Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.36।। व्याख्या–असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः–मेरे मतमें तो जिसका मन वशमें नहीं है उसके द्वारा योग सिद्ध होना कठिन है। कारण कि योगकी सिद्धिमें मनका वशमें न होना जितना बाधक है उतनी मनकी चञ्चलता बाधक नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री मनकोवशमें तो रखती है पर उसे एकाग्र नहीं करती। अतः ध्यानयोगीको अपना मन वशमें करना चाहिये। मन वशमें होनेपर वह मनको जहाँ लगाना चाहे वहाँ लगा सकता है जितनी देर लगाना चाहे उतनी देर लगा सकता है और जहाँसे हटाना चाहे वहीँसे हटा सकता है।प्रायः साधकोंकी यह प्रवृत्ति होती है कि वे साधन तो श्रद्धापूर्वक करते हैं पर उनके प्रयत्नमें शिथिलता रहती है जिससे साधकमें संयम नहीं रहता अर्थात् मन इन्द्रियाँ अन्तःकरणका पूर्णतया संयम नहीं होता। इसलिये योगकी प्राप्तिमें कठिनता होती है अर्थात् परमात्मा सदासर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी जल्दी प्राप्त नहीं होते।भगवान्की तरफ चलनेवाले वैष्णव संस्कारवाले साधकोंकी मांस आदिमें जैसी अरुचि होती है वैसी अरुचि साधककी विषयभोगोंमें नहीं होती अर्थात् विषयभोग उतने निषिद्ध और पतन करनेवाले नहीं दीखते। कारण कि विषयभोगोंका ज्यादा अभ्यास होनेसे उनमें मांस आदिकी तरह ग्लानि नहीं होती। मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खानेसे पतन तो होता ही है पर उससे भी ज्यादा पतन होता है रागपूर्वक विषयभोगोंको भोगनेसे। कारण कि मांस आदिमें तो यह निषिद्ध वस्तु है ऐसी भावना रहती है पर भोगोंको भोगनेसे यह निषिद्ध है ऐसी भावना नहीं रहती। इसलिये भोगोंके जो संस्कार भीतर बैठ जाते हैं वे बड़े भयंकर होते हैं। तात्पर्य है कि मांस आदि खानेसे जो पाप लगता है वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा। वह पाप आगे नये पापोंमें नहीं लगायेगा। परन्तु रागपूर्वक विषयभोगोंका सेवन करनेसे जो संस्कार पड़ते हैं वे जन्मजन्मान्तरतक विषयभोगोंमें और उनकी रुचिके परिणामस्वरूप पापोंमें लगाते रहेंगे।तात्पर्य है कि साधकके अन्तःकरणमें विषयभोगोंकी रुचि रहनेके कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पातामनइन्द्रियोंको अपने वशमें नहीं कर पाता। इसलिये उसको योगकी प्राप्तिमें अर्थात् ध्यानयोगकी सिद्धिमें कठिनता होती है।
‘वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः’–परन्तु जो तत्परतापूर्वक साधनमें लगा हुआ है अर्थात् जो ध्यानयोगकी सिद्धिके लिये ध्यानयोगके उपयोगी आहारविहार सोनाजागना आदि उपायोंका अर्थात् नियमोंका नियतरूपसे और दृढ़तापूर्वक पालन करता है और जिसका मन सर्वथा वशमें है ऐसे वश्यात्मा साधकके द्वारा योग प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् उसको ध्यानयोगकी सिद्धि मिल सकती है ऐसा मेरा मत है–‘इति मे मतिः।
वश्यात्मा होनेका उपाय है–सबसे पहले अपने-आपको यह समझे कि ‘मैं भोगी नहीं हूँ। मैं जिज्ञासु हूँ तो केवल तत्त्वको जानना ही मेरा काम है; मैं भगवान्का हूँ तो केवल भगवान्के अर्पित होना ही मेरा काम है; मैं सेवक हूँ तो केवल सेवा करना ही मेरा काम है। किसीसे कुछ भी चाहना मेरा काम नहीं है’–इस तरह अपनी अहंताका परिवर्तन कर दिया जाय तो मन बहुत जल्दी वशमें हो जाता है।जब मन शुद्ध हो जाता है, तब वह स्वतः वशमें हो जाता है। मनमें उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका राग रहना ही मनकी अशुद्धि है। जब साधकका एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है तब उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओंका राग हट जाता है और मन शुद्ध हो जाता है।व्यवहारमें साधक यह सावधानी रखे कि कभी किसी अंशमें पराया हक न आ जाय; क्योंकि पराया हक लेनेसे मन अशुद्ध हो जाता है। कहीँ नौकरी, मजदूरी करे, तो जितने पैसे मिलते हैं, उससे अधिक काम करे। व्यापार करे तो वस्तुका तौल नाप या गिनती औरोंकी अपेक्षा ज्यादा भले ही हो जाय, पर कम न हो। मजदूर आदिको पैसे दे तो उसके कामके जितने पैसे बनते हों, उससे कुछ अधिक पैसे उसे दे। इस प्रकार व्यवहार करनेसे मन शुद्ध हो जाता है।
