1. तपों के अभ्यास द्वारा जिन लोगों के पाप क्षीण हो गये है, जिनके चित्त शान्त और राग-द्वेष या आसक्तियों से रहित हो गये हैं, ऐसे मोक्ष प्राप्ति की तीव्र इच्छा रखनेवाले साधकों के लिए ‘आत्मबोध’ नामक इस ग्रन्थ की रचना की जा रही है।
2. मोक्ष की प्राप्ति में, अन्य समस्त साधनों की अपेक्षा ज्ञान ही सबसे प्रमुख साधन है । जैसे अग्नि के बिना भोजन नहीं पकता, वैसे ही ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं सिद्ध होता।
3. कर्म अज्ञान का विरोधी नहीं है, अतः वह अज्ञान का नाशक नहीं हो सकता । जिस प्रकार प्रकाश ही अन्धकार को नष्ट कर सकता है, उसी प्रकार ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट करने में सक्षम है।
4. अज्ञान के कारण ही आत्मा सीमाबद्ध प्रतीत होती है । अज्ञान का नाश होने पर सारे भेदों से रहित असीम आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट हो जाती है, जैसे कि बादलों के छँट जाने पर सूर्य स्वयं प्रकाशित होने लगता है।
5. जैसे कतक या निर्मली का चूर्ण जल की गन्दगी को साफ करके स्वयं भी नीचे बैठ जाता है, वैसे ही ज्ञान का निरन्तर अभ्यास, अज्ञान से कलुषित जीव को शुद्ध करके (ज्ञान) स्वयं भी लुप्त हो जाता है ।
6. राग-द्वेषों आदि से परिपूर्ण यह संसार स्वप्न के समान है। (व्यक्ति) जब तक स्वप्न देखता रहता है, तब तक वह (तथा उसमें दिखनेवाली चीजें) सत्य प्रतीत होती हैं, (परन्तु) जब जाग जाता है, तब उसे सपने में देखी हुई चीजें झूठी समझ में आती हैं।
7. जैसे सीपी में चाँदी का भ्रम हो जाता है, (वैसे ही) जगत् तभी तक सत्य प्रतीत होता है, जब तक कि जगत् के आधार-स्वरूप अद्वय ब्रह्म का बोध नहीं हो जाता।
8. जैसे बुलबुले जल में ही उत्पन्न होकर, उसी में रहकर, उसी में विलीन हो जाते हैं; वैसे ही सबके आधार तथा सबके उपादान-स्वरूप परमेश्वर में ही सारे जगत् उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय को प्राप्त होते हैं।
9. जैसे कंगन आदि सभी आभूषण सर्वदा (अपने उपादानरूपी) सोने विद्यमान रहते हैं; वैसे ही जगत् के सारे विविध अभिव्यक्त रूप सर्वदा सत्-चित्-स्वरूप आत्मा, (अर्थात्) सर्वव्यापी विष्णु में ही स्थित है ।
10. जैसे आकाश भिन्न-भिन्न उपाधियों के कारण अनेक प्रतीत होता है और उपाधियों का नाश होने पर एक हो जाता है, वैसे ही एक ही सर्वव्यापी सत्ता भिन्न-भिन्न उपाधियों के कारण अनेक प्रतीत होती हैं और उनका नाश होने एक ही रह जाती है।
11. जल में स्वाद, रंग आदि आरोपित उपाधियों के) भेद की भाँति, आत्मा में आरोपित विभिन्न उपाधियों के कारण ही जाति, वर्ण, आश्रम आदि दीख पड़ते हैं ।
12. पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार पंचीकृत महाभूतों से बना हुआ स्थूल शरीर सुख-दुःखों के भोग का साधन कहा जाता है।
13. अपंचीकृत (अमिश्रित) पंच महाभूतों से निर्मित; और पाँच प्राणों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, मन तथा बुद्धि (यह सत्रह वस्तुओं का समूह) सूक्ष्म शरीर कहलाता है और भोगों (सुख-दुःख के अनुभवों) का साधन है।
