-चालीस डिग्री नीचे पारा रहता है। इस देश के अधिकांश धनवान शीतकाल में यूरोप – जो कि यहाँ की तुलना में गर्म रहता है – चले जाते हैं।
अब मैं तुम्हें कुछ उपदेश देता हूँ। यह पत्र विशेष रूप से तुम्हारे लिए है। कृपया प्रतिदिन इसे एक बार पढ़ना और इसे व्यवहार में लाना। मुझे सारदा का पत्र मिला – वह अच्छा काम कर रहा है परन्तु अब हमें संगठन की आवश्यकता है। उसे, तारकदादा को, तथा औरों को मेरा विशेष प्रेम और आशीर्वाद कहना। तुम्हें इन थोड़े से आदेशों को देने का मुख्य कारण यह है कि तुममें संगठन की शक्ति है – ईश्वर ने मुझे यह दिखलाया है – परन्तु उसका अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है। ईश्वरकृपा से वह शीघ्र ही हो जायेगा। तुम अपना समतोलन केन्द्र (Centre of Gravity) कभी नहीं खोत(१) यही उसका प्रमाण है; परन्तु गम्भीर और उदार दोनों होना चाहिए।
१. सब शास्त्रों का कथन है कि संसार में जो त्रिविध दुःख हैं वे नैसर्गिक नहीं हैं, और वे हट सकते हैं।
२. बुद्ध-अवतार में भगवान कहते हैं कि इस आधिभौतिक दुःख का कारण भेद ही है, अर्थात् जन्मगत, गुणगत या धनगत – सब तरह का भेद इन दुखों का कारण है। आत्मा में लिंग, वर्ण या आश्रम या इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता और जैसे कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता उसी तरह से भेदभाव से अभेद साधित होना असम्भव है।
३. कृष्ण-अवतार में वे कहते हैं कि सब दुःखों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है। परन्तु “किं कर्म किमकर्मेति”(२) इत्यादि; “कर्म क्या है और अकर्म क्या है” इसका निर्णय करने में महात्मा भी मोह में पड़ जाते हैं। – (गीता)
४. जिस कर्म के द्वारा इस आत्म-भाव का विकास होता है वही कर्म है। और जिसके द्वारा अनात्म-भाव का विकास होता है वही अकर्म है।
५. अतएव कर्म या अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थिति के अनुसार होना चाहिए।
६. यज्ञ इत्यादि कर्म प्राचीन काल में उपयोगी थे तथा जातिगत कर्म भी। परन्तु वर्तमान काल के लिए वैसा नहीं है।
७. रामकृष्ण-अवतार की जन्मतिथि से सत्ययुग का आरम्भ हुआ है।
८. रामकृष्ण-अवतार में नास्तिक विचार . . . ज्ञानरूपी तलवार से नष्ट होंगे, और सम्पूर्ण जगत् भक्ति और प्रेम से एकरूप होगा। इससे अधिक – इस अवतार में रजस् अर्थात् नाम-यश इत्यादि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। दूसरे शब्दों में, उसका जीवन धन्य है जो इस अवतार के उपदेश को व्यवहार में लाये, चाहे वह उन्हें (इस अवतार को) स्वयं माने या न माने।
९. आधुनिक या प्राचीन समय के विविध सम्प्रदायों के निर्माणकर्ता अनुचित मार्ग पर न थे। उन्होंने अच्छा किया परन्तु उससे भी अच्छा करना है। श्रेष्ठ-श्रेष्ठतर-श्रेष्ठतम।
१॰. इसलिए जो जिस स्थान पर है वही उसे ग्रहण करना होगा अर्थात् उसके इष्ट के भाव में आघात न कर उसे उच्चतर भाव में ले जाना होगा। जो इस समय की सामाजिक परिस्थिति है, वह अच्छी है, पर उसे उत्कृष्टतम करनी होगी।
११. स्त्रियों की अवस्था को बिना सुधारे जगत् के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी का एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है।
१२. इस कारण रामकृष्ण-अवतार में ‘स्त्री-गुरु’ को ग्रहण किया गया है, इसीलिए उन्होंने स्त्री के रूप और भाव में साधना की और इस कारण ही जगत्-जननी की प्रतिरूप, स्त्रियों के मातृभाव का प्रचार हुआ।
१३. इसलिए मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों के मठ को स्थापित करने का है। इस मठ से गार्गी और मैत्रेयी और उनसे भी अधिक योग्यता रखनेवाली स्त्रियों की उत्पत्ति होगी . . . ।
१४. पाखण्ड से कोई बड़ा काम पूरा नहीं हो सकता। प्रेम, सत्यानुराग और महावीर्य की सहायता के सभी कार्य सम्पन्न होते हैं। ‘ततः कुरु पौरुषम्’ इसलिए पुरुषार्थ को प्रकट करो।
१५. किसी से लड़ने झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। अपना सन्देशा दे दो तथा औरों को अपने अपने भाव लेकर रहने दो। सत्यमेव जयते नानृतम् – “सत्य की ही जय होती है असत्य की नहीं”; तदा किं विवादेन – “तब क्यों लड़ते हो?”
. . . गम्भीरता के साथ शिशुवत् सरलता को मिलाओ। सब के साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड़ दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है।
. . . सारदा के पत्र से मालूम हुआ कि न – घोष ने मेरी ईसा मसीह आदि से तुलना की है। हमारे देश में इस प्रकार की बातें चल सकती हैं, परन्तु यदि तुम यहाँ ऐसा छपवाकर भेजो तो मेरा तिरस्कार होने की सम्भावना है! तात्पर्य यह है कि मैं किसी के विचार की स्वतन्त्रता में बाधा नहीं डालना चाहता – क्या मैं मिशनरी हूँ? यदि काली ने वे पत्र अमेरिका न भेजे हों तो उससे कह दो कि न भेजे। केवल अभिनन्दन-पत्र पर्याप्त होगा – कार्य-व्यवहार के वर्णन की आवश्यकता नहीं। इस देश के बहुतसे माननीय स्त्रीपुरुष मुझे पूज्य मानते हैं। ईसाई मिशनरी और उनके जैसे दूसरे लोगों ने मुझे गिराने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु अपना यत्न निष्फल समझकर अब चुप बैठे हैं। प्रत्येक कार्य को अनेक विघ्नबाधाएँ पार करनी पड़ती हैं। शान्ति के मार्ग पर चलने से ही सत्य की विजय होती है। एक श्रीयुत हडसन ने मेरे विरुद्ध कुछ कहा था, उसका उत्तर देने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं। पहले तो ऐसा करना अनावश्यक है, दूसरे, मैं श्रीयुत हडसन और उनकी श्रेणी के मनुष्यों के समान अपने को गिरा लूँगा? क्या तुम पागल हो? एक श्रीयुत हडसन से क्या मैं यहाँ से लडूँगा? परमात्मा की कृपा सें श्रीयुत हडसन से कहीं ऊँची पदवी के मनुष्य आदर से मुझे सुनते हैं। कृपया समाचार-पत्र इत्यादि अब मेरे पास न भेजो। ये सब बातें भारत में चलने दो, इससे कोई हानि नहीं होगी। कुछ समय तक ईश्वरीय कार्य के हेतु समाचार-पत्रों में ऐसी हलचल अच्छी थी। जब वह हो गयी फिर अब उसकी आवश्यकता नहीं रही . . . नाम और यश के संग जानेवाले दोषों में से यह एक दोष है कि कोई बात अप्रकट नहीं रह सकती। . . . किसी नये उद्योग को आरम्भ करने से पहले श्रीरामकृष्ण से प्रार्थना करो कि वे तुम्हें उत्तम मार्ग दिखायें। शुरू में हमें जमीन का एक बड़ा टुकड़ा चाहिए, फिर इमारत आदि आ जायेगी, धीरे धीरे हमारे मठ का स्वयं निर्माण होगा, उसकी चिन्ता न करो। . . .
काली तथा औरों ने अच्छा काम किया है। सब को मेरा स्नेह और शुभेच्छाएँ कहना। मद्रास के लोगों के साथ मिलकर काम करना और तुममें से कोई एक वहाँ समय-समय पर जाते रहना। नाम, यश और अधिकार की इच्छा सदा के लिए त्याग दो। जब तक मैं पृथ्वी पर हूँ श्रीरामकृष्ण मेरे द्वारा काम कर रहे हैं। जब तक तुम इस पर विश्वास रखते हो तुम्हें किसी बात का भय नहीं हो सकता।
‘रामकृष्ण-पोथी’ (बंगला कविता में श्रीरामकृष्ण का जीवन) जो अक्षय ने मुझे भेजी, बहुत अच्छी है, परन्तु उसके आरम्भ में ‘शक्ति’ की स्तुति नहीं है, यह उसमें बड़ा दोष है। उससे कहो कि दूसरे संस्करण में इस दोष को हटा दे। हमेशा याद रखो कि अब हम संसार की दृष्टि के सामने खड़े हैं और लोग हमारे प्रत्येक काम और वचन को देख रहे हैं। यह स्मरण रखकर काम करो।
. . . हमारे मठ के लिए कोई स्थान देखते रहना। . . . यदि कलकत्ते से कुछ दूर हो तो कोई हानि नहीं। जहाँ भी हम मठ बनायेंगे वहीं पर हलचल मचेगी। महिम चक्रवर्ती के बारे में सुनकर प्रसन्न हुआ। मैं देखता हूँ कि ‘ऐण्डस’ पवित्र गयाक्षेत्र बन गया है! वह कहाँ है? उसे, श्रीयुत विजय गोस्वामी और हमारे मित्रों को मेरा स्नेहमय नमस्कार कहना। . . . शत्रु को पराजित करने के लिए ढालतलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो। काली की अंग्रेजी दिनोंदिन उन्नति कर रही है और सारदा की दूषित होती जा रही है। सारदा से कहो कि आलंकारिक पद्धति का त्याग करे। परदेशी भाषा में आलंकारिक पद्धति में लिखना अति कठिन है। उसे मेरी ओर से लाखों शाबाशियाँ कहना! निश्चय ही वह एक वीर है। . . . सब ने बहुत अच्छा किया। शाबाश लड़को! आरम्भ अति उत्तम है। इसी तरह से चले चलो। यदि ईर्ष्या का सर्प न आ जाये तो कोई भय नहीं है! माभैः। “प्रसन्न हो!” ‘मद्भक्तानां च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः” – “जो मेरे भक्तों की सेवा करते हैं वे मेरे सर्वोत्तम भक्त हैं।” तुम सब, कुछ गम्भीर हो जाओ। मैं अभी हिन्दू धर्म पर कोई पुस्तक नहीं लिख रहा हूँ परन्तु मैं अपने विचारों को संक्षेप से लिख रहा हूँ। प्रत्येक धर्म एक अभिव्यक्ति है, एक ही सत्य को प्रकाश करने की मानो एक भाषा है और हमें हरएक से उसी की भाषा में बात करनी चाहिए। सारदा ने इसे ठीक समझ लिया है यह अच्छा है। हिन्दू धर्म का निरीक्षण करने के लिए फिर समय निकल आयेगा। क्या तुम समझते हो कि यदि मैं हिन्दू धर्म की चर्चा करूँगा तो इस देश के लोग आकर्षित होंगे? भावों की संकीर्णता का नाम ही उन्हें दूर भगा देगा। वास्तविक चीज है वह धर्म, जिसका उपदेश श्रीरामकृष्ण ने दिया था, – हिन्दू चाहे उसे हिन्दू धर्म कहें और दूसरे अपनी इच्छा के अनुकूल किसी और नाम से पुकारें। तुम्हें केवल धीरे धीरे आगे बढ़ना चाहिए “शनैः पन्थाः” “यात्रा धीरे धीरे करनी चाहिए”। दीनानाथ, जो अभी नया आया है – उसे मेरा आशीर्वाद कहना। मुझे लिखने को बहुत कम समय मिलता है – हमेशा व्याख्यान! व्याख्यान!! व्याख्यान!!! पवित्रता, धीरज, और निरन्तर उद्योग। . . . अधिक संख्या में आजकल जो लोग श्रीरामकृष्ण के उपदेशों की ओर ध्यान दे रहे हैं उनसे कुछ हद तक आर्थिक सहायता की प्रार्थना करो। यदि वे सहायता नहीं करेंगे तो मठ का निर्वाह कैसे हो सकता है? सब से यह स्पष्ट कहने में तुम्हें लज्जा नहीं मालूम होनी चाहिए। . . .
इस देश से शीघ्र ही लौटने में कोई लाभ नहीं है। पहली बात यह कि यहाँ थोड़ा शब्द होने से वहाँ प्रतिध्वनि बहुत होगी। फिर यहाँ के लोग अति धनवान हैं और देने का भी साहस रखते हैं। परन्तु हमारे देश के लोगों के पास न धन है और साहस तो तनिक भी नहीं।
तुम्हें धीरे-धीरे सब मालूम हो जायेगा। क्या श्रीरामकृष्ण केवल भारत के उद्धार करनेवाले थे? इस संकीर्ण भाव ने ही भारतवर्ष का नाश किया है, और उसका कल्याण असम्भव है, जब तक यह भाव जड़ से न निकाला जायेगा। यदि मेरे पास धन होता तो मैं तुममें से प्रत्येक को सारे संसार में भ्रमण करने भेजता। कोई भी महान् विचार हृदय में स्थान नहीं पा सकता है जब तक कि हम अपने छोटेसे कोने से बाहर न निकलें। समय पाकर यह प्रमाणित होगा। प्रत्येक महान् कार्य धीरे-धीरे होता है। यही परमात्मा की इच्छा है। . . .
तुम लोगों में से किसी ने हरीश और दक्ष के विषय में क्यों नहीं लिखा? यदि तुम उनके बारे में खोज-खबर रखोगे तो मैं हर्षित होऊँगा। सन्याल दुःख का अनुभव कर रहा है, क्योंकि उसका मन अभी गंगाजल के समान निर्मल नहीं हुआ। अभी तक वह निःस्वार्थ नहीं है, परन्तु ठीक समय में हो जायेगा। यदि वह अपनी थोड़ीसी कुटिलता छोड़कर सीधा हो जाये तो उसका दुःख भी मिट जायेगा। राखाल और हरि को मेरा विशेष प्रेम। उनकी और विशेष ध्यान देना। . . . यह कभी न भूलना कि राखाल श्रीरामकृष्ण के प्रेम का विशेष पात्र था। किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, हमारी कौन उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम्हारी यह अन्तिम साँस भी हो तो भी न डरो। सिंह की शूरता से और पुष्प की कोमलता से काम करते रहो। इस वर्ष श्रीरामकृष्ण का उत्सव धूम-धाम से मनाओ। खाना-पीना साधारण रखो – एकत्रित लोगों में मिट्टी के पात्रों में प्रसाद बिना किसी नियम के बाँट दो। यह पर्याप्त होगा। श्रीरामकृष्ण के जीवन में से पाठ होगा। वेद और वेदान्त जैसी पुस्तकों को एक साथ रखकर उनकी आरती करो। . . . पुरानी पद्धति के निमन्त्रण-पत्र प्रकाशित मत करो। “आमन्त्रये भवन्तं साशीर्वादं भगवतो रामकृष्णस्य बहुमानपुरः सरं च” – “भगवान श्रीरामकृष्ण के आशीर्वाद से और हमारे माननीय होकर हम आपको अति हर्ष के साथ आमन्त्रित करते हैं” – इस प्रकार पंक्त्तियाँ लिखकर श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव और मठ के निर्वाह के लिए उनकी सहायता माँगो। और यदि वे चाहें तो अमुक नाम से, अमुक पते से रुपया भेज दें। एक पृष्ठ अंग्रेजी का भी जोड़ दो। ‘लार्ड (Lord) श्रीरामकृष्ण’ पद का कोई अर्थ नहीं है। उसे त्याग दो। अंग्रेजी अक्षरों में ‘भगवान’ लिखो और कुछ पंक्त्तियाँ अंग्रेजी की आगे लगा दो। जैसे –
The Anniversary of Bhagwan Sri Ramakrishna.
Sir,
We have great pleasure in inviting you to join us in celebrating the – the Anniversary of Bhagwan Ramakrishna Paramhansa. For the celebration of this great occasion and for the maintenance of the Alambazar Math funds are absolutely necessary. If you think that the cause is worthy of your sympathy, we shall be very grateful to receive your contribution to the great work.
Yours obediently,
(Date) (Place) (Name)
भगवान श्रीरामकृष्ण का वार्षिकोत्सव
महाशय,
भगवान रामकृष्ण परमहंस के – वे वार्षिक उत्सव को मनाने में सम्मिलित होने के लिए हम सहर्ष आपको आमन्त्रित करते हैं। इस सुअवसर को मनाने के लिए और आलमबाजार मठ को चलाने के लिए धन की नितान्त आवश्यकता है। यदि आप समझते हैं कि यह कार्य आपकी सहानुभूति के योग्य है तो इस महान् कार्य के संचालन के लिए हम कृतज्ञतापूर्वक आपका दान स्वीकार करेंगे।
आज्ञापूर्वक आपका।
(तिथि) (स्थान) (नाम)
यदि तुम्हें आवश्यकता से अधिक धन मिले तो उसमें से थोड़ासा ही व्यय करो, और बचे हुए रुपये को मठ के खर्च के लिए संचित रखो। नैवेद्य चढ़ाने के बहाने से लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा न करवाओ कि वे अस्वस्थ हो जायें और फिर उन्हें बासा और स्वादहीन भोजन करना पड़े। दो फिलटर बनवा लो और पकाने और पीने के लिए फिलटर का पानी काम में लाओ। छानने से पहले पानी उबाल लो। यदि तुम ऐसा करोगे तो मलेरिया का नाम नहीं सुनोगे। सब के स्वास्थ्य की ओर खूब ध्यान दो। यदि तुम जमीन पर लेटना छोड़ सकते हो अर्थात् यदि तुम्हें ऐसा करने के लिए पर्याप्त धन मिल सकता है तो अति उत्तम होगा। रोग का मुख्य कारण गन्दे कपड़े होते हैं।. . . मैं तुमसे कहता हूँ कि नैवेद्य के लिए थोड़ासा पायसान्नम् भी पर्याप्त होगा। उन्हें केवल वही प्रिय था। यह सत्य है कि पूजागृह से बहुतसे लोगों को सहायता मिलती है, परन्तु राजसिक और तामसिक भोजन करना उचित नहीं। विधियों को कुछ कम करके गीता या उपनिषद् या शास्त्रों के अध्ययन को कुछ स्थान दो। मेरा मतलब यह है – भौतिकता (materialism) को कम से कम कर दो और आध्यात्मिकता (spirituality) को अधिक से अधिक मात्रा में बढ़ा दो।. . . श्रीरामकृष्ण क्या किसी विशेष व्यक्ति के लिए आये थे या संसार के लिए? यदि संसार के लिए तो उनके जीवन का इस तरह दिग्दर्शन करो कि सारा संसार उन्हें समझ सके। You must not identify yourself with any life of Him written by anybody, nor give your sanction to any.
(किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण के जीवन-चरित्र से तुम अपना नाम किसी प्रकार सम्बन्धित न करना और न अपनी स्वीकृति ही किसी ऐसे ग्रन्थ के लिए देना)। इन जीवन-चरित्रों के साथ हम लोगों का नाम न जुड़ा रहना चाहिए, बस फिर कोई हर्ज नहीं। ‘सुनिये सब की – करिये मन की’।
. . . महेन्द्रबाबू ने हमारी सहायता करके कृपा की, इसके लिए उन्हें सहस्रों बार धन्यवाद। वे बड़े उदारहृदय व्यक्ति हैं।. . . सन्याल यदि अपना काम ध्यान से करेगा अर्थात् श्रीरामकृष्ण की सन्तान की सेवा, तो वह सर्वोत्तम कल्याण को प्राप्त करेगा।. . . तारकदादा बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। शाबाश! बहुत अच्छा! यही हम चाहते हैं। अनेक पुच्छल तारों की तरह मैं तुम लोगों को उज्ज्वल एवं प्रभावशाली देखना चाहता हूँ। गंगाधर क्या कर रहा है? राजपूताने के कुछ जमींदार उसका आदर करते हैं। उससे कहो कि वह भिक्षा रूप में लोकसेवा के लिए उनसे कुछ धन ले; तभी तो बात है।. . .
अभी मैंने अक्षय की पुस्तक पढ़ी। मेरी ओर से उसे लाखों स्नेहमय आलिंगन। उसकी लेखनी से श्रीरामकृष्ण प्रकट हो रहे हैं। धन्य है अक्षय! उसे उस ‘पोथी’ का पाठ सब के सामने करने दो। उत्सव के दिन उससे सब के सामने पाठ करवाना। यदि पुस्तक बहुत बड़ी हुई तो उसमें से विशेष भाग पढ़ने दो। उसमें मैं एक भी असम्बद्ध शब्द नहीं पाता हूँ। उस किताब के पढ़ने से मुझे जो आनन्द हुआ है उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता। तुम सब यत्न करके उसकी बहुत बिक्री करवाओ। फिर अक्षय से कहो कि गाँव-गाँव जाकर प्रचार करे। शाबाश अक्षय! वह प्रभु का काम कर रहा है। गाँव-गाँव जाकर श्रीरामकृष्ण के उपदेश की घोषणा करो। इससे अधिक सौभाग्य और क्या हो सकता है? मैं कहता हूँ कि स्वयं अक्षय और उसकी पुस्तक – दोनों को जनता में एक प्रकार का विद्युत्संचार कर देना चाहिए। प्रिय, प्रिय अक्षय, मैं हृदय से तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ। मेरे प्यारे भाई! भगवान तुम्हारी जिह्वा पर विराजमान रहें। जाओ, द्वार-द्वार उनका उपदेश सुनाओ। तुम्हें संन्यासी बनने की कोई आवश्यकता नहीं है।. . . बंगाल की जनता के लिए भविष्य में अक्षय ईश्वरी दूत होगा। अक्षय का खयाल रखना। उसकी भक्ति और श्रद्धा फलवती हुई है।
अक्षय से कहना कि अपनी पुस्तक के द्वितीय भाग “धर्म-प्रचार” में वह निम्नलिखित बातें लिखे।
१. वेद-वेदान्त तथा अन्य अवतारों ने जो भूतकाल में किया, श्रीरामकृष्ण ने उसकी साधना एक ही जीवन में कर डाली।
२. वेद-वेदान्त, अवतार और इस प्रकार की अन्य बातें कोई समझ नहीं सकता जब तक वह उनका जीवन न समझे; क्योंकि वही उनकी व्याख्या है।
३. उनके जन्म की तिथि से सत्ययुग आरम्भ हुआ है। इसलिए अब सब प्रकार के भेदों का अन्त है और चण्डालसहित सब लोग उस दैवी प्रेम के भागी होंगे। पुरुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चण्डाल – इन सब भेद-भावों का मूल नष्ट करने के लिए उनका जीवन व्यतीत हुआ था। वे शान्ति के दूत थे – हिन्दू और मुसलमानों का भेद, हिन्दू और ईसाइयों का भेद – ये सब भूतकालीन हो गये हैं। श्रेष्ठता के झगड़े – वे दूसरे युग से सम्बन्ध रखते हैं। इस सत्ययुग में श्रीरामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सब को एक कर दिया है।
उससे कहो कि इन विचारों को वह विस्तारपूर्वक अपनी शैली में लिखे।
जो कोई – पुरुष या स्त्री – श्रीरामकृष्ण की उपासना करेगा वह चाहे कितना ही पतित क्यों न हो, तत्काल ही उच्चतम में परिणत हो जायेगा। एक बात और है, इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे स्त्रियों के समान कभी कभी वस्त्र पहनते थे – वे मानो हमारी जगन्माता जैसे ही थे – इसलिए हमें सब स्त्रियों को उस जगन्माता की ही मूर्तियाँ मानना चाहिए। भारत में दो बड़ी बुरी बातें हैं। स्त्रियों का तिरस्कार और गरीबों को जाति-भेद के द्वारा पीसना। वे स्त्रियों के रक्षक थे, जनता के रक्षक थे, ऊँच और नीच सब के रक्षक थे। अक्षय उनकी उपासना सब घरों में प्रचलित कर दे, चाहे ब्राह्मण हो या चण्डाल, पुरुष हो या स्त्री – सब को उनकी पूजा का अधिकार है। जो प्रेम से उनकी पूजा करेगा उसका सदा के लिए कल्याण हो जायेगा।
उससे कहना इस पद्धति से लिखे। किसी बात की चिन्ता न करे। भगवान उसके साथ रहेंगे। किमधिकमिति।
प्रेमपूर्वक तुम्हारा,
विवेकानन्द
पु. – सन्याल से कहना कि नारद और शाण्डिल्य-सूत्र की एक-एक प्रति और एक योगवासिष्ठ जिसका अनुवाद अभी कलकत्ते में हुआ है मुझे भेजे। मुझे योगवासिष्ठ का अंग्रेजी अनुवाद चाहिए, बंगला संस्करण नहीं।. . .
