Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.23।। व्याख्या–[पन्द्रहवेंसे अठारहवें श्लोकतक विश्वरूपमें ‘देव’-रूपका, उन्नीसवेंसे बाईसवें श्लोकतक ‘उग्र’-रूपका और तेईसवेंसे तीसवें श्लोकतक ‘अत्यन्त उग्र’-रूपका वर्णन हुआ है।]
‘बहुवक्त्रनेत्रम्’ — आपके मुख एक-दूसरेसे नहीं मिलते। कई मुख सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई मुख छोटे हैं और कई मुख बड़े हैं। ऐसे ही आपके जो नेत्र हैं, वे भी सभी एक समान नहीं दीख रहे हैं। कई नेत्र सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई नेत्र छोटे हैं, कई बड़े हैं, कई लम्बे हैं, कई चौड़े हैं, कई गोल हैं, कई टेढ़े हैं, आदि-आदि।
‘बहुबाहूरुपादम्’ — हाथोंकी बनावट, वर्ण, आकृति और उनके कार्य विलक्षणविलक्षण हैं। जंघाएँ विचित्रविचित्र हैं और चरण भी तरहतरहके हैं।
‘बहूदरम्’– पेट भी एक समान नहीं हैं। कोई बड़ा, कोई छोटा, कोई भयंकर आदि कई तरहके पेट हैं।
‘बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्’– मुखोंमें बहुत प्रकारकी विकराल दाढ़ें हैं। ऐसे महान् भयंकर, विकराल रूपको देखकर सब प्राणी व्याकुल हो रहे हैं और मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ।
इस श्लोकसे पहले कहे हुए श्लोकोंमें भी अनेक मुखों, नेत्रों आदिकी और सब लोगोंके भयभीत होनेकी बात आयी है। अतः अर्जुन एक ही बात बार-बार क्यों कह रहे हैं ?इसका कारण है कि — (1) विराट्रूपमें अर्जुनकी दृष्टिके सामने जो-जो रूप आता है, उस-उसमें उनको नयी-नयी विलक्षणता और दिव्यता दीख रही है।
(2) विराट्रूपको देखकर अर्जुन इतने घबरा गये, चकित हो गये, चकरा गये, व्यथित हो गये कि उनको यह खयाल ही नहीं रहा कि मैंने क्या कहा है और मैं क्या कह रहा हूँ।
(3) पहले तो अर्जुनने तीनों लोकोंके व्यथित होनेकी बात कही थी, पर यहाँ सब प्राणियोंके साथ-साथ स्वयंके भी व्यथित होनेकी बात कहते हैं।
(4) एक बातको बार-बार कहना अर्जुनके भयभीत और आश्चर्यचकित होनेका चिह्न है। संसारमें देखा भी जाता है कि जिसको भय, हर्ष, शोक, आश्चर्य आदि होते हैं, उसके मुखसे स्वाभाविक ही किसी शब्द या वाक्यका बार-बार उच्चारण हो जाता है; जैसे — कोई साँपको देखकर भयभीत होता है तो वह बार-बार ‘साँप! साँप! साँप! ‘ऐसा कहता है। कोई सज्जन पुरुष आता है तो हर्षमें भरकर कहते हैं — ‘आइये! आइये! आइये!’ कोई प्रिय व्यक्ति मर जाता है तो शोकाकुल होकर कहते हैं — ‘मैं मारा गया! मारा! गया! घरमें अँधेरा हो गया, अँधेरा हो गया अचानक कोई आफत आ जाती है तो मुखसे निकलता है — मैं मरा मरा मरा ऐसे ही यहाँ विश्वरूप-दर्शनमें अर्जुनके द्वारा भय और हर्षके कारण कुछ शब्दों और वाक्योंका बार-बार उच्चारण हुआ है। अर्जुनने भय और हर्षको स्वीकार भी किया है — ‘अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे’ (11। 45)। तात्पर्य है कि भय, हर्ष, शोक आदिमें एक बातको बार-बार कहना पुनरुक्ति-दोष नहीं माना जाता।