Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।9.24।। व्याख्या–[दूसरे अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, वे ‘मेरेको केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है’ — ऐसा निश्चय नहीं कर सकते (2। 44)। अतः परमात्माकी तरफ चलनेमें दो बाधाएँ मुख्य हैं– अपनेको भोगोंका भोक्ता मानना और अपनेको संग्रहका मालिक मानना। इन दोनोंसे ही मनुष्यकी बुद्धि उलटी हो जाती है, जिससे वह परमात्मासे सर्वथा विमुख हो जाता है। जैसे, बचनपमें बालक माँके बिना रह नहीं सकता पर बड़ा होनेपर जब उसका विवाह हो जाता है, तब वह स्त्रीसे ‘मेरी स्त्री है’ ऐसा सम्बन्ध जोड़कर उसका भोक्ता और मालिक बन जाता है। फिर उसको माँ उतनी अच्छी नहीं लगती, सुहाती नहीं। ऐसे ही जब यह जीव भोग और ऐश्वर्यमें लग जाता है अर्थात् अपनेको भोगोंका भोक्ता और संग्रहका मालिक मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है, तो फिर उसको यह बात याद ही नहीं रहती कि सबके भोक्ता और मालिक भगवान् हैं। इसीसे उसका पतन हो जाता है। परन्तु जब इस जीवको चेत हो जाता है कि वास्तवमें मात्र भोगोंके भोक्ता और मात्र ऐश्वर्यके मालिक भगवान् ही हैं, तो फिर वह भगवान्में लग जाता है, ठीक रास्तेपर आ जाता है। फिर उसका पतन नहीं होता।]
‘अहं हि सर्वयज्ञानां (टिप्पणी प0 510.1) भोक्ता च प्रभुरेव च’– शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार मनुष्य यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने शुभकर्म करते हैं तथा अपने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार जितने व्यावहारिक और शारीरिक कर्तव्य-कर्म करते हैं, उन सब कर्मोंका भोक्ता अर्थात् फलभागी मैं हूँ। कारण कि वेदोंमें, शास्त्रोंमें, पुराणोंमें, स्मृतिग्रन्थोंमें प्राणियोंके लिये शुभकर्मोंका जो विधान किया गया है, वह सब-का-सब मेरा ही बनाया हुआ है, और मेरेको देनेके लिये ही बनाया हुआ है,जिससे ये प्राणी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंसे और उनके फलोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहें, कभी अपने स्वरूपसे च्युत न हों और अनन्य भावसे केवल मेरेमें ही लगे रहें। अतः उन सम्पूर्ण शुभ-कर्मोंका और व्यावहारिक तथा शारीरिक कर्तव्य-कर्मोंका भोक्ता मैं ही हूँ।जैसे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता (फलभागी) मैं ही हूँ, ऐसे ही सम्पूर्ण संसारका अर्थात् सम्पूर्ण लोक, पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया और प्राणियोंके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदिका मालिक भी मैं ही हूँ। कारण कि अपनी प्रसन्नताके लिये ही मैंने अपनेमेंसे इस सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना की है; अतः इन सबकी रचना करनेवाला होनेसे इनका मालिक मैं ही हूँ।
विशेष बात
भगवान्का भोक्ता बनना क्या है?
भगवान्ने कहा है कि महात्माओंकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19) और मेरी दृष्टिमें भी सत्-असत् सबकुछ मैं ही हूँ (9। 19)। जब सब कुछ मैं ही हूँ, तो कोई किसी देवताकी पुष्टिके लिये यज्ञ करता है, उस यज्ञके द्वारा देवतारूपमें मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसीको दान देता है, तो दान लेनेवालेके रूपमें मेरा ही अभाव दूर होता है, उससे मेरी ही सहायता होती है। कोई तप करता है, तो उस तपसे तपस्वीके रूपमें मेरेको ही सुख-शान्ति मिलती है। कोई किसीको भोजन कराता है, तो उस भोजनसे प्राणोंके रूपमें मेरी ही तृप्ति होती है। कोई शौचस्नान करता है, तो उससे उस मनुष्यके रूपमें मेरेको ही प्रसन्नता होती है। कोई पेड़-पौधोंको खाद देता है,उनको जलसे सींचता है तो वह खाद और जल पेड़-पौधोंके रूपमें मेरेको ही मिलता है और उनसे मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसी दीनदुःखी, अपाहिजकी तन-मन-धनसे सेवा करता है तो वह मेरी ही सेवा होती है। कोई वैद्यडाक्टर किसी रोगीका इलाज करता है, तो वह इलाज मेरा ही होता है। कोई कुत्तोंको रोटी डालता है कबूतरोंको दाना डालता है गायोंकी सेवा करता है भूखोंको अन्न देता है प्यासोंको जल पिलाता है तो उन सबके रूपमें मेरी ही सेवा होती है। उन सब वस्तुओंको मैं ही ग्रहण करता हूँ (टिप्पणी प0 510.2)। जैसे कोई किसी मनुष्यकी सेवा करे, उसके किसी अङ्गकी सेवा करे, उसके कुटुम्बकी सेवा करे, तो वह सब सेवा उस मनुष्यकी ही होती है। ऐसे ही मनुष्य जहाँकहीं सेवा करे, जिस-किसीकी सहायता करे, वह सेवा और सहायता मेरेको ही मिलती है। कारण कि मेरे बिना अन्य कोई है ही नहीं। मैं ही अनेक रूपोंमें प्रकट हुआ हूँ — ‘बहु स्यां प्रजायेय’ (तैत्तिरीय0 2। 