[१] इसका तात्पर्य यह है कि तुम इधर-उधर न घूमकर एक ही जगह रहना पसन्द करते हो।
[२] श्रीमद्भगवद्गीता ॥ ४. १६॥
(४९)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
अमेरिका,
१८९५ (शरत्काल)
प्रिय आलासिंगा,
हम लोगों का कोई ‘संघ’ नहीं है और न हम कोई ‘संघ’ बनाना ही चाहते हैं। पुरुष अथवा महिला जो कोई भी जो कुछ शिक्षा प्रदान तथा प्रचार करना चाहें, उन कार्यो को करने के लिए वे सम्पूर्ण स्वतन्त्र हैं।
यदि तुम्हारे अन्दर भावना है तो कभी भी लोगों को आकर्षित करने में तुम असफल न रहोगे। हम कभी भी ‘थियासाफिस्टों’ की कार्यप्रणाली का अनुसरण नहीं कर सकते – इसका एकमात्र कारण यह है कि वे एक संघबद्ध सम्प्रदाय हैं और हम उस प्रकार के नहीं हैं।
मेरा मूलमन्त्र है – व्यक्तित्व का विकास। प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा देकर उपयुक्त बनाने के सिवा मेरी और कोई उच्चाकांक्षा नहीं है। मेरा ज्ञान अत्यन्त सीमित है – उस सीमित ज्ञान को न दबाकर मैं शिक्षा देता रहता हूँ। जिस विषय को मैं नहीं जानता हूँ, उस बारे में मैं यह स्पष्ट कह देता हूँ कि उक्त विषय में मेरा कोई ज्ञान नहीं है। थियासाफिस्ट, ईसाई, मुसलमान अथवा अन्य किसी व्यक्ति से लोगों को कुछ भी सहायता मिल रही है सुनने से मुझे जो आनन्द मिलता है, उसे मैं व्यक्त नहीं कर सकता। मैं तो एक संन्यासी हूँ – अतः इस जगत् में न तो मैं किसी का गुरु हूँ और न स्वामी, मैं तो सब का दास हूँ।. . . यदि लोग मुझसे प्रीति करना चाहें तो प्रीति करें और यदि वे मुझे घृणा की दृष्टि से देखना चाहें तो देख सकते हैं, यह उनकी खुशी है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना होगा – उसका कार्य उसी को करना होगा; मैंने यह समझा था कि आहार के बिना इस शरीर का नाश हो जायेगा, परन्तु उससे हानि ही क्या है? मैं तो भिखारी हूँ। मैं गरीबों से प्रीति करता हूँ। मैं दरिद्रता को आदरपूर्वक अपनाता हूँ। जब कभी मुझे भोजन के बिना उपवासी रहना पड़ता है तब आनन्दित ही होता हूँ। मैं किसी का सहायताप्रार्थी नहीं हूँ – उससे लाभ ही क्या है? सत्य अपना प्रचार आप ही करेगा, मेरी सहायता के बिना वह विनष्ट नहीं हो सकता। “सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व” – सुख-दुख, लाभहानि, जय-पराजय में समदृष्टि रखकर युद्ध में प्रवृत्त हो। (गीता)
इस प्रकार की अनन्त प्रीति, सब अवस्थाओं में इस प्रकार का अविचलित साम्यभाव रहने पर तथा ईर्ष्या-द्वेष से सर्वथा मुक्त होने से तब कहीं कार्य हो सकता है। एक मात्र इसी से कार्य हो सकता है, अन्य किसी प्रकार से नहीं। इति।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(५०)
(स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को लिखित)
जनवरी, १८९६
प्रिय सारदा,
पत्रिका के बारे में तुम्हारी idea (कल्पना) अति उत्तम है, पूर्ण शक्ति के साथ जुट जाओ, कोई चिन्ता नहीं है। तुम्हारा पत्र मिलने पर मैं ५०० रुपये तत्काल भेज दूँगा, रुपयों के लिए चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। फिलहाल इस पत्र को दिखाकर किसी से कर्ज ले लो। इस पत्र का जवाब मिलने पर – पत्रोत्तर के साथ ही साथ ५०० रुपये मैं भेज दूँगा। ५०० रुपयों में बनता-बिगड़ता ही क्या है? ईसाई तथा इस्लाम धर्म का प्रचार करनेवाले बहुतसे लोग हैं, तुम अब अपने देशी धर्म के प्रचार में जुट जाओ। यदि हो सके तो किसी अरबी भाषा जाननेवाले व्यक्ति के द्वारा प्राचीन अरबी पुस्तकों का अनुवाद करा सको तो अच्छा है। फारसी भाषा में अनेक Indian History (भारतीय इतिहास) विद्यमान हैं। यदि क्रमशः उनके अनुवाद हो सकें तो एक अत्युत्तम regular item (धारावाहिक विषय) होगा। अनेक लेखकों की आवश्यकता है। साथ ही ग्राहकों की भी समस्या है। इसका एकमात्र उपाय यह है कि तुम विभिन्न स्थानों में पर्यटन करते रहते हो, जहाँ कहीं भी बंगला भाषा का प्रचलन हो, वहाँ पर लोगों के माथे पत्रिका मढ़ देना।. . . पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए, आगे बढ़े चलो। शशी, शरत, काली आदि सब कोई अध्ययन कर लिखने में जुट जायें। घर पर बैठे बैठे क्या हो सकता है? तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबास! हिचकनेवाले पीछे रह जायेंगे और तुम कूदकर सब के आगे पहुँच जाओगे। वे अपने उद्धार में लगे हुए हैं – न वे अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोरगुल मचाओ कि उसकी आवाज दुनिया के कोने कोने में फैल जाये। कुछ लोग ऐसे हैं जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखते हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नहीं चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो। इसके बाद मैं भारत पहुँचकर चारों और उत्तेजना पूँक दूँगा। डर किस बात का है? “नहीं है, नहीं है कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है।” – नहीं नहीं कहने से तो अपना अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा!. . .
गंगाधर ने बहुत बहादुरी दिखायी है। शाबास! काली उसके साथ काम में जुट गया है। बहुत ठीक! कोई मद्रास चले जाओ, कोई बम्बई। छान डालो – सारी दुनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते – तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ, धीरे धीरे अग्रसर होना पड़ रहा है। तूफान मचा दो, तूफान! किसी को चीन भेज दो, किसी को जापान। यह कार्य गृहस्थों के द्वारा नहीं हो सकता। . . . संन्यासियों को हुंकार के साथ गरजना होगा। ह-र, ह-र, श-म्भो!
तुम्हारा ही,
विवेकानन्द
(५१)
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
न्युयार्क,
२५ जनवरी, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
स्टर्डी के पते पर भेजा हुआ आपका कृपापूर्ण पत्र मुझे यहाँ भेज दिया गया है। मुझे भय है कि इस वर्ष कार्यभार से मैं थका जा रहा हूँ। मुझे विश्राम की परम आवश्यकता है। इसलिए आपका यह कहना कि बोस्टन का काम मार्च के अन्त में आरम्भ किया जाये, बहुत अच्छा है। अप्रैल के अन्त में मैं इंग्लैण्ड के लिए चल दूँगा। कैट्स्किल में जमीन के बड़े-बड़े टुकड़े कम दाम में मिल सकते हैं। एक १०१ एकड़ का टुकड़ा २०० डालर का है। रुपया मेरे पास तैयार है, परन्तु जमीन मैं अपने नाम से नहीं ले सकता हूँ। इस देश में आप ही मेरी एक मित्र हैं जिन पर मुझे पूरा विश्वास है। यदि आप स्वीकार करें तो मैं आपके नाम से जमीन खरीद लूँ। गर्मी में विद्यार्थी वहाँ जायेंगे, अपनी इच्छा से छोटे-छोटे मकान या तम्बू डालेंगे और ध्यान का अभ्यास करेंगे। बाद में कुछ धन इकठ्ठा कर सकने पर वे वहाँ पक्की इमारत आदि का निर्माण कर सकेंगे।
मुझे दुःख है कि आप तत्काल नहीं आ सकीं। इस महीने के रविवारवाले व्याख्यानों का कल अन्तिम दिवस है। आगामी मास के पहले रविवार को ब्रुकलिन में भाषण होगा। शेष तीन न्यूयार्क में, उसके बाद मैं इस वर्ष के न्यूयार्क के भाषणों को बन्द कर दूँगा।
मैंने अपनी शक्तिभर प्रयत्न करके काम किया है। यदि उसमें सत्य का कोई बीज हो तो वह यथाकाल अंकुरित होगा। इसलिए मुझे कोई चिन्ता नहीं है। व्याख्यान देते देते और कक्षाएँ लेते लेते मैं अब थक भी गया हूँ। इंग्लैण्ड में कुछ महीने काम करके मैं भारत जाऊँगा और वहाँ कुछ वर्षो के लिए या सदा के लिए अपने आप को पूरी तरह से छुपा लूँगा। मेरी अन्तरात्मा साक्षी है कि मैं आलसी संन्यासी न था। मेरे पास एक स्मरणपुस्तक है जिसने सारे संसार मैं मेरे साथ यात्रा की है। सात वर्ष पहले उसमें मैं यह लिखा हुआ पाता हूँ – “अब एक ऐसा एकान्त स्थान मिले जहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा में मैं पड़ा रह सकूँ!” परन्तु यह सब कर्म-भोग शेष था। मैं आशा करता हूँ कि अब मेरा कर्म क्षय हो गया है। मैं आशा करता हूँ कि प्रभू मुझे इस प्रचार-कार्य से और सुकर्म के बन्धन को बढ़ाने से छुटकारा देंगे।
“आत्मा ही एक एवं अखण्ड सत्तास्वरूप और शेष सब असत् है” – यह ज्ञान होने पर कौनसा व्यक्ति या कौनसी वासना मानसिक उद्वेग का कारण हो सकती है? माया द्वारा कल्याण करने के विचार आदि मेरे मस्तिष्क में आये – अब वे मुझे छोड़ रहे हैं। मेरा यह विश्वास अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है कि कर्म का ध्येय केवल चित्त की शुद्धि है, जिससे ज्ञान प्राप्त करने का वह अधिकारी हो। यह संसार गुण और दोषसहित अनेक रूपों में चलता रहेगा। पुण्य और पाप केवल नये नाम और नये स्थान बना लेंगे। मेरी आत्मा निरवच्छिन्न और अनश्वर शान्ति और विश्राम के लिए लालायित है।
“अकेले रहो, अकेले रहो, जो अकेले रहता है उसका किसी से विरोध नहीं होता – वह किसी की शान्ति भंग नहीं करता, न उसकी शान्ति कोई दूसरा भंग करता है।” हा ! मैं तरसता हूँ – अपने चिथड़ों के लिए, अपने मुण्डित मस्तक के लिए, वृक्ष के नीचे सोने के लिए, और भिक्षा के भोजन के लिए मैं तरसता हूँ ! भारत में अपने दोष होते हुए भी वही एकमात्र स्थान है जहाँ आत्मा अपनी मुक्ति, अपने ईश्वर को पाती है। यह पश्चिमी चमक-दमक केवल मिथ्या है और आत्मा का बन्धन है। संसार की निःसारता का मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी दृढ़ता से अनुभव नहीं किया था। प्रभु सब को बन्धन से मुक्त करें – माया से सब लोग निकल सकें – यही मेरी नित्य प्रार्थना है।
विवेकानन्द
(५२)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
अमेरिका,
१७ फरवरी, १८९६
प्रिय आलासिंगा,
. . . काम बहुत कठिन है; जैसे-जैसे काम की वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे काम की कठिनता भी बढ़ती जा रही है। मुझे विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता मालूम पड़ रही है। परन्तु इंग्लैण्ड में एक बड़ा काम मेरे सामने खड़ा है। . . . वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ़ जायेगा। . . . हरएक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैकड़ों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जो उद्यम करते रहेंगे वे आज या कल सफलता को देखेंगे – . . . न्यूयार्क, जो अमेरिकन सभ्यता का एक प्रकार का हृदय है उसे जगाने में मैंने सफलता प्राप्त की है। परन्तु भीषण कठिनाइयों से लड़ना पड़ा। . . . जो शक्ति मेरे पास थी वह न्यूयार्क और इंग्लैण्ड पर प्रायः न्यौछावर कर दी। अब काम सुचारु रूप से चल रहा है।
हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, पेचीदी पौराणिक कथाएँ, और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से एक धर्म निर्माण करना, जो कि सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत हृदयों को सन्तुष्ट कर सके – इस कार्य की कठिनाईयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इस कार्य का बीड़ा उठाने का प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गूढ़ सिद्धान्तों में कविता का रस, और नित्यकर्मों में जीवनदायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है; अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से साकार नीति के नियम निकालने हैं; और बुद्धि को बहकानेवाली योग-विद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है – यह सब ऐसे रूप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके। मेरे जीवन का यही कार्य है। परमात्मा ही जानता है कि कहाँ तक यह काम मैं कर पाऊँगा। कर्म करने का हमें अधिकार है, उसके फल का नहीं। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम! काम-कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाये, निश्चय ही कठिन काम है। धन्य हैं परमात्मा कि अब तक बड़ी सफलता हमें मिलती रही है। मैं मिशनरी आदि लोगों को दोष नहीं दे सकता कि वे मुझे समझने में असमर्थ हुए। उन्होंने शायद ही कभी ऐसा पुरुष देखा होगा, जो धन और स्त्रियों की ओर आकर्षित न हो। पहले तो वे विश्वास ही नहीं करते थे, और करते भी कैसे! तुम्हें यह नहीं समझना चाहिए कि पश्चिमी देश में ब्रह्मचर्य और पवित्रता के वे ही आदर्श हैं, जो भारत में हैं। इन लोगों के सद्गण और साहस उसके बदले में पूजित हैं। . . . मेरे पास अब लोगों के झुण्ड के झुण्ड आ रहे हैं। अब सैकड़ों मनुष्यों को विश्वास हो गया है कि ऐसे भी मनुष्य हो सकते हैं, जो अपनी शारीरिक वासनाओं को वशीभूत कर सकते हैं। इन आदर्शों के लिए अब सम्मान और प्रीति बढ़ते जा रहे हैं। जो प्रतीक्षा करता है, उसे सब चीजें मिलती हैं। अनन्तकाल तक तुम भाग्यवान बने रहो। इति।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(५३)
(आलमबाजार मठ के सभी सदस्यों को लिखित)
हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग,
२७ अप्रैल, १८९६
कल्याणवरेषु,
शरत् के द्वारा सारे समाचार अवगत हुए। ‘दुष्ट गाय की अपेक्षा सूनी गोशाला श्रेयस्कर है।’ -यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी। मैं तुम सब लोगों के लिए कुछ लिखना चाहता हूँ। मैं व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त करने के लिए यह नहीं करता, परन्तु तुम्हारी भलाई के लिए और भगवान श्रीरामकृष्ण जिस उद्देश्य के लिए आये थे, उसे पूरा करने के लिए ऐसा करता हूँ। उन्होंने तुम सब लोगों का रक्षण-भार मेरे ऊपर डाला था, और बताया था कि तुम सब लोग जगत् के कल्याण में सहायता करोगे – यद्यपि तुममें से अधिकांश इस बात को नहीं जानते। मेरा तुम्हें लिखने का यही विशेष कारण है। यदि तुम लोगों में ईर्ष्या और अहंकार के भावों ने जड़ पकड़ ली तो बड़े दुःख की बात होगी। जो लोग स्वयं कुछ समय तक सौहार्द भाव से एक साथ न रह सकें, वे क्या पृथ्वी पर सौहार्द-सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं? निःसन्देह नियमों से आबद्ध होना एक दोष है, परन्तु अपरिपक्व अवस्था में नियमों का पालन करना आवश्यक है, अर्थात् जैसा कि गुरुदेव कहते थे कि छोटे पौधे को चारों ओर से रूँधकर रखना चाहिए – इत्यादि। दूसरी बात यह कि आलसी लोगों के लिए वृथा बकवाद करना और परस्पर विरोधभाव उत्पन्न करना इत्यादि स्वाभाविक हैं। इसलिए निम्नलिखित उद्देश्य संक्षेप में लिखता हूँ। यदि तुम इसके अनुसार अग्रसर होगे तो निश्चय ही सफलता प्राप्त करोगे, किन्तु यदि ऐसा न करोगे तो हमारा सारा परिश्रम व्यर्थ जाने की आशंका है।
पहले मैं मठ की व्यवस्था के विषय में लिखता हूँ –
(१) मठ के लिए कृपया एक बड़ा सा मकान या बाग किराये पर लो जहाँ सब को एक-एक कमरा अलग-अलग मिल सके। एक विशाल कमरा, जहाँ पुस्तकें रखी जा सकें, और एक छोटासा कमरा अभ्यागतों सें भेंट करने के लिए होने चाहिए। यदि सम्भव हो तो उस घर में एक बड़ा कमरा और होना चाहिए। जहाँ जनता के लिए शास्त्रों का अध्ययन और धर्म का उपदेश हो सके।
(२) कोई किसी से मठ में मिलना चाहे, तो वह केवल उससे मिल कर चला जाये और दूसरों को कष्ट न दे।
(३) प्रतिदिन, बारी-बारी से, कुछ घण्टों के लिए तुममें से एक को बड़े कमरे में जनता के लिए उपस्थित रहना चाहिए, जिससे जो प्रश्न वे करने आये हों उनका सन्तोषजनक उत्तर उन्हें मिल सके।
(४) सब को अपने अपने कमरे में रहना चाहिए, और किसी विशेष कार्य के अतिरिक्त दुसरों के कमरे में नहीं जाना चाहिए।
(५) एक कमरे में भीड़ करके दिनभर बातचीत में समय गँवाना और अनेक व्यक्तियों का बाहर से आकर उस कोलाहल में सम्मिलित होना, इसका पूर्णतः निषेध होना चाहिए।
(६) केवल वे लोग जो धर्म की खोज करनेवाले हैं, आयें और शान्ति से अभ्यागतों के कमरे में प्रतीक्षा करें, और जिस विशेष व्यक्ति से वे मिलना चाहते हों उससे मिलने के पश्चात् वे चले जायें। यदि उन्हें कोई सामान्य प्रश्न करना हो तो उस दिन के सम्मेलन के प्रबन्धकर्ता से पूछकर चले जायें।
(७) चुगलखोरी, गुट्ट बनाना, दुसरों की निन्दा इधर उधर करना, इसका पूर्ण त्याग होना चाहिए।
(८) एक छोटा कमरा ऑफिस के लिये नियुक्त्त हो। मन्त्री को उस कमरे में रहना चाहिए ओर वहाँ कागज, स्याही तथा पत्र लिखने की और सब चीजें होनी चाहिए। मन्त्री को आमदनी और व्यय का हिसाब रखना चाहिए। पत्र आदि सब उसके पास आने चाहिए और उसे सब उन व्यक्तियों को बिना खोले सौंप देने चाहिए। पुस्तकें और पत्रिकाएँ पुस्तकालय में भेज देनी चाहिए।
(९) जो आक्षेप करना या क्रोध दिखाना चाहे वह मठ की सीमा के बाहर ऐसा करे। इससे किंचित् भी विचलित न होना चाहिए।
शासन विभाग
(१) प्रतिवर्ष अध्यक्ष का बहुमत से चुनाव होगा। अगले वर्ष दूसरे का, और आगे भी इसी तरह से।
(२) इस वर्ष राखाल (स्वामी ब्रह्मानन्द) को अध्यक्ष बना दो, इसी प्रकार किसी और को मन्त्री, और पूजा भोजन इत्यादि की देखभाल के लिए किसी तीसरे व्यक्ति का चुनाव करो।
(३) मन्त्री का एक और कर्तव्य होगा अर्थात् सब के स्वास्थ्य के विषय में सचेत रहना। इस सम्बन्ध में मुझे तीन आदेश देने हैं।
(क) प्रत्येक कमरे में प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक निवाड़ी पलंग और गद्दा आदि होंगे। हर एक को अपना कमरा साफ रखना होगा।
(ख) पीने और पकाने के लिए स्वच्छ और निर्मल जल का प्रबन्ध करना होगा। अशुद्ध और मलिन जल में हविष्यान्न पकाना महापाप है।
(ग) हरएक को दो गेरुए वस्त्र दो, जैसे शरत के लिए तुमने बनाये, और यह देखो कि वे साफ रखे जाते हैं।
(४) जो संन्यासी बनना चाहे उसे पहले ब्रह्मचारी बनाया जाये। एक वर्ष वह मठ में रहे और एक वर्ष बाहर रहे, तत्पश्चात् संन्यास की उसे दीक्षा दी जाये।
(५) पूजा का काम इन्हीं में से एक ब्रह्मचारी को सौंपो और थोड़े समय बाद उन्हें बदलते रहो।
मठ के विभाग
मठ में निम्नलिखित विभाग होंगे –
(१) अध्ययन (२) प्रचार (३) धार्मिक साधना
(१) अध्ययन – जो अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिए पुस्तकों और शिक्षकों का प्रबन्ध करना इस विभाग का उद्देश्य होगा। प्रतिदिन प्रातः और सायं शिक्षकों को उनके लिए तैयार रहना चाहिए।
(२) प्रचार – मठ के अन्दर व बाहर।
मठ के प्रचारकों को यह कार्य करना होगा कि वे जिज्ञासुओं को धर्मग्रन्थों में से पढ़कर सुनायें और उन्हें शिक्षा दें। साथ ही प्रश्नकक्षा द्वारा भी वे उन्हें उपदेश दें। बाहर के उपदेशकों को गाँव-गाँव जाकर उपदेश देना चाहिए और उपर्युक्त्त प्रकार के मठ भी भिन्न भिन्न स्थानों में स्थापित करने का यत्न करना चाहिए।
(३) आध्यात्मिक साधना – जो लोग साधना करना चाहते हैं, यह विभाग उन लोगों की आवश्यकता को पूरा करने का यत्न करेगा परन्तु जो व्यक्ति धार्मिक साधना में लगा है वह दूसरों को अध्ययन या उपदेश देने से नहीं रोक सकेगा। जो भी इस नियम का उल्लंघन करेगा उसे तुरन्त ही निकल जाने के लिए कहा जायेगा। यह अनिवार्य है।
