अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥ ४ ॥
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ ५ ॥
Commentary:
ये श्लोक थोड़े technical हैं, परन्तु इतने कैठिन नहीं कि हम समझ न सकें। थोड़ा-सा उपनिषद् का आधार आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में पहले से बना रहे, तो ये बातें समझने में दुरूह नहीं है। एजन, एजने, कम्पनशीलता के अर्थ में होता है। अनेजद, उसमें कम्पनशीलता नहीं है, वह हिलता-डुलता नहीं है। गुरु शिष्य से कह रहे हैं कि जिस आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ, वह आत्मतत्त्व ऐसा है। उसमें कम्पनशीलता नहीं है। एकम् – वह एक ही है। जो भी दिखाई दे रहा है, वह एक ही आत्मतत्त्व है, जो सबके भीतर भरा हुआ है। फिर कैसा है? मनसो जवीयो – वह मन से भी अधिक गतिमान है। अभी तो कहा कि उसमें कम्पनशीलता नहीं है और अभी कहा जा रहा है कि वह मन से भी अधिक गतिमान है, तो दोनों में विरोध-सा दिखाई देता है। एक ओर कम्पन का अभाव और दूसरी ओर चलायमानता, मन से अधिक गतिमान। ये इन्द्रियाँ प्रकाश देती हैं, इसीलिए आप शास्त्रों में पढ़ते हैं कि प्रत्येक इन्द्रिय के एक-एक अधिष्ठाता देवता हैं। जैसे यह जो हस्तेन्द्रिय है, ऐसे हर इन्द्रिय का अधिष्ठाता देवता हमारे यहाँ माना गया है। यहाँ पर यह कहा गया कि नैनद्देवा- ये देव माने ये इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, न आप्नुवन् – उस आत्मतत्त्व को नहीं पा सकीं। आखें देख नहीं सकीं, कान सुन नहीं सके। उसी प्रकार ये जो अन्य तीन ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वे भी उस आत्मतत्त्व को पकड़ नहीं पायीं। यह आत्मतत्त्व इन ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ से बाहर है। क्यों बाहर है? क्योंकि वह आत्मतत्त्व आगे गया हुआ है। जब इन्द्रियाँ पकड़ने के लिए गयीं, तो वह आत्मतत्त्व और भी आगे निकल गया। लगता है, इसलिये इन्द्रियाँ उसे पकड़ नहीं पायीं। यह कहने का बड़ा सुन्दर तरीका है। इसका अर्थ हम लोग समझेंगे कि क्या है? तद् धावतो अन्यान् अत्येति बाकी चीजें दौड़ रही हैं, इन्द्रियाँ दौड़ रही हैं और वह खड़ा होकर के भी इन भागती हुई चीजों को पार कर जाता है। आप देख रहे हैं, भाषा कैसी है उपनिषद् की ! आत्मतत्त्व स्थिर है, बाकी चीजें भाग रही हैं, परन्तु आत्मतत्त्व खड़ा होकर के भी भागती हुई चीजों को पार कर जाता है।
यह जो मातरिश्वा है, Cosmic energy है। अप्पः दधाति माने यह जीवों में कर्म की प्रेरणा देता है। कौन भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रेरणाओं को प्रदान करता है? वह मातरिश्वा है, Cosmic energy है। यह इसका अर्थ हुआ।
