कानपुरके पासके किसी गाँवमें सं० १८९० के आश्विन मासमें कान्यकुब्ज ब्राह्मण-परिवारमें श्रीभास्करानन्दजीका जन्म हुआ था। माता-पिताने उनका नाम मतिराम रखा था। यज्ञोपवीत-संस्कार होनेके बाद बारह वर्षकी अवस्थामें ही उनका विवाह हो गया, किंतु विवाहका कोई प्रभाव मतिरामपर नहीं पड़ा। बचपनसे ही उनमें जो वैराग्यका भाव था, वह बराबर बढ़ता ही गया।
सत्रह वर्षकी अवस्थामें मतिराम संसारकी सब माया-ममता छोड़कर घरसे चुपचाप निकल पड़े। अनेक स्थानोंमें घूमते-घामते वे मालवा पहुँचे। मालवेमें वे सात वर्ष रहे और उस कालमें वेदान्तशास्त्रका अध्ययन किया।
उस समयके प्रसिद्ध महात्मा स्वामी श्रीपूर्णानन्दजी सरस्वती उज्जैनमें थे। मतिराम वहाँ उनकी शरणमें पहुँचे। स्वामी पूर्णानन्दजीने उन्हें संन्यासकी दीक्षा दी। अब मतिरामका नाम स्वामी भास्करानन्द सरस्वती हो गया।
संन्यास लेकर भास्करानन्दजी काशी चले आये। कुछ समयतक काशीमें रहकर उन्होंने भजन-साधन किया। फिर भारतके विभिन्न तीर्थोंमें घूमते रहे। इस यात्रामें अनेक सिद्ध योगियोंसे उनकी भेंट हुई। योगके साधनोंके अभ्याससे अनेक सिद्धियाँ भास्करानन्दजीने प्राप्त कीं। अनेक स्थानोंपर उन्होंने चमत्कार भी दिखाये। किंतु सांसारिक विषयोंको या जगत्के सम्मानको पानेकी उनके मनमें तनिक भी कामना नहीं थी। उन्होंने यह समझकर सिद्धियोंका प्रदर्शन बंद कर दिया कि इससे जगत्के लोगोंकी भीड़ एकत्र होती है, मानका मोह बढ़ता है और भजनमें बाधा पड़ती है।
जीवनके अन्तिम दिनोंमें वे दिगम्बर ही रहते थे। सं० १९५६ के आषाढ़ महीनेमें उन्होंने देहत्याग किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि श्रद्धाके बिना आध्यात्मिक लाभ नहीं होता। श्रद्धा और विश्वास- ये परमात्माके मार्गमें बढ़नेकी मुख्य सीढ़ियाँ हैं। श्रद्धाहीन व्यक्तिपर अच्छे-से-अच्छे उपदेशका भी प्रभाव नहीं पड़ता। भगवान्को तो वही पा सकता है जिसके मनमें भगवान्पर, शास्त्रोंपर और भगवान्के भक्तों और संतोंके उपदेशोंपर श्रद्धा हो।
बहुत-से लोगोंने स्वामी भास्करानन्दजीके उपदेशोंसे प्रकाश प्राप्त किया। उनके उपदेशोंसे सैकड़ों व्यक्तियोंके जीवनमें अद्भुत सुधार हुआ।