मठ के भीतर के उपदेशकों को भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म पर बारीबारी से शिक्षा देनी चाहिए। इसके लिए दिन और समय नियुक्त्त होने चाहिए और यह नित्य का कार्यक्रम कक्षा के दरवाजे पर लगा देना चाहिए। अर्थात् – भक्तिमार्ग के साधकों को जिस दिन ज्ञान के विषय पर कक्षा हो उस दिन उपस्थित नहीं रहना चाहिए जिससे उनकी भक्ति को कहीं हानि न पहुँचे, – इत्यादि इत्यादि।
तुम लोगों में से कोई भी वामाचार साधना के योग्य नहीं हो। इसलिए मठ में इसकी साधना किसी प्रकार भी न होनी चाहिए। जो इसे न सुने वह इस संघ को छोड दे। इस साधना का मठ में कभी नाम भी न लिया जाये। गुरु-महाराज के संघ में जो दुष्ट अधम वामाचार का प्रचार करेगा उसका इहलोक और परलोक में नाश होगा।
कुछ सामान्य सूचनाएँ
१. यदि कोई महिला किसी संन्यासी से बात करने आये तो उसे अभ्यागतों के कमरे में संन्यासी से मिलना चाहिए। कोई भी महिला पूजागृह को छोडकर किसी और कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती।
२. किसी संन्यासी को स्त्रियों के मठ में रहने की आज्ञा न होगी। जो संन्यासी इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा वह मठ से निकाल दिया जायेगा। “दुष्ट पशुसमूह से रिक्त्त पशुशाला अच्छी है।”
३. दुष्ट चरित्रवाले मनुष्यों का प्रवेश पूर्ण निषेध है। किसी बहाने से उनकी छाया भी मेरे कमरे की देहली को पार नहीं कर सकती। यदि तुममें से कोई भी दुराचारी हो जाये, तो उसे तुरन्त निकाल दो, चाहे वह कोई भी हो। हमें नीच मनुष्य नहीं चाहिए। प्रभु अनेक भले व्यक्तियों को लायेंगे।
४. कोई भी स्त्री पढने के कमरे में (या उपदेशवाले स्थान में) कक्षा के समय या उपदेश के समय में आ सकती है परन्तु नियत काल के पश्चात् उसे तुरन्त वह स्थान त्याग देना चाहिए।
५. कभी क्रोध प्रकट न करो, ईर्ष्या को मन में आश्रय न दो, और चुपके-चुपके किसी की चुगली न करो। अपने दोषों को दूर करने की जगह दूसरों के दोष देखना – यह निर्दयता और कठोर हृदय की पराकाष्ठा है।
६. भोजन का नियत समय होना चाहिए। सब के लिए एक आसन और एक नीची चौकी होनी चाहिए, जिसमें वह आसन पर बैठ सके और चौकी पर थाली रख सके जैसा कि राजपूताने में चलन है।
पदाधिकारी
सब पदाधिकारियों का चुनाव गुप्त रूप से होना चाहिए, यह भगवान बुद्ध का आदेश था, अर्थात एक मनुष्य यह प्रस्ताव करे कि अमुक साधु इस वर्ष का अध्यक्ष हो, और सब को कागज के टुकड़ो पर ‘हाँ’ या ‘नही’ लिखकर उन्हें एक घड़े में डाल देना चाहिए। यदि अधिकांश ‘हाँ’ निकले तो वह अध्यक्ष चुना जाना चाहिए, इत्यादि। यद्यपि पदाधिकारियों का चुनाव इस प्रकार होना चाहिए तथापि मेरा यह प्रस्ताव है कि इस वर्ष राखाल अध्यक्ष, तुलसी (स्वामी निर्मलानन्द) मन्त्री और कोषाध्यक्ष, गुप्ता (स्वामी सदानन्द) पुस्तकालयाध्यक्ष बनाये जायें, और शशी (स्वामी रामकृष्णानन्द), काली (स्वामी अभेदानन्द), हरि (स्वामी तुरीयानन्द) और सारदा (स्वामी त्रिगुणातीतानन्द) शिक्षा और प्रचार के काम का बारी-बारी से भार उठायें, इत्यादि।
निःसन्देह ही एक पत्रिका आरम्भ करने का सारदा का विचार उत्तम है। परन्तु मैं उसे स्वीकार तब करूँगा जब तुम सब लोग मिलकर उसे चला सको।
मतों आदि के बारे में मुझे यही कहना है कि यदि कोई श्रीरामकृष्णदेव को अवतार आदि स्वीकार करे तो अच्छा है, यदि न करे तो भी ठीक ही है। परन्तु सच बात तो यह है कि चरित्र के विषय में श्रीरामकृष्णदेव सब से आगे बढ़े हुए हैं। उनके पहले जो अवतारी महापुरुष हुए हैं उनसे वे अधिक उदार, अधिक मौलिक और अधिक उन्नतिशील थे। अर्थात् प्राचीन आचार्य एकदेशीय थे, परन्तु इस नये अवतार या आचार्य की शिक्षा यह है कि योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म के सर्वोच्च भावों का सम्मिलन होना चाहिए जिससे एक नये समाज का निर्माण हो सके। . . . प्राचीन आचार्य निःस्सन्देह अच्छे थे परन्तु यह इस युग का नया धर्म है – अर्थात् योग, ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय – आयु और लिंगभेद के बिना, पतित से पतित तक में ज्ञान और भक्ति का प्रचार। पहले के अवतार ठीक थे, परन्तु श्रीरामकृष्ण के व्यक्तित्व में उनका समन्वय हो गया है। साधारण मनुष्य और नव-सिखिये के लिए आदर्श में निष्ठा होनी विशेष महत्वपूर्ण है। अर्थात् उन्हें यह सिखाओ कि यद्यपि सब महापुरुषों का यथोचित आदर करना चाहिए, तथापि अब श्रीरामकृष्ण की उपासना होनी चाहिए। दृढ़ निष्ठा के बिना पौरुष नहीं हो सकता। उसके बिना हनुमान जैसी शक्ती से कोई उपदेश नहीं कर सकता। फिर, पिछले महापुरुष अब कुछ प्राचीन हो चले हैं। अब नवीन भारत है जिसमें नवीन ईश्वर, नवीन धर्म और नवीन वेद हैं। हे भगवान, भूतकाल पर निरन्तर ध्यान लगा रखने की आदत से हमारा देश कब मुक्त होगा? अच्छा, अपने मत में थोड़ी कट्टरता भी आवश्यक है। परन्तु दूसरों की ओर हमें विरोध-भाव नहीं रखना चाहिए।
यदि तुम मेरे विचारों पर चलना विवेकयुक्त्त समझो, और यदि तुम इन नियमों का पालन करो, तो मैं तुम्हें पर्याप्त धन देता रहूँगा। . . . कृपया यह पत्र गौरी माँ, योगेन माँ आदि को दिखा देना और उनके द्वारा स्त्रियों का मठ स्थापित करवाना। एक वर्ष के लिए गौरी माँ को उसका अध्यक्ष बनने दो। . . . परन्तु तुममें से किसी को वहाँ नहीं जाना चाहिए। वे अपना कार्य स्वयं सम्हालें। तुम्हारे आदेश पर उन्हें काम नहीं करना है। मैं उस काम के लिए भी आवश्यक धन दूँगा।
भगवान तुम्हें उचित राह पर चलायें! दो व्यक्ति भगवान जगन्नाथ के दर्शन को गये। एक ने तो वहाँ जाकर भगवान को ही देखा, परन्तु दूसरे ने देखी वही गन्दगी जो उसके स्वयं के मन में व्याप्त थी।
मेरे मित्रों, निःसन्देह ही गुरुदेव की सेवा अनेकों ने की, परन्तु जब किसी के मन में अपने को असाधारण समझने का भाव जाग्रत हो, तब उसे यह समझना चाहिए कि यद्यपि उसने श्रीरामकृष्ण का सत्संग किया है, तथापि सच बात तो यह है कि उसने अपने मन की वाहियात बातें ही देखीं। यदि ऐसा न होता तो वह कुछ अच्छे परिणाम दिखाता। गुरुदेव स्वयं हमेशा कहते थे, “वे भगवान के नाम में नाचते और गाते थे परन्तु अन्त उनका दुःखदायी होता था।” इस अधोगति का मूल अहंकार है – यह सोचना कि हम दुसरों के समान महापुरुष हैं। कोई कहेगा, “वे (गुरुदेव) मुझसे भी प्रेम करते थे।” हाय, घसीटाराम, तब क्या तुम्हारा ऐसा रूपान्तर होता? क्या ऐसा मनुष्य दूसरे से डाह करता या लड़ता और अपने आप को गिरा देता? यह याद रखो कि उनकी कृपा से बहुतसे आदमी देवताओं की महिमा प्राप्त करेंगे – जहाँ कहीं उनकी कृपादृष्टी पड़ेगी वहाँ यही परिणाम दिखायी देगा। . . . आज्ञापालन पहला धर्म है। अब जो मैं तुमसे कहता हूँ उसे उत्साहपूर्वक करो। मैं देखूँ कि यह छोटे-छोटे काम तुम कैसे करते हो। फिर धीरे-धीरे बड़े काम होंगे।
तुम्हारा,
नरेन्द्र
पु. – कृपया यह पत्र सब को पढ़कर सुनाओ और मुझे लिखो कि यह प्रस्ताव व्यवहार में लाना तुम उचित समझते हो या नहीं। कृपया राखाल से कहना कि जो सबका दास होता है वही उनका सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच-नीच का विचार होता है वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच-नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता उसके चरणों में सारा संसार लोट लगाता है।
नरेन्द्र
(५४)
(कु. अलबर्टा स्टर्जिस को लिखित ?)
६३, सेन्ट जार्जेस रोड, लन्दन,
मई, १८९६
प्रिय बहन,
पुनः लन्दन आ पहुँचा हूँ। इस समय इंग्लैण्ड की आबहवा अत्यन्त सुन्दर तथा शीतप्रधान है। घर के अन्दर ‘अग्निकुण्ड’ में अग्नि रखना पड़ता है। तुमको यह मालूम होना चाहिए कि इस बार हमें रहने के लिए एक पूरा मकान मिला है। यद्यपि मकान छोटा है फिर भी उसमें सब तरह की सुविधाएँ हैं। लन्दन में मकान का किराया अमेरिका की तरह अधिक नहीं है, शायद तुम्हें यह मालूम होगा। तुम्हारी माताजी के बारे में मैं सोच रहा था। अभी अभी मैंने उनको एक पत्र लिखकर उसे द्वारा मनरो एण्ड कम्पनी, नं. ७ रुये स्क्रिब, पैरिस इस पते पर रवाना किया है। यहाँ पर मेरे कुछ एक पुराने मित्र भी हैं। कुमारी मैकलाउड हाल ही में यूरोप का भ्रमण कर लन्दन वापिस आयी हैं। उनका स्वभाव स्वर्ण जैसा विशुद्ध है, उनके स्नेहमय हृदय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। हम इस मकान में एक छोटे सीमित परिवार के रूप में हैं; हमारे साथ भारत से आये हुए एक संन्यासी भी हैं। ‘बेचारा हिन्दु’ कहने का जो तात्पर्य है, वह इन्हें देखने से स्पष्ट हो जाता है। मानो सदा ही ध्यानस्थ हैं, अत्यन्त नम्र तथा मधुर स्वाभाव के हैं। मुझमें जैसा एक अदम्य साहस तथा घोर कर्मतत्परता विद्यमान है, उनमें उसका सर्वथा अभाव है। उस तरह से काम नहीं चल सकता। मै उनमें कुछ कर्मशीलता लाना चाहता हूँ। अभी मेरे ‘क्लासों’ के दो अधिवेशन चालू हैं। चार-पाँच महीने तक यही क्रम जारी रहेगा – फिर भारत रवाना होना है; किन्तु मेरा हृदय यांकियों में ही पड़ा हुआ है – मैं यांकियों के देश को पसन्द करता हूँ। मैं सब कुछ नवीन देखना चाहता हूँ। पुरातन ध्वंसावशेष के चारों ओर आलसी की तरह चक्कर लगाकर अतीत इतिहासों को लेकर सारा जीवन हाय हाय कर तथा प्राचीनकाल के लोगों की बातें चिन्तन कर निराशा के दीर्घश्वास छोड़ने के लिए मैं कतई तैयार नहीं हूँ। मेरे खून में जो जोश है, उसके कारण ऐसा करना मेरे लिए सम्भव नहीं। समस्त भावनाओं को प्रकाश में लाने के लिए उपयुक्त स्थान, पात्र तथा सुयोग-सुविधाएँ एकमात्र अमेरिका में ही हैं। और मैं भी आमूलचूल परिवर्तन का घोर पक्षपाती बन चुका हूँ। मैं शीघ्र ही भारत लौटना चाहता हूँ, मैं यह देखना चाहता हूँ कि परिवर्तनविरोधी ‘जेली’ मछली की तरह शिथिल उस विराट् पुंज के लिए मुझसे कुछ हो सकता है या नहीं? मैं उन प्राचीन संस्कारों को दूर हटाकर नवीन रूप से प्रारम्भ करना चाहता हूँ – एक सम्पूर्ण नवीन, सरल किन्तु साथ ही साथ सबल-सद्योजात शिशु की तरह नवीन तथा सतेज। प्राचीन जो भी कुछ हैं, उन्हें दूर हटा दो – नये सिरे से प्रारम्भ करो। जो असीम, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ तथा सनातन हैं, वे व्यक्तिविशेष नहीं हैं – तत्त्वमात्र हैं। तुम, हम, तथा और सभी कोई उस तत्त्व के बाह्य प्रतिरूपमात्र हैं। इस अनन्त तत्त्व का विकास जिन व्यक्तियों में जितना अधिक है वे उतने ही अधिक महान् हैं; अन्त में सभी को उसकी पूर्ण प्रतिमूर्ति बनना पड़ेगा; इस प्रकार यद्यपि इस समय सभी लोग स्वरूपतः एक ही हैं, फिर भी उस समय वास्तव में सभी एक हो जायेंगे। इसके सिवाय धर्म और कुछ पृथक् वस्तु नहीं है। इस एकत्व का अनुभव अथवा प्रेम ही उसका साधन है। प्राचीनकाल के निर्जीव अनुष्ठान एवं ईश्वर-सम्बन्धी विविध धारणाएँ पुरातन कुसंस्कार मात्र हैं। वर्तमान समय में उनको बनाये रखने की सार्थकता ही क्या है? जीवन तथा सत्य की नदी जब अपने निकट ही प्रवाहित हो रही है। तब तृषातुर लोगों को नालियों का गन्दा पानी पिलाने की आवश्यकता ही क्या है? मानवसुलभ स्वार्थपरता के सिवाय यह और कुछ नहीं है। प्राचीन संस्कारों का निरन्तर समर्थन करता हुआ मैं हैरान हो चुका हूँ। मुझे अब यह स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि दुर्गन्धपूर्ण तथा मरणोन्मुख उन भावनाओं के समर्थन के लिए अपनी शक्ति के एक विराट् अंश को मैंने आज तक व्यर्थ ही में नष्ट कर डाला है। जीवन क्षणस्थायी है और समय भी शीघ्रगति से अग्रसर हो रहा है। जिस स्थान तथा पात्र में भावनाएँ सरलता के साथ कार्य में परिणत हो सकती हों, प्रत्येक व्यक्ति को उसी स्थान तथा पात्र का निर्वाचन कर लेना चाहिए। काश! यदि साहसी, उदार, महान तथा निष्कपट हृदय के बारह व्यक्ति भी प्राप्त होते!
मैं यहाँ पर अच्छी तरह से हूँ एवं अपने जीवन का भलीभाँति उपभोग कर रहा हूँ मेरी आन्तरिक प्रीति ग्रहण करना। इति।
भवदीय,
विवेकानन्द
(५५)
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
६३ सेण्ट जार्जेस रोड, लन्दन,
७ जून, १८९६
प्रिय कुमारी नोबल,
मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़ेसे शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है – मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना।
यह संसार कुसंस्कारों की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है। जो अत्याचार से दबे हुए हैं, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, मैं उन पर दया करता हूँ, परन्तु अत्याचारियों पर मेरी दया अधिक है।
एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत् को प्रकाश कौन देगा? भूतकाल में बलिदान का नियम था, और दुःख है कि युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों को और सर्वश्रेष्ठों को ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ो बुद्धों की आवश्यकता है।
संसार के धर्म प्राणहीन और तिरस्कृत हो गये हैं। जगत् को जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है चरित्र। संसार को ऐसे लोग चाहिए जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम एक-एक शब्द को वज्र के समान प्रभावशाली बना देगा।
मेरी दृढ़ धारणा है कि तुममें कुसंस्कार नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है जो संसार को हिला सकती है, धीरे धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। ‘वीर’ शब्द और उससे अधिक ‘वीर’ कर्मों की हमें आवश्यकता है। महामना, उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या आप सो सकती हैं? हम बार-बार पुकारें जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान् कर्म क्या है? चलते-चलते मुझे भेदप्रभेद-सहित सब बातें ज्ञात हो जाती हैं। मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्य-संकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ, जागो, जागो!
अनन्तकाल के लिए तुम्हें मेरा आशीर्वाद। इति।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द
(५६)
(फ्रैन्सिस लेगेट को लिखित)
६३, सेन्ट जार्जेस रोड,
लन्दन, दक्षिण-पश्चिम,
६ जुलाई, १८९६
प्रिय फ्रैन्सिस,
. . . ऐटलान्टिक महासागर के इस पार मेरा कार्य बहुत अच्छी रीति से चल रहा है।
मेरी रविवार की वत्तृताएँ बहुत सफल हुरिअं। काम का मौसम खतम हो चुका है और मैं भी बहुत थका हुआ हूँ। अब मैं कुमारी मूलर के साथ स्वित्जरलैण्ड की सैर के लिए जा रहा हूँ। गाल्सवर्दी परिवार ने मेरे साथ बड़ा सदय व्यवहार किया है। जो (Joe) बड़ी चतुरता से उन्हें मेरी तरफ लायीं। उनकी चतुरता और शान्तिपूर्ण कार्यशैली की मैं मुक्त्तकण्ठ से प्रशंसा करता हूँ। वे एक राजनीतिज्ञ कुशल महिला कही जा सकती हैं। वे एक राज्य चला सकती हैं। मनुष्य में ऐसी प्रखर परन्तु शुद्ध बुद्धि मैंने बिरले ही देखी है। अगली शरद्-ऋतु में मैं अमेरिका लौटूँगा और वहाँ का कार्य फिर आरम्भ करूँगा।
परसों रात को मैं श्रीमती मार्टिन के यहाँ एक पार्टी में गया था। इनके सम्बन्ध में तुमने अवश्य ही जो (Joe) से बहुत कुछ सुना होगा।
इंग्लैण्ड में मेरा कार्य चुपके से, पर निश्चित रूप से बढ़ रहा है। यहाँ के प्रायः आधे स्त्री-पुरुषों ने मेरे पास आकर मेरे कार्य के सम्बन्ध में आलोचना की है। ब्रिटिश साम्राज्य के कितने ही दोष क्यों न हों, पर भाव-प्रचार का ऐसा उत्कृष्ट यन्त्र अब तक कहीं नहीं हुआ है। मैं इस यन्त्र के केन्द्रस्थल में अपने विचार रख देना चाहता हूँ, बस तभी वे सारी दुनिया में फैल जायँगे। यह सच है कि सभी बड़े काम बहुत धीरे-धीरे होते हैं, और उनकी राह में असंख्य विघ्न उपस्थित होते हैं – विशेषकर इसलिए कि हम हिन्दू पराधीन जाति हैं। परन्तु इसी कारण से हमें सफलता अवश्य मिलेगी, क्योंकि आध्यात्मिक आदर्शसमूह सदा पद-दलित जातियों में से ही पैदा हुए हैं। यहूदियों ने अपने आध्यात्मिक आदर्शों से रोमसाम्राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया था। तुम्हें यह सुनकर प्रसन्नता होगी कि मैं भी दिनोंदिन धैर्य, और विशेषकर सहानुभूति के सबक सीख रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि महामहिम एएंग्लोइण्डियनों तक के भीतर मैं परमात्मा को प्रत्यक्ष कर रहा हूँ। मेरा ख्याल है कि मैं धीरे धीरे उस अवस्था की ओर बढ़ रहा हूँ जहाँ खुद शैतान को भी – अगर वह हो तो – मैं प्यार कर सकूँगा।
बीस वर्ष की अवस्था में मैं ऐसा असहिष्णु और कट्टर था कि किसी से सहानुभूति नहीं कर सकता था। कलकत्ते में रास्तों के जिस किनारे पर थिएटर हैं, उस किनारे से ही नहीं चलता था। अब तैंतीस वर्ष की उम्र में मैं वेश्याओं के साथ एक ही मकान में ठहर सकता हूँ – उनसे तिरस्कार का एक शब्द कहने का विचार भी मेरे मन में नहीं आयगा। क्या यह अधोगति है? अथवा मेरा हृदय बढ़ता हुआ मुझे उस अनन्त प्रेम की ओर ले जा रहा है जो साक्षात् भगवान् है? लोग कहते हैं कि वह मनुष्य जो अपने चारों ओर होनेवाली बुराइयों को नहीं देख पाता, अच्छा काम नहीं कर सकता – वह एक तरह का अदृष्टवादी (Fatalist) बना बैठा रहता है। मैं तो ऐसा नहीं देखता हूँ। वरन् मेरी कार्य करने की शक्ति प्रचण्ड वेग से बढ़ रही है और साथ ही असीम सफलता भी मिल रही है। कभीकभी मुझे एक प्रकार का भावावेश होता है। मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं जगत् के सभी प्राणियों और वस्तुओं को आशीर्वाद दूँ – सभी वस्तुओं से प्रेम करूँ और गले लगा लूँ। और मैं यह भी देखता हूँ कि पाप एक भ्रन्ति मात्र है। प्रिय फ्रैन्सिस, इस समय मैं उसी दशा में हूँ और मेरे प्रति तुम्हारे तथा श्रीमती लेगेट के प्रेम और सहानुभूति का स्मरण कर मैं सचमुच आनन्द के आँसू बहा रहा हूँ। मैं जिस दिन इस पृथ्वी में पैदा हुआ था उस दिन को धन्यवाद देता हूँ। यहाँ पर मुझे कितनी सहानुभुति, कितना प्रेम मिल गया है! और जिस अनन्त प्रेमस्वरूप ने मुझे जन्म दिया है, उसने मेरे भले और बुरे (बुरे शब्द से डरो मत) हरएक काम पर दृष्टि रखी है – क्योंकि मैं उसी के हाथ के एक यन्त्र के सिवा और हूँ ही क्या, और रहा ही क्या? उसी की सेवा के लिए मैंने अपना सब कुछ – अपने प्रियजनों को, अपना सुख, अपना जीवन – त्याग दिया है। वह मेरा खिलाड़ी परम-प्रेमास्पद है – और मैं उसके खेल का साथी हूँ। इस प्रपंच में कोई युक्ति-परिपाटी नहीं है। ईश्वर पर भला किस युक्ति का वश चलेगा? वह तो लीलामय है – इस जगत्नाट्य के सभी अंशों में वह इस तरह हँसी और रूलाई का अभिनय कर रहा है। जो (Joe) जैसा कहती हैं – बड़ा तमाशा है! बड़ा तमाशा है!