14. अवर्णनीय तथा अनादि अविद्या ही ‘कारण शरीर’ है । आत्मा इन तीनों शरीरों अर्थात् उपाधियों से पृथक् है – यह निश्चित रूप से जानना चाहिये।
15. जैसे स्फटिक अपने पास स्थित नीले वस्त्र आदि के कारण उस-उस वस्तु के रंग का प्रतीत होता है, वैसे ही शुद्ध आत्मा (अन्नमय आदि) पाँच कोशों की सान्निध्य से उन-उन के गुणों से युक्त प्रतीत होती है।
16. जैसे भूसी आदि से युक्त चावल (धान) पर (ढेकी से) आघात करके उसे छिलकों से पृथक् कर लिया जाता है, वैसे ही पंचकोशों से युक्त शरीर से, विवेक तथा विचारों के आघात द्वारा, उसके अन्तर में स्थित विशुद्ध आत्मा को, अलग कर लेना चाहिये।
17. आत्मा यद्यपि नित्य सर्वव्यापी है, तथापि सभी पदार्थों में उसका आभास नहीं मिलता, (परन्तु) जैसे स्वच्छ दर्पण या जल में प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है, वैसे ही यह (शुद्ध) बुद्धि (अन्तःकरण) में ही प्रकट होता है।
18. आत्मा को सदैव – शरीर, इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि-रूप प्रकृति के कार्यों से भिन्न और राजा की भाँति इन सबका साक्षी मात्र जानो ।
19. जैसे भागते हुए बादलों के बीच स्थित चन्द्रमा भी भागता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आत्मा अक्रिय है, तथापि उसे इन्द्रियों आदि की क्रिया के बीच देखते हुए अविवेकी जनों को आत्मा भी क्रियाशील प्रतीत होती है।
20. जैसे सूर्य के प्रकाश को आश्रय बनाकर लोग अपने सारे कार्य सम्पन्न करते हैं; वैसे ही देह, इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि, आत्मा के चैतन्य को आश्रय बनाकर, अपने-अपने कार्य सम्पन्न करते हैं।
21. जैसे आकाश में दिखाई देनेवाली नीलिमा को लोग आकाश का ही रंग मान लेते हैं, वैसे ही लोग अविवेक के कारण देह तथा इन्द्रियों के गुणों एवं कर्मों को सत् तथा चैतन्य-स्वरूप निर्मल आत्मा में आरोपित कर लेते हैं।
22. जैसे जल की चंचलता आदि को उसमें प्रतिबिम्बित चन्द्रमा की (चंचलता) मान ली जाती है, वैसे ही मन की कर्तापन आदि उपाधियाँ, अज्ञान के कारण आत्मा के गुण प्रतीत होते हैं।
23. राग-द्वेष, सुख-दुःख तथा इच्छा आदि बुद्धि में उत्पन्न होनेवाली वृत्तियाँ हैं, सुषुप्ति अर्थात् गहरी निद्रा की अवस्था में बुद्धि के लुप्त हो जाने पर उनका अ्स्तित्व नहीं रह जाता, अतः ये आत्मा की नहीं, अपितु बुद्धि की (वृत्तियाँ) हैं।
24. जैसे सूर्य स्वभाव से ही प्रकाशमान है, जल शीतल है और अग्नि गरम है; वैसे ही आत्मा स्वभाव से ही सत्, चैतन्य, आनन्दस्वरूप और नित्य निर्मल है।
25. आत्मा के सत्-चित् अंश और बुद्धि-वृत्ति – इन दोनों के अविवेकपूर्वक जुड़ जाने पर – ‘मैंजानताहूँ’ – यह वृत्ति उत्पन्न होती है ।
26. आत्मा में कोई क्रिया नहीं होती और बुद्धि में कोई चेतनता नहीं होती, परन्तु जीव (अज्ञान के कारण) सभी मलों को एक जानकर, आत्मा को कर्ता तथा द्रष्टा मानते हुए भ्रमित होता है।
