Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.5।। व्याख्या–‘पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः’–अर्जुनकी संकोचपूर्वक प्रार्थनाको सुनकर भगवान् अत्यधिक प्रसन्न हुए; अतः अर्जुनके लिये ‘पार्थ’ सम्बोधनका प्रयोग करते हुए कहते हैं कि तू मेरे रूपोंको देख। रूपोंमें भी तीन-चार नहीं, प्रत्युत सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख अर्थात् अनगिनत रूपोंको देख। भगवान्ने जैसे विभूतियोंके विषय कहा है कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं आ सकता, ऐसे ही यहाँ भगवान्ने,अपने रूपोंकी अनन्तता बतायी है।
‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च’–अब भगवान् उन रूपोंकी विशेषताओंका वर्णन करते हैं कि उनकी तरह-तरहकी बनावट है। उनके रंग भी तरह-तरहके हैं अर्थात् कोई किसी रंगका तो कोई किसी रंगका, कोई पीला तो कोई लाल आदि-आदि। उनमें भी एक-एक रूपमें कई तरहके रंग हैं। उन रूपोंकी आकृतियाँ भी तरहतरहकी हैं अर्थात् कोई छोटा तो कोई मोटा, कोई लम्बा तो कोई चौड़ा आदि-आदि।,जैसे पृथ्वीका एक छोटा-सा कण भी पृथ्वी ही है, ऐसे ही भगवान्के अनन्त, अपार विश्वरूपका एक छोटा-सा अंश होनेके कारण यह संसार भी विश्वरूप ही है। परन्तु यह हरेकके सामने दिव्य विश्वरूपसे प्रकट नहीं है, प्रत्युत संसाररूपसे ही प्रकट है। कारण कि मनुष्यकी दृष्टि भगवान्की तरफ न होकर नाशवान् संसारकी तरफ ही रहती है। जैसे अवतार लेनेपर भगवान् सबके सामने भगवत्रूपसे प्रकट नहीं रहते (गीता 7। 25), प्रत्युत मनुष्यरूपसे ही प्रकट रहते हैं, ऐसे ही विश्वरूप भगवान् सबके सामने संसाररूपसे ही प्रकट रहते हैं अर्थात् हरेकको यह विश्वरूप संसाररूपसे ही दीखता है। परन्तु यहाँ भगवान् अपने दिव्य अविनाशी विश्वरूपसे साक्षात् प्रकट होकर अर्जनको कह रहे हैं कि तू मेरे दिव्य रूपोंको देख।,
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपने विश्वरूपमें तरह-तरहके वर्णों और आकृतियोंको देखनेकी बात कही। अब आगेके श्लोकमें देवताओंको देखनेकी बात कहते हैं।