ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥ १ ॥
Commentary:
यह सारा का सारा ईश आवास, ईश्वर का आवास, स्थान है या फिर ईशावास्यम्, यह सारा भगवान् के द्वारा ढंकने योग्य है। एक अर्थ यदि तृतीया विभक्ति में करें, तो ईशावास्यम् का अर्थ होता है ईश्वर के द्वारा आच्छादित करने योग्य है। यदि इसको षष्ठी में लें, तो यह ईश्वर का आवास स्थान है। तुम्हारे मन में किसी के धन के लिए लोभ न हो। इस श्लोक को तीन भागों में बाँट दिया गया है। एक तो यहाँ परमात्मा का निरूपण किया गया। दूसरा जो नीचे का उत्तरार्ध का प्रथम अंश है, उसमें स्वात्मा और तीसरा अंश है परात्मा। स्वात्मा, परात्मा और परमात्मा, इन तीनों का सम्बन्ध कैसा हो ? ऊपर के प्रथमार्ध में कहा गया है कि ईश्वर, वह परमात्मा सबके भीतर है। सब कुछ को परमात्मा से ढँककर देखो। उसी को त्याग कहा गया है। यह विलक्षण है। पहले त्याग का भाव रहा होगा, जब चिन्तन का उदय हुआ, तो संसार को छोड़ दिया। संसार को माया-मरीचिका कहा गया। हमारे यहाँ बहुत समय तक प्रचलित रहा कि यह संसार मिथ्या है, माया है, मरुमरीचिका है, इसे छोड़ो। किन्तु यहाँ पर त्याग का एक दूसरा दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। इस संसार में रहकर के संसार में जो कुछ दिखाई देता है, उसको ईश्वर का वास स्थान यदि मानों, तो यही त्याग है। यदि भगवान् से हम इसे ढँककर के देखें, तो त्याग है और इसे त्याग के द्वारा भुंजीथा -‘ भोग करो। यह संसार ईश्वर का है, इस रूप में ग्रहण करो। मा गृधः कस्यस्विद्धनम् – किसी के धन का लालच मत करो। इस प्रकार प्रथम परमात्मा का निरूपण किया। दूसरा त्याग के द्वारा भोग करो, स्वात्मा अपनी आत्मा का और तीसरा परात्मा के सम्बन्ध में कि दूसरे के धन का लालच मत करो। यह तीनों का सम्बन्ध है!
तुम कौन हो? तुम तो आमुमन मुख्तार हो, ट्रस्टी हो। हम पढ़ते हैं कि स्वर्गीय माननीय घनश्यामदास जी बिड़ला को बापू ने उपदेश दिया था। वह उपदेश उसी ट्रस्टीशिप का था – तुम ट्रस्टी हो, इसी भाव से यह जो कुछ भी है, इसकी सुरक्षा करो, ईश्वर ने तुम्हें ट्रस्टी के रूप में नियुक्त किया है, यह सम्पदा ईश्वर की ही है। स्वामी विवेकानन्द ने रॉक फेलर को ठीक इसी ट्रस्टीशिप के भाव को बताया था। आपको शायद मैंने यह बात बतायी हो। रॉक फेलर धनी थे, पर उन्होंने सेवाकार्य में अपने अर्थ का नियोजन करना शुरू नहीं किया था। स्वामीजी तब डिट्रायट में थे। एक सज्जन थे, जिनके यहाँ स्वामीजी थे, वे रॉक फेलर के घनिष्ठ मित्र थे। मित्र ने रॉक फेलर से कहा कि देखो, एक अद्भुत भारतीय संन्यासी आये हैं, जिनका इतना नाम हुआ है। वे विश्वधर्म महासभा में चोटी के प्रवक्ता रहे। वे मेरे यहाँ आये हैं, तुम मिलने आओ। पर रॉ क फेलर को इसमें कोई रुचि नहीं थी। मालूम नहीं, एक दिन रॉक फेलर को कैसे रुचि आई? सुबह-सुबह उठकर वे बिना बताये मिलने के लिये आ गये। बटलर ने दरवाजा खोला। रॉक फेलर ने बटलर से पूछा, संन्यासी कहाँ हैं? बटलर ने कहा, वे अध्ययन कक्ष में हैं। क्या सूचना दे दूँ? जरूरत नहीं। ले चलो। बटलर रॉक फेलर को स्वामी विवेकानन्द के अध्ययन कक्ष में ले गया। स्वामीजी कुर्सी पर बैठकर कुछ लिख रहे थे। रॉक फेलर आये। स्वामीजी ने उधर देखा तक नहीं। रॉक फेलर को बड़ा खराब लगा। बड़ा दम्भी है, मेरी ओर देखता तक नहीं है, ऐसा दिखा रहा है, मानो बहुत तन्मय है। स्वामीजी ने थोड़ी देर में रॉक फेलर के जीवन की उन घटनाओं को बताना शुरू किया, जिन्हें रॉक फेलर को छोड़कर दूसरा कोई व्यक्ति नहीं जानता था। रॉक फेलर को बहुत अचम्भा हुआ। ये व्यक्ति कैसा है? क्या यह जादू जानता है? कैसे यह मेरे जीवन की घटनाओं को बता दे रहा है, जिन्हें मुझे छोड़कर किसी को पता नहीं। स्वामीजी ने यह सब बता करके कहा कि देखो! तुम्हारे पास इतना जो धन है, वह तुम्हारा नहीं है, वह ईश्वर का है। ईश्वर ने तुम्हें दिया है, इसका ठीक-ठीक विनियोजन हो, तुम इसके एक न्यासी हो, ट्रस्टी हो। तुम पर यह भार न्यस्त हुआ है कि यह सब ठीक सेवा में लगना चाहिए। रॉक फेलर ने ऐसी बातें कभी सुनी नहीं थीं और न वे उपदेश सुनने के आदी थे। वे वहाँ से अत्यन्त रोष में बाहर निकल कर चले गये। मित्र ने पूछा कि तुम आए थे, सुना कैसा लगा? संन्यासी कैसे लगे? रॉक फेलर ने कहा – व्यर्थ ! ऐसा कह दिया। तीसरे दिन रॉक फेलर अपने को रोक नहीं पाये। वे पहले जैसे ही सुबह बिना बताए आ गये। उनके हाथ में कोई दस्तावेज था। स्वामीजी वैसे ही बैठकर कार्य कर रहे थे। बटलर रॉक फेलर को स्वामीजी के पास ले गया। रॉ क फेलर ने सीधे टेबल पर जोरों से दस्तावेज रखते हुए कहा – लो, अब मुझे इसके लिए धन्यवाद दो। स्वामीजी ने निगाह दौड़ाई, देखा कि एक बहुत बड़ी रकम किसी दातव्य संस्थान के लिए उन्होंने दान में देने की घोषणा की थी और दस्तावेज उसी का था। स्वामीजी ने मुस्कुराते हुए उसे उठाया और वापस करते हुए कहा – धन्यवाद तुम मुझे दो, क्योंकि मैंने तुम्हें दृष्टि दी है। तो यह जो धन है, वह किसका है? धन ईश्वर का है और तुम कौन हो? न्यासी हो। प्रभु ने तुम्हें सम्पत्ति दी है, उसका उपयोग करने के लिए, उसका उपयोग करो। यह त्याग का भाव है, इस त्याग के भाव के साथ संसार का भोग करो। कैसे करो? अगले मन्त्र में बता रहे हैं