27. रस्सी को सर्प समझने के समान, आत्मा को जीव मानने से व्यक्ति भयभीत हो जाता है, (परन्तु) यदि वह जान ले कि मैं जीव नहीं, अपितु परमात्मा हूँ, तो वह सारे भयों से मुक्त हो जाता है।
28. जैसे एकमात्र दीपक ही घड़े आदि को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एकमात्र आत्मा ही बुद्धि आदि तथा इन्द्रियों को भी प्रकाशित करती है, (बुद्धि आदि) जड़-पदार्थ स्वयं को नहीं प्रकाशित कर सकते।
29. जैसे एक दीपक स्वयं को प्रकाशित करने के लिए किसी दूसरे दीपक की अपेक्षा नहीं रखता, वैसे ही स्वयं ज्ञानस्वरूप होने के कारण आत्मा को अपना स्वरूप जानने के लिये किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं होती।
30. ‘नेति नेति’ आदि श्रुति-वाक्यों के द्वारा सभी उपाधियों का निषेध करके महा-वाक्यों के द्वारा लक्षित जीवात्मा तथा परमात्मा की एकता को जान लेना चाहिये।
31. अविद्या से उत्पन्न शरीर आदि दृश्य पदार्थ हैं तथा पानी के बुलबुलों की भाँति नाशवान हैं । ऐसा जानो कि मैं इनसे भिन्न निर्मल ब्रह्म तत्त्व हूँ।
32. देह से भिन्न होने के कारण मुझमें जन्म बुढ़ापा, क्षय, मृत्यु आदि नहीं है; और इन्द्रियों से रहित होने के कारण मैं शब्द आदि विषयों से निर्लिप्त हूँ ।
33. श्रुति (मुण्डक. ,२. १. २) कहती है कि वह आत्मा ‘प्राणरहित, मनरहित और शुद्ध’ है । मन से रहित होने के कारण मुझमें दुःख, राग-द्वेष तथा भय आदि नहीं हैं ।
34. मैं निर्गुण, क्रियारहित, नित्य, विकल्परहित, निरंजन, विकाररहित, आकाररहित, नित्यमुक्त तथा निर्मल हूँ ।
35. मैं आकाश की भाँति सभी पदार्थों के बाहर तथा भीतर स्थित हूँ; मैं अपरिवर्तनीय सदा सर्वत्र एक समान, सिद्ध, निर्लिप्त, निर्मल तथा अचल हूँ।
36. जो नित्य, शुद्ध, मुक्त, एक, अखण्ड, आनन्द-स्वरूप, एकमेवाद्वितीय, सत्य, ज्ञान, अनन्त-स्वरूप परम ब्रह्म है, वह मैं ही हूँ।
37. इस प्रकार निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न ‘ब्रह्म ही मैं हूँ’ – यह संस्कार अज्ञान तथा उसके विक्षेपों (विकृतियों) को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे रसायन रोगों को (नष्ट कर देता है)।
38. एकान्त स्थान में बैठकर, मन को आसक्तियों से हटाकर, इन्द्रियों को वशीभूत करके, अनन्य भाव से, उस अनन्त अद्वितीय आत्मा का ध्यान करना चाहिये ।
39. बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिये कि वह विवेकपूर्वक सम्पूर्ण दृश्य जगत् को आत्मा में ही विलीन करके, निरन्तर निर्मल आकाश-जैसे अद्वितीय आत्मा का ध्यान करता रहे ।
40. परमार्थ को जाननेवाला, सम्पूर्ण नाम-रूप आदि वाले जगत् को त्यागकर, (अपने) परिपूर्ण चैतन्य तथा आनन्द स्वरूप में अवस्थान करता है।
41. वह परम आत्मा चैतन्य तथा आनन्द के साथ अभिन्न होने के कारण, स्वयं ही प्रकाशित होता है; उसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय (जाननेवाला, जानने की क्रिया और जानने की वस्तु) का भेद नहीं होता ।
