Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.44।। व्याख्या–पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः–योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टको जैसी साधनकी सुविधा मिलती है, जैसा वायुमण्डल मिलता है, जैसा सङ्ग मिलता है, जैसी शिक्षा मिलती है, वैसी साधनकी सुविधा, वायुमण्डल, सङ्ग, शिक्षा आदि श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवालोंकोनहीं मिलती। परन्तु स्वर्गादि लोकोंमें जानेसे पहले मनुष्यजन्ममें जितना योगका साधन किया है, सांसारिक भोगोंका त्याग किया है, उसके अन्तःकरणमें जितने अच्छे संस्कार पड़े हैं, उस मनुष्य-जन्ममें किये हुए अभ्यासके कारण ही भोगोंमें आसक्त होता हुआ भी वह परमात्माकी तरफ जबर्दस्ती खिंच जाता है।
‘अवशोऽपि’ कहनेका तात्पर्य है कि वह श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेसे पहले बहुत वर्षोंतक स्वर्गादि लोकोंमें रहा है। वहाँ उसके लिये भोगोंकी बहुलता रही है और यहाँ (साधारण घरोंकी अपेक्षा) श्रीमानोंके घरमें भी भोगोंकी बहुलता है। उसके मनमें जो भोगोंकी आसक्ति है, वह भी अभी सर्वथा मिटी नहीं है, इसलिये वह भोगोंके परवश हो जाता है। परवश होनेपर भी अर्थात् इन्द्रियाँ, मन आदिका भोगोंकी तरफ आकर्षण होते रहनेपर भी पूर्वक अभ्यास आदिके कारण वह जबर्दस्ती परमात्माकी तरफ खिंच जाता है। कारण यह है कि भोग-वासना कितनी ही प्रबल क्यों न हो, पर वह है ‘असत्’ ही। उसका जीवके सत्स्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जितना ध्यानयोग आदि साधन किया है, साधनके जितने संस्कार हैं वे कितने ही साधारण क्यों न हों, पर वे हैं ‘सत्’ ही। वे सभी जीवके सत्स्वरूपके अनुकूल हैं। इसलिये वे संस्कार भोगोंके परवश हुए योगभ्रष्टको भीतरसे खींचकर परमात्माकी तरफ लगा ही देते हैं।
‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’–इस प्रकरणमें अर्जुनका प्रश्न था कि साधनमें लगा हुआ शिथिल प्रयत्नवाला साधक अन्तसमयमें योगसे विचलित हो जाता है तो वह योगकी संसिद्धिको प्राप्त न होकर किस गतिको जाता है अर्थात् उसका कहीं पतन तो नहीं हो जाता? इसके उत्तरमें भगवान्ने इस लोकमें और परलोकमें योगभ्रष्टका पतन न होनेकी बात इस श्लोकके पूर्वार्धतक कही। अब इस श्लोकके उत्तरार्धमें योगमें लगे हुए योगीकी वास्तविक महिमा कहनेके लिये योगके जिज्ञासुकी महिमा कहते हैं।जब योगका जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्म और उनके फलोंका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् उनसे ऊपर उठ जाता है, फिर योगभ्रष्टके लिये तो कहना ही क्या है! अर्थात् उसके पतनकी कोई शङ्का ही नहीं है। वह योगमें प्रवृत्त हो चुका है; अतः उसका तो अवश्य उद्धार होगा ही।
यहाँ ‘जिज्ञासुरपि योगस्य’ पदोंका अर्थ होता है कि जो अभी योगभ्रष्ट भी नहीं हुआ है और योगमें प्रवृत्त भी नहीं हुआ है; परन्तु जो योग-(समता-) को महत्त्व देता है और उसको प्राप्त करना चाहता है–ऐसा योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका (टिप्पणी प0 381) अर्थात् वेदोंके सकाम कर्मके भागका अतिक्रमण कर जाता है।योगका जिज्ञासु वह है, जो भोग और संग्रहको साधारण लोगोंकी तरह महत्त्व नहीं देता, प्रत्युत उनकी अपेक्षा करके योगको अधिक महत्त्व देता है। उसकी भोग और संग्रहकी रुचि मिटी नहीं है, पर सिद्धान्तसे योगको ही महत्त्व देता है। इसलिये वह योगारूढ़ तो नहीं हुआ है, पर योगका जिज्ञासु है, योगको प्राप्त करना चाहता है। इस जिज्ञासामात्रका यह माहात्म्य है कि वह वेदोंमें कहे सकाम कर्मोंसे और उनके फलसे ऊँचा उठ जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि जो यहाँके भोगोंकी और संग्रहकी रुचि सर्वथा मिटा न सके और तत्परतासे योगमें भी न लग सके, उसकी भी इतनी महत्ता है, तो फिर योगभ्रष्टके विषयमें तो कहना ही क्या है! ऐसी ही बात भगवान्ने दूसरे अध्यायके चालीसवें श्लोकमें कही है कि योग-(समता-) का आरम्भ भी नष्ट नहीं होता और उसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता है अर्थात् कल्याण कर देता है। फिर जो योगमें प्रवृत्त हो चुका है, उसका पतन कैसे हो सकता है? उसका तो कल्याण होगा ही, इसमें सन्देह नहीं है।
