Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.20।। व्याख्या–‘यत्रोपरमते चित्तं ৷৷. पश्यन्नात्मनि तुष्यति’–ध्यानयोगमें पहले ‘मनको केवल स्वरूपमें ही लगाना है’ यह धारणा होती है। ऐसी धारणा होनेके बाद स्वरूपके सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा हो भी जाय, तो उसकी उपेक्षा करके उसे हटा देने और चित्तको केवल स्वरूपमें ही लगानेसे जब मनका प्रवाह केवल स्वरूपमें ही लग जाता है, तब उसको ध्यान कहते हैं। ध्यानके समय ध्याता, ध्यान और ध्येय–यह त्रिपुटी रहती है अर्थात् साधक ध्यानके समय अपनेको ध्याता (ध्यान करनेवाला) मानता है, स्वरूपमें तद्रूप होनेवाली वृत्तिको ध्यान मानता है और साध्यरूप स्वरूपको ध्येय मानता है। तात्पर्य है कि जबतक इन तीनोंका अलग-अलग ज्ञान रहता है, तबतक वह ‘ध्यान’ कहलाता है। ध्यानमें ध्येयकी मुख्यता होनेके कारण साधक पहले अपनेमें ध्यातापना भूल जाता है। फिर ध्यानकी वृत्ति भी भूल जाता है। अन्तमें केवल ध्येय ही जाग्रत् रहता है। इसको ‘समाधि’ कहते हैं। यह ‘संप्रज्ञातसमाधि’ है जो चित्तकी एकाग्र अवस्थामें होती है। इस समाधिके दीर्घकालके अभ्याससे फिर ‘असंप्रज्ञात-समाधि’ होती है। इन दोनों समाधियोंमें भेद यह है कि जबतक ध्येय, ध्येयका नाम और नाम-नामीका सम्बन्ध–ये तीनों चीजें रहती हैं, तबतक वह ‘संप्रज्ञात-समाधि’ होती है। इसीको चित्तकी ‘एकाग्र’ अवस्था कहते हैं। परन्तु जब नामकी स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है, तब वह ‘असंप्रज्ञात-समाधि’ होती है। इसीको चित्तकी ‘निरुद्ध’ अवस्था कहते हैं।निरुद्ध अवस्थाकी समाधि दो तरहकी होती है–सबीज और निर्बीज। जिसमें संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, वह ‘सबीज समाधि’ कहलाती है। सूक्ष्म वासनाके कारण सबीज समाधिमें सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर पारमार्थिक दृष्टिसे (चेतन-तत्त्वकी प्राप्तिमें) विघ्न हैं। ध्यानयोगी जब इन सिद्धियोंको निस्तत्त्व समझकर इनसे उपराम हो जाता है, तब उसकी ‘निर्बीज समाधि’ होती है, जिसका यहाँ (इस श्लोकमें)
‘निरुद्धम्’ पदसे संकेत किया गया है।ध्यानमें संसारके सम्बन्धसे विमुख होनेपर एक शान्ति, एक सुख मिलता है, जो कि संसारका सम्बन्ध रहनेपर कभी नहीं मिलता। संप्रज्ञात-समाधिमें उससे भी विलक्षण सुखका अनुभव होता है। इस संप्रज्ञात-समाधिसे भी असंप्रज्ञात-समाधिमें विलक्षण सुख होता है। जब साधक निर्बीज समाधिमें पहुँचता है, तब उसमें बहुत ही विलक्षण सुख, आनन्द होता है। योगका अभ्यास करते-करते चित्त निरुद्ध-अवस्था–निर्बीज समाधिसे भी उपराम हो जाता है अर्थात् योगी उस निर्बीज समाधिका भी सुख नहीं लेता, उसके सुखका भोक्ता नहीं बनता। उस समय वह अपने स्वरूपमें अपने-आपका अनुभव करता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है।
‘उपरमते’ पदका तात्पर्य है कि चित्तका संसारसे तो प्रयोजन रहा नहीं और स्वरूपको पकड़ सकता नहीं। कारण कि चित्त प्रकृतिका कार्य होनेसे जड है और स्वरूप चेतन है। जड चित्त स्वरूपको कैसे पकड़ सकता है? नहीं पकड़ सकता। इसलिये वह उपराम हो जाता है। चित्तके उपराम होनेपर योगीका चित्तसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
‘तुष्यति’ कहनेका तात्पर्य है कि उसके सन्तोषका दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं रहता। केवल अपना स्वरूप ही उसके सन्तोषका कारण रहता है।इस श्लोकका सार यह है कि अपने द्वारा अपनेमें ही अपने स्वरूपकी अनुभूति होती है। वह तत्त्व अपने भीतर ज्यों-का-त्यों है। केवल संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण चित्तकी वृत्तियाँ संसारमें लगती हैं, जिससे उस तत्त्वकी अनुभूति नहीं होती। जब ध्यानयोगके द्वारा चित्त संसारसे उपराम हो जाता है तब योगीका चित्तसे तथा संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही उसको अपने-आपमें ही अपने स्वरूपकी अनुभूति हो जाती है।
विशेष बात
जिस तत्त्वकी प्राप्ति ध्यानयोगसे होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्ति कर्मयोगसे होती है। परन्तु इन दोनों साधनोंमें थोड़ा अन्तर है। ध्यानयोगमें जब साधकका चित्त समाधिके सुखसे भी उपराम हो जाता है, तब वह अपने-आपसे अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है। कर्मयोगमें जब साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, तब वह अपने-आपसे अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है (गीता 2। 55)।ध्यानयोगमें अपने स्वरूपमें मन लगनेसे जब मन स्वरूपमें तदाकार हो जाता है, तब समाधि लगती है। उस समाधिसे भी जब मन उपराम हो जाता है, तब योगीका चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।कर्मयोगमें मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि पदार्थोंका और सम्पूर्ण क्रियाओँका प्रवाह केवल दूसरोंके हितकी तरफ हो जाता है, तब मनोगत सम्पूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं। कामनाओंका त्याग होते ही मनसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें कहा गया कि ध्यानयोगी अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तोषका अनुभव करता है। अब उसके बाद क्या होता है–इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।