42. इस प्रकार आत्मा-रूपी अरणी1 में, निरन्तर ध्यानरूपी मन्थन किये जाने पर, ज्ञान-रूपी प्रचण्ड ज्वाला प्रकट होकर समस्त अज्ञान-रूपी ईंधन को जला डालती है।
43. सूर्योदय के आगमन के समान, ज्ञान होने के पूर्व, (अज्ञान-) अन्धकार का नाश हो जाने के बाद, सूर्य के समान आत्मा स्वयं ही प्रकट हो जाती हैं।
44. जैसे अपने गले का खोया हुआ हार गले में ही मिल जाता है, वैसे ही आत्मा निरन्तर प्राप्त है, तथापि अज्ञान के कारण अप्राप्त के समान प्रतीत होती है और अज्ञान का नाश हो जाने पर प्राप्त हुई-सी लगती है।
45. जैसे भ्रमवश वृक्ष का ठूँठ मनुष्य जैसा दीख पड़ता है, वैसे ही भ्रान्ति के कारण ब्रह्म में जीवभाव आ जाता है, जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाने पर, उस जीवभाव का नाश हो जाता है ।
46. जैसे दिशाओं के सही ज्ञान से दिशा-सम्बन्धी भ्रम दूर हो जाता है, वैसे ही अपने सच्चे स्वरूप के अनुभव से उत्पन्न ज्ञान द्वारा ‘मैं-मेरा’-रूप अज्ञान तत्काल दूर हो जाता है।
47. सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हुआ योगी अपने ज्ञान-नेत्रों द्वारा, सारे जगत् को अपनी आत्मा में ही देखता हैं और सब कुछ एक आत्म-स्वरूप ही (देखता है)।
48. यह सारा जगत् आत्मा ही है, (इसमें) आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है । जैसे घड़ा आदि मिट्टी (ही) है, (वैसे ही ज्ञानी) सबको अपनी आत्मा (ही) देखता है।
49. ज्ञान से युक्त वह जीवन्मुक्त पूर्वोक्त उपाधियों के गुणों को त्याग देता है । जैसे भ्रमर का ध्यान करते हुए कीट भ्रमर हो जाता है, वैसे ही वह सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है ।
50. (जीवन्मुक्त) योगी मोह-रूपी समुद्र को पार करके, राग-द्वेष-आदि राक्षसों को मार करके, शान्ति से युक्त होकर, आत्मा में ही रमण करता हुआ स्थित रहता है।
51. (वह जीवन्मुक्त) बाह्य अनित्य सुखों की आसक्ति को त्याग करके, आत्मा के आनन्द से सन्तुष्ट हुआ, घड़े में स्थित दीपक के समान, स्वयं में स्थित होकर मानो अपने भीतर ही प्रकाशित होता रहता है ।
52. (वह) मुनि उपाधियों में स्थित होकर भी उनके गुणों से आकाश की भाँति निर्लिप्त रहता है, सब कुछ जानते हुए (भी) मूढ़ की तरह निवास करता है, (और) अनासक्त होकर वायु के समान विचरण करता है ।
53. उपाधियों के नष्ट हो जाने पर, (वह) मुनि, पानी में पानी आकाश में आकाश अथवा तेज में तेज के समान, (अपने) निर्गुणस्वरूप (अर्थात् सर्वव्यापी) विष्णु में विलीन हो जाता है ।
54. उसी को ब्रह्म समझो, जिसकी प्राप्ति से बढ़कर (अन्य कोई) प्राप्ति नहीं है, जिसके सुख से बढ़कर (अन्य कोई) सुख नहीं है, जिसके ज्ञान से बढ़कर (अन्य कोई) ज्ञान नहीं है।
55. उसी को ब्रह्म समझो, जिसे देखने के बाद कुछ अन्य देखने योग्य नहीं रहता, जो होने के बाद दुबारा जन्म नहीं होता और जिसे जान लेने के बाद अन्य कुछ भी जानने योग्य नहीं रहता।
