असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥ ३ ॥
Commentary:
ये जो ज्ञान दिया गया है, इस ज्ञान को अपने जीवन में जो नहीं उतारते हैं, वे आत्मघाती हैं और वे लोग मरने के बाद गहरे अन्धकार से भरे लोकों में जाते हैं।
आज यहीं तक लें। धीरे-धीरे भाग करके हम उसे देखेंगे। आज हमने देखा शान्ति पाठ। शान्ति पाठ के साथ पहला मन्त्र है जहाँ सिद्धान्त की घोषणा है। दूसरे में कहा, इस सिद्धान्त को तुम प्रयोग में, व्यवहार में उतारो। तीसरे में दिखाया कि यदि हमने सिद्धान्त को व्यवहार में नहीं उतारा, तो मनुष्य की दुर्गति होगी। अब कल देखेंगे। आत्मघाती कहाँ है? वह कौन-सा आत्मतत्त्व है, जिसका घात हो जाता है? आत्मतत्त्व का वर्णन यहाँ पाँच श्लोकों में दिया गया है। आज यहीं पर अपनी वाणी को विराम देते हैं। हरि ॐ तत् सत्।
आइये, एक बार पुनः विषयों की पुनरावृत्ति कर लें। ईशावास्योपनिषद् पर प्रथम चिन्तन करते हुए कहा गया था कि यह उपनिषद् दोनों अर्थों में वेदान्त का अर्थ ध्वनित करता है। वेदान्त” शब्द का अर्थ हमने ज्ञान की पराकाष्ठा के रूप में किया था। ईशावास्योपनिषद् में ज्ञान की पराकाष्ठा वर्णित है। उसके साथ ही साथ यह शुक्ल यजुर्वेद की शाखा है, जिसके चालीस अध्याय हैं। इस प्रकार से वेदान्त शब्द के दोनों अर्थ ईशावास्योपनिषद् पर घटित होते हैं। कल यह भी कहा कि षद् धातु से यह उपनिषद् शब्द निकला है। उप और नि ये दो उपसर्ग लगाये गये हैं। षद् धातु के तीन अर्थ भगवान् भाष्यकार ने बताये हैं। एक तो विनाश करना, दूसरा प्राप्ति कराना और तीसरा शिथिल करना। अज्ञान का नशि करना, ब्रह्म की प्राप्ति कराना, दुख या बन्धन का शिथिलीकरण करना। यह षद् धातु का अर्थ है।
मुण्डकोपनिषद् भाष्य में श्रीशंकराचार्यजी उपनिषद् शब्द का अर्थ बताते हैं –
य इमां ब्रह्मविद्यामुपयन्त्यात्मभावेन श्रद्धाभक्तिपुरःसराः सन्तस्तेषाम् गर्भजन्मजरारोगाद्यनर्थपूगं निशातयति परं वा ब्रह्म गमयत्यविद्यादिसंसारकारणं चात्यन्तमवसादयति विनाशयतीत्युपनिषत्, उपनिपूर्वस्य सदेरेवमर्थस्मरणात्।
उपनिषद् शब्द की यह व्याख्या शंकराचार्य ने की है। उप-नि- पूर्वस्य-सदेः-एवमर्थस्मरणात्, जब सद् धातु में ये दो उप और नि उपसर्ग लग जाते हैं, तो उपनिषद् का यही अर्थ होता है। उप का अर्थ होता है समीप और नि का तात्पर्य होता है आत्यन्तिक रूप से। तो ये इमाम् आत्मविद्याम् उपयन्ति आत्मभावेन – जो इस आत्मविद्या के निकट ‘इस विद्या को बिल्कुल अपना मानकर के जाते हैं, उन लोगों के गर्भजन्य जरा-रोगादि ये जो अनर्थगुण हैं, अनर्थसमूह हैं, इस अनर्थसमूह का यह उपनिषद् विद्या नाश कर देती है। परं वा ब्रह्म गमयति – यह विद्या उसे परमतत्त्व के पास ले जाती है। फिर कहते हैं अविद्यादि-संसार-कारणम् च अत्यन्तम् अवसादयति, जो संसार-कारण अविद्या है, जो दुख है, जिसका बन्धन हमें पीड़ा देता रहता है, उसको आत्यन्तिक रूप से यह विद्या शिथिल कर देती है, इस अज्ञान का आत्यन्तिक रूप से नाश कर देती है। यह उपनिषद् विद्या है।