यह दुनिया बड़े मजे की जगह है, और सब से मजेदार आदमी है – वह अनन्त प्रेमास्पद प्रभु। क्या यह खूब तमाशा नहीं है? सब एक दूसरे के भाई हों या खेल के साथी ही, पर वास्तव में हैं ये मानो पाठशाला के हल्ला मचानेवाले बच्चे जो कि इस संसाररूपी मैदान में खेलकूद करने के लिए छोड़ दिये गये हैं। बस यही है न? किसकी तारीफ करूँ और किसे बुरा कहूँ – सब तो उसी का खेल है। लोग इस प्रपंच की व्याख्या चाहते हैं – पर ईश्वर की व्याख्या तुम कैसे करोगे? उसके न दिमाग है, न युक्त्ति। वह हम सभी को छोटे छोटे दिमाग और छोटीसी विचार-शक्ति देकर धोखा दे रहा है, पर अब की बार वह मुझे धोखा न दे सकेगा।
मैंने दो एक बातें सीख ली हैं। वह यह कि भाव, प्रेम और प्रेमास्पद – ये सब युक्ति-विचार, पाण्डित्य और वागाडम्बर के बहुत परे हैं। साकी! प्रेम का प्याला भर दो, हम उसे पीकर मस्त हो जायँ।
तुम्हारा ही प्रेमोन्मत्त,
विवेकानन्द
(५७)
(श्री जे. जे. गुडविन को लिखित)
स्वित्जरलैण्ड,
८ अगस्त, १८९६
प्रिय गुडविन,
मैं अब विश्राम कर रहा हूँ। भिन्न-भिन्न पत्रों से मैं कृपानन्द के विषय में बहुत कुछ पढ़ता हूँ। मुझे उसके लिए दुःख होता है। उसके मस्तिष्क में कुछ दोष होगा। उसे अकेला छोड़ दो। तुममें से किसी को भी उसके लिए कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं।
मुझे आघात पहुँचाने की देव या दानव किसी की भी शक्ति नहीं है। इसलिए निश्चिन्त रहो। अचल प्रेम और पूर्ण निःस्वार्थ भाव की ही सर्वत्र विजय होती है। प्रत्येक कठिनाई के आने पर हम वेदान्तियों को स्वतः यह प्रश्न करना चाहिए “मैं इसे क्यों देखता हूँ?” “प्रेम से मैं क्यों नहीं इस पर विजय पा सकता हूँ?”
– स्वामी का जो स्वागत किया गया उससे मैं अति प्रसन्न हूँ और वे जो अच्छा कार्य कर रहे हैं उससे भी। बड़े काम में बहुत समय तक लगातार और असामान्य प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। यदि थोड़ेसे व्यक्ति असफल भी हो जायँ तो भी उसकी चिन्ता हमे नहीं करनी चाहिए। संसार में यह नियम ही है कि अनेकों नीचे गिरते हैं, कितने ही दुःख आते हैं, तथा कितनी ही भयंकर कठिनाइयाँ सामने उपस्थित होती हैं एवं स्वार्थपरता तथा अन्य बुराइयों के साथ हृदय में घोर संघर्ष होता हैं जब कि आध्यात्मिकता की प्रज्वलित अग्नि की आँच से इन सभी का विनाश होनेवाला होता है। इस जगत् में श्रेय का मार्ग सब से दुर्गम और पथरीला है। यह आश्चर्य की बात है कि इतने लोग सफलता प्राप्त करते हैं, कितने लोग असफल होते हैं यह आश्चर्य नहीं। सहस्रों ठोकरें खाकर चरित्र का संगठन होता है।
मुझे अब बहुत ताजगी मालूम होती है। मैं खिड़की से बाहर दृष्टि डालता हूँ और मुझे बड़ी-बड़ी हिमनदियाँ दिखती हैं और मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं हिमालय में हूँ। मैं बिलकुल शान्त हूँ। मेरे स्नायुओं ने अपनी पुरानी शक्ति पुनः प्राप्त कर ली है, और मन को उद्विग्न करनेवाले क्लेश जैसे कि तुमने लिखे हैं मुझे स्पर्श भी नहीं करते। यह सब संसार बालकों का खेल मात्र है, उससे मैं कैसे विचलित हो सकता हूँ? प्रचार करना, शिक्षा देना सभी कुछ बच्चों का खेल हैं। “ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।” – उसे संन्यासी समझो जो न द्वेष करता है, न इच्छा करता है। और इस संसार की छोटीसी कीचड़भरी तलैया में, जहाँ दुःख, रोग तथा मृत्यु का चक्र निरन्तर चलता रहता है, वहाँ क्या है जिसकी इच्छा की जा सके? “त्यागात् शान्तिरनन्तरम्” – जिसने सब इच्छाओं को त्याग दिया है वही सुखी है।
यह विश्राम – नित्य और शान्तिमय विश्राम – इस रमणीक स्थान में उसकी झलक मुझे मिल रही है। “आत्मानं चेद् विजानीयात् अयमस्मीति पूरुषः। किमिच्छन् कस्य कामाय शरीर मनुसंज्वरेत्।” – एक बार यह जानकर कि इस आत्मा का ही केवल अस्तित्व है और किसी का नहीं, किस चीज की या किसके लिए इच्छा करके तुम इस शरीर का दुःख उठाओगे?
मुझे ऐसा विदित होता है कि जिसको वे लोग “कर्म” कहते हैं उसका मेरा अपना हिस्सा अब पूरा हो चुका है। अब निकलने की मुझे उत्कट अभिलाषा है। “मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।” – “सहस्रों में से कोई एक लक्ष्य को प्राप्त करने का यत्न करता है। और परम उद्योगी भी होते हैं उनमें से थोड़े ही ध्येय तक पहुँचते हैं।” “इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।” – क्योंकि इन्द्रियाँ बलवती हैं और वे मनुष्य को नीचे की ओर खींचती है।
“साधु संसार” “सुखी जगत” और “सामाजिक उन्नति” ये सब “उष्ण बरफ” और “अन्धकारमय प्रकाश” के समान ही हैं। यदि संसार साधु होता तो वह संसार ही न होता। जीव मूर्खतावश असीम अनन्त को सीमित भौतिक पदार्थ द्वारा अभिव्यक्त्त करना चाहता है, और चैतन्य को जड़ द्वारा; परन्तु अन्त में अपने भ्रम को समझकर वह उससे छुटकारा पाने की चेष्टा करता है। यह निवृत्ति ही धर्म का प्रारम्भ है और उसका उपाय है ममत्व का नाश अर्थात् प्रेम। स्त्री, सन्तान या किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रेम नहीं परन्तु इस छोटेसे ममत्व को छोड़कर सब के लिए प्रेम। वह “मानवी उन्नति” और इसके समान जो लम्बी-चौड़ी बातें तुम अमेरिका में बहुत सुनोगे उनसे कभी ठगे मत जाना। सभी दिशाओं में सांसारिक ‘उन्नति’ कभी नहीं हो सकती, उसके साथ साथ कहीं न कहीं अवनति होगी ही। एक समाज में एक प्रकार के दोष हैं तो दुसरे में दूसरे प्रकार के। इसी तरह इतिहास के विशिष्ट कालों में मध्यकाल (Middle Age) में चोर-डाकू अधिक थे, अब छल-कपट करनेवाले अधिक हैं। एक विशिष्ट काल में वैवाहिक जीवन का विचार कम होता है, दुसरे में वेश्या वृत्ति अधिक होती है। एक में ज्यादा शारीरिक कष्ट, दूसरे में उससे सहस्रगुना अधिक मानसिक यातनाएँ। इसी प्रकार ज्ञान भी। क्या प्रकृति में गुरुत्वाकर्षण का निरीक्षण और नाम रखने से पहले उसका अस्तित्व ही न था? फिर उसके जानने से क्या अन्तर पड़ा? क्या तुम रेड इण्डियन (उत्तर अमेरिका के प्राचीन निवासियों) से अधिक सुखी हो?
यह सब व्यर्थ है, निरर्थक है – इसे यथार्थ रूप से जानना ही ज्ञान है। परन्तु थोड़े, बहुत थोड़े ही कभी इसे जान पायेंगे। “तमेवैकं जानथ आत्मानम्, अन्यावाचो विमुंचथ” – उस एक आत्मा को ही जानो और सब बातों को छोड़ दो। इस संसार में ठोकरें खाने से इस एक ज्ञान की ही हमें प्राप्ति होती है। मनुष्य-जाती को पुकारना कि “जागो, उठो, और ध्येय की उपलब्धि के बिना रुको नहीं” – यही केवल एक कर्म है। त्याग ही धर्म का सार है, और कुछ नहीं।
जिस प्रकार मानवी शरीर एक व्यक्ति है और उसका प्रत्येक सूक्ष्म-भाग जिसे हम ‘कोश’ (Cell) कहते हैं एक एक अंश है उसी प्रकार सारे व्यक्तियों की समष्टि ईश्वर है, यद्यपि वह स्वयं भी एक व्यक्ति है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश जीव है। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का उसके सूक्ष्म-भाग पर और सूक्ष्म -भाग का शरीर पर। इस प्रकार, जीव और ईश्वर परस्परावलम्बी हैं। जब तक एक का अस्तित्व है तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब ऊँचे लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अत्यधिक होती है इसलिए वह समष्टिस्वरूप ईश्वर शिवस्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। ईश्वर से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाण करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं रहती।
ब्रह्म इन दोनों से परे है और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है। वह एक ऐसी वस्तु है जो अनेकों की समष्टि से नहीं बनी है। वह एक ऐसी सत्ता है जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म से लेकर ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता। सभी का अस्तित्व उसी सत्ता या ब्रह्म का प्रकाश मात्र है। जब मैं सोचता हूँ “मैं ब्रह्म हूँ” तब मेरा ही यथार्थ अस्तित्व होता है। ऐसा ही सब के बारे में है। विश्व की प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः वही सत्ता है।
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
(५८)
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
ल्यूकर्नि, स्वित्जरलैण्ड,
२३ अगस्त, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
आपका अन्तिम पत्र मुझे कल मिला; आपने भेजे हुए ५०० पौण्ड की रसीद अब तक आपको मिल चुकी होगी। आपने जो सदस्य होने की बात लिखी है, उसे मैं ठीक ठीक नहीं समझ सका; फिर भी किसी समिति में मेरे नामोल्लेख के सम्बन्ध में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु इस विषय में स्टर्डी का क्या अभिमत है, मैं नहीं जानता हूँ। मैं इस समय स्वित्जरलैण्ड में घूम रहा हूँ। यहाँ से मैं जर्मनी जाऊँगा, बाद में इंग्लैण्ड जाना है तथा अगले जाड़े में भारत। यह जानकर कि सारदानन्द तथा गुडविन अमेरिका में अच्छी तरह से प्रचार-कार्य चला रहे हैं, मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मेरी अपनी बात तो यह है कि किसी कार्य के प्रतिदानस्वरूप मैं उस ५०० पौण्ड पर अपना कोई हक कायम करना नहीं चाहता। मैं तो यह समझता हूँ कि मैंने बहुत-कुछ परिश्रम किया है। अब मैं अवकाश लेना चाहता हूँ। मैंने भारत से और भी एक व्यक्ति माँगा है; आगामी माह में वे मेरे समीप आ पहुँचेंगे। मैंने कार्य प्रारम्भ कर दिया है, अब दूसरे लोग उसका संचालन करें। आपको तो यह पता है कि कार्य को चालू करने के लिए आर्थिक विषयों के सम्पर्क में आने के कारण मुझे मलिन होना पड़ा है। अब मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मेरा कर्तव्य समाप्त हो चुका है। वेदान्त अथवा जगत् के अन्य किसी दर्शन, यहाँ तक कि उस कार्य के प्रति भी अब मेरा कोई आकर्षण नहीं है। मैं प्रस्थान करने के लिए प्रस्तुत हो रहा हूँ – इस जगत् में, इस नरक में, मैं लौटना नहीं चाहता। यहाँ तक कि इस कार्य के द्वारा होनेवाले आध्यात्मिक उपकार के प्रति भी दिनोंदिन मेरी अरूचि होती जा रही है। मैं चाहता हूँ कि माँ मुझे शीघ्र ही अपने पास बुला लें! फिर कभी मुझे लौटना न पड़े!
इन सब कार्यों को सम्पादन करना तथा उपकार करना आदि चित्तशुद्धि के साधन मात्र हैं। मेरे लिए वह पर्याप्त रूप में हो चुका है। जगत् चिरकाल, अनन्तकाल तक जगत् ही रहेगा। हम लोगों में जो जैसे हैं, वैसे ही वे उसे देखते हैं। कौन कार्य करता है और किसका कार्य है? जगत् नामक कोई भी वस्तु नहीं है – ये सब कुछ तो स्वयं भगवान् हैं। भ्रम से हम इसे जगत् कहते हैं। यहाँ पर न तो मैं हूँ और न तुम और न आप – एकमात्र वे ही हैं, प्रभु हैं – “एकमेवाद्वितीयम्”।
अतः रुपये-पैसों के बारे में अब से मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। जो कुछ भी है, सब आप लोगों का ही है; जैसे जैसे आप लोगो को रुपये मिलें, आप अपनी इच्छा के अनुसार खर्च करें। आप लोगों का कल्याण हो। इति।
आपका चिरविश्वस्त,
विवेकानन्द
(५९)
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
एयरली लॉज, रिजवे गार्डन्स
विम्बल्डन, इंग्लैण्ड,
१७ सितम्बर, १८९६
प्रिय बहन,
स्विट्जरलैण्ड में दो महीने तक पर्वतारोहण, पद-यात्रा और हिमनदों का दृश्य देखने के बाद आज लन्दन पहुँचा। इससे मुझे एक लाभ हुआ – शरीर का व्यर्थ का मुटापा छँट गया और वजन कुछ पौंड घट गया। ठीक, किन्तु उसमें भी खैरियत नहीं, क्योंकि इस जन्म में जो ठोस शरीर प्राप्त हुआ है, उसने अनन्त विस्तार की होड़ में मन को मात देने की ठान रखी है। अगर यह रवैया जारी रहा तो मुझे जल्द ही अपने शारीरिक रूप में अपनी व्यक्तिगत पहिचान खोनी पड़ेगी – कम से कम शेष सारी दुनिया की निगाह में।
हैरियट के पत्र के शुभ संवाद से मुझे जो प्रसन्नता हुई, उसे शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए असम्भव है। मैंने उसे आज पत्र लिखा है। खेद है कि उसके विवाह के अवसर पर मैं न आ सकूँगा, किन्तु समस्त शुभकामनाओं और आशीर्वादों के साथ मैं अपने ‘सूक्ष्म शरीर’ से उपस्थित रहूँगा। खैर, अपनी प्रसन्नता की पूर्णता के निमित्त मैं तुमसे तथा अन्य बहनों से भी इसी प्रकार के समाचार की अपेक्षा करता हूँ।
इस जीवन में मुझे एक बड़ी नसीहत मिली है, और प्रिय मेरी, मैं अब उसे तुम्हें बताना चाहता हूँ। वह है – ‘जितना ही ऊँचा तुम्हारा ध्येय होगा, उतना ही अधिक तुम्हें सन्तप्त होना पड़ेगा।’ कारण यह है कि ‘संसार में’ अथवा इस जीवन में भी आदर्श नाम की वस्तु की उपलब्धि नहीं हो सकती। जो संसार में पूर्णता चाहता है वह पागल है, क्योंकि वह हो नहीं सकती।
ससीम में असीम तुम्हें कैसे मिलेगा? इसलिए मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ कि हैरियट का जीवन अत्यन्त आनन्दमय और सुखमय होगा, क्योंकि वह इतनी कल्पनाशील और भावुक नहीं है कि अपने को मूर्ख बना ले। जीवन को सुमधुर बनाने के लिए उसमें पर्याप्त भावुकता है और जीवन की कठोर गुत्थियों को, जो प्रत्येक के सामने आती ही हैं, सुलझाने के लिए उसमें काफी समझदारी तथा कोमलता भी है। उससे भी अधिक मात्रा में वे ही गुण मैककिंडले में भी हैं। वह ऐसी लड़की है जो सर्वोत्तम पत्नी होने लायक है, पर यह दुनिया ऐसे मूढ़ों की खान है कि इने-गिने लोग ही आन्तरिक सौन्दर्य परख पाते हैं! जहाँ तक तुम्हारा और इसाबेल का सवाल है, मैं तुम्हें सच बताऊँगा और मेरी भाषा स्पष्ट है।
मेरी, तुम तो एक बहादुर अरब जैसी हो – शानदार और भव्य। तुम भव्य राजमहिषी बनने योग्य हो – शारीरिक दृष्टि से और मानसिक दृष्टि से भी। तुम किसी तेज-तर्राक, बहादुर और जोखिम उठानेवाले वीर पति की पार्श्ववर्ती बन कर चमक उठोगी; किन्तु प्रिय बहन, पत्नी के रूप में तुम खराब से खराब सिद्ध होगी। सामान्य दुनिया में जो आराम से जीवन व्यतीत करनेवाले, व्यावहारिक तथा कार्य के बोझ से पिसनेवाले पति हुआ करते हैं, उनकी तो तुम जान ही निकाल लोगी। सावधान, बहन, यद्यपि किसी उपन्यास की अपेक्षा वास्तविक जीवन में अधिक रूमानिअत है, लेकिन वह है बहुत कम। अतएव तुम्हें मेरी सलाह है कि जब तक तुम अपने आदर्शों को व्यावहारिक स्तर पर न ले आ सको, तब तक हरगिज विवाह मत करना। यदि कर लिया तो दोनों का जीवन दुःखमय होगा। कुछ ही महीनों में सामान्य कोटि के उत्तम, भले युवक के प्रति तुम अपना सारा आदर खो बैठोगी और तब जीवन नीरस हो जायगा। बहन आइसाबेल का स्वभाव भी तुम्हारे ही जैसा है। अन्तर इतना ही है कि किंडरगार्टन की अध्यापिका होने के नाते उसने धैर्य और सहिष्णुता का अच्छा पाठ सीख लिया है। सम्भवतः वह अच्छी पत्नी बनेगी।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक कोटि तो उन लोगों की है जो दृढ़ स्नायुओंवाले, शान्त तथा प्रकृति के अनुरूप आचरण करनेवाले होते हैं; वे अधिक कल्पनाशील नहीं होते, फिर भी अच्छे, दयालु, सौम्य आदि होते हैं। दुनिया ऐसे लोगों के लिए ही है – वे ही सुखी रहने के लिए पैदा हुए हैं। दूसरी कोटि उन लोगों की है जिनके स्नायु अधिक तनाव के हैं, जिनमें प्रगाढ़ भावना है, जो अत्यधिक कल्पनाशील हैं, सदा एक क्षण में बहुत ऊँचे चले जाते हैं और दूसरे क्षण नीचे उतर आते हैं – उनके लिए सुख नहीं। प्रथम कोटि के लोगों का सुख-काल प्रायः सम होता है और द्वितीय कोटि के लोगों को हर्ष विषाद के द्वन्द्व में जीवन व्यतीत करना पड़ता है। किन्तु इसी द्वितीय कोटि में ही उन लोगों का आविर्भाव होता है, जिन्हें हम प्रतिभासम्पन्न कहते हैं। इस हाल के सिद्धान्त में कुछ सत्य है कि ‘प्रतिभा एक प्रकार का पागलपन है।’
इस कोटि के लोग यदि महान् बनना चाहें तो उन्हें वारे-न्यारे की लड़ाई लड़नी होगी – युद्ध के लिए मैदान साफ करना पड़ेगा। कोई बोझ नहीं – न जोरू न जाँता, न बच्चे और न किसी वस्तु के प्रति आवश्यकता से अधिक आसक्त्ति। अनुरक्त्ति केवल एक ‘भाव’ के प्रति और उसीके निमित्त जीना-मरना। मैं इसी प्रकार का व्यक्ति हूँ। मैंने केवल वेदान्त का भाव ग्रहण किया है और ‘युद्ध के लिए मैदान साफ कर लिया है।’ तुम और आइसाबेल भी इसी कोटि में हो, परन्तु मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ, यद्यपि है यह कटु सत्य, कि ‘तुम लोग अपना जीवन व्यर्थ चौपट कर रही हो।’ या तो तुम लोग एक भाव ग्रहण कर लो, तन्निमित्त मैदान साफ कर लो और जीवन अर्पित कर दो; या सन्तुष्ट एवं व्यावहारिक बनो; आदर्श नीचा करो, विवाह कर लो एवं ‘सुखमय जीवन’ व्यतीत करो। या तो ‘भोग’ या ‘योग’ – सांसारिक सुख भोगो या सब त्याग कर योगी बनो। ‘एक साथ दोनों की उपलब्धि किसीको नहीं हो सकती।’ अभी या फिर कभी नहीं – शीघ्र चुन लो। कहावत है कि ‘जो बहुत सविशेष होता है, उसके हाथ कुछ नहीं लगता।’ अब सच्चे दिल से वास्तव में और सदा के लिए कर्म-संग्राम के लिए ‘मैदान साफ करने’ का संकल्प करो; कुछ भी ले लो, दर्शन या विज्ञान या धर्म अथवा साहित्य कुछ भी ले लो और अपने शेष जीवन के लिए उसीको अपना ईश्वर बना लो। या तो सुख ही लाभ करो या महानता। तुम्हारे और आइसाबेल के प्रति मेरी सहानुभूति नहीं, तुमने इसे चुना है न उसे। मैं तुम्हें सुखी – जैसा कि हैरियट ने ठीक ही चुना है – अथवा ‘महान्’ देखना चाहता हूँ। भोजन, मद्यपान, श्रृंगार तथा सामाजिक अल्हड़पन ऐसी वस्तुएँ नहीं कि जीवन को उनके हवाले कर दो – विशेषतः तुम, मेरी। तुम एक उत्कृष्ट मस्तिष्क और योग्यताओं में घुन लगने दे रही हो, जिसके लिए जरा भी कारण नहीं है। तुममें महान् बनने की महत्वाकांक्षा होनी चाहिए। मैं जानता हूँ कि तुम मेरी इन कटूक्त्तियों को समुचित भाव से ग्रहण करोगी, क्योंकि तुम्हें मालूम है कि मैं तुम्हें बहन कह कर जो सम्बोधित करता हूँ, वैसा ही या उससे भी अधिक तुम्हें प्यार करता हूँ। इसे बताने का मेरा बहुत पहले से विचार था और ज्यों ज्यों अनुभव बढ़ता जा रहा है, त्यों त्यों इसे बता देने का विचार हो रहा है। हैरियट से जो हर्षमय समाचार मिला, उससे हठात् तुम्हें यह सब कहने को प्रेरित हुआ। तुम्हारे भी विवाहित हो जाने और सुखी होने पर, जहाँ तक इस संसार में सुख सुलभ हो सकता है, मुझे बेहद खुशी होगी, अन्यथा मैं तुम्हारे बारे में यह सुनना पसन्द करूँगा कि तुम महान् कार्य कर रही हो।
जर्मनी में प्रोफेसर डॉयसन से मेरी भेंट मजेदार थी। मुझे विश्वास है कि तुमने सुना होगा कि वे जीवित जर्मन दार्शनिकों में सर्वश्रेष्ठ हैं। हम दोनों साथ ही इंग्लैंड आये और आज साथ ही यहाँ अपने मित्र से मिलने आये, जहाँ इंग्लैण्ड के प्रवास-काल में मैं ठहरनेवाला हूँ। संस्कृत में वार्तालाप उन्हें अत्यन्त प्रिय है और पाश्चात्य देशों में संस्कृत के विद्वानों में वे ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जो उसमें बातचीत कर सकते हैं। वह अभ्यस्त बनना चाहते हैं, इसलिए संस्कृत के सिवा अन्य किसी भाषा में वे मुझसे बातें नहीं करते।
यहाँ मैं अपने मित्रों के बीच आया हूँ, कुछ सप्ताह कार्य करूँगा और तब जाड़ों में भारत वापस लौट जाऊँगा।
तुम्हारा सदैव सस्नेह भाई,
विवेकानन्द
(६०)
(श्रीयुत आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
१४, ग्रेकोट गार्डेन्स,
वेस्टमिन्स्टर, लन्दन,
१८९६
प्रिय आलासिंगा,
लगभग तीन सप्ताह हुए मैं स्विट्जरलैम्ड से लौटा हूँ, पर इसके पूर्व तुम्हें पत्र न लिख सका। पिछली डाक से मैंने तुम्हें कील के पॉल डॉयसन पर लिखा एक लेख भेजा था। स्टर्डी की पत्रिका की योजना में अभी भी विलम्ब है। जैसा कि तुम जानते हो मैंने सेंट जार्ज रोड स्थिति मकान छोड़ दिया है। ३९, विक्टोरिया स्ट्रीट पर एक लेक्चर हॉल हमें मिल गया है। ई. टी. स्टर्डी के मार्फत भेजने पर चिट्ठी-पत्री मुझे एक साल तक मिल जाया करेगी। ग्रेकोट गार्डन्स के कमरे मेरे तथा मात्र तीन महीने के लिए आये हुए स्वामियों के आवास के लिए हैं। लन्दन में काम शीघ्रता से बढ़ रहा है और हमारी कक्षाएँ बड़ी होती जा रही हैं। इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं कि यह इसी रफ्तार से बढ़ता ही जायगा, क्योंकि अंग्रेज लोग दृढ़ एवं निष्ठावान हैं। यह सही है कि मेरे छोड़ते ही इसका अधिकांश तानाबाना टूट जायगा। कुछ घटित अवश्य होगा। कोई शक्तिशाली व्यक्ति इसे वहन करने के लिए उठ खड़ा होगा। ईश्वर जानता है कि क्या अच्छा है। अमेरिका में वेदान्त और योग पर बीस उपदेशकों की आवश्यकता है। पर ये उपदेशक और इन्हें यहाँ लाने के लिए धन कहाँ मिलेगा? यदि कुछ सच्चे और शक्तिशाली मनुष्य मिल जायें तो आधा संयुक्त राज्य इस वर्ष में जीता जा सकता है। वे कहाँ हैं? वहाँ के लिए हम सब अहमक हैं। र्स्वाथी, कायर, देश-भक्ति की केवल मुख से बकवास करनेवाले और अपनी कट्टरता तथा धार्मिकता के अभिमान से चूर!! मद्रासियों१ में अधिक स्फूर्ति और दृढ़ता होती है, परन्तु वहाँ हर मूर्ख विवाहित है। ओफ, विवाह! विवाह! विवाह! और फिर आजकल के विवाह का तरीका जिसमें लड़कों को जोत दिया जाता है! अनासक्त्त गृहस्थ होने की इच्छा करना बहुत अच्छा है, परन्तु मद्रास में अभी उसकी आवश्यकता नहीं है – बल्कि अविवाह की है . . .
