Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.38।। व्याख्या–[अर्जुनने पूर्वोक्त श्लोकमें कां गतिं कृष्ण गच्छति कहकर जो बात पूछी थी, उसीका इस श्लोकमें खुलासा पूछते हैं।]
‘अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि’–वह सांसारिक प्रतिष्ठा-(स्थिति-) से तो जानकर रहित हुआ है अर्थात् उसने संसारके सुख-आराम, आदर-सत्कार, यश-प्रतिष्ठा आदिकी कामना छोड़ दी है, इनको प्राप्त करनेका उसका उद्देश्य ही नहीं रहा है। इस तरह संसारका आश्रय छोड़कर वह परमात्मप्राप्तिके मार्गपर चला; पर जीवित-अवस्थामें परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्त-समयमें साधनसे विचलित हो गया अर्थात् परमात्माकी स्मृति नहीं रही।
‘कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति’–ऐसा वह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ अर्थात् सांसारिक और पारमार्थिक–दोनों उन्नतियोंसे रहित हुआ साधक छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता? तात्पर्य है कि जैसे किसी बादलके टुकड़ेने अपने बादलको तो छोड़ दिया और दूसरे बादलतक वह पहुँचा नहीं, वायुके कारण बीचमें ही छिन्न-भिन्न हो गया। ऐसे ही साधकने संसारके आश्रयको तो छोड़ दिया और अन्त-समयमें परमात्माकी स्मृति नहीं रही, फिर वह नष्ट तो नहीं हो जाता? उसका पतन तो नहीं हो जाता ?
बादलका दृष्टान्त यहाँ पूरा नहीं बैठता। कारण कि वह बादलका टुकड़ा जिस बादलसे चला, वह बादल और जिसके पास जा रहा था, वह बादल तथा वह स्वयं (बादलका टुकड़ा)–ये तीनों एक ही जातिके हैं अर्थात् तीनों ही जड़ हैं। परन्तु जिस साधकने संसारको छोड़ा, वह संसार और जिसकी प्राप्तिके लिये चला वह परमात्मा तथा वह स्वयं (साधक)–ये तीनों एक जातिके नहीं हैं। इन तीनोंमें संसार जड़ है और परमात्मा तथा स्वयं चेतन हैं। इसलिये ‘पहला आश्रय छोड़ दिया और दूसरा प्राप्त नहीं हुआ’–इस विषयमें ही उपर्युक्त दृष्टान्त ठीक बैठता है।इस श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नका आशय यह है कि साक्षात् परमात्माका अंश होनेसे जीवका अभाव तो कभी हो ही नहीं सकता। अगर इसके भीतर संसारका उद्देश्य होता, संसारका आश्रय होता, तो यह स्वर्ग आदि लोकोंमें अथवा नरकोंमें तथा पशु-पक्षी आदि आसुरी योनियोंमें चला जाता, पर रहता तो संसारमें ही है। उसने संसारका आश्रय छोड़ दिया और उसका उद्देश्य केवल परमात्मप्राप्ति हो गया, पर प्राणोंके रहते-रहते परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्तकालमें किसी कारणसे उस उद्देश्यके अनुसार साधनमें स्थिति भी नहीं रही, परमात्मचिन्तन भी नहीं रहा, तो वह वहाँसे भी भ्रष्ट हो गया। ऐसा साधक किस गतिको जायगा?
विशेष बात
अगर इस श्लोकमें ‘परमात्माकी प्राप्तिसे और साधनसे भ्रष्ट (च्युत) हुआ’–ऐसा अर्थ लिया जाय, तो ऐसा कहना यहाँ बन ही नहीं सकता। कारण कि आगे जो बादलका दृष्टान्त दिया है, वह उपर्युक्त अर्थके साथ ठीक नहीं बैठता। बादलका टुकड़ा एक बादलको छोड़कर दूसरे बादलकी तरफ चला, पर दूसरे बादलतक पहुँचनेसे पहले बीचमें ही वायुसे छिन्न-भिन्न हो गया। इस दृष्टान्तमें स्वयं बादलके टुकड़ेने ही पहले बादलको छोड़ा है अर्थात् अपनी पहली स्थितिको छोड़ा है और आगे दूसरे बादलतक पहुँचा नहीं, तभी वह उभयभ्रष्ट हुआ है। परन्तु साधकको तो अभी परमात्माकी प्राप्ति हुई ही नहीं, फिर उसको परमात्माकी प्राप्तिसे भ्रष्ट (च्युत) होना कैसे कहा जाय?
दूसरी बात, साध्यकी प्राप्ति होनेपर साधक साध्यसे कभी च्युत हो ही नहीं सकता अर्थात् किसी भी परिस्थितिमें वह साध्यसे अलग नहीं हो सकता, उसको छोड़ नहीं सकता। अतः उसको साध्यसे च्युत कहना बनता ही नहीं। हाँ, अन्तसमयमें स्थिति न रहनेसे, परमात्माकी स्मृति न रहनेसे उसको ‘साधनभ्रष्ट’ तो कह सकते हैं, पर ‘उभयभ्रष्ट’ नहीं कह सकते। अतः यहाँ बादलके दृष्टान्तके अनुसार वही उभयभ्रष्ट लेना युक्तिसंगत बैठता है, जिसने संसारके आश्रयको जानकर ही अपनी ओरसे छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके लिये चला, पर अन्तसमयमें किसी कारणसे परमात्माकी याद नहीं रही, साधनसे विचलितमना हो गया। इस तरह संसार और साधन–दोनोंमें उसकी स्थिति न रहनसे ही वह उभयभ्रष्ट हुआ है। अर्जुनने भी सैंतीसवें श्लोकमें ‘योगाच्चलितमानसः’ कहा है और इस (अड़तीसवें) श्लोकमें ‘अप्रतिष्ठः विमूढो ब्रह्मणः पथि’ और ‘छिन्नाभ्रमिव’ कहा है। इसका तात्पर्य यही है कि उसने संसारको छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके साधनसे विचलित हो गया, मोहित हो गया।
सम्बन्ध–पूर्वोक्त सन्देहको दूर करनेके लिये अर्जुन आगेके श्लोकमें भगवान्से प्रार्थना करते हैं।