Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.44।। व्याख्या–‘तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीषमीड्यम्’–आप अनन्त ब्रह्माण्डोंके ईश्वर हैं। इसलिये सबके द्वारा स्तुति करनेयोग्य आप ही हैं। आपके गुण, प्रभाव, महत्त्व आदि अनन्त हैं; अतः ऋषि, महर्षि, देवता, महापुरुष आपकी नित्य-निरन्तर स्तुति करते रहें, तो भी पार नहीं पा सकते। ऐसे स्तुति करनेयोग्य आपकी मैं क्या स्तुति कर सकता हूँ? मेरेमें आपकी स्तुति करनेका बल नहीं है, सामर्थ्य नहीं है। इसलिये मैं तो केवल आपके चरणोंमें लम्बा पड़कर दण्डवत् प्रणाम ही कर सकता हूँ और इसीसे आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ।
‘पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्’– किसीका अपमान होता है तो उसमें मुख्य तीन कारण होते हैं — (1) प्रमाद-(असावधानी-) से, (2) हँसी, दिल्लगी, विनोदमें खयाल न रहनेसे और (3) अपनेपनकी घनिष्ठता होनेपर अपने साथ रहनेवालेका महत्त्व न जाननेसे। जैसे, गोदीमें बैठा हुआ छोटा बच्चा अज्ञानवश पिताकी दाढ़ी-मूँछ खींचता है, मुँहपर थप्पड़ लगाता है, कभी कहीं लात मार देता है तो बच्चेकी ऐसी चेष्टा देखकर पिता राजी ही होते हैं. प्रसन्न ही होते हैं। वे अपनेमें यह भाव लाते ही नहीं कि पुत्र मेरा अपमान कर रहा है। मित्र मित्रके साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते आदि समय चाहे जैसा व्यवहार करता है, चाहे जैसा बोल देता है, जैसे — तुम ब़ड़े सत्य बोलते हो जी तुम तो बड़े सत्यप्रतिज्ञ हो अब तो तुम बड़े आदमी हो गये हो तुम तो खूब अभिमान करने लग गये हो आज मानो तुम राजा ही बन गये हो आदि, पर उसका मित्र उसकी इन बातोंका खयाल नहीं करता। वह तो यही समझता है कि हम बराबरीके मित्र हैं, ऐसी हँसी-दिल्लगी तो होती ही रहती है। पत्नीके द्वारा आपसके प्रेमके कारण उठने-बैठने, बातचीत करने आदिमें पतिकी जो कुछ अवहेलना होती है, उसे पति सह लेता है। जैसे, पति नीचे बैठा है तो,वह ऊँचे आसनपर बैठ जाती है, कभी किसी बातको लेकर अवहेलना भी कर देती है, पर पति उसे स्वाभाविक ही सह लेता है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे पिता पुत्रके, मित्र मित्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है, ऐसे ही हे भगवन् आप मेरे अपमानको सहनेमें समर्थ हैं अर्थात् इसके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।
इकतालीसवेंबयालीसवें श्लोकोंमें अर्जुनने तीन बातें कही थीं —‘प्रमादात्’ (प्रमादसे), ‘अवहासार्थम्’ (हँसीदिल्लगीसे) और ‘प्रणयेन’ (प्रेमसे)। उन्हीं तीन बातोंका संकेत अर्जुनने यहाँ तीन दृष्टान्त देकर किया है अर्थात् प्रमादके लिये पितापुत्रका, हँसीदिल्लगीके लिये मित्र-मित्रका और प्रेमके लिये पतिपत्नीका दृष्टान्त दिया है।
ग्यारहवें अध्यायमें ग्यारह रसोंका वर्णन
ग्यारहवें अध्याय में ग्यारह रसोंका वर्णन इस प्रकार हुआ है –देवरुपका वर्णन होनेसे शान्तरस’ स्वर्गसे पृथ्वीतक और दसों दिशाओं में व्याप्त विराट् रुपका वर्णन होनेसे अद् भुतरस’ अपनी जिहासे सबका ग्रसन कर रहे है और सबका संहार करनेके लिये कालरुपसे प्रवृत्त हुए हैं– ऐसा रुप धारण किये होनेसे ‘रौद्ररस’ भयंकर विकराल मुख और दाढ़ोंवाला रुप होनेसे ‘बीभत्सरस’ तुम युध्दके लिय खड़े हो जाओ– इस रुपमें ‘वीररस’ लम्बे पड़कर दण्डवत-प्रणाम आदि करनेसे ‘दास्यरस’ (11 ।44 का पूर्वार्ध); मुख्य-मुख्य योध्दाओंको तथा अन्य राजालोगोंको भगवान् के मुखमें जाते हुए देखनेसे ‘करुणरस’ (11 । 28-29);दृष्टान्त मित्र मित्रके, पिता पुत्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है– इस रुपमें क्रमश: ‘सख्यरस’, वात्सल्यरस और माधुर्यरस का वर्णन हुआ है (11 । 44 का उत्तरार्ध) और हँसी आदिकी स्मृतिरुपसे हास्यरस का वर्णन हुआ है (11 । 42 का पूर्वार्ध )।
सम्बन्ध–अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन चतुर्भुजरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करते हैं।