अब इसको समझने की चेष्टा करें। पहला तो यह लगता है कि यहाँ आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में कैसे विरोधी गुण प्रदर्शित किये गये हैं कि वह चलता नहीं है फिर कहा गया कि वह चलता है। उस आत्मतत्त्व में किसी प्रकार का कम्पन नहीं है। वह बहुत दूर है। वह सबसे समीप है। वह सबके भीतर में रमा हुआ है। वह सबके बाहर में स्थित है। अब इन विरोधी गुणों के द्वारा उस आत्मतत्त्व का वर्णन किया गया है। इसका क्या तात्पर्य है? इसको Process of dilectics वैतर्किक प्रणाली कहते हैं। जब कोई विषय बहुत गूढ़ होता है, अत्यन्त सूक्ष्म होता है, तो वैतर्किक प्रणाली का आश्रय लिया जाता है। उसके द्वारा उसे समझाने की चेष्टा की जाती है। एक विज्ञान का उदाहरण देता हूँ, इससे शायद समझने में सुविधा हो जाय। यह जो इलेक्ट्रॉन है, इसकी गति किसके समान है? वह particle (कण) है अथवा wave (तरंग) है? क्या है? देखा गया कि electron ठीक पकड़ में नहीं आता। कभी-कभी उसमें particle के गुण दिखाई देते हैं और कभी-कभी उसमें wave के गुण दिखाई देते हैं। कभी तरंग के समान वह वर्तन करता है और कभी वह कण के समान वर्तन करता है, तब यह कहना अत्यन्त कठिन है कि इलेक्ट्रॉन कणात्मक है या तरंगात्मक ? उसमें दोनों गुण दिखाई देते हैं। वैज्ञानिकों ने एक नया शब्द गढ़ दिया wavicle – यह इलेक्ट्रॉन कैसा है? यह wavicle है। यह wave और particle दोनों के भी समान है, इसलिये wave का wav ले लिया और particle का icle ले लिया और दोनों को जोड़ कर एक नया शब्द wavicle गढ़ लिया।
इस वैतर्किक प्रणाली में अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु जो समझ में नहीं आती है, वहाँ पर विरोधी गुणों का प्रदर्शन करते हुए, विरोधी गुणों के माध्यम से, उस वस्तु का विचार किया जाता है, उस वस्तु का वर्णन किया जाता है। यहाँ पर भी वही बात कही गई कि आत्मतत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म, अत्यन्त गहन है, इसलिए वैतर्किक प्रणाली का यहाँ आश्रय लिया गया। इसके विपरीत गुण दिखाये गये, विरोधी गुण दिखाये गये।
उस तत्त्व के सम्बन्ध में कहा गया, उसमें कम्पनशीलता नहीं है, वह एक तत्त्व है, वह मन से भी अधिक गतिमान है। मन से भी अधिक गतिमान का क्या अर्थ है? कहते हैं कि आत्मतत्त्व खड़ा है और जो वस्तुएँ भाग रही हैं, वह खड़ा होकर भी उनको पार कर जाता है। इसे समझने के लिए आप थोड़ी कल्पना करें। जैसे ईथर में हीट है, यह electricity है transmission के लिए, यह magnetism है, हम एक ऐसे आधार के रूप में, substratum के रूप में कल्पना करते हैं। ईथर तो वैसे कुछ नहीं है। पहले कल्पना की गई कि कोई एक माध्यम है, जिससे यह सब संचारित होता है। ऐसी अगर आप ईश्वर के समान एक कल्पना करें, तो समझ सकते हैं। वस्तुएँ भाग रही हैं, तो कहाँ भाग रही हैं? आत्मा में ही भाग रही हैं। आत्मतत्त्व सबके भीतर में भिदा हुआ है। किसकी शक्ति से शक्तिमान बनकर इन्द्रियाँ पकड़ना