वत्स, मैं जो चाहता हूँ वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु। उनके भीतर ऐसा मन वास करता हो, जो कि वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज! हमारे सुन्दर होनहार लड़के – उनके पास सब कुछ है यदि वे विवाह नाम की क्रूर वेदी पर लाखों की गिनती में बलिदान न किये जायें। हे भगवन्, मेरा हृदय विलाप करता है, उसे सुनो! मद्रास तभी जागृत होगा, जब उसके प्रत्यक्ष हृदय-स्वरूप सौ शिक्षित नवयुवक संसार को त्यागकर, और कमर कसकर, देश-देश में भ्रमण करते हुए सत्य का संग्राम लड़ने के लिए तैयार होंगे। भारत के बाहर का एक आघात भारत के अन्दर के एक लाख आघातों के बराबर है। खैर, सब चीजें होंगी, यदि प्रभु की इच्छा हो।
मिस मूलर ही वह व्यक्ति है जिनसे मैंने तुम्हें रुपये दिलाने का वचन दिया था। मैंने उन्हें तुम्हारे नये प्रस्ताव के विषय में बतला दिया है। वे उसके बारे में सोच रही हैं। इस बीच मैं सोचता हूँ उन्हें कुछ काम दे देना उचित रहेगा। उन्होंने ‘ब्रह्मवादिन्’ और ‘प्रबुद्ध भारत’ का प्रतिनिधि बनना स्वीकार कर लिया है। इसके विषय में क्या तुम उन्हें लिखोगे? उनका पता है : एयरली लॉज, रिजवे गार्डन्स, विम्बल्डन, इंग्लैण्ड। वहीं उनके साथ पिछले कई हफ्तों से मैं रह रहा था। लेकिन लन्दन का काम मेरे वहाँ रहे बिना संभव नहीं है। इसीलिए मैंने अपना आवास बदल दिया है। मुझे दुःख है कि इससे मिस मूलर की भावनाओं को थोड़ी ठेस पहुँची है। लेकिन किया ही क्या जा सकता है! उनका पूरा नाम है मिस हेनरियेटा मूलर। मैक्समूलर के साथ गाढ़ी मित्रा हो रही है। मैं शीघ्र ही ऑक्सफोर्ड में दो व्याख्यान देनेवाला हूँ।
मैं वेदान्त-दर्शन पर कुछ बड़ी चीज लिख रहा हूँ। भिन्न-भिन्न वेदों से मैं वाक्य संग्रह करने में लगा हूँ, जो कि वेदान्त की तीनों अवस्थाओं से सम्बन्ध रखते हैं। पहले अद्वैतवाद-सम्बन्धी विचार, फिर विशिष्टाद्वैत और द्वैत से जो वाक्य सम्बन्ध रखते हों वे संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराण में से किसी से संग्रह कराकर तुम मेरी सहायता कर सकते हो। वे श्रेणीबद्ध होने चाहिए, शुद्ध अक्षरों में लिखे जाने चाहिए और प्रत्येक के साथ ग्रन्थ और अध्याय के नाम उद्धृत होने चाहिए। दर्शनशास्त्र को पुस्तक रूप में परिणत किये बिना पश्चिम को छोड़ना दयनीय होगा।
तामिल अक्षरों में मैसूर से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसमें सब १०८ उपनिषदें सम्मिलित थीं। मैंने प्राध्यापक डायसन के पुस्तकालय में वह पुस्तक देखी थी। क्या वह देवनागरी अक्षरों में भी मुद्रित हुई है? यदि हो तो मुझे भी एक प्रति भेजना। यदि न हो तो मुझे तामिल संस्करण तथा एक कागज पर तामिल अक्षर और संयुक्त्ताक्षर लिखकर भेज देना। उसके साथ देवनागरी समानार्थक अक्षर भी लिख देना जिससे मैं तामिल अक्षर पहचानना सीख जाऊँ।
. . . श्रीयुत सत्यनाधन, जिनसे कुछ दिन हुए मैं लन्दन में मिला था, कहते थे कि ‘मद्रास मेल’ जो मद्रास का मुख्य एएंग्लो-इण्डियन समाचारपत्र है, उसने मेरी पुस्तक ‘राजयोग’ की अनुकूल समालोचना की है। मैंने सुना है कि अमेरिका के प्रधान शरीर-शास्त्रज्ञ मेरे विचारों पर मुग्ध हो गये हैं। उसके साथ ही इंग्लैण्ड में कुछ लोगों ने मेरे विचारों का परिहास किया है। यह ठीक ही है; क्योंकि यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मेरे विचार पूरे बेधड़क हैं – और बहुत कुछ उनमें से हमेशा के लिए अर्थहीन रहेंगे – परन्तु उनमें कुछ ऐसे संकेत भी हैं जिन्हें शरीर-शास्त्रज्ञों को शीघ्र ही ग्रहण कर लेना चाहिए। तथापि उसके परिणाम से मैं बिलकुल सन्तुष्ट हूँ! “वे चाहे मेरी निन्दा करें, परन्तु मेरी चर्चा करने दो” यह मेरा आदर्श वाक्य है। इंग्लैण्ड में बेशक भद्र लोग है और बेहूदी बातें नहीं करते, जैसा कि मैंने अमेरिका में पाया। और फिर इंग्लैण्ड के लगभग सभी मिशनरी भिन्नमतावलम्बी वर्ग के हैं। वे इंग्लैण्ड के भद्रजन र्वग से नहीं आते। यहाँ के सभी धार्मिक भद्रजन इंग्लिश चर्च को मानते हैं। उन भिन्नमतावलम्बियों की इंग्लैण्ड में कोई पूछ नहीं है और वे शिक्षित भी नहीं हैं। उनके बारे में मैं यहाँ कुछ भी नहीं सुनता, जिनके विषय में तुम मुझे बार बार आगाह करते हो। उनको यहाँ कोई नहीं जानता और यहाँ बकवास करने की उनको हिम्मत भी नहीं है। आशा है आर. के. नायडू मद्रास में ही होंगे और तुम कुशलपूर्वक हो।
. . . ऐ वीरहृदय बालकगण, अध्यवसायसम्पन्न होओ! हमने अभी कार्य आरम्भ ही किया है। निराश न होओ! कभी न कहो कि बस इतना काफी है! . . . जैसे ही मनुष्य पश्चिम में आकर दूसरे राष्ट्रों को देखता है, उसकी आँखे खुल जाती हैं। इस तरह मुझे दृढ़चेता कर्मवीर मिल जाते हैं – केवल बातों से नहीं, प्रत्यक्ष दिखाने से कि हमारे पास भारत में क्या है और क्या नहीं। मेरी इच्छा है कि कम से कम दस लाख हिन्दू पूरे संसार का भ्रमण करें!
प्रेमपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
(६१)
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१४ ग्रेकोट गार्डन्स,
वेस्टमिन्स्टर, लन्दन,
१ नवम्बर, १८९६
प्रिय मेरी,
“सोना और चाँदी मेरे पास किंचित् मात्र नहीं है, किन्तु जो मेरे पास हैं वह मैं तुम्हें मुक्त्तहस्त देने को तैयार हूँ।” – और वह यह ज्ञान है कि स्वर्ण का स्वर्णत्व, रजत का रजतत्व, पुरूष का पुरुषत्व, स्त्री का स्त्रीत्व, और सब वस्तुओं का सत्यस्वरूप परमात्मा ही है, और इस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए बाह्य जगत् में हम अनादि काल से प्रयत्न करते आ रहे हैं, और इस प्रयत्न में हम अपनी कल्पना की वस्तुओं को भी – जैसे कि पुरूष, स्त्री, बालक, शरीर, मन, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, तारे, प्रेम, द्वेष, धन सम्पति इत्यादि; और भूत, राक्षस, देवदूत, देवता, ईश्वर इत्यादि – त्याग रहे हैं।
सच तो यह है कि प्रभु हममें ही हैं, हम स्वयं प्रभु हैं – जो नित्य साक्षी, सच्चे ‘अहम्’ तथा अतीन्द्रिय हैं। उन्हें द्वैत भाव से देखने की प्रवृत्ति तो केवल समय और बुद्धि को नष्ट करना ही है। जब जीव को यह ज्ञान हो जाता है तब वह विषयों का आश्रय लेना छोड़ देता है और अन्तरात्मा की ओर अधिकाधिक प्रवृत्त होता है। यही क्रमविकास है अर्थात् अन्तर्दृष्टि का अधिकाधिक विकास एवं बहिर्दृष्टि का अधिकाधिक लोप। धर्म-शास्त्र में इसे ‘त्याग’ कहते हैं। समाज का निर्माण, विवाह की व्यवस्था, सन्तान का प्रेम, हमारे शुभ कर्म, शुद्धाचरण और नीतिशास्त्र ये सब त्याग के भिन्न भिन्न रूप हैं। सब समाजों में लोगों का जीवन संकल्प, वासना तथा भूखप्यास के दमन में ही निहित है।
इस स्वार्थ अथवा मिथ्या अहं के दमन, तथा एकमेवाद्वितीयम् नित्य साक्षीस्वरूप आत्मा को द्वैत भाव से देखने के प्रयत्न के निग्रह के भिन्न भिन्न रूप तथा उनकी अवस्थाएँ ही संसार के भिन्न भिन्न समाज एवं सामाजिक नियम हैं। आत्मसमर्पण तथा स्वार्थनिग्रह का सब से सरल उपाय है प्रेम तथा इसका विपरीत उपाय है द्वेष।
अनेक कथाएँ, स्वर्ग-नरक, तथा आकाश के परे राज्य करनेवाले शासकों के बारे में कुसंस्कार – आदि के द्वारा मनुष्य को भुलावे में डालकर उसे आत्मसमर्पण के लक्ष्य की ओर अग्रसर किया जाता है। इन सब कुसंस्कारों के बिना, तत्त्वज्ञानी केवल वासना के त्याग द्वारा ही जान-बुझकर इस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते हैं।
बाह्य स्वर्ग या राम-राज्य का अस्तित्व केवल कल्पना में ही है, परन्तु मनुष्य के भीतर इनका अस्तित्व पहले से ही है। कस्तूरी की सुगन्ध की व्यर्थ खोज करने के बाद, कस्तूरी-मृग अन्त में उसे अपने में ही पाता है।
बाह्य समाज सर्वदा शुभ और अशुभ का सम्मिश्रण होगा – बाह्य जीवन की अनुगामी उसकी छाया अर्थात् मृत्यु, सर्वदा उसके साथ रहेगी, और जीवन जितना लम्बा होगा उसकी छाया भी उतनी ही लम्बी होगी। केवल जब सूर्य हमारे सिर पर होता है तब कोई छाया नहीं होती। जब ईश्वर, भलाई और अन्य सब कुछ हममें ही हैं तो अशुभ कहाँ? परन्तु बाह्य जीवन में प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और हर शुभ के साथ अशुभ उसकी छाया की तरह जाता है। उन्नति में अधोगति का समान अंश रहता है, कारण यह है कि अशुभ और शुभ एक ही पदार्थ हैं, दो नहीं; भेद अभिव्यक्ति में है – मात्रा में, न कि जाति में।
हमारा जीवन स्वयं दूसरों की मृत्यु पर अवलम्बित है, चाहे वनस्पतियाँ हों, चाहे पशु, चाहे कीटाणु। एक बड़ी भारी भूल जो हम लोग बहुधा करते हैं वह यह कि शुभ को हम सदा बढ़नेवाली वस्तु समझते हैं और अशुभ को एक निश्चित राशि मानते हैं। इससे हम तर्क द्वारा सिद्ध करते हैं कि यदि अशुभ दिन-दिन घट रहा है तो एक समय ऐसा आयेगा जब शुभ ही अकेला शेष रह जायेगा। मिथ्या पूर्वपक्ष की स्वीकृति से हमारा तर्क अशुद्ध हो जाता है। यदि शुभ की मात्रा बढ़ रही है तो अशुभ की भी। मेरी जाति की जनता की अपेक्षा मेरी इच्छाएँ बहुत बढ़ गयी हैं। मेरा सुख उनसे अत्यधिक है – परन्तु मेरा दुःख भी उनसे लाखों गुना तीव्र है। जिस स्वभाव के कारण तुम्हें शुभ के स्पर्श-मात्र का आभास होता है उसी से तुम्हें अशुभ के स्पर्शमात्र का भी आभास होगा। जिन स्नायुओं द्वारा सुख का अनुभाव होता है उन्हीं के द्वारा दुःख का भी; और एक ही मन दोनों का अनुभव करता है। संसार की उन्नति का अर्थ है सुख की अधिक मात्रा और दुःख की भी। जीवन और मृत्यु, शुभ और अशुभ, ज्ञान और अज्ञान का सम्मिश्रण – यही ‘माया’ कहलाती है – यही है विश्व का नियम। तुम अनन्तकाल तक इस जाल में सुख और दुःख की खोज करोगे – तुम्हें बहुत सुख और बहुत दुःख दोनों मिलेंगे। यह कहना कि संसार में केवल शुभ ही हो, अशुभ नहीं, बालकों का प्रलाप मात्र है।
दो मार्ग हमें खुले मिलते हैं – एक तो सब प्रकार की आशा को छोड़कर संसार जैसा है वैसा स्वीकार कर दुःख की वेदना को सहन करें, इस आशा में कि कभी-कभी सुख का अल्पांश मिल जाया करेगा। दूसरा मार्ग यह कि यह जानते हुए कि सुख दुःख का एक दूसरा रूप है, सुख की खोज को हम त्याग दें तथा सत्य की खोज करें – और जो सत्य की खोज करने का साहस रखते हैं वे उसे नित्य वर्तमान पाते हैं, अपने में ही पाते हैं। फिर हमें यह भी पता लग जाता है कि वही सत्य किस प्रकार हमारे व्यावहारिक जीवन के भ्रम और ज्ञान दोनों रूपों में प्रकट हो रहा है – हमें यह भी पता लग जाता है कि वही सत्य ‘आनन्द’ है, जो शुभ और अशुभ दोनों रूपों में अभिव्यक्त्त हो रहा है। साथ ही हमें यह भी पता लग जाता है कि वही ‘सत्’ जीवन और मृत्यु दोनों रूपों में प्रकट हो रहा है।
इस प्रकार हम यह अनुभव करते हैं कि ये सब बातें उस एक अस्तित्व के – जो एकमेवाद्वितीय सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है, मेरा अन्तरात्मा है, जिसमें सब चीजों का अस्तित्व है – भिन्न भिन्न रूप मात्र हैं। तब और केवल तभी बिना बुराई के भलाई करना सम्भव होता है, क्योंकि ऐसी आत्मा ने उस पदार्थ को, जिससे कि शुभ और अशुभ दोनों का निर्माण होता है, जान लिया है और अपने वश में कर लिया है, और वह अपनी इच्छानुसार एक या दूसरे का विकास कर सकता है। हम यह भी जानते हैं कि वह केवल शुभ का ही विकास करता है। यही जीवन्मुक्ति है जो वेदान्त का और सब तत्त्वज्ञानों का अन्तिम लक्ष्य है।
मानवी समाज पर चारों वर्ण – पुरोहित, सैनिक, व्यापारी और मजदूर – बारी-बारी से राज्य करते हैं। हर अवस्था का अपना गौरव और अपना दोष होता है। जब ब्राह्मण का राज्य होता है तब जन्म के आधार पर भयंकर पृथकता रहती है – पुरोहित स्वयं और उनके वंशज नाना प्रकार के अधिकारों से सुरक्षित रहते हैं – उनके अतिरिक्त किसी को कोई ज्ञान नहीं होता – और उनके अतिरिक्त किसी को शिक्षा देने का अधिकार नहीं। इस विशिष्ट काल में सब विद्याओं की नींव पड़ती है, यह इसका गौरव है। ब्राह्मण मन को उन्नत करता है, क्योंकि मन द्वारा ही वह राज्य करता है।
क्षत्रिय-राज्य क्रूर और अन्यायी होता है, परन्तु उनमें पृथकता नहीं रहती और उनके काल में कला और सामाजिक शिष्टता उन्नति के शिखर पर पहुँच जाती है।
उसके बाद वैश्य-राज्य आता है। उनमें कुचलने की, और खून चूसने की मौन-शक्ति अत्यन्त भीषण होती है, उसका लाभ यह है कि व्यापारी सब जगह जाता है इसलिए वह पहली दोनों अवस्थाओं में एकत्रित किये हुए विचारों को फैलाने में सफल होता है। उनमें क्षत्रियों से भी कम पृथकता होती है परन्तु सभ्यता की अवनति आरम्भ हो जाती है।
अन्त में आयेगा मजदूरों का राज्य। उसका लाभ होगा भौतिक सुखों का समान वितरण – और उससे हानि होगी (कदाचित्) सभ्यता का निम्न स्तर पर गिर जाना। साधारण शिक्षा का बहुत प्रचार होगा, परन्तु असामान्य प्रतिभाशाली व्यक्ति कम होते जायेंगे।
यदि ऐसा राज्य स्थापित करना सम्भव हो जिसमें ब्राह्मण-काल का ज्ञान, क्षत्रिय-काल की सभ्यता, वैश्य-काल का प्रचार-भाव और शूद्र-काल की समानता रखी जा सके – उनके दोषों को त्यागकर तो वह आदर्श राज्य होगा। परन्तु क्या यह सम्भव है?