ईशावास्योपनिषद् कर्म और ज्ञान के बीच में सेतु स्थापित करने का कार्य करती है। एक युग था, जब कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में बहुत झगड़ा चलता था। यहाँ कर्मकाण्ड को एक नया मोड़ दिया गया है। द्रव्य यज्ञ की बात हम गीता में विस्तार से पढ़ते हैं। द्रव्यों की सहायता से जो यज्ञ सम्पन्न होते हैं, वे द्रव्य यज्ञ हैं। ईशावास्योपनिषद् में इस द्रव्य यज्ञ को एक नया मोड़ दिया है। गीता का निष्काम कर्मयोग भी ईशावास्योपनिषद् में निहित है। यदि ऐसा कहें कि ईशावास्योपनिषद् रूपी बीज को लेकर गीतारूपी वटवृक्ष निकला है, तो इसमें कहीं पर कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हम यह कह सकते हैं कि गीता ईशावास्योपनिषद् की एक बड़ी सुन्दर व्याख्या है। यहाँ पर वह कर्मयोग हमें बीज रूप में प्राप्त होता है। सबके भीतर में भगवान् विराजमान हैं, यह ज्ञान ही त्याग है। त्याग के द्वारा संसार की वस्तुओं का उपभोग करो। किसी के धन का लालच न करो, धन भला किसका है? इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना स्मरण हो रही है –
इंगरसोल अमेरिका के बड़े नास्तिक विचारक हुए। वे अपने जमाने में बहुत प्रसिद्ध थे। स्वामी विवेकानन्द के समकालीन थे। स्वामी विवेकानन्द से एक बार इंगरसोल की भेंट हुई। इंगरसोल ने वहाँ के समाचार पत्रों में प्रकाशित हुये विवेकानन्द के व्याख्यानों को पढ़ा था। आप तो जानते ही हैं कि स्वामी विवेकानन्द ईसाई मिशनरियों पर बड़े रुष्ट थे। जिस प्रकार से अमेरिकन ईसाई मिशनरियों ने और इंग्लिश ईसाई मिशनरियों ने भारत के सम्बन्ध में, अमेरिका इत्यादि देशों में दुष्प्रचार किया था, इसके कारण किसी का रुष्ट होना बहुत ही स्वाभाविक है। एक दिन स्वामीजी से भेंट होने पर इंगरसोल ने कहा – “स्वामीजी, अगर आप पचास वर्ष पहले यहाँ आकर के ऐसी बात कहते, तो लोग पत्थर मार- मारकर आपकी हत्या कर देते। आपकी बातें इतनी तीखी हैं। स्वामीजी ने मुस्कुराकर पूछा – तीखी तो हैं, पर सत्य नहीं हैं क्या? तीखा सत्य भी सहन नहीं होता है। इंगरसोल ने कहा आपने जिस सत्य का उद्घाटन किया, वह बहुत तीखा है और जिस ढंग से सत्य को रखा, वह भी बहुत तीखा है। उसके बाद इंगरसोल और स्वामीजी में बातचीत होती है। इंगरसोल ने विनोद करते हुए कहा कि क्या बात है? आप तो धर्म इत्यादि की बात करते हैं, मैं तो ईश्वर को नहीं मानता। मैं तो संसार को एक रसीले फल के समान मानता हूँ और बस इस रस का आनन्द लेना चाहिए। स्वामीजी ने हँसकर के कहा कि हम भी तो यही मानते हैं कि यह संसार रसीले फल के समान है और इस रस का आनन्द ले लेना चाहिए, उपयोग करना चाहिए। इंगरसोल ने चकित होकर के कहा – अच्छा, तो आप भी इस संसार को एक रसीले फल के समान मानते हैं? स्वामीजी ने कहा हाँ ! इंगरसोल ने पूछा तब आपकी बात में और हमारी बात में अन्तर क्या हुआ? स्वामीजी ने कहा कि अन्तर यह है कि तुम केवल इतना जीवन ही मानते हो कि बस यही सब कुछ है और इसलिए