Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।9.10।। व्याख्या–मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्– मेरेसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चर-अचर, जड-चेतन आदि भौतिक सृष्टिको रचती है। जैसे बर्फका जमना, हीटरका जलना, ट्राम और रेलका आना-जाना, लिफ्टका चढ़ना-उतरना, हजारों मील दूरीपर बोले जानेवाले शब्दोंको सुनना, हजारों मील दूरीपर होनेवाले नाटक आदिको देखना, शरीरके भीतरका चित्र लेना, अल्पसमयमें ही बड़े-से-बड़ा हिसाब कर लेना, आदि-आदि कार्य विभिन्न-विभिन्न यन्त्रोंके द्वारा होते हैं। परन्तु उन सभी यन्त्रोंमें शक्ति बिजलीकी ही होती है। बिजलीकी शक्तिके बिना वे यन्त्र स्वयं काम कर ही नहीं सकते; क्योंकि उन यन्त्रोंमें बिजलीको छोड़कर कोई सामर्थ्य नहीं है। ऐसे ही संसारमें जो कुछ परिवर्तन हो रहा है अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डोंका सर्जन, पालन और संहार, स्वर्गादि लोकोंमें और नरकोंमें पुण्य-पापके फलका भोग, तरह-तरहकी विचित्र परिस्थितियाँ और घटनाएँ, तरह-तरहकी आकृतियाँ, वेश-भूषा, स्वभाव आदि जो कुछ हो रहा है, वह सब-का-सब प्रकृतिके द्वारा ही हो रहा है; पर वास्तवमें हो रहा है भगवान्की अध्यक्षता अर्थात् सत्ता-स्फूर्तिसे ही। भगवान्की सत्ता-स्फूर्तिके बिना प्रकृति ऐसे विचित्र काम कर ही नहीं सकती; क्योंकि भगवान्को छोड़कर प्रकृतिमें ऐसी स्वतन्त्र सामर्थ्य ही नहीं है कि जिससे वह ऐसे-ऐसे काम कर सके। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे बिजलीमें सब शक्तियाँ हैं, पर वे मशीनोंके द्वारा ही प्रकट होती हैं, ऐसे ही भगवान्में अनन्त शक्तियाँ हैं, पर वे प्रकृतिके द्वारा ही प्रकट होती हैं।
भगवान् संसारकी रचना प्रकृतिको लेकर करते हैं; और प्रकृति संसारकी रचना भगवान्की अध्यक्षतामें करती है। भगवान् अध्यक्ष हैं’ — इसी हेतुसे जगत्का विविध परिवर्तन होता है — ‘हेतुनानेन जगद्विपरिवर्तते।’ वह विविध परिवर्तन क्या है? जबतक प्राणियोंका प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरोंके साथ ‘मैं’ और ‘मेरा-पन’ बना हुआ है, तबतक उनका विविध परिवर्तन होता ही रहता है अर्थात् कभी किसी लोकमें तो कभी किसी लोकमें, कभी किसी शरीरमें तो कभी किसी शरीरमें परिवर्तन होता ही रहता है। तात्पर्य हुआ कि भगवत्प्राप्तिके बिना उन प्राणियोंकी कहीं भी स्थायी स्थिति नहीं होती। वे जन्म-मरणके चक्करमें घूमते ही रहते हैं (गीता 9। 3)।
सभी प्राणी भगवान्में स्थित होनेसे भगवान्को प्राप्त हैं, पर जब वे अपनेको भगवान्में न मानकर प्रकृतिमें मान लेते हैं अर्थात् प्रकृतिके कार्यके साथ ‘मैं’ और ‘मेरा-पन’ का सम्बन्ध मान लेते हैं, तब वे प्रकृतिको प्राप्त हो जाते हैं। फिर भगवान्की अध्यक्षतामें प्रकृति उनके शरीरोंको उत्पन्न और लीन करती रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो उन प्राणियोंको उत्पन्न और लीन करनेकी शक्ति प्रकृतिमें नहीं है; क्योंकि वह जड है। यह स्वयं भी जन्मता-मरता नहीं; क्योंकि परमात्माका अंश होनेसे स्वयं अविनाशी है, चेतन है, निर्विकार है। परन्तु प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ मैं-मेरापनका सम्बन्ध जोड़कर, उनके परवश होकर इसको जन्मना-मरना पड़ता है अर्थात् नये-नये शरीर धारण करने और छोड़ने पड़ते हैं।जगत्-मात्र की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी जो क्रिया होती है, वह सब प्रकृतिसे ही होती है, प्रकृतिमें ही होती है और प्रकृतिकी ही होती है। परन्तु उस प्रकृतिको परमात्मासे ही सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। परमात्मासे सत्ता-स्फूर्ति मिलनेपर भी परमात्मामें कर्तृत्व नहीं आता। जैसे, सूर्यके प्रकाशमें सभी प्राणी सब कर्म करते हैं और उनके कर्मोंमें विहित तथा निषिद्ध सब तरहकी क्रियाएँ होती हैं। उन कर्मोंके अनुसार ही प्राणी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका अनुभव करते हैं अर्थात् कोई सुखी है तो कोई दुःखी है; कोई ऊँचा है तो कोई नीचा है, कोई किसी लोकमें है तो कोई किसी लोकमें है, कोई किसी वर्ण-आश्रममें है तो कोई किसी वर्ण-आश्रममें है आदि तरह-तरहका परिवर्तन होता है। परन्तु सूर्य और उसका प्रकाश ज्यों-का-त्यों ही रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई अन्तर नहीं आता। ऐसे ही संसारमें विविध प्रकारका परिवर्तन हो रहा है, पर परमात्मा और उनका अंश जीवात्मा ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं। वास्तवमें अपने स्वरूपमें किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन न है, न हुआ, न होगा और न हो ही सकता है। केवल परिवर्तनशील संसारके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे अर्थात् तादात्म्य, ममता और कामना करनेसे ही संसारका परिवर्तन अपनेमें होता हुआ प्रतीत होता है। अगर प्राणी जिन भगवान्की अध्यक्षतामें सब परिवर्तन होता है, उनके साथ अपनी वास्तविक एकता मान ले (जो कि स्वतःसिद्ध है), तो भगवान्के साथ इसका जो वास्तविक प्रेम है, वह स्वतः प्रकट हो जायगा।
सम्बन्ध–जो नित्य-निरन्तर अपने-आपमें ही स्थित रहते हैं, जिसके आश्रयसे प्रकृति घूम रही है और संसारमात्रका परिवर्तन हो रहा है, ऐसे परमात्माकी तरफ दृष्टि न डालकर जो उलटे चलते हैं, उनका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।