Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.52।। व्याख्या–‘सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम’–यहाँ ‘सुदुर्दर्शम्’ पद चतुर्भुजरूपके लिये ही आया है, विराट्रूप या द्विभुजरूपके लिये नहीं। कारण कि विराट्रूपकी तो देवता भी कल्पना क्यों करने लगे ! और मनुष्यरूप जब मनुष्योंके लिये सुलभ था, तब देवताओंके ल,ये वह दुर्लभ कैसे होता ! इसलिये ‘सुदुर्दर्शम्’ पदसे भगवान् विष्णुका चतुर्भुजरूप ही लेना चाहिये, जिसके लिये ‘देवरूपम्’ (11। 45) और स्वकं रूपम् (11। 50) पद आये हैं।
‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः–भगवान्ने यहाँ कहा है कि मेरा यह जो चतुर्भुजरूप है इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। आगे तिरपनवें-चौवनवें श्लोकोंमें कहा है कि इस चतुर्भुजरूपके दर्शन वेद, यज्ञ, तप, दान आदि साधनोंसे नहीं हो सकते प्रत्युत इसके दर्शन तो अनन्यभक्तिसे ही हो सकते हैं। अब यहाँ एक शङ्का होती है कि देवता भी इस रूपके दर्शनकी नित्य आकाङ्क्षा (लालसा) रखते हैं, फिर उनको दर्शन क्यों नहीं होते? जब कि भगवान्के दर्शनकी नित्य लालसा रहना अनन्य-भक्ति ही है। इसका समाधान यह है कि वास्तवमें देवताओँकी नित्य लालसा अनन्यभक्ति नहीं है।
नित्य लालसा रखनेका तात्पर्य है कि नित्य-निरन्तर एक परमत्माकी ही लालसा लगी रहे और दूसरी कोई लालसा न रहे। ऐसी लालसावाला दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवान्का भक्त हो जाता है और उसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है। परन्तु ऐसी अनन्य लालसा देवताओंकी नहीं होती; क्योंकि वे प्रायः भोग भोगनेके लिये ही देवता बने हैं और उनका प्रायः भोग भोगनेका ही उद्देश्य होता है। तो फिर उनकी लालसा कैसी होती है? जैसी लालसा (इच्छा) प्रायः सभी आस्तिक मनुष्योंमें रहती है कि हमें भगवान्के दर्शन हो जायँ, हमारा कल्याण हो जाय। उनकी ऐसी इच्छा तो रहती है, पर भोग और संग्रहकी रुचि ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। तात्पर्य है कि जैसे मार्गमें चलते हुए किसीको मणि मिल जाय, ऐसे ही (गौणतासे) हमारी मुक्ति हो जाय तो अच्छी बात है (टिप्पणी प0 614) — इस प्रकार जैसे मनुष्योंमें मुक्तिकी इच्छा गौण होती है, ऐसे ही भगवान् दर्शन दें तो हम भी दर्शन कर लें — इस प्रकार देवताओंमें दर्शनकी इच्छा गौण होती है।
देवतालोग ‘हम इतने ऊँचे पदपर हैं, हमारे लोक, शरीर और भोग दिव्य हैं, हम बड़े पुण्यशाली हैं; अतः हमें भगवान्के दर्शन होने चाहिये’ — ऐसी कोरी इच्छा ही करते हैं, इसलिये उनको कभी दर्शन होंगे नहीं। कारण कि उनमें देवत्व, पद आदिका अभिमान है। अभिमानसे, पद आदिके बलसे भगवान्के दर्शन नहीं हो सकते। इसलिये अर्जुनने दसवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें कहा है कि हे भगवन् आपके प्रकट होनेको देवता और दानव भी नहीं जानते। इस प्रकार अर्जुनने भगवान्को न जाननेमें देवताओं और दानवोंको एक श्रेणीमें लिया है। इसका तात्पर्य यही है कि जैसे देवताओंके पास वैभव है, ऐसे ही दानवोंके पास विचित्र-विचित्र माया है, सिद्धियाँ हैं, पर उनके बलपर वे भगवान्को नहीं जान सकते। ऐसे ही देवता भगवान्के दर्शनकी लालसा भी रखें, तो भी उनको देवत्व-शक्तिसे दर्शन नहीं हो सकते; क्योंकि भगवान्के दर्शनमें देवत्व कारण नहीं है। तात्पर्य है कि भगवान्को न तो देवत्व-शक्तिसे देखा जा सकता है और न यज्ञ, तप, दान आदि शुभ-कर्मोंसे ही देखा जा सकता है (11। 53)। उनको तो अनन्यभक्तिसे देवता और मनुष्य — दोनों ही भगवान्को देख सकते हैं।
‘देवा अपि’ कहनेका तात्पर्य है कि जिन पुण्योंके कारण देवताओंको ऊँचा पद मिला है, ऊँचे (दिव्य) भोग मिले हैं, उन पुण्योंके बलसे, पद आदिके बलसे वे भगवान्के दर्शन नहीं कर सकते। तात्पर्य है कि पुण्यकर्म ऊँचे लोक, ऊँचे भोग तो दे सकते हैं, पर भगवान्के दर्शन करानेकी उनमें सामर्थ्य नहीं है। भगवान्के दर्शनमें यह प्राकृत महत्त्व कुछ भी मूल्य नहीं रखता।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें कही हुई बातको ही भगवान् आगेके श्लोकमें पुष्ट करते हैं।