मनुष्यको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर सुखी-दुःखी, राजी नाराज नहीं होना चाहिये; क्योंकि इन सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें फँसा हुआ मनुष्य संसारसे ऊँचा नहीं उठ सकता।
स्त्री, पुत्र, परिवार, धन-सम्पत्तिका केवल स्वरूपसे त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं है, प्रत्युत जो अपने कर्तव्यका पालन करते हुए राग-द्वेष नहीं करता, वही सच्चा संन्यासी है। जो अनुकूल परिस्थितिके आनेपर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर उद्विग्न नहीं होता, ऐसा वह द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य परमात्मामें ही स्थित रहता है। सांसारिक सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि द्वन्द्व दुःखोंके ही कारण हैं। अतः बुद्धिमान् मनुष्यको उनमें नहीं फँसना चाहिये।