चाहती हैं? आत्मतत्त्व की ही शक्ति है। नेत्रेन्द्रियाँ पकड़ना चाहती हैं कि मैं आत्मतत्त्व को देखूँगी, तो यह चक्षुरिन्द्रिय है। वहाँ आत्मतत्त्व पहले ही गया हुआ है। यदि आत्मतत्त्व न हो, तो कोई भी इन्द्रिय काम नहीं कर पायेगी। आत्मतत्त्व की विद्यमानता के कारण हर वस्तु काम करने में समर्थ होती है। उसको इस ढंग से व्यक्त किया गया। मन से भी अधिक गतिमान का क्या मतलब है? मन खूब जोरों से दौड़ा कि मैं आत्मतत्त्व को पकड़ लूँगा। किन्तु जाकर के देखता है कि आत्मतत्त्व तो पहले से विद्यमान है। जहाँ तक मन जाएगा, आत्मतत्त्व तो वहाँ पर विद्यमान है ही। इसी को यहाँ पर figurative language में, एक रूपक के माध्यम से हमारे समक्ष रखने की चेष्टा की गयी है।
वह मन से भी अधिक गतिशील है कैसे ? कहते हैं कि जो विचार- प्रवाह है, जिसे हम विचार-शक्ति भी कह सकते हैं, वह बहुत गतिशील माना जाता है। विचार की गति प्रकाश की गति से भी अधिक मानते हैं। विचार प्रकाश से भी अधिक सूक्ष्म है। स्नायु-प्रवाह या स्नायु की गति तो अधिक सूक्ष्म है ही। स्नायु प्रवाह, स्नायु की गति का क्या अर्थ है? जैसे मान लीजिए मेरे अँगूठे में कहीं पर कोई चोट लगी। चोट की संवेदना मस्तिष्क में जाती है। कैसे जाती है? मान लीजिए मेरी ऊँचाई साढ़े छः फुट हो, तो लगभग छः फुट की दूरी हो गयी। अँगूठा इतने नीचे और मस्तिष्क उतना ऊँचा है। चोट की संवेदना अँगूठे से मस्तिष्क लेकर यहाँ तक जाएगा, तो कितना समय लगेगा। कहा गया है .01 सेकेन्ड समय लगेगा। छः फुट की दूरी पर अवस्थित वह संवेदना मस्तिष्क के उस केन्द्र में लगभग 01 सेकेन्ड में पहुँच जाएगी। हमने कहा स्नायु-संवेदना की गति अधिक है। Jet plane की भी अपनी गति होती है। .01 सेकेन्ड में छः फुट संवेदना का पहुँचना, यह कोई विशेष बात नहीं है। विचार प्रकाश से भी सूक्ष्म है। विचार की गति प्रकाश से भी अधिक है। ऐसे मन की गति से भी अधिक गतिमान यह आत्मतत्त्व है। यह वैतर्किक प्रणाली से बताया गया।
वह आत्मतत्त्व कम्पनशील नहीं है, उसमें किसी प्रकार का कम्पन नहीं है। परन्तु वह मन से भी अधिक गतिशील है। इसका मतलब कि मन जहाँ जाता है, वहाँ जाकर के देखता है कि आत्मतत्त्व पहले से ही अवस्थित है। आत्मतत्त्व की विद्यमानता के कारण मन का वहाँ पर पहुँच पाना सम्भव होता है। उसी प्रकार जब ये देवता, ये इन्द्रियाँ आत्मतत्त्व को पकड़ने के लिए जाती हैं, तो देखती हैं कि जहाँ भी ये पहुँचती हैं, आत्मतत्त्व तो उनके आगे ही निकला हुआ है। इसलिये ये इन्द्रियाँ आत्मतत्त्व को पकड़ नहीं पायीं। इसी को भिन्न उपनिषदों में भिन्न शब्दों में कहा गया है, जैसे कि अवाङ्गमनसगोचर, न तत्रचक्षुगच्छति, न वाग्गच्छति, इत्यादि। वहाँ पर आँखें नहीं जा पाती, कान नहीं जा पाता, मन नहीं जा पाता, भिन्न-भिन्न भाषा में, भिन्न-भिन्न वाक्य रचना में, इस आत्मतत्त्व की सूक्ष्मता को रखा गया है ।