6)। तात्पर्य यह हुआ कि अनेक रूपोंमें सब कुछ ग्रहण करना ही भगवान्का भोक्ता बनना है।भगवान्का मालिक बनना क्या हैभगवत्तत्त्वको जाननेवाले भक्तोंकी दृष्टिमें अपरा और पराप्रकृतिरूप मात्र संसारके मालिक भगवान् ही हैं। संसारमात्रपर उनका ही अधिकार है। सृष्टिकी रचना करें या न करें, संसारकी स्थिति रखें या न रखें, प्रलय करें या न करें प्राणियोंको चाहे जहाँ रखें, उनका चाहे जैसा संचालन करें, चाहे जैसा उपभोग करें,अपनी मरजीके मुताबिक चाहे जैसा परिवर्तन करें, आदि मात्र परिवर्तन-परिवर्द्धन करनेमें भगवान्की बिलकुल स्वतन्त्रता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे भोगी पुरुष भोग और संग्रहका चाहे जैसा उपभोग करनेमें स्वतन्त्र है (जबकि उसकी स्वतन्त्रता मानी हुई है, वास्तवमें नहीं है), ऐसे ही भगवान् मात्र संसारका चाहे जैसा परिवर्तनपरिवर्द्धन करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं। भगवान्की वह स्वतन्त्रता वास्तविक है। यही भगवान्का मालिक बनना है।
‘न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते’ — वास्तवमें सत्-असत्, जडचेतन आदि सब कुछ मैं ही हूँ। अतः जो भी कर्तव्यकर्म किये जायँ, उन कर्मोंका और उनके फलोंका भोक्ता मैं ही हूँ, तथा सम्पूर्ण सामग्रीका मालिक भी मैं ही हूँ। परन्तु जो मनुष्य इस तत्त्वको नहीं जानते, वे तो यही समझते हैं कि हम जिस किसीको जो कुछ देते हैं, खिलाते हैं, पिलाते हैं, वह सब उनउन प्राणियोंको ही मिलता है, जैसे — हम यज्ञ करते हैं, तो यज्ञके भोक्ता देवता बनते हैं दान देते हैं, तो दानका भोक्ता वह लेनेवाला बनता है कुत्तोको रोटी और गायको घास देते हैं, तो उस रोटी और घासके भोक्ता कुत्ता और गाय बनते हैं हम भोजन करते हैं, तो भोजनके भोक्ता हम स्वयं बनते हैं, आदि-आदि। तात्पर्य यह हुआ कि वे सब रूपोंमें मेरेको न मानकर अन्यको ही मानते हैं, इसीसे उनका पतन होता है। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह किसी अन्यको भोक्ता और मालिक न मानकर केवल मेरेको ही भोक्ता और मालिक माने अर्थात् जो कुछ चीज दी जाय, उसको मेरी ही समझकर मेरे अर्पण करे — त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।
दूसरा भाव यह है कि मनुष्यके पास जो कुछ भोग और ऐश्वर्य है, वह सब मेरा ही है और मेरे विराट्रूप संसारकी सेवाके लिये ही है। परन्तु भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त मनुष्य उस तत्त्वको न जाननेके कारण उस भोग और ऐश्वर्यको अपना और अपने लिये मान लेते हैं, जिससे वे यही समझते हैं, कि ये सब चीजें हमारे उपभोगमें आनेवाली हैं और हम इनके अधिपति हैं, मालिक हैं। पर वास्तवमें वे उन चीजोंके गुलाम हो जाते हैं। वे जितना ही उन चीजोंको अपनी और अपने लिये मानते हैं, उतने ही उनके पराधीन हो जाते हैं। फिर वे उन चीजोंके बनने-बिगड़नेसे अपना बनना-बिगड़ना मानने लगते हैं। इसलिये उनका पतन हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरेको सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और मालिक जाननेसे मुक्ति हो जाती है और न जाननेसे पतन हो जाता है।
‘च्यवन्ति’ पदका तात्पर्य है कि भगवान्को प्राप्त न होनेसे उनका पतन हो जाता है। वे शुभकर्म करके ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें चले जायँ, तो यह भी उनका पतन है; क्योंकि वहाँसे उनको पीछे लौटकर आना ही पड़ता है (गीता 9। 21)। वे आवागमनको प्राप्त होते ही रहते हैं; मुक्त नहीं हो सकते।
सम्बन्ध–जो भगवान्को सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और मालिक न मानकर देवता आदिका सकामभावसे पूजन करते हैं, उनकी गतियोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।