उस फल का रस निकालने में तुम्हें बहुत हड़बड़ी रहती है कि जाने कब यह जीवन-दीप बुझ जाए, रस पूरा निकले या न निकले, आपाधापी में तुम रस निकालते हो, उसका उपभोग करते हो। पर हम यह जानते हैं कि यह जो जीवन है, वह अनन्त है, असीम है। केवल यही जीवन हमारी सीमा नहीं है और इसीलिए हम आनन्द के साथ उस रस का उपभोग करते हैं, कोई आपाधापी नहीं, एक बूँद भी हम नहीं छोड़ते हैं, पूरा रस निकाल लेते हैं। यही अन्तर है।
हमारा अध्यात्म ज्ञान भी कहता है कि संसार का रस निकालो, उसका उपभोग करो और जो भौतिकवादी हैं, वे भी यही कहते हैं। अन्तर यही है कि भौतिकवादी भाग रहा है कि कब यह जीवन हाथ से निकल जाए। लेकिन अध्यात्मवादी कहता है, जीवन हाथ से निकलेगा कहाँ? जाएगा कहाँ? हम तो अनन्तस्वरूप हैं। यह उसका विश्वास है।
इस प्रकार उन्होंने प्रथम मन्त्र में ज्ञान और दूसरे में कर्म, पहले में सिद्धान्त, तो दूसरे में प्रयोग या आचरण की चर्चा की। पहले में विचार, तो दूसरे में आचार की चर्चा की। ये दोनों साथ-साथ चलते हैं और इन्हें साथ-साथ चलना चाहिए। कोरा सिद्धान्त किसी काम का नहीं है। हम केवल कर्म ही करते रहें और उसके पीछे ज्ञान का आधार न हो, तो वह भी किसी काम का नहीं। वह केवल भ्रम होता है। इसलिये दोनों को मिलकर चलना चाहिए।
यहाँ कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा व्यक्त की गई। इच्छा करे, इसका मतलब है कि उसमें जिजीविषा बनी रहे। मनुष्य में जिजीविषा कब बनी रहती है? जब उसे लगता है कि उसका जीवन सार्थक है, तब। जिस दिन मनुष्य को ऐसा लगने लगा कि मेरा जीवन निरर्थक है, उस दिन उसकी जिजीविषा समाप्त हो जाती है। अवकाश प्राप्त करने के बाद उसे लगता है कि वह बेकार हो गया है, किसी काम का नहीं रहा।
किन्तु यहाँ बताया जा रहा है कि मनुष्य मृत्युपर्यन्त काम का है। वह अपने लिए काम का है, समाज के लिए काम का है। यदि जीवन में उसे इसका ज्ञान रहे, इस ज्ञान के साथ जीवन में कर्म करता रहे, तो उसके लिए तो जीवन सार्थक है ही, समाज के लिए भी उसका जीवन सार्थक हो जाता है।
मनुष्य की दो समस्याएँ हैं। एक तो आजकल की वृद्धावस्था की समस्या है। यह समस्या पहले भारत में नहीं थी। यह वृद्धाबस्था की समस्या आयातित है। बाहर के देशों में मनुष्य वृद्ध हो जाता है। स्वाभाविक ही अपने परिवार वालों के लिए किसी काम का नहीं रहता है। परिवार वाले भी ऐसा सोचते हैं, वह स्वयं भी ऐसा सोचने लगता है। दूसरी अवकाश की समस्या है। मनुष्य के पास अवकाश है, तो कैसे समय बिताये ? यहाँ दो समस्याओं का उल्लेख किया गया वृद्धावस्था की समस्या और अवकाश की समस्या कि समय कैसे बितायें। यहाँ दोनों समस्याओं का समाधान किया गया ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।’ अर्थात् जो नर यह सोचता है किं मेरा शरीर है, मैं शरीरवान हूँ, मैं देहवान हूँ, ऐसा जो शरीराभिमानी, देहाभिमानी जीव है, उसके लिए कर्म करना छोड़ करके दूसरा कोई उपाय नहीं है, केवल इसी उपाय के द्वारा तुम . इस बन्धन को काट सकते हो। यहाँ पर यही कहा गया कि तुम कर्म करते हुए सौ. साल तक जीने की इच्छा करो, यह परम आयु है। भारत में आजादी के समय यहाँ की औसत आयु उनतीस वर्ष की थी। अभी देखिए चालीस वर्षों में यहाँ की औसत आयु चौवन वर्षों की हो गयी। धीरे-धीरे उसे बढ़ाया जाए, बाहर के देशों अमेरिका, इंग्लैण्ड में बहत्तर से चौहत्तर तक की औसत आयु है। अगर उसे बढ़ाकर के और अधिक अस्सी वर्ष तक ले जाया जाय, तब तो समझ लीजिए, वेदों में जो सौ वर्ष की आयु वाला व्यक्ति कहा गया है, हम उसके करीब ही पहुँच जा रहे हैं। औसत आयु यदि पचहत्तर वर्ष की पहुँच गयी, तो इसका मतलब है कि कुछ लोग सौ वर्ष के होंगे ही। पुराणों में जो हजारों वर्ष की बातें लिखी हैं उनको आप गणित की दृष्टि से मत देखिए। वेदों में सबसे पुराना ग्रन्थ जो ऋगवेद है, वहाँ पर भी मनुष्य की परम आयु को सौ साल ऐसा कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया कि आयु का सैकड़ा एक सौ सोलह वर्ष का है, हो सकता है कोई एक सौ पचीस साल जीवित रहे। यह जो आयु का सैकड़ा है, वह है एक सौ सोलह वर्ष का। चौबीस साल अध्ययन, फिर चौवालिस साल गृहस्थ आश्रम में खूब कर्मयोग किया। उसके बाद दूसरों के लिए जीवन बिताया अड़तालीस साल। चौबीस साल अध्ययन, चौवालिस साल एक प्रकार से अपने लिए, परिवार के लिए जीवन बिताया, समाज के लिए तो रहेगा ही, पर प्रमुखता रहेगी अपने लिए जीने की। बाकी जो अड़तालीस साल का जीवन है उसमें प्रमुखता रहेगी दूसरों के लिए जीने की। यहाँ उपनिषद् में इस प्रकार से बँटवारा किया गया।
उपनिषद् के अनुसार यही कहा गया कि तुम नर हो, कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करो। कर्म तुम्हें लिप्त कर लेगा, इससे डरते क्यों हो? कर्म में चिपकने का गुण नहीं है। कर्म कभी नहीं चिपकता है। कर्म तो आसक्ति के कारण चिपकता है। न कर्म लिप्यते नरे– कर्म का लेप नहीं होता। आसक्ति के कारण कर्म का लेप दिखाई देता है, पर वस्तुतः कर्म में लेप करने का गुण नहीं है। हमारी अपनी आसक्ति है, जो कर्म को लेपता प्रदान करती है। यहाँ कहा गया कि क्यों डरते हो? सौ वर्ष तक जीयो, खूब आनन्द से कर्म करो। उसके बाद कहते हैं कि यदि ऐसा तुमने नहीं किया, तो –
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽ ऽ वृताः । तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ।। ३ ।।
असूर्यालोक का भगवान् भाष्यकार अर्थ बताते हैं कि ये जो देवता हैं, देवलोक है, सभी भोगयोनियाँ हैं। वहाँ पर भी मनुष्य को ज्ञान नहीं होता है। वहाँ भी देहबोध बना रहता है। भले देवलोक में सब सूक्ष्म शरीर में रहते हैं, परन्तु शरीरबोध वहाँ पर भी बना हुआ है। इसलिए वे कहते हैं कि ब्रह्मलोक से लेकर स्थावर-जंगम, यह जो भिन्न-भिन्न प्रकार की भोग योनियाँ हैं, ये सब के सब गहरे अन्धकार से भरी हुई हैं। शंकराचार्य जी ने व्याख्या की है अन्धेन तमसावृता माने जहाँ पर द्वैत भाव है, वह तो घोर अन्धकार है ही, चाहे वह देवलोक हो, चाहे