इसी बात को श्रीरामकृष्ण कैसे कहते हैं? उन्होंने सहज शब्दों में इस आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में, ब्रह्म के सम्बन्ध में कहा- देखो रे! सारी चीजें संसार की जूठी हो गईं, पर एक ब्रह्म वस्तु जूठी नहीं हो पायी। कोई नहीं बता पाया मुँह से कि ब्रह्म वस्तु कैसी है? यह ब्रह्म कैसा है? जूठा का मतलब? उन्होंने कहा कि वेद, वेदान्त, शास्त्र सब जूठे हो गये, अर्थात् जिसका स्पर्श होठों से हो जाए, वह वस्तु जूठी हो जाती है। वेदों को, शास्त्रों को हम पढ़ लेते हैं, इसलिये पढ़ने के कारण वेद और शास्त्र जूठे हो गये। पर वाणी के सहारे आज तक कोई यह नहीं बता पाया कि ब्रह्म कैसा है? इसीलिए श्रीरामकृष्ण कहते हैं कि दुनिया की सारी चीजें जूठी हो गयीं, एक ब्रह्म ही ऐसा है, जो जूठा नहीं हो पाया, कोई उसे बता नहीं पाया। यह भी कहने का एक तरीका है।
यहाँ पर यह कहा गया कि तद्धावतः अन्यान् अत्येति तिष्ठति वह आत्मतत्त्व भागती हुई चीजों को खड़े होकर के ही पार कर लेता है। इसका मतलब कि चीजें उसमें ही तो भाग रही हैं। जैसे आप सिनेमा का पर्दा देखते हैं। अब क्या कहेंगे? यह सिनेमा का जो पर्दा है, वह खड़ा होकर के ही भागती हुई सारी चीजों को पार कर लेता है। पर्दे में कितनी चीजें भाग रही हैं। मोटर साइकिल वाला भाग रहा है, हवाई जहाज वाला भाग रहा है। कितनी चीजें आपको पर्दे में भागती हुई दिखाई देती हैं। परन्तु यह पर्दा कैसा है? खड़ा है और खड़ा हो करके सब भागती हुई चीजों को पार कर लेता है। ठीक इसी प्रकार यह जो आत्मतत्त्व है, यह स्थिर है और ये जितनी चीजें भाग रही हैं, उसी के भीतर भाग रही हैं।
उसके बाद कहते हैं, तस्मिन् अपः मातरिश्वा दधाति। उस आत्मतत्त्व के रहने के कारण, उसकी अवस्थिति के कारण, यह जो मातरिश्वा है, यह जो cosmic energy है, सबको उसने कर्म के अनुसार गुण प्रदान किया है, यही जीवों को ठीक कर्म करने के लिए प्रेरित करती रहती है। श्रीरामकृष्ण के दो-तीन, उदाहरण तो बहुत सुन्दर हैं। एक उदाहरण यह है। जैसे घर में लड़की की शादी हो रही है। घर का मुखिया अपनी कुर्सी पर चुपचाप बैठा हुआ हुक्का गुड़गुड़ा रहा है। यह भी विचित्र है! वह कोई काम करते हुये दिखाई नहीं देता, पर उसकी इच्छा के बिना कुछ नहीं: हो सकता। गृहिणी आकर सब बात बता रही है कि अमुक अमुक काम हो रहा है। उस गृहपति ने केवल सिर हिला दिया। जैसे गृहपति कुछ करता हुआ नहीं दिखाई देता है, परन्तु उसकी इच्छा के बिना कुछ नहीं हो सकत, ठीक वैसे ही यह आत्मतत्त्व है। यह जो cosmic energy है, वह जो कुछ भी करेगी, पूछकर ही करेगी। उसकी अवस्थिति के कारण सभी कार्य ठीक ढंग से सम्पन्न होते हैं, यह यहाँ पर कहा गया है। एक दूसरे ढंग से भी इसे समझा जा सकता है! दूसरा उदाहरण श्रीरामकृष्ण देते हैं। वे कहते