दक्षिण भारतके विजियाना ग्राममें सं० १६६४ के पौष मासमें एक सम्पन्न ब्राह्मण-परिवारमें शिवरामजीका जन्म हुआ। यही आगे चलकर श्रीतैलंगस्वामीके नामसे प्रख्यात हुए।
बहुत थोड़ी अवस्थामें शिवरामजीके पिताका देहान्त हो गया था। माताने ही उनका पालन-पोषण किया। धार्मिक माताकी शिक्षाने इनमें आध्यात्मिक प्रवृत्तिका बीज डाला और उसे बढ़ाया। शिवराममें बचपनमें ही वैराग्य और अध्यात्मकी ओर तीव्र रुचि उत्पन्न हो गयी।
४८ वर्षकी अवस्थामें इनकी माताका भी देहान्त हो गया। माताकी अन्तिम क्रिया करके शिवरामजी फिर घर नहीं गये।
जहाँ माताकी देहका अग्नि-संस्कार हुआ था, वहीं आसन लगाकर बैठ गये। पीछे उसी स्थानपर उनकी कुटी बनी।
उस स्थानपर श्रीशिवरामजीने बीस वर्ष कठोर साधना की। इसके बाद किसी महापुरुषकी खोजमें वहाँसे बाहर निकले। पुष्कर-क्षेत्रमें पहुँच भगीरथस्वामीसे आपने दीक्षा ली। तभीसे आपका नाम तैलंगस्वामी पड़ गया। दीक्षा लेनेके दो वर्ष बाद भगीरथस्वामीका परलोकवास हो गया। अब तैलंगस्वामीने तीर्थयात्रा प्रारम्भ की।
दक्षिणमें रामेश्वरम् और उत्तरमें मानसरोवर, पूर्वमें नेपाल-आसाम और पश्चिममें द्वारिका, इस प्रकार पूरे भारतके तीर्थोंकी यात्रा करके अन्तमें आप काशीमें रहने लगे।
श्रीतैलंगस्वामी सदा दिगम्बर रहते थे। सर्दी-गरमी और वर्षा सबमें वे नंगे ही पड़े रहते थे। उनके ऊपर सर्दी-गरमीका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वे त्रिकालज्ञ महापुरुष थे। अपने पास आनेवालोंके प्रश्नोंका उत्तर प्रायः उनके बिना कुछ पूछे-कहे ही दे दिया करते थे। एक बार मनुष्योंसे भरी एक नाव गंगाजीमें डूब गयी। श्रीतैलंगस्वामीने उसे मनुष्योंके साथ अपनी शक्तिसे जलसे ऊपर निकाला। नंगे रहनेके कारण इन्हें एक अंग्रेज अफसरने हवालातमें बंद कर दिया। हवालातका ताला तो बंद ही रहा, किंतु स्वामीजी बाहर टहलते दिखायी पड़े। इस प्रकारके और भी बहुत-से चमत्कार इनके विषयमें कहे जाते हैं।
पौष शुक्ल ११ सं० १९४४ को २८० वर्षकी अवस्थामें आप ब्रह्मलीन हुए। इनके आदेशके अनुसार इनका देह बॉक्समें बंद करके गंगाजीमें छोड़ दिया गया।
काशीमें दूर-दूरसे लोग तैलंगस्वामीका दर्शन करने आते थे। सहस्त्रों लोगोंने इनके उपदेशसे लाभ उठाया।