मार्मिक बात
ध्यानयोगमें अर्जुनने मनकी चञ्चलताको बाधक माना और उसको रोकना वायुको रोकनेकी तरह असम्भव बताया। इसपर भगवान्ने मनके निग्रहके लिये अभ्यास और वैराग्य–ये दो उपाय बताये। इन दोनोंमें भी ध्यानयोगके लिये ‘अभ्यास’ मुख्य है (गीता 6। 26)। ‘वैराग्य’ ज्ञानयोगके लिये विशेष उपयोगी होता है। यद्यपि वैराग्य ध्यानयोगमें भी सहायक है, तथापि ध्यानयोगमें रागके रहते हुए भी मनको रोका जा सकता है। अगर यह कहा जाय कि रागके रहते हुए मन नहीं रुकता, तो एक आपत्ति आती है। पातञ्जलयोगदर्शनके अनुसार चित्त-वृत्तियोंका निरोध अभ्याससे ही हो सकता है। अगर उसमें वैराग्य ही कारण हो, तो सिद्धियोंकी प्राप्ति कैसे होगी? (जिसका वर्णन पातञ्जलयोगदर्शनके विभूतिपादमें किया गया है।) तात्पर्य है कि अगर भीतर राग रहते हुए चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है, तो उसमें रागके कारणसे सिद्धियाँ प्रकट होती हैं। कारण कि संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) किसी-न-किसी सिद्धिके लिये किया जाता है और जहाँ सिद्धिका उद्देश्य है, वहाँ रागका अभाव कैसे हो सकता है? परन्तु जहाँ केवल परमात्मतत्त्वका उद्देश्य होता है, वहाँ ये धारणा, ध्यान और समाधि भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक हो जाते हैं।एकाग्रताके बाद जब चित्तकी निरुद्ध-अवस्था आती है, तब समाधि होती है। समाधि कारणशरीरमें होती है और समाधिसे भी व्युत्थान होता है। जबतक समाधि और व्युत्थान–ये दो अवस्थाएँ हैं, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है। प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर तो सहजावस्था होती है, जिससे व्युत्थान होता ही नहीं। अतः चित्तकी चञ्चलताको रोकनेके विषयमें भगवान् ज्यादा नहीं बोले; क्योंकि चित्तको निरुद्ध करना भगवान्का ध्येय नहीं है अर्थात् भगवान्ने जिस ध्यानका वर्णन किया है, वह ध्यान साधन है, ध्येय नहीं।भगवान्के मतमें संसारमें जो राग है, यही खास बाधा है और इसको दूर करना ही भगवान्का उद्देश्य है। ध्यान तो एक शक्ति है, एक पूँजी है, जिसका लौकिक-पारलौकिक सिद्धियों आदिमें सम्यक् उपयोग किया जा सकता है।स्वयं केवल परमात्मतत्त्वको चाहता है, तो उसको मनको एकाग्र करनेकी इतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता प्रकृतिके कार्य मनसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी, मनसे अपनापन हटानेकी है। अतः जब समाधिसे भी उपरति हो जाती है, तब सर्वातीत तत्त्वकी प्राप्ति होती है। तात्पर्य है कि जबतक समाधि-अवस्थाकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक उसमें एक आकर्षण रहता है। जब वह अवस्था प्राप्त हो जाती है, तब उसमें आकर्षण न रहकर सच्चे जिज्ञासुको उससे उपरति हो जाती है। उपरति होनेसे अर्थात् अवस्थामात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे अवस्थातीत चिन्मय-तत्त्वकी अनुभूति स्वतः हो जाती है। यही योगकी सिद्धि है। चिन्मय-तत्त्वके साथ स्वयंका नित्ययोग अर्थात् नित्य-सम्बन्ध है।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि जिसका अन्तःकरण पूरा वशमें नहीं है अर्थात् जो शिथिल प्रयत्नवाला है, उसको योगकी प्राप्ति कठिनता होती है। इसका अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें प्रश्न करते हैं।