परन्तु पहले तीनों का राज्य हो चुका है। अब शूद्र-राज्य का काल आ गया है – वे अवश्य राज्य करेंगे, और उन्हें कोई रोक नहीं सकता। “सोने और चांदी के प्रमाप (Standard) रखने में क्या क्या कठिनाइयाँ हैं, मैं यह सब नहीं जानता, (और मैंने देखा है की कोई भी इस विषय में अधिक नहीं जानता) परन्तु मैं यह देखता हूँ कि स्वर्ण प्रमाप ने धनवानों को अधिक धनी तथा दरिद्रों को और भी अधिक दरिद्र बना दिया है। ब्रायन ने यह ठीक ही कहा था कि “सोने के भी क्रास पर हम लटकाये जाना पसन्द न करेंगे।” यदि चाँदी का प्रमाप हो जायेगा तो इस अ-समान युद्ध में गरीबों के पक्ष में कुछ बल आ जायेगा। मैं समाजवादी हूँ, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूँ, परन्तु इसलिए कि रोटी न मिलने से आधी रोटी ही अच्छी है।
और सब मतवाद काम में लाये जा चुके हैं और दोषयुक्त सिद्ध हुए हैं। इसकी भी अब परीक्षा होने दो – यदि और किसी कारण से नहीं तो उसकी नवीनता के लिए ही। सर्वदा उन्हीं व्यक्तियों को सुख और दुःख मिलने की अपेक्षा सुख-दुःख का बँटवारा करना अच्छा है। शुभ और अशुभ की समष्टि संसार में समान ही रहती है। नये मतवादों से वह भार कन्धे से कन्धा बदल लेगा, और कुछ नहीं। इस दुःखी संसार में सब को सुख-भोग का अवसर दो जिससे इस तथाकथित सुख के अनुभव के पश्चात् वे संसार, शासन-विधि और अन्य झंझटों को छोड़कर परमात्मा के पास आ सकें।
तुम सब को मेरा प्यार।
तुम्हारा एकनिष्ठ भाई,
विवेकानन्द
(६२)
(‘भारती’ की सम्पादिका श्रीमती सरला घोषाल को लिखित)
ॐ तत् सत्
रोज बैंक, बर्दवान राजभवन,
दार्जिलिंग,
६ अप्रैल, १८९७
मान्यवर महोदया,
आपके द्वारा प्रेषित ‘भारती’ की प्रति पाकर बहुत अनुगृहीत हूँ। जिस उद्देश्य के लिए मैंने अपना नगण्य जीवन अर्पित कर दिया है, उसके लिए आप जैसी गुणज्ञ महिलाओं का साधुवाद पाकर मैं अपने को धन्य समझता हूँ।
इस जीवन-संग्राम में ऐसे विरले ही पुरुष हैं, जो नये भावों के प्रवर्तकों का समर्थन करें, महिलाओं की तो बात ही दूर है। हमारे अभागे देश में यह बात विशेष रूप से देखने में आती है। अतएव बंगाल की एक विदुषी नारी से साधुवाद मिलने का मूल्य सारे भारत के पुरुष वर्ग की तुमूल प्रशंसा ध्वनि से कहीं बढ़कर है।
भगवान् करें, इस देश में आप जैसी अनेक महिलाएँ जन्म लें और स्वदेश की उन्नति में अपने जीवन का उत्सर्ग करें।
‘भारती’ पत्रिका में आपने मेरे सम्बन्ध में – जो लेख लिखा है, उसके विषय में मुझे कुछ कहना है जो यह है : भारत के मंगल के लिए ही पाश्चात्य देशों में धर्म प्रचार हुआ है और आगे भी होगा। यह मेरी चिर धारणा हैं कि पश्चिमी देशों की सहायता के बिना हम लोगों का अभ्युत्थान नहीं हो सकेगा। इस देश में न तो गुणों का सम्मान है और न आर्थिक बल, और सर्वाधिक शोचनीय बात है कि व्यावहारिकता लेश मात्र नहीं है।
इस देश में साध्य तो अनेक हैं, किन्तु साधन नहीं। मस्तिष्क तो है, परन्तु हाथ नहीं। हम लोगों के पास वेदान्त मत है, लेकिन उसे कार्य रूप में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रन्थों में सार्वभौम साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु कार्यों में महा भेद वृत्ति है। महा निःस्वार्थ निष्काम कर्म भारत में ही प्रचारित हुआ, परन्तु हमारे कर्म अत्यन्त निर्मम और अत्यन्त हृदयहीन हुआ करते हैं; और मांस-पिण्ड की अपनी इस काया को छोड़कर, अन्य किसी विषय में हम सोचते ही नहीं।
फिर भी प्रस्तुत अवस्था में ही हमें आगे बढ़ते चलना है, दूसरा कोई उपाय नहीं। भले-बुरे के निर्णय की शक्ति सब में है, किन्तु वीर तो वही है जो भ्रमप्रमाद तथा दुःखपूर्ण संसार-तरंगों के आघात से अविचल रहकर एक हाथ से आँसू पोंछता है और दूसरे अकम्पित हाथ से उद्धार का मार्ग प्रदर्शित करता है! एक ओर प्राचीनपंथी जड़ पिण्ड जैसा समाज है और दूसरी ओर चपल, अधीर, आग उगलनेवाले सुधारक वृन्द हैं; इन दोनों के बीच का मध्यम मार्ग ही कल्याणकारी है। मैंने जापान में सुना कि वहाँ के लड़कियों को यह विश्वास है कि यदि उनकी गुड़ियों को हृदय से प्यार किया जाय तो वे जीवित हो उठेंगी। जापानी बालिका अपनी गुड़िया को कभी नहीं तोड़ती। हे महाभागे! मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिर बुभुक्षित, झगडालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को भी कोई हृदय से प्यार करने लगे तो भारत पुनः जाग्रत हो जायगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोगविलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतीयों के कल्याण के लिए सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं। मैंने अपने जैसे क्षुद्र जीवन में अनुभव कर लिया है कि उत्तम लक्ष्य, निष्कपटता और अनन्त प्रेम से विश्वविजय की जा सकती है। ऐसे गुणों से सम्पन्न एक भी मनुष्य करोड़ो पाखण्डी एवं निर्दयी मनुष्यों की दुर्बुद्धि को नष्ट कर सकता है।
पाश्चात्य देशों में मेरा फिर जाना अभी अनिश्चित है। यदि जाऊँ तो यही समझिएगा कि भारत की भलाई के उद्देश्य से ही। इस देश में जनबल कहाँ है? अर्थ-बल कहाँ है? पाश्चात्य देशों के अनेक स्त्री-पुरुष भारत के कल्याण के निमित्त अति नीच चाण्डाल आदि की सेवा भारतीय भाव से और भारतीय धर्म के माध्यम से करने के लिए तैयार हैं। देश में ऐसे कितने आदमी हैं? और आर्थिक बल!! मेरे स्वागत में जो व्यय हुआ, उसके लिए धन-संग्रह करने में कलकत्तावासियों ने मेरे व्याख्यान की व्यवस्था की और टिकट बेचा, फिर भी कमी रह गयी और खर्च चुकाने के लिए तीन सौ रुपये का एक बिल मेरे सामने पेश किया गया!! इसके लिए मैं किसीको दोष नहीं दे रहा हूँ और न किसीकी निन्दा कर रहा हूँ, किन्तु मैं केवल यही बताना चाहता हूँ कि पश्चिमी देशों से जन-बल और धन-बल की सहायता मिले बिना हम लोगों का कल्याण होना असम्भव है। इति। चिर कृतज्ञ तथा प्रभु से आपके कल्याण का आकांक्षी,
विवेकानन्द
(६३)
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
अलमोड़ा,
३ जून, १८९७
प्रिय,
मैं तो स्वयं पूर्ण सन्तुष्ट हूँ। मैंने बहुतसे स्वदेशवासियों को जागृत कर दिया है, और यही मैं चाहता था। अब जो कुछ होना है, होने दो; कर्म के नियम को अपनी गति के अनुसार चलने दो। मुझे यहाँ इस लोक में कोई बन्धन नहीं है। मैंने जीवन देखा है और वह सब स्वार्थ के लिए है, – जीवन स्वार्थ के लिए, प्रेम स्वार्थ के लिये, मान स्वार्थ के लिए, सब चीजें स्वार्थ के लिए हैं। मैं पीछे दृष्टि डालता हूँ और यह नहीं पाता हूँ कि मैंने शायद कोई भी कर्म स्वार्थ के लिए किया है। यहाँ तक कि मेरे बुरे कर्म भी स्वार्थ के लिए नहीं थे। अतएव मैं सन्तुष्ट हूँ; यह बात नहीं कि मैं समझता हूँ कि मैंने कोई विशेष महत्त्वपूर्ण या अच्छा कार्य किया हो, परन्तु संसार इतना क्षुद्र है, जीवन इतना तुच्छ है, जीवन में इतनी विवशता है – कि मैं मन ही मन हँसता हूँ और आश्चर्य करता हूँ कि मनुष्य, जो कि विवेकी जीव है, इस क्षुद्र स्वार्थ के पीछे भागता है – ऐसे कुत्सित और घृणित पारितोषिक के लिए लालायित रहता है!
यही सत्य है। हम एक पिंजरे में पँस गये हैं, और जितनी जल्दी इसमें से निकल सकेंगे उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा मैंने सत्य का दर्शन कर लिया है – अब यह शरीर ज्वारभाटे के समान बहते जाय, मुझे क्या चिन्ता?
जहाँ मैं अभी रह रहा हूँ वह एक सुन्दर पहाड़ी उद्यान है। उत्तर दिशा में, प्रायः क्षितिज के समान विस्तृत हिमाच्छादित हिमालय के शिखर पर शिखर दिखायी देते हैं – वे सघन वन से परिपूर्ण हैं। यहाँ न ठण्ड है, न अधिक गर्मी; प्रातः और सायं अत्यन्त मनोहर हैं। मैं गर्मी में यहाँ रहूँगा और वर्षा के आरम्भ में काम करने नीचे जाना चाहता हूँ।
मैंने विद्याभिलाषी जीवन के लिए जन्म लिया था – एकान्त और शान्ति से अध्ययन में लीन होने के लिए। किन्तु जगदम्बा का विधान दूसरा ही है – फिर भी वह प्रवृत्ति अभी भी है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(६४)
(श्रीयुत शरच्चन्द्र चक्रवर्ती को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय।
यस्य वीर्येण कृतिनो वयं च भुवनानि च।
रामकृष्णं सदा वन्दे शर्वं स्वतन्त्रमीश्वरम्॥
“प्रभवति भगवान् विधि” रित्यागमिनः अप्रयोगनिपुणाः प्रयोगनिपुणाश्च पौरुषं बहुमन्यमानाः तयोः पौरुषेयापौरुषेयप्रतीकारवलयोः विवेकाग्रहनिबन्धनः कलह इति मत्वा यतस्वायुष्मन् शरच्चन्द्र आक्रमितुम् ज्ञानगिरिगुरोर्गरिष्ठं शिखरम्।
यदुक्त्तं “तत्त्वनिकषग्रावा विपदिति” उच्येत तदपि शतशः “तत्त्वमसि” तत्त्वधिकारे। इदमेव तन्निदानं वैराग्यरुजः। धन्यं कस्यापि जीवनं तल्लक्षणाक्रान्तस्य। अरोचिष्णु अपि निर्दिशामि पदं प्राचीनं – “कालः कश्चित् प्रतीक्ष्यताम्” इति॥ समारूढक्षेपणीक्षेपणश्रमः विश्राम्यतां तन्निर्भरः। पूर्वाहितो वेगः पारं नेष्यति नावम्। तदेवोक्त्तं – “तत् स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति”, “न धनेन न प्रजया त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” इत्यत्र त्यागेन वैराग्यमेव लक्ष्यते। तद्वैराग्यं वस्तुशून्यं वस्तुभूतं वा। प्रथमं यदि, न तत्र यतेत कोऽपि कीटभक्षितमस्तिष्किन विना; ँद्यपरं, तदेदम् आपतति – त्यागः मनसः संकोचनम् अन्यस्मात् वस्तुनः, पिण्डीकरणं च ईश्वरे वा आत्मनि। सर्वेश्वरस्तु व्यक्तिविशेषो भवितुं नार्हति, समष्टिरित्येव ग्रहणीयम। आत्मेति वैराग्यवतो जीवात्मा इति नापद्यते, परन्तु सर्वगः सर्वान्तयामी सर्वस्यात्मरूपेणावस्थितः सर्वेश्वर एक लक्ष्यीकृतः। स तु समष्टिरूपेण सवेषां प्रत्यक्षः। एवं सति जीवेश्वरयो स्वरूपतः अभेदभावात् तयोः सेवाप्रेमरूपकर्मणोरभेदः। अयमेव विशेषः – जीवे जीवबुद्ध्या या सेवा समर्पिता सा दया, न प्रेम, यदात्मबुद्ध्या जीवः सेव्यते, तत् प्रेम। आत्मनो हि प्रेमास्पदत्वं श्रुतिस्मृतिप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात। तत् युक्त्तमेव यदवादीत् भगवान् चैतन्यः – प्रेम ईश्वरे, दया जीवे इति। द्वैतवादित्वात् तत्र भगवतः सिद्धान्तः जीवेश्वरयोर्भेदविज्ञापकः समीचीनः अस्माकं तु अद्वैतपराणां जीवबुद्धर्बिन्धनाय इति। तदस्माकं प्रेम एव शरमं, न दया। जीवे प्रयुक्त्तः दयाशब्दोऽपि साहसिकजल्पित इति मन्यामहे। वयं न दयामहे, अपि तु सेवामहे; नानुकम्पानुबूतिरस्माकम्, अपि तु प्रेमानुभवः स्वानुभवः सर्वस्मिन्।
सैव सर्ववैषम्यसाम्यकरी भवव्याधिनीरुजकरी प्रपञ्चावश्यम्भाव्यत्रितापहरणकरी सर्ववस्तुस्वरूपप्रकाशकरी मायाध्रान्तवध्विंसकरी आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तस्वात्मरूपप्रकटनकरी प्रेमानुभूतिर्वैराग्यरूपा भवतु ते शर्मणे शर्मन्।
इत्यनुदविसं प्रार्थयति त्वयि धृतचिरप्रेमबन्धः
विवेकानन्दः।
अलमोड़ा,
३ जुलाई, १८९७
आयुष्मान् शरच्चन्द्र,
शास्त्र के वे ग्रन्थकर्ता, जो कर्म की ओर रुचि नहीं रखते, कहते हैं कि सर्वशक्तिमान भावी प्रबल है; परन्तु अन्य लोग जो कर्म करनेवाले हैं, समझते हैं कि मनुष्य की इच्छा-शक्ति श्रेष्ठतर है। जो मानवी इच्छा-शक्ति को दुःख हरनेवाला समझते हैं, और जो भाग्य का भरोसा करते हैं, इन दोनों पक्षों में जो लड़ाई है उसका कारण अविवेक समझो; और ज्ञान की उच्चतम अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न करो।
यह कहा गया है कि विपति सच्चे ज्ञान की कसौटी है, और यह कथन ‘तत्त्वमसि’ (तू वह है) इस सत्य के बारे में तो हजारगुन अधिक सच हैं। यह वैराग्य की बीमारी का सच्चा निदान है। धन्य हैं वे, जिनमें यह सच्चा लक्षण पाया जाता है। यद्यपि तुम्हें यह बुरा लगता है तथापि मैं यह कहावत पुनः कथन करता हूँ “कुछ देर ठहरो”। तुम खेते-खेते थक गये हो, अब डाँड़ पर आराम करो। गति के आवेग से नाव उस पार पहुँच जायगी। यही गीता में कहा है – “तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति,” अर्थात् “उस ज्ञान को शुद्धान्तः करण हुआ साधक समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा स्वयं अपनी आत्मा में यथासमय अनुभव करता है।” और, उपनिषद् में कहा है – “न धनेन न प्रजया त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” अर्थात् “न धन से, न सन्तान से, परन्तु केवल त्याग से अमरत्व प्राप्त हो सकता है” (कैवल्य २)। ‘त्याग’ शब्द से वैराग्य का संकेत किया गया है। यह दो प्रकार का हो सकता है – उद्देश्यपूर्ण और उद्देश्यहीन। यदि दूसरी प्रकार का हो तो उसके लिए केवल वही यत्न करेगा, जिसका दिमाग खराब हुआ हो; परन्तु यदि पहले से अभिप्राय हो तो वैराग्य का अर्थ होगा कि मन को अन्य वस्तुओं से हटाकर भगवान या परमात्मा में लीन कर लेना। सब का स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्तिविशेष नहीं हो सकता, वह तो सब की समष्टिस्वरूप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत “मैं” न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है जो अन्तर्यामी होकर सब में वास कर रहा है। वे समष्टि के रूप में सब को प्रतीत हो सकते हैं। ऐसा होते हुए, जब जीव और ईश्वर स्वरूपतः अभिन्न हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है तब वह दया है, किन्तु प्रेम नहीं; परन्तु जब उसे आत्मा समझकर सेवा करो, तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एकमात्र प्रेम का पात्र है, यह श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान चैतन्यदेव ने इसलिए यह ठीक कहा था – “ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया।” वे द्वैतवादी थे, इसलिए उनका अन्तिम निर्णय जिसमें वे जीव और ईश्वर में भेद करते हैं, उनके लिए ठीक है। परन्तु हम अद्वैतवादी हैं। हमारे लिए जीव को परमात्मा से पृथक् समझना बन्धन का कारण है। इसलिए हमारा मूलतत्त्व दया न होना चाहिए, परन्तु प्रेम। मुझे तो जीवों के प्रति ‘दया’ शब्द का प्रयोग विवेकरहित और व्यर्थ जान पड़ता है। हमारा धर्म करुणा नहीं, वरन् सेवाधर्म है और सब में आत्मा ही को देखना।
जिस वैराग्य का भाव प्रेम है, जो समस्त भिन्नता को एक कर देता है, जो संसाररूपी रोग को दूर कर देता है, जो इस नश्वर संसार के तीन प्रकार के स्वाभाविक दुःख को मिटा देता है, जो सब चीजों के यथार्थ रूप को प्रकट करता है, जो माया के अन्धकार को नष्ट करता है, और घास के तिनके से लेकर ब्रह्मा तक सब चीजों में आत्मा का स्वरूप दिखाता है, वह वैराग्य, हे शर्मन्, अपने कल्याण के लिए तुम्हें प्राप्त हो।
यह निरन्तर प्रार्थना है,
तुम्हें सदैव प्यार करनेवाले विवेकानन्द की।
(६५)
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
अलमोड़ा,
१० जुलाई, १८९७
अभिन्नहृदयेषु,
हमारी सभा के उद्देश्य का पहला प्रूफ मैंने संशोधन करके आज वापस भेजा है। उसके नियम (जो हमारी सभा के सभासदों ने पढ़े थे) अशुद्धियों से भरे हैं। उसे सावधानी से ठीक करके छपवाना, नहीं तो लोग हँसेंगे।
. . . बहरमपुर में जैसा काम हो रहा है वह बहुत ही अच्छा है। इस प्रकार के कामों की विजय होगी – क्या केवल मतवाद और सिद्धान्त हृदय को स्पर्श कर सकते हैं? कर्म, कर्म – आदर्श जीवन यापन करो – मतामत का क्या मूल्य है? दर्शन, योग और तपस्या – पूजागृह – आतप चावल या शाक का भोग – यह सब व्यक्तिगत धर्म है, देशगत धर्म है! दूसरों की भलाई और सेवा करना ही एक महान् सार्वलौकिक धर्म है। आबालवृद्धवनिता, चाण्डाल – यहाँ तक कि पशु भी इस धर्म को समझ सकते हैं। क्या केवल एक निषेधात्मक धर्म कुछ काम आ सकता है? पत्थर कभी अनैतिक कर्म नहीं करता, गाय कभी झूट नहीं बोलती, वृक्ष कभी चोरी या डकैति नहीं करते, परन्तु उससे क्या? माना कि तुम चोरी नहीं करते, न झूठ बोलते हो, न अनैतिक जीवन व्यतीत करते हो परन्तु चार घण्टे प्रतिदिन ध्यान करते हो, और उतने ही घण्टे के दुगने समय तक भक्तिपूर्वक घण्टी बजाते हो – परन्तु अन्त में इसका क्या उपयोग है? वह कार्य, यद्यपि थोड़ा ही है, परन्तु सदा के लिए बहरमपुर को वह तुम्हारे चरणों पर ले आया है – अब जैसा तुम चाहते हो वैसा ही लोग करेंगे। अब तुम्हें लोगों से यह तर्क नहीं करना पड़ेगा कि “श्रीरामकृष्ण भगवान हैं”। कार्य के बिना केवल व्याख्यान क्या कर सकता है! क्या मीठे शब्दों से रोटी चुपड़ी जा सकती है? यदि तुम दस जिलों में ऐसा कर सको तो वे सब दसों तुम्हारी मुट्ठी में आ जायेंगे। इसलिए ऐसे बुद्धिमान लड़के होते हुए, इस समय अपने कर्मविभाग पर ही जोर दो, और उसकी उपयोगिता को बढ़ाने की प्राणपण से चेष्टा करो। कुछ लड़कों को द्वार-द्वार जाने के लिए संगठित करो, और अलखिया साधुओं के समान उन्हें जो मिले वह लाने दो – धन, पुराने वस्त्र, या चावल या खाद्य पदार्थ या और कुछ। फिर उसे बाँट दो। यही कर्म है, निश्चय ही यह कर्म है। इसके बाद लोगों को श्रद्धा होगी, और फिर तुम जो कहोगे, वे करेंगे।
कलकत्ते की सभा के खर्च को पूरा करने के बाद जो बचे उसे दुर्भिक्षपीड़ितों की सहायता के लिए भेज दो, या जो अगणित दरिद्र कलकत्ते की मैली-कुचैली गलियों में रहते हैं उनकी सहायता में उसका व्यय करो – स्मारकभवन और इस प्रकार के कार्यों की कल्पना त्याग दो। प्रभु जो अच्छा समझेंगे वह करेंगे। इस समय मेरा स्वास्थ्य अति उत्तम है। . . .
उपयोगी सामग्री तुम एकत्रित क्यों नहीं कर रहे? – मैं स्वयं वहाँ आकर पत्रिका आरम्भ करूँगा। प्रेम और दया से सारा संसार खरीदा जा सकता है; व्याख्यान, पुस्तकें और दर्शन – ये सब निम्न श्रेणी में हैं।
कृपया शशी को लिखो कि गरीबों की सेवा के लिए इसी प्रकार का एक कर्मविभाग वह भी खोले।
. . . पूजा का खर्च घटाकर एक दो रुपये महीने पर ले आओ। श्रीप्रभु की सन्तान भूख से मर रही है . . . केवल जल और तुलसीपत्र से पूजा करो और उसके भोग के निमित्त धन को उस जीवित प्रभु को जो दरिद्रों में वास करता है, नैवेद्य चढ़ाने में खर्च करो – तब प्रभु की सभी पर कृपा होगी। योगेन यहाँ अस्वस्थ रहा, इसलिए आज वह कलकत्ते के लिए रवाना हो गया। मैं कल देउलधार फिर जाऊँगा। तुम सभी को मेरा प्यार।
प्रेमपूर्वक तुम्हारा,
विवेकानन्द
(६६)
(स्वामी शुद्धानन्द को लिखित)
अलमोड़ा,
११ जुलाई, १८९७
प्रिय शुद्धानन्द,
तुमने हाल में मठ का जो कार्य-विवरण भेजा है, उसे पाकर अत्यन्त खुशी हूई। तुम्हारी ‘रिपोर्ट’ के बारे में मुझे कोई विशेष समालोचना नहीं करनी है – मैं सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता हूँ कि कुछ और स्पष्ट रूप से लिखने का अभ्यास करना चाहिए।
जितना कार्य हुआ है उससे मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ; किन्तु और भी अग्रसर होना चाहिए। पहले मैंने एक बार लिखा था कि भौतिकशास्त्र तथा रसायनशास्त्र-सम्बन्धी कुछ यन्त्र एकत्रित करना आवश्यक है एवं ‘क्लास’ खोलकर भौतिकशास्त्र तथा रसायन, खासकर शरीरतत्त्व-सम्बन्धी साधारण तथा क्रियात्मक शिक्षा प्रदान करना लाभदायक होगा; किन्तु उस बारे में अभी तक कोई चर्चा सुनने में नहीं आयी है।
और भी एक बात का उल्लेख मैंने किया था और वह यह था कि जितने भी वैज्ञानिक ग्रन्थों का अनुवाद बंगभाषा में हो चुका है उनको खरीद लेना चाहिए; उस बारे में क्या हुआ?
अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मठ में एक साथ तीन महन्तों का निर्वाचन करना उचित होगा – एक व्यावहारिक कार्योंका संचालन करेंगे, दूसरे आध्यात्मिकता की ओर ध्यान देंगे एवं तीसरे ज्ञानार्जन की व्यवस्था करेंगे।
शिक्षा विभाग के उपयुक्त परिचालक मिलना ही अत्यन्त कठिन है। ब्रह्मानन्द तथा तुरीयानन्द आसानी से दोनों विभागों का कार्य सम्हाल सकते हैं। मठ-दर्शनार्थ केवल कलकत्ते के बाबू लोग आ रहे हैं, इस समाचार से मैं दुःखित हूँ। उनसे कुछ कार्य नहीं होगा। हमें साहसी युवकों की आवश्यकता है – जो काम कर सकते हैं, मूर्खों से क्या लाभ है?
ब्रह्मानन्द से कहना कि वे अभेदानन्द तथा सारदानन्द को अपने साप्ताहिक कार्य-विवरण मठ में भेजने के लिए लिखें – उसके भेजने में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होनी चाहिए और जो बंगभाषा में पत्रिका निकालने की बातें हो रही हैं, उसके लिए लेख तथा आवश्यक उपादान भेजें। गिरीशबाबू उस पत्रिका के लिए आवश्यक व्यवस्थादि क्या कुछ कर रहे हैं? अदम्य इच्छाशक्ति के साथ कार्य करते चलो तथा सदा प्रस्तुत रहो।
अखण्डानन्द ने महुला में अद्भुत कार्य अवश्य किया है, किन्तु कार्यप्रणाली ठीक प्रतीत नहीं होती। ऐसा मालूम हो रहा है कि वे लोग एक छोटेसे गाँव में ही अपना शक्तिक्षय कर रहे हैं, और वह भी एकमात्र चावलवितरण कार्य में। इस चावल-प्रदान की सहायता के साथ ही साथ किसी प्रकार का प्रचार कार्य भी हो रहा है – यह बात तो सुनने में नहीं आ रही है। लोगों को यदि आत्मनिर्भरशील बनने की शिक्षा नहीं दी जाय तो जगत् के सम्पूर्ण ऐश्वर्य पूर्ण रूप से प्रदान करने पर भी भारत के एक छोटेसे छोटे गाँव की भी सहायता नहीं की जा सकती है। शिक्षाप्रदान हमारा पहला कार्य होना चाहिए, चरित्र एवं बुद्धि दोनों के ही उत्कर्षसाधन के लिए शिक्षा-विस्तार आवश्यक है। मुझे इस बारे में तो कुछ भी समाचार नहीं मिल रहा है, केवल इतना ही सुन रहा हूँ कि इतने भिक्षुकों को सहायता दी गयी है। ब्रह्मानन्द से कहो कि विभिन्न जिलों में वे केन्द्र स्थापित करें जिससे हम सामान्य पूँजी से यथासम्भव अधिक स्थलों में कार्य कर सकें। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब तक उन कार्यों से वास्तव में कुछ भी नहीं हुआ है; क्योंकि अभी तक स्थानीय लोगों में किसी प्रकार की आकांक्षा जागृत करने में सफलता नहीं मिली है, जिससे कि लोकशिक्षा के लिए वे किसी प्रकार की सभा-समिति स्थापित कर सकें एवं उस शिक्षा के फलस्वरूप वे आत्मनिर्भरशील तथा मितव्ययी बन सकें। विवाह की ओर उनका अस्वाभाविक झुकाव दूर हो और इसी प्रकार भविष्य में दुर्भिक्ष के कराल ग्रास से वे अपने को मुक्त कर सकें। दया के द्वारा लोगों के हृदय खुल जाते हैं; किन्तु उस द्वार से उनके सामूहिक हितसाधन के लिए हमें प्रयास करना होगा।
सब से सहज उपाय यह है कि हम छोटी-सी झोपड़ी लेकर गुरु महाराज का मन्दिर स्थापित करें – गरीब लोग वहाँ एकत्रित हों – उनकी सहायता की जाय – वे लोग वहाँ पर पूजार्चन भी करें। प्रतिदिन सुबह-शाम वहाँ ‘कथा’ हो। उस कथा के सहारे से ही तुम अपनी इच्छानुसार जनता में शिक्षा-विस्तार कर सकते हो। क्रमशः उन लोगों में स्वतः ही उस विषय में विश्वास तथा आग्रह बढ़ेगा, तब वे स्वयं ही उस मन्दिर के परिचालन का भार अपने ऊपर लेंगे और हो सकता है कि कुछ दिन बाद यह छोटासा मन्दिर एक विराट् आश्रम में परिणत हो। जो लोग दुर्भिक्ष-निवारण कार्य के लिए जा रहे हैं, वे सर्वप्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यवर्ती स्थल का निर्वाचन करें तथा वहाँ पर इस प्रकार की एक झोपड़ी लेकर मन्दिर स्थापित करें, जहाँ से अपना कार्य भी थोड़ा बहुत प्रारम्भ किया जा सके।
मन की प्रवृत्ति के अनुसार कार्य मिलने से अत्यन्त मूर्ख व्यक्ति भी उसे कर सकता है। समस्त कार्यों को जो अपने मन के अनुकूल बना लेता है, वही बुद्धीमान है। कोई भी कार्य छोटा नहीं है, संसार में समस्त वस्तु वट-बीज की तरह है, सरसौं जैसा क्षूद्र दिखायी देने पर भी अति विशाल वट-वृक्ष उसके अन्दर विद्यमान है। बुद्धिमान वही है जो ऐसा देख पाता है एवं सभी कार्यों को जो महान् बनाने में समर्थ है।
जो लोग दुर्भिक्ष-निवारण कार्य कर रहे हैं, उन्हें इस ओर भी ध्यान रखना चाहिए कि कहीं गरीबों के प्राप्त को धोखेबाज न झपट लें। भारतवर्ष ऐसे आलसी धोखेबाजों से भरा पड़ा है एवं तुम्हें यह देखकर आश्चर्य होगा की वे लोग कभी भुखे नहीं मरते हैं उन्हें कुछ न कुछ खाने को मिलता ही है। जो लोग दुर्भिआ-पीड़ित स्थलों में कार्य कर रहे हैं, उन्हें इस ओर ध्यान दिलाने के लिए ब्रह्मानन्द से पत्र लिखने को कहना – जिससे किसी प्रकार का फल मिलने की सम्भावना नहीं है, ऐसे कोई भी कार्य के लिए उन्हें अर्थ व्यय करने नहीं दिया जायगा, जहाँ तक हो सके स्वल्प खर्चे में जितना अधिक सम्भव हो स्थायी सत्कार्य की प्रतिष्ठा करना ही हमारा ध्येय है।
अब तुम समझ गये होगे कि मैं नवीन नवीन मौलिक भावनाएँ जागृत करना चाहता हूँ – नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद सब कुछ नष्ट हो जायगा। तुम सब लोग मिलकर इस विषय में आलोचना करने के लिए एक सभा का आयोजन कर सकते हो, जिसका आलोच्य विषय यह हो कि हमारे समीप जो कुछ सामान्य पूँजी है उससे सर्वश्रेष्ठ स्थायी कार्य किस प्रकार से किया जा सकता है। सभा की निर्धारित तिथि के कुछ दिन पूर्व सब को इसकी सूचना दी जाय, सब कोई अपना अभिमत तथा वक्तव्य प्रदान करें, उसके आधार पर विचार-विमर्श तथा ऊहापोह के बाद उसकी रिपोर्ट मुझे भेजो।
उपसंहार में यह कहना चाहता हूँ कि तुम लोग यह स्मरण रखो कि मैं अपने गुरूभाईयों की अपेक्षा अपनी सन्तानों से अधिक आशा रखता हूँ – मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्नत्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा – मैं कहता हूँ कि अवश्य ही बनना होगा। आज्ञापालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सर्वदा प्रस्तुत रहना – इन तीनों के विद्यमान कहने पर कोई भी तुम्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। मेरा प्यार तथा आशीर्वाद जानना। इति।
विवेकानन्द
(६७)
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
देउलधार, अलमोडा,
१३ जुलाई, १८९७
प्रेमास्पद,
मठ के समाचार से अतीव प्रसन्नता हुई तथा यह भी मालूम हुआ कि दुर्भिक्ष-पीडितों में कार्य अच्छी तरह से चल रहा है। दुर्भिक्ष कार्य के लिए ‘ब्रह्मवादिन्’ आफिस से तुम्हे धन प्राप्त हुआ है या नहीं, लिखना; यहाँ से भी धन शीघ्र भेजा जा रहा है। दुर्भिक्ष का प्रकोप तो अन्यान्य स्थलों में भी है। तब तक रूकने की आवश्यकता नहीं है। उनको अन्यत्र जाने के लिए कहना एवं प्रत्येक को विभिन्न स्थानों में जाने के लिए लिखना। सहायता प्रदान करना ही प्रधान कार्य है; इस प्रकार खेत जुत जाने पर धर्म का बीज बोया जा सकता है। कट्टरपन्थी जो लोग हमें गालियाँ दे रहे हैं, इस प्रकार का कार्य ही उनका उचित उत्तर है – यह न भूलना। शशी एवं सारदा जैसा छपवाना चाहते हैं, उसमें मेरी कोई आपत्ति नहीं है।
मठ का नाम क्या होना चाहिए, तुम लोग ही निर्णय करना। . . . रुपया सात सप्ताह के अन्दर ही पहुँच आयगा, जमीन के बारे में तो कोई भी समाचार नहीं मिला है। मैं समझता हूँ कि काशीपुर के कृष्णगोपाल के बगीचे को खरीद लेना ही उचित होगा, इस बारे में तुम्हारी क्या राय है? विशाल कार्य पीछे होते रहेंगे। यदि इसमें तुम्हारी सम्मति हो तो इस विषय की किसी से -मठ अथवा बाहर के व्यक्तियों से -चर्चा न कर गुप्त रूप से पता लगाना। दो व्यक्तियों के कर्णगोचर होने से प्रायः ठीक ठीक नहीं हो पाता है। यदि १५-१६ हजार में कार्य बनता हो तो अविलम्ब खरीद लेना (यदि तुम्हे उचित प्रतीत हो) यदि उससे कुछ अधिक मूल्य हो तो बयाना देकर सात सप्ताह तक प्रतीक्षा करना। मेरी राय में इस समय उसे खरीद लेना ही अच्छा है। बाकी के कार्य धीरे धीरे होते रहेंगे। उस बगीचे के साथ हम लोगों की पूर्ण स्मृति विजडित है। वास्तव में वही हमारा प्रथम मठ है। अत्यन्त गोपनीय रूप से यह कार्य होना चाहिए -“फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्त्तना इव” – (फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है; जैसे कि फल को देखकर पूर्वसंस्कार का अमुमान किया जाता है)। . . .
इसमें सन्देह नहीं कि काशीपुर के बगीचे की जमीन का मूल्य अधिक बढ गया है; किन्तु रुपये का दर भी उसी प्रकार घट चुका है। जैसे भी हो इसकी व्यवस्था करना और शीघ्र करना। करना है, करेंगे कहकर चुपचाप बैठे रहने से सब कुछ नष्ट हो जाता है। उसे तो खरीदना ही होगा, चाहे आज हो या दो दिन बाद – और चाहे गंगातट पर कितने ही विशाल मठ की स्थापना क्यों न हो। अन्य व्यक्तियों के द्वारा यदि इसकी व्यवस्था हो सके तो और भी अच्छा है। हम लोग खरीद रहें है – ऐसा समाचार मिलने पर अधिक दर माँगे जाने की सम्भावना है। बहुत ही सम्हलकर कार्य करते रहो। अभीः श्रीरामकृष्णदेव सहाय हैं, डर किस बात का है? सब से मेरा प्यार कहना।
विवेकानन्द
(६८)
रिजली,
२ सितम्बर, १८९९
प्रिय -,
जीवन कुछ एक घात-प्रतिघातों की तथा भ्रन्ति-निरसन की समष्टि मात्र है। . . . जीवन का रहस्य भोग नहीं है, किन्तु अनुभव के द्वारा शिक्षा प्राप्त करना है। किन्तु हाय, जिस समय हमारी वास्तविक शिक्षा केवल प्रारम्भ ही होती है, उसी समय चल देने की बारी आती है। इसी को बहुतसे लोग परजन्म के अस्तित्व-सम्बन्धी प्रबल युक्ति मानते हैं। . . . सर्वत्र ही कार्यों में एक तूफान उठना मानो एक अच्छी ही बात है – उससे सब कुछ स्वच्छ हो जाता है तथा उस कार्य का असली रूप सब के सामने स्पष्ट हो जाता है। पुनः उसे निर्माण किया जाता है, किन्तु उसकी आधारशिला दुर्भेद्य पत्थर की होती है। . . . मेरी आन्तरिक शुभेच्छा जानना। इति।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(६९)
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
रिजले मॅनर,
३० अत्तूबर, १८९९
प्रिय आशावादिनी,
तुम्हारी चिट्ठी मिली और इसके लिए अनुगृहीत हूँ कि किसी बात ने आशावादी एकान्तवाद को सक्रिय होने के लिए विवश किया है। यों तो तुम्हारे प्रश्नों नें नैराश्य के स्त्रोत को ही खोल दिया है। आधुनिक भारत में अंग्रेजी शासन का केवल एक ही सान्त्वनादायक पक्ष हैं कि एक बार फिर उसने अनजाने ही भारत को विश्व के रंगमंच पर लाकर खड़ा कर दिया हैं, उसने बाह्य जगत् के संपर्क को इस पर लाद दिया है। अगर जनता के मंगल के लिए यह किया गया होता, तो जिस तरह परिस्थितियों ने जापान की सहायता की, भारत के लिए इसका परिणाम और भी आश्चर्यजनक होता। जब मुख्य ध्येय खून चूसना हो, कोई कल्याण नहीं हो सकता। मोटे रूप से जनता के लिए पुराना शासन अधिक अच्छा था, क्योंकि जनता से वह सब कुछ नहीं छीनता था और उसमें कुछ न्याय था, कुछ स्वतंत्रता थी।
कुछ सौ आधुनीकृत, अर्धशिक्षित एवं राष्ट्रीय चेतनाशून्य पुरुष ही वर्तमान अंग्रेजी भारत का दिखावा हैं – और कुछ नहीं। मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार १२वी शताब्दी में ६० करोड़ हिन्दू थे – अब २० करोड़ से भी कम।
भारत को जीतने के लिए अंग्रेजों के संघर्ष के मध्य शताब्दियों की अराजकता, अंग्रेजों द्वारा १८५७-५८ में किए गए भयावह जनवधों और इससे भी अधिक भयावह अकालों, जो अंग्रेजी शासन के अनिवार्य परिणाम बन गये हैं (देशी राज्यों में कभी अकाल नहीं पड़ता) और उनमें लाखों प्राणियों की मृत्यु के बावजुद भी जनसंख्या में काफी वृद्धि होती रही हैं; तब भी जनसंख्या उतनी नहीं हैं जब देश पूर्णतः स्वतंत्र था- अर्थात् मुस्लिम शासन के पूर्व। भारतीय श्रम एवं उत्पादन से भारत की वर्तमान आबादी की पाँच गुनी आबादी का भी आसानी से निर्वाह हो सकता हैं, यदि भारतीयों की सारी वस्तुएँ उनसे छीन न ली जाए।
यह आज की स्थिति है – शिक्षा को भी अब अधिक नहीं फैलाने दिया जायगा; प्रेस की स्वतंत्रता का गला पहले ही घोंट दिया गया हैं, (निरस्त्र तो हम पहले से ही कर दिये गये हैं) और स्व-शासन का जो थोड़ा अवसर हमको पहले दिया गया था, शीघ्रता से छीना जा रहा है। हम इन्तजार कर रहे हैं कि अब आगे क्या होगा! निर्दोष आलोचना में लिखे गये कुछ शब्दों के लिए लोगों को कालापानी की सजा दी जा रही हैं, अन्य लोग बिना कोई मुकदमा चलाये जेलों में ठूँसें जा रहे हैं; और किसीको कुछ पता नहीं कि कब उनका सर धड़ से अलग हो जायगा।
कुछ वर्षो से भारत में आतंकपूर्ण शासन का दौर है। अंग्रेज सिपाही हमारे देशवासियों का खून कर रहे हैं, हमारी बहनों को अपमानित कर रहे हैं – हमारे खर्च से ही यात्रा का किराया और पेन्शन देकर स्वदेश भेजे जाने के लिए! हम लोग घोर अंधकार में है – ईश्वर कहाँ है? मेरी, तुम, आशावादिनी हो सकती हो, लेकिन क्या मेरे लिए यह संम्भव है? मान लो तुम इस पत्र को केवल प्रकाशित भर कर दो – तो उस कानून का सहारा लेकर जो अभी अभी भारत में पारित हुआ है, अंग्रेजी सरकार मुझे यहाँ से भारत घसीट ले जायगी और बिना किसी कानूनी कार्रवाई के मुझे मार डालेगी। और मुझे यह मालूम हैं कि तुम्हारी सभी ईसाई सरकारें इस पर खुशियाँ मनायेंगी, क्योंकी हम गैरईसाई हैं। क्या मैं भी सोने चला जा सकता हूँ और आशावादी हो सकता हूँ? नीरो सबसे बडा आशावादी मनुष्य था! समाचार के रूप में भी वे इन भीषण बातों को प्रकाशित करना नहीं चाहते, अगर कुछ समाचार देना आवश्यक भी हो तो ‘रॉयटर’ के संवाददाता ठीक उलटा झूठा समाचार गढ़ कर देते हैं! एक ईसाई के लिए गैरईसाई की हत्या भी वैधानिक मनोरंचन है! तुम्हारे मिशनरी ईश्वर का उपदेश करने जाते हैं, लेकिन अंग्रेजों के भय से एक शब्द भी सत्य कह पाने का साहस नहीं कर पाते, क्योंकि अंग्रेज उन्हें दूसरे दिन ही लात मारकर निकाल बाहर कर देंगे।
शिक्षा-संचालन के लिए पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा अनुदत्त संम्पत्ति एवं जमीन को गले के नीचे उतार लिया गया है और वर्तमान सरकार रूस से भी कम शिक्षा पर व्यय करती है। और शिक्षा भी कैसी?
मौलिकता की किंचित् अभिव्यक्ति भी दबा दी जाती है। मेरी, अगर कोई वास्तव में ऐसा ईश्वर नहीं हैं, जो सबका पिता है, जो निर्बल की रक्षा करने में सबल से भयभीत नहीं है और जिसे रिश्वत नहीं दिया जा सकता, तो सब कुछ हमारे लिए निराशा ही है। क्या कोई इसी प्रकार का ईश्वर है? समय बतायेगा।
हाँ तो, मैं ऐसा सोच रहा हूँ कि कुछ सप्ताह मैं शिकागों आ रहा हूँ और इन विषयों पर पूर्ण रूप से बात करूँगा। इस समाचार के सूत्र को प्रकट न करना।
प्यार के साथ सतत तुम्हार भाई,
विवेकानन्द
पुनश्च – जहाँ तक धार्मिक संम्प्रदायों का प्रश्न है ब्राह्मसमाज, आर्यसमाज तथा अन्य व्यर्थ की खिचड़ी पकाते हैं। वे मात्र अंग्रेज मालिकों के प्रति कृतज्ञता की ध्वनीयाँ है, जिससे की वे हमें साँस लेने की आज्ञा दे सकें। हम लोगों ने एक नये भारत का श्री गणेश किया है – एक विकास – इस बात की प्रतिक्षा में कि आगे क्या घटित होता हैं। हम तभी नये विचारों में आस्था रखते हैं, जब राष्ट्र उनकी माँग करता है और जो हमारे लिए सत्य हैं। ब्राह्मसमाजो के लिए सत्य की यह कसौटी है, ‘जिसका हमारे मालिक अनुमोदन करे’; किंतु हमारे लिए वह सत्य है, जो भारतीय बुद्धि एवं अनुभूति द्वारा मण्डित है। संघर्ष आरम्भ हो गया है- हमारे एवं ब्राह्म समाज के बीच नहीं, क्योंकि वे पहले से ही निष्प्राण हो गये है, बल्कि इससे भी अधिक एक कठिन, गम्भीर एवं भीषण संघर्ष।
वि.
(७०)
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
न्यूयार्क, अमेरिका,
२० नवम्बर, १८९९
अभिन्नहृदय,
शरत के पत्र से समाचार विदित हुए। . . . हार-जीत के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, तुम लोग समय रहते अनुभव प्राप्त कर लो। . . . मुझे अब कोई बीमारी नहीं है। मैं पुनः . . . विभिन्न स्थलों में घूमने के लिए रवाना हो रहा हूँ। कुछ परवाह नहीं है, माभैः। तुम्हारे देखते देखते सब कुछ दूर हो जायगा, केवल आज्ञा पालन करते जाना, सारी सिद्धि प्राप्त हो जायेगी। – जय माँ रणरंगिणी! जय माँ, जय माँ रणरंगिणी! वाह गुरु, वाह गुरु की फतह!
. . . असली बात यह है कि कायरता से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है; कायरों का उद्धार नहीं होता है – यह निश्चित है। और सारी बातें सह ली जाती हैं, कायरता सहन नहीं होती। जो उसे नहीं छोड़ सकता, उसके साथ सम्बन्ध रखना क्या मेरे लिए सम्भव हो सकता है?
. . . एक चोट सहकर वेग से दस चोटें जमानी होंगी . . . तभी तो मनुष्यता है। कायर लोग तो केवल दया के पात्र हैं!!
आज महामाई का दिवस है, मैं आशीर्वाद दे रहा हूँ कि आज की रात्रि में ही माँ तुम लोगों के हृदयों में अवतरित हों एवं तुम लोगों की भूजाओं में अनन्त शक्ति प्रदान करें! जय काली, जय काली, जय काली! माँ अवश्य ही अवतरित होंगी – महाबल से सर्वजय – विश्वविजय होगा; माँ अवतरित हो रहीं है, डरने की क्या बात है? किससे डरना है? जय काली, जय काली! तुम्हारे एक-एक व्यक्ति के प्रताप से धरातल कम्पित हो उठेगा। . . . जय काली, जय काली! पुनः आगे बढ़ो, आगे बढ़ो! वाह गुरु, जय माँ, जय माँ; काली, काली, काली! तुम्हारे लिए रोग, शोक, आपत्ति, दुर्बलता कुछ भी नहीं है! तुम्हारे लिए महाविजय, महालक्ष्मी, महाश्री विद्यमान हैं। माभैः माभैः। विपत्ति की सम्भावना दूर हो चुकी है, माभैः! जय काली, जय काली!
विवेकानन्द
पुनश्च:-मैं माँ का दास हूँ, तुम लोग भी माँ के दास हो – क्या हम नष्ट हो सकते हैं? भयभीत हो सकते हैं? चित्त में अहंकार न आने पावे, मन से प्रेम दूर न हो! तुम्हारा नाश होना क्या सम्भव है? माभैः? जय काली, जय काली!
