Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.19।। व्याख्या–‘अनादिमध्यान्तम्’–आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं अर्थात् आपकी कोई सीमा नहीं है।सोलहवें श्लोकमें भी अर्जुनने कहा है कि मैं आपके आदि, मध्य और अन्तको नहीं देखता हूँ। वहाँ तो,देशकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है और यहाँ कालकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है। तात्पर्य है कि ‘देशकृत’ ‘कालकृत’ वस्तुकृत आदि किसी तरहसे भी आपकी सीमा नहीं है। सम्पूर्ण देश, काल आदि आपके अन्तर्गत हैं, फिर आप देश, काल आदिके अन्तर्गत कैसे आ सकते हैं? अर्थात् देश, काल आदि किसीके भी आधारपर आपको मापा नहीं जा सकता।
‘अनन्तवीर्यम्’ — आपमें अपार पराक्रम, सामर्थ्य, बल और तेज है। आप अनन्त, असीम, शक्तिशाली हैं।
‘अनन्तबाहुम्’ (टिप्पणी प0 586.1) — आपकी कितनी भुजाएँ हैं, इसकी कोई गिनती नहीं हो सकती। आप अनन्त भुजाओंवाले हैं।
‘शशिसूर्यनेत्रम्’–संसारमात्रको प्रकाशित करनेवाले जो चन्द्र और सूर्य हैं, वे आपके नेत्र हैं। इसलिये संसारमात्रको आपसे ही प्रकाश मिलता है।
‘दीप्तहुताशवक्त्रम्’–यज्ञ, होम आदिमें जो कुछ अग्निमें हवन किया जाता है, उन सबको ग्रहण करनेवाले देदीप्यमान अग्निरूप मुखवाले आप ही हैं।
‘स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्’–अपने तेजसे सम्पूर्ण विश्वको तपानेवाले आप ही हैं। तात्पर्य यह है कि जिन-जिन व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों आदिसे प्रतिकूलता मिल रही है, उन-उनसे ही सम्पूर्ण प्राणी संतप्त हो रहे हैं। संतप्त करनेवाले और संतप्त होनेवाले — दोनों एक ही विराट्रूपके अङ्ग हैं।