हैं कि देखो! आग जल रही है। कड़ाही में आलू और परवल दोनों उबल रहे हैं। छोटा-सा लड़का कहता है, देखो माँ! आलू और परवल कितने उछल रहे हैं! माँ कहती है – हाँ बेटे ! उछल रहे हैं। जब माँ ने नीचे से जलती हुई लकड़ी को हटा दिया, तो आंसू और परवल का उछलना बन्द हो गया। इसके माध्यम से बताते हैं कि आलू और परवल अपने आप नहीं ‘उछल रहे हैं। इस आग, इस ताप के कारण ये उछलते दिखाई दे रहे हैं। जैसे ही तीप को दूर कर दिया गया, आलू और परवल का उछलना बन्द हो गया। वैसे ही आत्मतत्त्व की अवस्थिति के कारण सभी प्राणी अपने-अपने कर्म में लगे दिखाई देते हैं। कहीं पर व्यतिक्रम नहीं दिखाई देता है।
कठोपनिषद् में बहुत सुन्दर, अद्भुत वर्णन आया है भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः । भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृर्युधावति पञ्चमः ।। यह तो मानो भीति की भावना है। ऐसा लगता है कि ब्रह्मतत्त्व निर्लिप्त खड़ा है, परन्तु उसके भय के कारण अग्नि प्रज्वलित होती है, वायु बह रही है, मृत्यु अपना कार्य करती है। भिन्न-भिन्न प्रकार से इस आत्मतत्त्व का निरूपण किया गया।
उसके बाद अगले पाँचवें मन्त्र में उसी बात को दुहराते हैं –
(Verse 5 Commentary)
यदि कोई कठिन विषय हो, गूढ़ हो, तो यहाँ पर भगवान् भाष्यकार कहते हैं – न मन्त्राणां जामिता अस्ति। मन्त्रों में कोई आलस्य नहीं होता। वे बार-बार एक ही बात को इसलिये दुहराते हैं, ताकि वह बात हमारे भीतर में जाकर के घुस जाय। तदेजति तन्नैजति, वह कम्पनशील नहीं है, वह कम्पनशील है। माने विरोधी गुण है, जो कुछ भी कम्पनशील है, उसके भीतर वही आत्मतत्त्व है और जो कम्पनशील नहीं है, उसके भीतर भी वही आत्मतत्त्व है। तद् दूरे, वह दूर है और तद्वन्तिके, वह समीप है। माने दूर स्थित वस्तुओं में भी वही है, समीप स्थित वस्तुओं में भी वही है। यह एक अर्थ है। दूसरा अर्थ अगर हमने आत्मतत्त्व को नहीं जाना, तो बहुत दूर है और जान लिया, तो उसके समान नजदीक और कुछ नहीं है। जैसे मैं एक उदाहरण बताया करता हूँ। बचपन में पड़ोस में एक मास्टर साहेब रहते थे। मैं किसी काम से उनके घर में गया था। सात-आठ साल का था। वह घटना मुझे अभी भी याद है। वे स्कूल जाने की तैयारी में थे। उन्होंने खाना जल्दी-जल्दी खा लिया और अपनी टोपी खोज रहे थे। इधर जायें, उधर जायें, तकिये के नीचे देखें और फिर पत्नी को डाँटना शुरू किया – बहुत फूहड़ हो! कितनी बार समझाकर के कहा कि तुम यहाँ पर ठीक रख दिया करना टोपी। अब देखो ! उस समय तो बिना टोपी के जाते ही नहीं थे और टोपी मिल नहीं रही है। यह घटना है १९३८ की। टोपी मिल नहीं रही है। पता नहीं तुमने कहाँ रख दी है। बहुत बड़बड़ा रहे थे। बड़बड़ाते-बड़बड़ाते वे रसोई घर में आये। मैं वहीं बैठा था। उनकी पत्नी ने देखकर के कहा कि देखो न! वहाँ पर जो आइने के