Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.43।। व्याख्या–‘तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्’–तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके कुलमें जन्म होनेके बाद उस वैराग्यवान् साधककी क्या दशा होती है? इस बातको बतानेके लिये यहाँ ‘तत्र’ पद आया है।
‘पौर्वदेहिकम्’ तथा ‘बुद्धिसंयोगम्’ पदोंका तात्पर्य है कि संसारसे विरक्त उस साधकको स्वर्ग आदि लोकोंमें नहीं जाना पड़ता, उसका तो सीधे योगियोंके कुलमें जन्म होता है। वहाँ उसको अनायास ही पूर्वजन्मकी साधन-सामग्री मिल जाती है। जैसे, किसीको रास्तेपर चलते-चलते नींद आने लगी और वह वहीं किनारेपर सो गया। अब जब वह सोकर उठेगा, तो उतना रास्ता उसका तय किया हुआ ही रहेगा; अथवा किसीने व्याकरणका प्रकरण पढ़ा और बीचमें कई वर्ष पढ़ना छूट गया। जब वह फिरसे पढ़ने लगता है, तो उसका पहले पढ़ा हुआ प्रकरण बहुत जल्दी तैयार हो जाता है, याद हो जाता है। ऐसे ही पूर्वजन्ममें उसका जितना साधन हो चुका है, जितने अच्छे संस्कार पड़ चुके हैं, वे सभी इस जन्ममें प्राप्त हो जाते हैं, जाग्रत् हो जाते हैं।
‘यतते च ततो भूयः संसिद्धौ’–एक तो वहाँ उसको पूर्वजन्मकृत बुद्धिसंयोग मिल जाता है और वहाँका सङ्ग अच्छा होनेसे साधनकी अच्छी बातें मिल जाती हैं, साधनकी युक्तियाँ मिल जाती हैं। ज्यों-ज्यों नयी युक्तियाँ मिलती हैं, त्यों-त्यों उसका साधनमें उत्साह बढ़ता है। इस तरह वह सिद्धिके लिये विशेष तत्परतासे यत्न करता है।अगर इस प्रकरणका अर्थ ऐसा लिया जाय कि ये दोनों ही प्रकारके योगभ्रष्ट पहले स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं। उनमेंसे जिसमें भोगोंकी वासना रही है, वह तो शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है और जिसमें भोगोंकी वासना नहीं है वह योगियोंके कुलमें जन्म लेता है, तो प्रकरणके पदोंपर विचार करनेसे यह बात ठीक नहीं बैठती। कारण कि ऐसा अर्थ लेनेसे ‘योगियोंके’ कुलमें जन्म लेनेवालेको ‘पौर्वदेहिक’ बुद्धिसंयोग अर्थात् पूर्वजन्मकृत साधन-सामग्री मिल जाती है–यह कहना नहीं बनेगा। यहाँ ‘पौर्वदेहिक’ कहना तभी बनेगा, जब बीचमें दूसरे शरीरका व्यवधान न हो। अगर ऐसा मानें कि स्वर्गादि लोकोंमें जाकर फिर वह योगियोंके कुलमें जन्म लेता है, तो उसका ‘पूर्वाभ्यास’ कह सकते हैं (जैसा कि श्रीमानोंके घर जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टके लिये आगेके श्लोकमें कहा है), पर ‘पौर्वदेहिक’ नहीं कह सकते। कारण कि उसमें स्वर्गादिका व्यवधान पड़ जायगा और स्वर्गादि लोकोंके देहको पौर्वदेहिक बुद्धिसंयोग नहीं कह सकते; क्योंकि उन लोकोंमें भोग-सामग्रीकी बहुलता होनेसे वहाँ साधन बननेका प्रश्न ही नहीं है। अतः वे दोनों योगभ्रष्ट स्वर्गादिमें जाकर आते हैं–यह कहना प्रकरणके अनुसार ठीक नहीं बैठता।दूसरी बात, जिसमें भोगोंकी वासना है, उसका तो स्वर्ग आदिमें जाना ठीक है; परन्तु जिसमें भोगोंकी वासना नहीं है और जो अन्त-समयमें किसी कारणवश साधनसे विचलित हो गया है, ऐसे साधकको स्वर्ग आदिमें भेजना तो उसको दण्ड देना है, जो कि सर्वथा अनुचित है।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह बताया कि तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवालेको पूर्वजन्मकृत बुद्धिसंयोग प्राप्त हो जाता है और वह साधनमें तत्परतासे लग जाता है। अब शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टकी क्या दशा होती है–इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।