श्रीसूर्याजी पन्तकी पत्नी श्रीरेणुका बाईके गर्भसे चैत्र शुक्ल नवमी संवत् १६६५ को ठीक श्रीराम जन्मके समय जो तेजोमय बालक हुआ, वही आगे जाकर समर्थ स्वामी रामदासके नामसे प्रख्यात हुआ।
आठ वर्षकी अवस्थामें ही इन्होंने श्रीहनुमान्जीको प्रसन्न कर लिया और उनकी कृपासे भगवान् श्रीरामके दर्शन भी इन्हें प्राप्त हुए। भगवान् श्रीरामने ही इन्हें मन्त्र दिया और इनका नाम रामदास रखा।
बारह वर्षकी अवस्थामें माता-पिताने इनके विवाहकी तैयारी की। महाराष्ट्र-प्रथाके अनुसार जब ‘शुभ लग्न सावधान’ कहा गया, तब ये सचमुच सावधान हो गये। मण्डपसे उठकर भागे और फिर बारह वर्षतक घरके लोगोंको इनका पता नहीं लगा।
घरसे भागकर तैरकर गोदावरी पार हुए और पैदल चलते हुए पंचवटी पहुँच गये। नासिकके पास टाफली ग्राममें एक गुफामें इन्होंने निवास किया। तीन वर्षतक वहाँ तप करते रहे। वहाँ फिर भगवान् श्रीरामके दर्शन हुए। भगवान्के आदेशसे श्रीसमर्थ तीर्थयात्रा करने निकले।
बारह वर्षतक तपस्या और बारह वर्षकी तीर्थयात्रा करके समर्थ कृष्णा नदीके तटपर माहुली क्षेत्रमें रहने लगे। यहीं उनसे अनेक संत मिलने आते थे। श्रीतुकारामजी भी यहीं मिले थे।
श्रीशिवाजी महाराज बार-बार श्रीसमर्थका दर्शन करने आते थे। सं० १७१२ में जब श्रीसमर्थ सातारामें राजद्वारपर भिक्षा माँगते पहुँचे, तब शिवाजी महाराजने एक कागजपर अपना पूरा राज्य देनेकी बात लिखकर कागज उनकी झोलीमें डाल दिया। समर्थ स्वामी रामदासजीने शिवाजीको समझाया। गुरुके आदेशसे उनके प्रतिनिधिरूपमें शिवाजीने शासन कार्य चलाना स्वीकार किया।
समर्थ स्वामी रामदासजीके जीवनके सम्बन्धमें अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएँ कही जाती हैं। इन्होंने एक मृतक पुरुषको जीवित कर दिया। एक अन्धे कारीगरको नेत्र-ज्योति दी और उससे श्रीराम, लक्ष्मण, जानकी तथा हनुमान्जीकी मूर्तियाँ बनवायीं।
महाराष्ट्र-युवकोंमें इन्होंने एक अद्भुत शक्तिका संचार किया। उनमें धार्मिक चेतना तथा संगठनकी भावना उत्पन्न कर दी। इनके बहुत-से ग्रन्थ मराठीमें हैं जो तत्त्वज्ञान एवं उत्तम शिक्षासे पूर्ण हैं। दासबोध उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है।
सज्जनगढ़में माघ कृष्ण ९ संवत् १७३९ को स्नान करके भगवान् श्रीरामकी मूर्तिके सामने आसन लगाकर समर्थ बैठ गये। इक्कीस बार ‘हर हर’ कहकर जैसे ही अन्तमें उन्होंने श्रीराम कहा- वैसे ही उनके मुखसे एक ज्योति निकलकर श्रीरामकी मूर्तिमें प्रविष्ट हो गयी !