Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।10.36।। व्याख्या–‘द्यूतं छलयतामस्मि’–छल करके दूसरोंके राज्य, वैभव, धन, सम्पत्ति आदिका (सर्वस्वका) अपहरण करनेकी विशेष सामर्थ्य रखनेवाली जो विद्या है, उसको जूआ कहते हैं। इस जूएको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।
शङ्का–यहाँ भगवान्ने छल करनेवालोंमें जूएको अपनी विभूति बताया है तो फिर इसके खेलनमें क्या दोष है? अगर दोष नहीं है तो फिर शास्त्रोंने इसका निषेध क्यों किया है।
समाधान –‘ऐसा करो और ऐसा मत करो’– यह शास्त्रोंका विधि-निषेध कहलाता है। ऐसे विधि-निषेधका वर्णन यहाँ नहीं है। यहाँ तो विभूतियोंका वर्णन है। मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ?’ — अर्जुनके इस प्रश्नके अनुसार भगवान्ने विभूतियोंके रूपमें अपने चिन्तनकी बात ही बतायी है अर्थात् भगवान्का चिन्तन सुगमतासे हो जाय, इसका उपाय विभूतियोंके रूपमें बताया है। अतः जिस समुदायमें मनुष्य रहता है, उस समुदायमें जहाँ दृष्टि पड़े, वहाँ संसारको न देखकर भगवान्को ही देखे; क्योंकि भगवान् कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् मेरेसे व्याप्त है अर्थात् इस जगत्में मैं ही व्याप्त हूँ, परिपूर्ण हूँ (गीता 9। 4)।
जैसे किसी साधकका पहले जूआ खेलनेका व्यसन रहा हो और अब वह भगवान्के भजनमें लगा है। उसको कभी जूआ याद आ जाय तो उस जूएका चिन्तन छोड़नेके लिये वह उसमें भगवान्का चिन्तन करे कि इस जूएके खेलमें हार-जीतकी विशेषता है, वह भगवान्की ही है। इस प्रकार जूएमें भगवान्को देखनेसे जूएका चिन्तन तो छूट जायगा और भगवान्का चिन्तन होने लगेगा। ऐसे ही किसी दूसरेको जूआ खेलते देखा और उसमें हार-जीतको देखा, तो हराने और जितानेकी शक्तिको जूएकी न मानकर भगवान्की ही माने। कारण कि खेल तो समाप्त हो रहा है और समाप्त हो जायगा, पर परमात्मा उसमें निरन्तर रहते हैं और रहेंगे। इस प्रकार जुआ आदिको विभूति कहनेका तात्पर्य भगवान्के चिन्तनमें है (टिप्पणी प0 565.1)।
जीव स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश है, पर इसने भूलसे असत् शरीर-संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। अगर यह संसारमें दीखनेवाली महत्ता, विशेषता, शोभा आदिको परमात्माकी ही मानकर परमात्माका चिन्तन करेगा तो यह परमात्माकी तरफ जायगा अर्थात् इसका उद्धार हो जायगा (गीता 8। 14); और अगर महत्ता, विशेषता, शोभा आदिको संसारकी मानकर संसारका चिन्तन करेगा तो यह संसारकी तरफ जायगा अर्थात् इसका पतन हो जायगा (गीता 2। 62 63)। इसलिये परमात्माका चिन्तन करते हुए परमात्माको तत्त्वसे जाननेके उद्देश्यसे ही इन विभूतियोंका वर्णन किया गया है।
‘तेजस्तेजस्विनामहम्’ (टिप्पणी प0 565.2) — महापुरुषोंके उस दैवी-सम्पत्तिवाले प्रभावका नाम तेज है, जिसके सामने पापी पुरुष भी पाप करनेमें हिचकते हैं। इस तेजको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।‘जयोऽस्मि’ — विजय प्रत्येक प्राणीको प्रिय लगती है। विजयकी यह विशेषता भगवान्की है। इसलिये विजयको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।अपने मनके अनुसार अपनी विजय होनेसे जो सुख होता है, उसका उपभोग न करके उसमें भगवद्बुद्धि करनी चाहिये कि विजयरूपसे भगवान् आये हैं।
‘व्यवसायोऽस्मि’ — व्यवसाय नाम एक निश्चयका है। इस एक निश्चयकी भगवान्ने गीतामें बहुत महिमा गायी है; जैसे — कर्मयोगीकी निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है (2। 41) भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त पुरुषोंकी निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती (2। 44) अब तो मैं केवल भगवान्का भजन ही करूँगा — इस एक निश्चयके बलपर दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्यको भी भगवान् साधु बताते हैं (9। 30)। इस प्रकार भगवान्की तरफ चलनेका जो निश्चय है, उसको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।निश्चयको अपनी विभूति बतानेका तात्पर्य है कि साधकको ऐसा निश्चय तो रखना ही चाहिये, पर इसको अपना गुण नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत ऐसा मानना चाहिये कि यह भगवान्की विभूति है और उन्हींकी कृपासे मुझे प्राप्त हुई है।
‘सत्त्वं सत्त्ववतामहम्’ — सात्त्विक मनुष्योंमें जो सत्त्व गुण है, जो सात्त्विक भाव और आचरण है, वह भी भगवान्की विभूति है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुणको दबाकर जो सात्त्विक भाव बढ़ता है, उस सात्त्विक भावको साधक अपना गुण न मानकर भगवान्की विभूति माने।तेज, व्यवसाय, सात्त्विक भाव आदि अपनेमें अथवा दूसरोंमें देखनेमें आयें तो साधक इनको अपना अथवा किसी वस्तुव्यक्तिका गुण न माने, प्रत्युत भगवान्का ही गुण माने। उन गुणोंकी तरफ दृष्टि जानेपर उनमें तत्त्वतः भगवान्को देखकर भगवान्को ही याद करना चाहिये।