56. उसी को ब्रह्म समझो; जो सामने, ऊपर, नीचे (हर तरफ से) पूर्ण है; (जो) सत्-चिद्-आनन्द-स्वरूप है; और जो एक, अद्वितीय, अनन्त एवं नित्य है ।
57. वेदान्त द्वारा निषेध लक्षणा से (नेति, नेति द्वारा) जिस एक, अद्वितीय, अखण्ड, आनन्द-स्वरूप को इंगित किया जाता हैं, तत् उसी को ब्रह्म समझो।
58. (ब्रह्म) अखण्ड आनन्द स्वरूप है। ब्रह्मा, इन्द्र आदि सभी (देवता) अपने तारतम्य के क्रम से (कम या अधिक मात्रा में) उसी के आनन्द के कण मात्र पर निर्भर हैं (और) उसे पाकर आनन्दित होते हैं ।
59. सभी वस्तु वस्तुएँ उसी (ब्रह्म) से युक्त है, सारे कार्य उसी पर आश्रित हैं, अतः पूरे दूध में मक्खन के समान ब्रह्म सर्वव्यापी है ।
60. जो न सूक्ष्म है, न स्थूल, न छोटा है, न बड़ा; (जो) जन्मरहित तथा अक्षय है; (और जो) रूप, गुण, रंग तथा नाम से रहित है; उसी को ब्रह्म समझो।
61. जिसके प्रकाश से सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशित होते हैं, परन्तु जो (अपने स्वयं के) प्रकाशों से प्रकाशित नहीं होते, जिसके द्वारा यह सब कुछ प्रकाशित होता है, उसी को ब्रह्म समझो।
62. ब्रह्म सम्पूर्ण जगत् के भीतर और बाहर से व्याप्त होकर, उसे प्रकाशित करता हुआ, स्वयं (भी) प्रकाशित होता है; जैसे अग्नि, तपे हुए लोहे के गोले को भीतर और बाहर से तप्त करती हुई स्वयं भी तपती रहती है।
63. ब्रह्म जगत् से भिन्न है, (परन्तु यहाँ) ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है, यदि ब्रह्म से भिन्न (कुछ) प्रतीत होता है, (तो वह) मृग-मरीचिका के समान मिथ्या है।
64. जो कुछ भी देखने तथा सुनने में आता है, वह ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं हैं । तत्त्वज्ञान हो जाने पर सब कुछ वह सत्-चित्आनन्द-स्वरूप एकमात्र ब्रह्म ही प्रतीत होने लगता है।
65. सर्वव्यापी सत्-चित्-स्वरूप आत्मा को ज्ञान-दृष्टि से देखा जाता है । प्रकाशमान सूर्य को अन्धे के समान, अज्ञान-दृष्टि से (आत्मा को) नहीं देखा जा सकता।
66. जब जीव श्रवण आदि द्वारा प्रज्वलित ज्ञानाग्नि में भलीभाँति तप्त होता है, तो वह सारी मलिनताओं से मुक्त होकर स्वर्ण की भाँति स्वयं ही चमकने लगता है।
67. हृदय-आकाश में उदित हुए आत्मा-रूपी ज्ञान-सूर्य द्वारा अज्ञान-अन्धकार का नाश हो जाने पर; सर्वव्यापी तथा सबका आधारभूत (ब्रह्म) प्रकाशित हो उठता है और सारे जगत् को प्रकाशित करता है।
68. जो दिशा-देश-काल आदि से निरपेक्ष, सर्वव्यापी, शीत आदि को हरनेवाले, नित्य आनन्द-स्वरूप तथा निर्मल अपने आत्मा-रूपी तीर्थ का सेवन करता हैं; वह (बाहर से) पूर्णतः निष्क्रिय होकर (अन्तर में) सर्वज्ञ, सर्वव्यापी तथा अमृत-स्वरूप हो जाता है ।
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Footnotes:
- अग्निमन्थ नामक एक वृक्ष की लकड़ियाँ, जिन्हें आपस में रगड़कर आग पैदा की जाती थी। ↩︎