पास खूंटी लगी है न, जिसमें आइना टंगा है, अरे वहीं तो, मैंने तुम्हारी टोपी रख दी थी। कहाँ? कहाँ? दिखाई दिया कि टोपी उनके सिर पर लगी हुई है और वे सब जगह खोज रहे हैं। अब टोपी न तो दूर है, न समीप है। जब तक मालूम नहीं है, तब तक तो बहुत दूर है और जब मालूम पड़ गया कि सिर पर है, तब कितना समीप है। यहाँ पर यही कहा गया है कि आत्मतत्त्व को नहीं जाना, तो बहुत दूर और जान लिया, तो समीप है।
उसके बाद कहते हैं, तदन्तरस्य सर्वस्य, वह सबके भीतर भी है और कहते हैं तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः, वह सबके बाहर भी है। श्रीरामकृष्ण दूसरे ढंग से इस तत्त्व को समझाते हैं। वे कहते हैं – देखो भाई! यह जो आत्मतत्व है, वह दूर भी है, समीप भी है। इसका मतलब क्या? वह बहुत दूर है। कब तक दूर है? जब तक वह आत्मतत्त्व डाब के रूप में है। समीप कब है? जब वह सूखकर नारियल बन गया। यह उनके कहने के अलग-अलग तरीके हैं। जब तक उसमें जल भरा हुआ है, तब तक उसका गूदा अलग नहीं होता, काटने पर छिलका भी साथ में निकल आता है। माने गूदा और छिलका एक रूप हो गये हैं। कब? जब तक उसके भीतर में रस भरा है। उसका रस सूखने के बाद थोड़ा-सा धक्का दो, तो अन्दर में जो भेला है, वह अलग हो जाता है। रस सूख गया कि भेला अपने आप अलग हो गया। वह प्रतीति करा देता है कि मैं हूँ।
ठीक इसी प्रकार आत्मतत्त्व मेरे भीतर है। वह सबके भीतर में विद्यमान है। प्रतीति क्यों नहीं होती? वासना का रस भरा हुआ है, इसीलिए प्रतीति नहीं होती है। जब मैं आत्मतत्त्व का चिन्तन करता हूँ, तो या तो देह का चिन्तन होता है या थोड़ा-सा और ऊपर उठा तो मन का चिन्तन होता है। ठीक-ठीक आत्मतत्त्व की प्रतीति कब होती है? जब ज्ञान के द्वारा वासना का रस सूख गया, तब फिर और कुछ करना नहीं पड़ता है। डाब का रस सूखा, फिर थोड़ा सा धक्का दिया, तो भेला छिलके से अलग हो गया। उसी प्रकार आत्मतत्त्व इस शरीर और मन रूपी छिलके से अलग अपनी प्रतीति करा देता है।
इसका अर्थ है, वह सर्वव्यापी है। भीतर भी है, बाहर भी है, जो कुछ भी है, वही है। वह जो साँप है, साँप के भीतर भी रस्सी है, साँप के बाहर भी रस्सी है। इसका मतलब क्या है? रस्सी ही रस्सी है और उसी में साँप प्रतिभास हो रहा है। साँप और रस्सी के सन्दर्भ में ठीक यही बातें कही जा सकती हैं कि यह जो रस्सी है, वह बहुत दूर भी है और बहुत समीप भी है। जब तक साँप दिखाई देता है, रस्सी बहुत दूर है और साँप का भ्रम मिट जाता है, तो रस्सी अत्यन्त समीप है।
जो आत्मतत्त्व को जान लेता है, उसका क्या होता है, यह आपने बताया। आपने कहा, जो नहीं जानता है, वह आत्मघाती हो जाता है। हमने आपसे पूछा कि आत्मतत्त्व क्या है, तो आपने बताया। अब आत्मतत्त्व की साधना वह कैसे करता है और कैसे सिद्धि पाता है, यह दो श्लोकों में, दो मन्त्रों में बताते हैं –