Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.10।। व्याख्या–[पाँचवें अध्यायके सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें जिस ध्यानयोगका संक्षेपसे वर्णन किया था, अब यहाँ उसीका विस्तारसे वर्णन कर रहे हैं।
‘युज् समाधौ’ धातुसे जो ‘योग’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ चित्तवृत्तियोंका निरोध करना है (टिप्पणी प0 341.1), उस योगका वर्णन यहाँ दसवें श्लोकसे आरम्भ करते हैं।]
‘अपरिग्रहः’ चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगका साधन संसारमात्रसे विमुख होकर और केवल परमात्माके सम्मुख होकर किया जाता है। अतः उसके लिये पहला साधन बताते हैं–‘अपरिग्रहः’–अर्थात् अपने लिये सुखबुद्धिसे कुछ भी संग्रह न करे। कारण कि अपने सुखके लिये भोग और संग्रह करनेसे उसमें मनका खिंचाव रहेगा, जिससे साधकका मन ध्यानमें नहीं लगेगा। अतः ध्यानयोगके साधकके लिये अपरिग्रह होना जरुरी है।
‘निराशीः’ (टिप्पणी प0 341.2)–पहले ‘अपरिग्रहः’पदसे बाहरके भोग-पदार्थोंका त्याग बताया, अब ‘निराशीः’ पदसे भीतरकी भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग करनेके लिये कहते हैं। तात्पर्य यह है कि भीतरमें किसी भी भोगको भोगबुद्धिसे भोगनेकी इच्छा, कामना, आशा न रखे। कारण कि मनमें उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंका महत्त्व, आशा, कामना परमात्मप्राप्तिमें महान् बाधक है। अतः इसमें साधकको सावधान रहना चाहिये।
‘यतचित्तात्मा’–बाहरसे अपने सुखके लिये पदार्थ और संग्रहका त्याग तथा भीतरसे उनकी कामना-आशाका त्याग होनेपर भी अन्तःकरण आदिमें नया राग होनेकी सम्भावना रहती है, अतः यहाँ तीसरा साधन बताते हैं–‘यतचित्तात्मा’ अर्थात् साधक अन्तःकरणसहित शरीरको वशमें रखनेवाला हो। इनके वशमें होनेपर फिर नया राग पैदा नहीं होगा। इनको वशमें करनेका उपाय है–कोई भी नया काम रागपूर्वक न करे। कारण कि रागपूर्वक प्रवृत्ति होनेसे शरीरकी आराम-आलस्यमें, इन्द्रियोंकी भोगोंमें और मनकी भोगोंके चिन्तनमें अथवा व्यर्थ चिन्तनमें प्रवृत्ति होती है, इसलिये अन्तःकरण और शरीरको वशमें करनेकी बात कही गयी है।
‘योगी’–जिसका ध्येय, लक्ष्य केवल परमात्मामें लगनेका ही है अर्थात् जो परमात्मप्राप्तिके लिये ही ध्यानयोग करनेवाला है, सिद्धियों और भोगोंकी प्राप्तिके लिये नहीं ,उसको यहाँ ‘योगी’ कहा गया है।
‘एकाकी’–ध्यानयोगका साधक अकेला हो, साथमें कोई सहायक न हो; क्योंकि दो होंगे तो बातचीत होने लग जायगी और साथमें कोई सहायक होगा तो रागके कारण उसकी याद आती रहेगी, जिससे मन भगवान्में नहीं लगेगा।
‘रहसि स्थितः’–साधकको कहाँ स्थित होना चाहिये–इसके लिये बताते हैं कि वह एकान्तमें स्थित रहे, अर्थात् ऐसे स्थानमें स्थित रहे जहाँ ध्यानके विरुद्ध कोई वातावरण न हो। जैसे, नदीका किनारा हो, वनमें एकान्त स्थान हो, एकान्त मन्दिर आदि हो अथवा घरमें ही एक कमरा ऐसा हो, जिसमें केवल भजन-ध्यान किया जाय। उसमें न तो स्वयं भोजन-शयन करे और न कोई दूसरा ही करे।