(७१)
(स्वामी अखण्डानन्द को लिखित)
कैलिफोर्निया,
२१ फरवरी, १९००
कल्याणवरेषु,
तुम्हारा पत्र पाकर और विस्तारपूर्वक सब समाचार पढ़कर मुझे अति हर्ष हुआ। विद्या और पाण्डित्य बाह्य आडम्बर हैं और बाह्य भाग में केवल चमक है, परन्तु सब शक्तियों का सिंहासन हृदय होता है। ज्ञानमय, शक्तिमय तथा कर्ममय आत्मा का निवासस्थान मस्तिष्क में नहीं वरन् हृदय मैं है। “शतं चैका च हृदयस्य नाड्यः”(१) – हृदय की नाड़ियाँ एक सौ एक हैं इत्यादि। मुख्य नाड़ी का केन्द्र जिसे Sympathetic Ganglia कहते हैं, हृदय के निकट होता है; और यही आत्मा का निवासदुर्ग है। जितना अधिक तुम हृदय का विकास कर सकोगे, उतनी अधिक तुम्हारी विजय होगी। बुद्धि की भाषा तो कोई कोई समझ सकता है, परन्तु वह भाषा, जो हृदय से निकलती है, उसे ब्रह्मा से लेकर घास के तिनके तक सभी समझ सकते हैं। परन्तु हमें अपने देश में तो ऐसे लोगों को जाग्रत करना है जो मृतप्राय हैं। इसमें समय लगेगा, परन्तु यदि तुममें असीम धीरज और उद्योगशक्ति है तो सफलता तुम्हें निश्चित रूप से ही प्राप्त होगी। इसमें तनिक भी त्रुटि नहीं हो सकती।
अंग्रेज कर्मचारियों का क्या दोष है? क्या वे परिवार, जिनकी अस्वाभाविक निर्दयता के बारे में तुमने लिखा है, भारत में अनोखे हैं? या ऐसों का बाहुल्य है? पूरे देश में यह एक ही कथा है। परन्तु यह स्वार्थपरता जो हमारे देश में साधारणतः पायी जाती है निरी दुष्टता का ही परिणाम नहीं है। यह पाशविक स्वार्थपरता शताब्दियों की निष्फलता और अत्याचार का फल है। यह वास्तविक स्वार्थपरता नहीं है परन्तु अगाध नैराश्य है। सफलता के पहले झोंके में यह शान्त हो जायेगा। अंग्रेज कर्मचारी चारों ओर इसी को देखते हैं इसीलिए उन्हें आरम्भ से ही विश्वास कैसे हो सकता है? परन्तु मुझे यह बताओ कि जब सच्चा कार्य वे प्रत्यक्ष देखते हैं तो वे क्या सहानुभूति नहीं प्रकट करते? . . .
इन उग्र दुर्भिक्ष, जल-प्रलय, रोग और महामारी के दिनों में कहो तुम्हारे कांग्रेसवाले कहाँ हैं? क्या यह कहना पर्याप्त होगा कि “राजशासन हमारे हाथ में दे दो?” और उनकी सुनेगा भी कौन? यदि मनुष्य काम करता है तो क्या उसे अपना मुख खोलकर कुछ माँगना पड़ता है? यदि तुम्हारे जैसे दो हजार लोग कई जिलों में काम करते हों तो क्या राजनैतिक आन्दोलन के विषय में अंग्रेज स्वयं अपनी बारे में तुमसे सम्मति नहीं लेंगे? स्वकार्यमुद्धरेत्प्राज्ञः – “बुद्धिमान मनुष्य को अपना कार्य स्वयं पूर्ण करना चाहिए”। . . . अ – को केन्द्र खोलने की आज्ञा नहीं मिली परन्तु इससे क्या? क्या किशनगढ़ ने नहीं मान लिया? उसे चुपचाप काम करने दो, किसी से कुछ कहने की या विवाद करने की आवश्यकता नहीं है। जो जगज्जननी के इस कार्य में सहायता करेगा उस पर उनकी कृपा होगी, और जो उसका विरोध करेगा वह केवल – अकारणाविष्कृतबैर-दारुणः – अकारण ही दारुण वैर का आविष्कार ही न करेगा वरन् अपने भाग्य पर भी कुठाराघात करेगा। शनैः पन्थाः इत्यादि, सब अपने समय पर होगा। बूँद-बूँद से घड़ा भरता है। जब कोई बड़ा काम होता है, जब नींव पड़ती है, या मार्ग बनता है, जब दैवी शक्ति की आवश्यकता होती है – तब एक या दो असाधारण मनुष्य विघ्न और कठिनाइयों के पहाड़ को पार करते हुए चुपचाप और शान्ति से काम करते हैं। जब सहस्रों मनुष्यों का लाभ होता है, तब बड़ा कोलाहल मचता है और पूरा देश प्रशंसा से गूँज उठता है। परन्तु तब तक वह यन्त्र तीव्रता से चल चुका होता है, और कोई बालक भी उसे चलाने की सामर्थ्य रखता है, या कोई भी मूर्ख उसकी गति में वृद्धि कर सकता है। किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि एक या दो गाँवो का ही जो उपकार हुआ है, वह अनाथालय जिसमें बीस-पचीस अनाथ ही हैं, तथा वे ही दस-बीस कार्यकर्ता नितान्त पर्याप्त हैं। यही एक केन्द्र है जो कभी नष्ट होने का नहीं। यहाँ से लाखों मनुष्यों को समय पाकर लाभ पहुँचेगा। अभी हमको आधे दर्जन सिंह चाहिए, उसके बाद सैकड़ों गीदड़ भी उत्तम काम कर सकेंगे।
यदि अनाथ बालिकाएँ तुम्हारे आश्रय में किसी प्रकार आ जायें, तो तुम उन्हें सब से पहले ले लेना। नहीं तो ईसाई मिशनरी उन बेचारियों को ले जायेंगे। यदि तुम्हारे पास उनके लिए विशेष प्रबन्ध नहीं है तो इसकी क्या चिन्ता? जगज्जननी की इच्छा से उनका प्रबन्ध हो जायगा। जब तुम्हें घोड़ा मिले तो चाबुक की चिन्ता न करो।. . . अभी तुम्हें जो मिले उसे ले लो, अभी चुनाव-छँटाव न करना – अपने समय पर सब चीजें ठीक हो जायेंगी। प्रत्येक उद्योग में विघ्नों का सामना करना करना पड़ता है, परन्तु धीरे-धीरे मार्ग सुगम हो जाता है।
अंग्रेज कर्मचारी को मेरी ओर से बहुत-बहुत धन्यवाद का सन्देशा देना। निर्भय होकर काम करो -कैसे वीर हो ! शाबास! खूब अच्छा कार्य किया! भागलपुर में केन्द्र खोलने का जो तुमने लिखा है, वह विचार – विद्यार्थियों को शिक्षा देना इत्यादि – निःसन्देह बहुत अच्छा है, परन्तु हमारा संघ दीन-हीन, दरिद्र, निरक्षर किसान तथा श्रमिक समाज के लिए है, और उनके लिए सब कुछ करने के बाद समय बचेगा, केवल तब कुलीनों की बारी आयगी। प्रेम द्वारा तुम उन किसान और श्रमिक लोगों को जीत सकोगे। इसके पश्चात् वे स्वयं थोड़ासा धन संग्रह कर अपने गाँव में ऐसे ही संघ बनायेंगे, और धीरे-धीरे उन्हीं लोगों में शिक्षक पैदा हो जायेंगे।
कुछ ग्रामीण लड़के और लड़कियों को विद्या के आरम्भिक सिद्धान्त सिखा दो, और अनेक विचार उनकी बुद्धि में बिठा दो। इसके बाद प्रत्येक ग्राम के किसान रुपया जमा करके अपने-अपने ग्रामों में एक एक संघ स्थापित करेंगे। उद्धरेदात्मनात्मानम्१ – “अपनी आत्मा का अपने उद्योग से उद्धार करो”। यह सब परिस्थतियों में लागू होता है। हम उनकी सहायता इसीलिए करते हैं जिससे वे स्वयं अपनी सहायता कर सकें। वे तुम्हें प्रति दिन का भोजन प्राप्त करा देते हैं यही इस बात का द्योतक है कि कुछ यथार्थ कार्य हुआ है। जिस क्षण उन्हें अपनी अवस्था का ज्ञान हो जायगा, और वे सहायता और उन्नति की आवश्यकता को समझेंगे तब जानना कि तुम्हारा प्रभाव पड़ रहा है, और तुम ठीक रास्ते पर हो। धनवान श्रेणी के लोग दया से गरीबों के लिए जो थोड़ीसी भलाई करते हैं, वह स्थायी नहीं होती और अन्त मैं दोनों पक्षों को हानि पहुँचाती है। किसान और श्रमिक-समाज मरणासन्न अवस्था में हैं, इसलिए जिस चीज की आवश्यकता है वह यह है कि धनवान उन्हें अपनी शक्ति पुनः प्राप्त करने में सहायता दें और कुछ नहीं। फिर किसानों व मजदूरों को अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं करने दो। परन्तु तुम्हें सावधान रहना चाहिए कि गरीब किसान-मजदूर और धनवानों में परस्पर कहीं जाति-विरोध का बीज न पड़ जाय। यह ध्यान रखो कि धनिकों के प्रति दुर्वचन न कहो – स्वकार्यमुद्धरेत्प्राज्ञः – “ज्ञानी मनुष्य को अपना कार्य अपने उद्योग से करना चाहिए”।
गुरु की जय हो! जगज्जननी की जय हो! भय क्या है! अवसर, औषधि तथा इसका उपयोग स्वयं ही आ उपस्थित होंगे। मैं परिणाम की चिन्ता नहीं करता, चाहे अच्छा हो या बुरा। इतना काम यदि तुम करोगे तो मुझे हर्ष होगा। वाद-प्रतिवाद, मूल-वाक्य, शास्त्र, साम्प्रदायिक मत-मतान्तर – इनसे मैं अपनी इस बढ़ती हुई उम्र में विष की तरह द्वेष करता हूँ। यह निश्चित रूप से जानो कि जो काम करेगा वह मेरे सिर का मुकुट होगा। व्यर्थ शब्दों का विवाद और शोर मचाने में हमारा समय नष्ट हो रहा है, और हमारी जीवन-शक्ति क्षीण हो रही है और मनुष्य-जाति के कल्याण के लिए एक पग भी हम आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। – “माभैः” “डरो मत” शाबाश! निश्चय ही तुम वीर हो। श्रीगुरु तुम्हारे हृदय-सिंहासन पर स्थित रहें और जगज्जननी तुम्हें मार्गप्रदर्शन करें! इति।
विवेकानन्द
[१] श्रीमद्भगवद्गीता ॥६. ५॥
(७२)
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैन फ्रांसिस्को,
२८ मार्च, १९००
प्रिय मेरी,
यह पत्र तुम्हें यह जताने के लिए लिख रहा हूँ कि ‘मैं बहुत खुश हूँ।’ यह नहीं कि मैं किसी धूमिल आशावाद से ग्रस्त होता जा रहा हूँ, बल्कि दुःख झेलने की मेरी क्षमता बढ़ती जा रही है। मैं इस संसार के सुख-दुःख रूपी महामारी की दुर्गंध से ऊपर उठता जा रहा हूँ; उनका अर्थ मेरे लिए मिटता जा रहा है। यह संसार एक स्वप्न है। यहाँ किसी के हँसने-रोने का कोई मूल्य नहीं। वह केवल स्वप्न है, और देर या सबेर अवश्य टूटेगा। वहाँ तुम लोगों के क्या हाल-चाल हैं? हैरियट पेरिस आनन्द मनाने जा रही है! वहाँ मेरी उससे अवश्य भेंट होगी। मैं एक फ्रेंच डिक्शनरी कंठाग्र कर रहा हूँ। मैं कुछ धन भी अर्जित कर रहा हूँ। सुबह-शाम कठिन परिश्रम करता हूँ, फिर भी अच्छा हूँ। नींद अच्छी आती है, हाजमा भी अच्छा है। पूर्ण अनियमितता है।
तुम पूर्व की ओर जा रही हो। आशा है, अप्रैल के अन्त में मैं शिकागो आऊँगा। यदि न आ सका, तो पूर्व में तुम्हारे जाने के पहले तुमसे जरूर मिलूँगा।
मैक्किंडली परिवार की लड़कियाँ क्या कर रही हैं? चकोतरो की पुष्टई खा रही हैं और मोटी हो रही हैं? चलते रहो, जिन्दगी तो एक स्वप्न है। क्या तुम इससे खुष नहीं हो? बाप रे! वे शाश्वत स्वर्ग चाहते हैं। ईश्वर को धन्यवाद है कि सिवा उसके और कुछ भी शाश्वत नहीं है। मुझे विश्वास है उसे केवल ईश्वर ही सहन कर सकता है। शाश्वतता की यह बकवाद!
सफलता धीरे धीरे मुझे मिलनी शुरू हो चुकी है, वह अभी और भी अधिक मिलेगी। फिर भी चुपचाप रहूँगा। अभी तुम्हें सफलता नहीं मिल रही है, इसका मुझे दुःख है, मतलब मैं दुःखित अनुभव करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, क्योंकि मैं किसी भी वस्तु के लिए अब और दुःखी नहीं हो सकता। मैं उस शान्ति को प्राप्त कर रहा हूँ, जो बुद्धि के परे है, जो न सुख है न दुःख, बल्कि इन दोनों से ही ऊपर है। ‘मदर’ से यह कह देना। पिछले दो वर्षों में मैं जिस शारीरिक और मानसिक मृत्यु की घाटी से गुजरा हूँ, उसीने मुझे यह प्राप्त करने में सहायता दी है। अब मैं उस ‘शान्ति’, उस शाश्वत मौन के निकट आ रहा हूँ। अब मैं जो चीज जिस रूप में है, उसे उसी रूप में देखना चाहता हूँ, उस शान्ति के भीतर, अपने परम रूप में। ‘जो अपने भीतर ही आनन्द पाता है, जो अपने भीतर ही इच्छाओं को देखता है, वस्तुतः उसीने अपने जीवन का पाठ पढ़ा है।’ यही है वह महान् पाठ जिसे अनेक जन्मों, स्वर्गों-नरकों में से होकर हमें सीखना है – कि अपनी आत्मा के परे कुछ भी याचना करने, इच्छा करने के लिए नहीं है। ‘जो सबसे बड़ी वस्तु मैं प्राप्त कर सकता हूँ, वह आत्मा है।’ ‘मैं मुक्त हूँ’, अतः सुखी होने के लिए मुझे अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं। ‘अनन्त काल से अकेला, चूँकि मैं मुक्त था, अतः मुक्त हूँ और सदा रहूँगा भी।’ यह वेदान्त मत है। इतने समय तक मैं सिद्धान्त का प्रचार करता रहा, लेकिन ओह! कितने आनन्द का विषय है प्यारी बहन मेरी, कि इसे मैं अब प्रत्येक दिन अनुभव कर रहा हूँ। हाँ, मैं अनुभव कर रहा हूँ। ‘मैं मुक्त हूँ।’ ‘एकम्, एकम्, एकमेवाद्वितीयम्।’
सच्चिदानन्द स्वरूप,
विवेकानन्द
पुनश्च – अब मैं सच्चा विवेकानन्द बनने जा रहा हूँ। कभी तुमने बुराई का आनन्द लिया है? हाँ! हा! ओ भोली लड़की! तू क्या कहती है कि सब कुछ अच्छा है! बकवास! कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है। मैं अच्छे का भी आनन्द लेता हूँ और बुरे का भी। मैं ही जीसस था और मैं ही जूडास इस्केरियट। दोनों ही मेरी लीला है, दोनों ही मेरे विनोद। ‘जब तक द्वैतभाव है, भय से तुझे मुक्ति नहीं मिलेगी।’ शुतुरमुर्गवाला तरीका? – बालू में अपना सिर छिपा लेना और सोचना कि तुम्हें कोई देख नहीं रहा है! सब अच्छा ही है! साहसी बनो और जो भी आये उसका सामना करो। अच्छा आये, बुरा आये, दोनों का स्वागत है, दोनों ही मेरे लिए खेल हैं। ऐसी कोई भलाई नहीं, जिसे मैं प्राप्त करना चाहूँ, ऐसा कोई आदर्श नहीं, जिसे पकड़ लेना चाहूँ, ऐसी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं जिसे पूरा करना चाहूँ। मैं हीरों की खान हूँ, अच्छे और बुरे की कंकड़ियों से खेल रहा हूँ। बुराई, तुम्हारे लिए अच्छा है कि मेरे पास आओ; अच्छाई, तुम्हारे लिए भी अच्छा है कि मेरे पास आओ। यदि ब्रह्माण्ड मेरे कान के पास भी भहराकर गिरता है, तो इससे मुझे क्या? मैं वह शान्ति हूँ, जो बुद्धि के परे है। बुद्धि तो केवल हमें अच्छे और बुरे का ज्ञान देती है। मैं उससे परे हूँ, मैं शान्ति हूँ।
वि.
(७३)
(एक अमेरिकन मित्र को लिखित)
अलमिड़ा, कैलिफोर्निया,
१२ अप्रैल, १९००
माँ फिर से अनुकूल हो रही हैं। कार्य अब सफल हो रहे हैं। ऐसा होना ही था।
कर्म के साथ दोष अवश्य जुड़ा रहता है। मैंने उस संचित दोष का मूल्य बुरे स्वास्थ्य के रूप में चुकाया है। मैं प्रसन्न हूँ, उससे मेरा मन भी हलका हो गया है। जीवन में अब ऐसी शान्ति और कोमलता आ गयी है जो पहले नहीं थी। मैं अब आसक्त्ति और उसके साथ-साथ अनासक्त्ति दोनों सीख रहा हूँ, और क्रमशः अपने मन का स्वामी बनता जा रहा हूँ। . . .
माँ ही अपना काम कर रही हैं; मैं अब अधिक चिन्ता नहीं करता। प्रतिक्षण मेरे समान सहस्रों पतंगे मरते हैं। उनका काम उसी प्रकार चलता रहता है। माँ की जय हो! . . . माँ की इच्छा के प्रवाह में निःसंग भाव से बहना – यही मेरा सम्पूर्ण जीवन रहा है। जिस समय मैंने इसमें बाधा डालने का यत्न किया है उसी समय मैंने कष्ट पाया है। उनकी इच्छा पूर्ण हो! . . .
मैं आनन्द में हूँ, मानसिक शान्ति का अनुभव कर रहा हूँ तथा पहले की अपेक्षा मैं अब अधिक वैराग्यवान हो गया हूँ। अपने सगेसम्बन्धियों का प्रेम दिन-दिन घट रहा है, और माँ का प्रेम बढ़ रहा है। दक्षिणेश्वर में वटवृक्ष के नीचे श्रीरामकृष्ण के साथ रात्रि-जागरण की स्मृतियाँ एक बार फिर से जाग्रत हो रही हैं। और काम? काम क्या है? किसका काम? किसके लिए मैं काम करूँ? मैं स्वतन्त्र हूँ। मैं माँ का बालक हूँ। वे ही काम करती हैं, वे ही खेलती हैं। मैं क्यों संकल्प बनाऊँ? मैं क्या संकल्प बनाऊँ? बिना मेरे संकल्प के माँ की इच्छानुसार ही चीजें आयीं और गयीं। हम उनके यन्त्र हैं, वे कठपुतली की तरह नचाती हैं।
(७४)
(कुमारी जोसेफाइन मैकिआड को लिखित)
१०२ पश्चिम, ५८ नं. रास्ता,
न्यूयार्क,
२४ जुलाई, १९००
प्रिय ‘जो’,
सूर्य = ज्ञान; तरंगायित जल = कर्म; पद्म = प्रेम; सर्प = योग; हंस = आत्मा; उक्त्ति(१) = हंस (अर्थात् परमात्मा) हमें ये प्रदान करें। यह ह्रदयरूपी सरोवर है। तुम्हें यह कैसा प्रतीत होता है? अस्तु, हंस तुम्हें इन वस्तुओं को प्रदान कर परिपूर्ण बनाये।
आगामी गुरूवार के दिन फ्रेंच जहाज ‘ला शैम्पन’ में मेरी यात्रा करने की बात है। मैं सकुशल हूँ, धीरे धीरे मेरे स्वास्थ्य की उन्नति हो रही है – और आगामी सप्ताह में जब सप्ताह में जब तुमसे भेंट, तब तक ठीक ठीक ही रहूँगा। इति।
सदा प्रभुपदाश्रित
तुम्हारा,
विवेकानन्द
[१] ‘तन्नो हंसः प्रचोदयात्’ – रामकृष्ण मठ तथा मिशन के ‘प्रतीक’ की व्याख्या में यह वाक्य लिखा गया है।
(७५)
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
बेलुड़ मठ,
१४ जून, १९०२
प्रिय धीरामाता,
. . . मेरे विचार से पूर्ण ब्रह्मचर्य के आदर्श को प्राप्त करने के लिए किसी भी जाति को मातृत्व के प्रति परम आदर की धारणा दृढ़ करनी चाहिए; और वह विवाह को अच्छेद्य एवं पवित्र धर्म-संस्कार मानने से हो सकती है। रोमन कैथलिक ईसाई और हिन्दू विवाह को अच्छेद्य और पवित्र धर्मसंस्कार मानते हैं इसलिए दोनों जातियों ने परमशक्तिमान महान् ब्रह्मचारी पुरुषों और स्त्रियों को उत्पन्न किया है। अरबों के लिए विवाह एक इकरारनामा है या बल से ग्रहण की हुई सम्पत्ती, जिसका अपनी इच्छा से अन्त किया जा सकता है, इसलिए उनमें ब्रह्मचर्य-भाव का विकास नहीं हुआ है। जिन जातियों में अभी तक विवाह का विकास नहीं हुआ था उनमें आधुनिक बौद्ध धर्म का प्रचार होने के कारण उन्होंने संन्यास को एक उपहास बना डाला है। इसलिए जापान में जब तक विवाह के पवित्र और महान् आदर्श का निर्माण न होगा (परस्पर प्रेम और आकर्षण को छोड़कर) तब तक, मेरी समझ में नहीं आता कि वहाँ बड़े-बड़े संन्यासी और संन्यासिनी कैसे हो सकते हैं। ब्रह्मचर्य ही जीवन का वैभव है यह जैसा आपने समझा है वैसे ही आजन्म ब्रह्मचर्य की शक्ति संचित किए हुए कुछ व्यक्तियों का अगर निर्माण करना हो तो बड़े पैमाने पर बहुसंख्यक लोगो में विवाह के विषय में पवित्र भावना का निर्माण करना कितना आवश्यक है इस सत्य के बारे में मेरी आँखे भी अब खुल गई हैं।
मैं बहुत-कुछ लिखना चाहता हूँ परन्तु शरीर दुर्बल है . . . “जो मेरी जिस मनोकामना से पूजा करता है, मैं उसको उसी रूप में मिलता हूँ।”. . . प्रभु सभी को बन्धमुक्त्त करें। सभी मायापाश से छूट जाएँ, यही मेरी सदैव प्रार्थना है।
विवेकानन्द