अन्य कोई भोग योनि हो। असूर्यानाम ते लोकाः, लिखते हैं कि देवादि अपि असुराः अज्ञान की दृष्टि से ये देवादि भी असुर ही हैं। देवों को भी आत्मज्ञान नहीं है। वे भी भोग योनियाँ हैं। इसलिए वे भी असुर ही कहलाने लायक हैं। यदि उसको यह ज्ञान नहीं हुआ, तो शरीर छोड़ने के पश्चात् ऐसे लोकों को मनुष्य जाता है। यदि प्रथम मन्त्र में कहे गये सिद्धान्त को, दूसरे मन्त्र के अनुसार व्यवहार में उसने नहीं उतारा, तो वह आत्मघाती है, उसने आत्मा का घात कर लिया। उसके भीतर में जो यह दिव्य आत्मज्ञान भरा हुआ है, उसकी उसने उपेक्षा कर दी, तो मरने के बाद वह भोग योनियों में जाएगा, जो गहरे अन्धकार से भरी हुई हैं।
कोई भी लोक हो, चाहे वह ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, जहाँ पर द्वैत है, जहाँ पर शरीर का भान है, वह सब कुछ गहरे अन्धकार से भरा हुआ लोक है। गुरुजी ने उपदेश करते हुए कहा कि आत्महनो जना – मरने के बाद वह उन लोकों में जाता है, जहाँ पर आत्मघाती लोक जाते हैं। अच्छा! आत्मघाती का क्या अर्थ है? आत्मघात का एक अर्थ हम जानते हैं, वह है – आत्महत्या करना। तो क्या वह आत्महत्या करता है? यहाँ पर कहते हैं, हाँ, आत्मा जो हमारे भीतर विद्यमान है, उसको न जानना, उसकी उपेक्षा कर देना, यही तो उसकी हत्या करना है। जो हमारे भीतर दिव्य ज्ञान है, उस ज्ञान की हमने उपेक्षा कर दी, वह मानो उसकी हत्या करने के समान है। यह अर्थ यहाँ पर शंकराचार्य हमारे समक्ष रखते हैं। जिस आत्मा की हत्या कर दी, वह आत्मा कैसी होती है? जरा देख तो लें! उसका स्वरूप क्या है? किस आत्मा की वह हत्या करता है? कौन-सा आत्मतत्त्व मेरे भीतर में भरा है, जिसकी हत्या कर दी। यहाँ पर इन दो श्लोकों में आत्मा के सम्बन्ध में और जिस व्यक्ति ने उस आत्मतत्त्व को जान लिया, उसके सम्बन्ध में दो श्लोकों में वर्णन है। चौथे मन्त्र में कहते हैं –
आत्मा को न जानना ही आत्महत्या है – Vivekachudamani
- किसी प्रकार ऐसा दुर्लभ मानव-जन्म और उसमें भी पुरुष शरीर तथा वेदान्त-तत्त्व पर विचार करने की क्षमता प्राप्त करके भी, जो मूर्ख अपनी मुक्ति के लिये प्रयास नहीं करता, वह (क्षणिक तथा) मिथ्या वस्तुओं को ग्रहण करके अपना विनाश करने के कारण सचमुच का आत्महन्ता है । (Verse 4)
- जो व्यक्ति ऐसा दुर्लभ मानव-शरीर और फिर पुरुष देह भी पा करके अपने परम स्वार्थ-लाभ (मुक्ति) की चेष्टा में आलस्य करता है, उससे बड़ा मूर्ख इस दुनिया में दूसरा कौन होगा? (Verse 5)
- अनादि काल से अविद्या द्वारा किये गये बन्धन से मुक्ति के लिये प्रतिक्षण प्रयास रूपी अपने सच्चे कर्तव्य को छोड़कर, जो इस दूसरों के भोग्यरूपी अपनी देह के पोषण में आसक्त रहता है, वह इस कृत्य के द्वारा मानो आत्महत्या करता है । (Verse 83)
- जो व्यक्ति सारे समय शरीर के पालन-पोषण में ही व्यस्त रहते हुए अपने आत्म-स्वरूप का दर्शन करने का इच्छुक है, वह मानो घड़ियाल को ही काठ समझ उसे पकड़कर नदी पार करना चाहता है । (Verse 84)