विशेष बात
(1) ‘योगभ्रष्ट’ बहुत विशेषतावाले मनुष्यका नाम है। कैसी विशेषता? कि मनुष्योंमें हजारों और हजारोंमें कोई एक सिद्धिके लिये यत्न करता है (गीता 7। 3) तथा सिद्धिके लिये यत्न करनेवाला ही योगभ्रष्ट होता है।योगमें लगनेवालेकी बड़ी महिमा है। इस योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् ऊँचे-से-ऊँचे ब्रह्मलोक आदि लोकोंसे भी उसकी अरुचि हो जाती है। कारण कि ब्रह्मलोक आदि सभी लोक पुनरावर्ती है और वह अपुनरावर्ती चाहता है। जब योगकी जिज्ञासामात्र होनेकी इतनी महिमा है, तो फिर योगभ्रष्टकी कितनी महिमा होनी चाहिये! कारण कि उसके उद्देश्यमें योग (समता) आ गयी है, तभी तो वह योगभ्रष्ट हुआ है।इस योगभ्रष्टमें महिमा योगकी है, न कि भ्रष्ट होनेकी। जैसे कोई ‘आचार्य’ की परीक्षामें फेल हो गया हो, वह क्या ‘शास्त्री’ और ‘मध्यमा’ की परीक्षामें पास होनेवालेसे नीचा होगा? नहीं होगा। ऐसे ही जो योगभ्रष्ट हो गया है, वह सकामभावसे बड़े-बड़े यज्ञ, दान, तप आदि करनेवालोंसे नीचा नहीं होता प्रत्युत बहुत श्रेष्ठ होता है। कारण कि उसका उद्देश्य समता हो गया है। बड़ेबड़े यज्ञ दान तपस्या आदि करनेवालोंको लोग बड़ा मानते हैं, पर वास्तवमें बड़ा वही है, जिसका उद्देश्य समताका है। समताका उद्देश्यवाला शब्दब्रह्मका भी अतिक्रमण कर जाता है।इस योगभ्रष्टके प्रसङ्गसे साधकोंको उत्साह दिलानेवाली एक बड़ी विचित्र बात मिलती है कि अगर साधक ‘हमें तो परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है’–ऐसा दृढ़तासे विचार कर लें, तो वे शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जायँगे!
(2) यदि साधक आरम्भमें ‘समताको’ प्राप्त न भी कर सके, तो भी उसको अपनी रुचि या उद्देश्य समताप्राप्तिका ही रखना चाहिये; जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं–
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी।
चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।
(मानस 1। 8। 4) तात्पर्य यह है कि साधक चाहे जैसा हो, पर उसकी रुचि या उद्देश्य सदैव ऊँचा रहना चाहिये। साधककी रुचि या उद्देश्यपूर्तिकी लगन जितनी तेज, तीव्र होगी, उतनी ही जल्दी उसके उद्देश्यकी सिद्धि होगी। भगवान्का स्वभाव है कि वे यह नहीं देखते कि साधक करता क्या है, प्रत्युत यह देखते हैं कि साधक चाहता क्या है– ।
रीझत राम जानि जन जी की।।
रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की।।
(मानस 1। 29। 2 3)एक प्रज्ञाचक्षु सन्त रोज मन्दिरमें (भगवद्विग्रहका दर्शन करने) जाया करते थे। एक दिन जब वे मन्दिर गये, तब किसीने पूछ लिया कि आप यहाँ किसलिये आते हैं? सन्तने उत्तर दिया कि दर्शन करनेके लिये आता हूँ। उसने कहा कि आपको तो दिखायी ही नहीं देता! सन्त बोले–मुझे दिखायी नहीं देता तो क्या भगवान्को भी दिखायी नहीं देता? मैं उन्हें नहीं देखता, पर वे तो मुझे देखते हैं; बस, इसीसे मेरा काम बन जायगा! इसी तरह हम समताको प्राप्त भले ही न कर सकें, फिर भी हमारी रुचि या उद्देश्य समताका ही रहना चाहिये, जिसको भगवान् देखते ही हैं! अतः हमारा काम जरूर बन जायगा।
सम्बन्ध–श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेके बाद जब वह योगभ्रष्ट परमात्माकी तरफ खिंचता है, तब उसकी क्या दशा होती है? यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।