‘आत्मानं सततं युञ्जीत’–उपर्युक्त प्रकारसे एकान्तमें बैठकर मनको निरन्तर भगवान्में लगाये। मनको निरन्तर भगवान्में लगानेके लिये खास बात है कि जब ध्यान करनेके लिये एकान्त स्थानपर जाय, तबजानेसे पहले ही यह विचार कर ले ‘अब मेरेको संसारका कोई काम नहीं करना है, केवल भगवान्का ध्यान ही करना है। अब भगवान्के सिवाय दूसरेका चिन्तन करना ही नहीं है’–इस बातको लेकर निरन्तर सावधान रहे; क्योंकि सावधानी ही साधना है।साधकके लिये इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि वह ध्यानके समय तो भगवान्के चिन्तनमें तत्परतापूर्वक लगा रहे, व्यवहारके समय भी निर्लिप्त रहते हुए भगवान्का चिन्तन करता रहे; क्योंकि व्यवहारके समय भगवान्का चिन्तन न होनेसे संसारमें लिप्तता अधिक होती है। व्यवहारके समय भगवान्का चिन्तन करनेसे ध्यानके समय चिन्तन करना सुगम होता है और ध्यानके समय ठीक तरहसे चिन्तन होनेसे व्यवहारके समय भी चिन्तन होता रहता है अर्थात् दोनों समयमें किया गया चिन्तन एकदूसरेका सहायक होता है। तात्पर्य है कि साधकका साधकपना हर समय जाग्रत् रहे। वह संसारमें तो भगवान्को मिलाये, पर भगवान्में संसारको न मिलाये अर्थात् सांसारिक कार्य करते समय भी भगवत्स्मण करता रहे।यदि ध्यानके लिये बैठते समय साधक ‘अमुक काम करना है, इतना लेना है, इतना देना है, अमुक जगह जाना है, अमुकसे मिलना है’ आदि कार्योंको मनमें जमा रखेगा अर्थात् मनमें इनका संकल्प करेगा, तो उसका मन भगवान्के ध्यानमें नहीं लगेगा। अतः ध्यानके लिये बैठते समय यह दृढ़ निश्चय कर ले कि चाहे जो हो जाय, गरदन भले ही कट जाय, मेरेको केवल भगवान्का ध्यान ही करना है। ऐसा दृढ़ विचार होनेसे भगवान्में मन लगानेमें बड़ी सुविधा हो जायगी।साधककी यह शिकायत रहती है कि भगवान्में मन नहीं लगता, तो इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि साधक संसारसे सम्बन्ध तोड़कर ध्यान नहीं करता ,प्रत्युत संसारसे सम्बन्ध जोड़कर करता है। अतः अपने सुख, सेवाके लिये भीतरसे किसीको भी अपना न माने अर्थात् किसीमें ममता न रखे; क्योंकि मन वहीं जायगा, जहाँ ममता होगी। इसलिये उद्देश्य केवल परमात्माका रहे और सबसे निर्लिप्त रहे, तो भगवान्में मन लग सकता है।
विशेष बात
अर्जुन पहले भी युद्धके लिये तैयार थे और अन्तमें भी उन्होंने युद्ध किया। केवल बीचमें वे युद्धको पाप समझने लगे थे तो भगवान्के समझा देनेसे उन्होंने युद्ध करना स्वीकार किया। इस तरह प्रसङ्ग कर्मोंका होनेसे गीतामें कर्मयोगका विषय आना तो ठीक ही था, पर इसमें ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कई पारमार्थिक साधनोंका वर्णन कैसे आया है? उनमें भी यहाँ ध्यानयोगका वर्णन आया जिसमें केवल एकान्में बैठकर ध्यान लगाना पड़ता है। यह प्रसङ्ग ही यहाँ क्यों आया?
अर्जुन पापके भयसे युद्धसे उपरत होते हैं, तो उनके भीतर कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होती है। अतः वे भगवान्से प्रार्थना करते हैं कि जिससे मेरा निश्चित श्रेय (कल्याण) हो वह बात आप कहिये (2। 7 3। 2 5। 1)। इसपर भगवान्को श्रेय करनेवाले जितने मार्ग हैं, वे सब बताने पड़े। उनमें दान, यज्ञ, तप, वेदाध्ययन, प्राणायाम, ध्यानयोग, हठयोग, लययोग आदिको कहना भी कर्तव्य हो जाता है। इसलिये भगवान्ने गीतामें कल्याणकारक साधन बताये हैं। उन सब साधनोंमें भगवान्ने यह बात बतायी कि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका जो लक्ष्य है, वही खास बन्धनकारक है। अगर साधकका लक्ष्य केवल परमात्माका है, तो फिर उसके सामने कोई भी कर्तव्य-कर्म आ जाय, उसको समभावसे करना चाहिये। समभावसे किये गये सब-के-सब कर्तव्य-कर्म कल्याण करनेवाले होते हैं।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें भगवान्ने ध्यानयोगके लिये प्रेरणा की। ध्यानयोगका साधन कैसे करे–इसके लिये अब आगेके तीन श्लोकोंमें ध्यानयोगकी उपयोगी बातें बताते हैं।