Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।9.3।। व्याख्या–‘अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य (टिप्पणी प0 486) परंतप’–धर्म दो तरहका होता है–स्वधर्म और परधर्म। मनुष्यका जो अपना स्वतःसिद्ध स्वरूप है, वह उसके लिये स्वधर्म है और प्रकृति तथा प्रकृतिका कार्यमात्र उसके लिये परधर्म है–‘संसारधर्मैरविमुह्यमानः’(श्रीमद्भा0 11। 2। 49)। पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने जिस विज्ञानसहित ज्ञानको कहनेकी प्रतिज्ञा की और राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर जिसका बड़ा माहात्म्य बताया, उसीको यहाँ ‘धर्म’ कहा गया है। इस धर्मके माहात्म्यपर श्रद्धा न रखनेवाले अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंको सच्चा मानकर उन्हींमें रचे-पचे रहनेवाले मनुष्योंको यहाँ ‘अश्रद्दधानाः’ कहा गया है।यह एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि मनुष्य अपने शरीरको, कुटुम्बको, धन-सम्पत्ति-वैभवको निःसन्देह-रूपसे उत्पत्ति-विनाशशील और प्रतिक्षण परिवर्तनशील जानते हुए भी उनपर विश्वास करते हैं, श्रद्धा करते हैं, उनका आश्रय लेते हैं। वे ऐसा विचार नहीं करते कि इन शरीरादिके साथ हम कितने दिन रहेंगे और ये हमारे साथ कितने दिन रहेंगे श्रद्धा तो स्वधर्मपर होनी चाहिये थी, पर वह हो गयी परधर्मपर
‘अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’–परधर्मपर श्रद्धा रखनेवालोंके लिये भगवान् कहते हैं कि सब देशमें, सब कालमें, सम्पूर्ण वस्तुओंमें, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें सदासर्वदा विद्यमान, सबको नित्यप्राप्त मुझे प्राप्त न करके मनुष्यमृत्युरूप संसारके रास्तेमें लौटते रहते हैं। कहीं जन्म गये तो मरना बाकी रहता है और मर गये तो जन्मना बाकी रहता है। ये जिन योनियोंमें जाते हैं, उन्हीं योनियोंमें ये अपनी स्थिति मान लेते हैं अर्थात् मैं शरीर हूँ ऐसी अहंता और शरीर मेरा है ऐसी ममता कर लेते हैं। परन्तु वास्तवमें उन योनियोंसे भी उनका निरन्तर सम्बन्धविच्छेद होता रहता है। किसी भी योनिके साथ इनका सम्बन्ध टिक नहीं सकता। देश, काल, वस्तु,व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिसे भी इनका निरन्तर सम्बन्धविच्छेद हो रहा है अर्थात् वहाँसे भी ये हरदम निवृत्त हो रहे हैं, लौट रहे हैं। ये किसीके साथ हरदम रह ही नहीं सकते। ऐसे ही ये ऊर्ध्वगतिमें अर्थात् ऊँचीसेऊँची भोगभूमियोंमें भी चले जायँ तो वहाँसे भी इनको लौटना ही पड़ेगा (गीता 8। 16? 25 9। 21)। तात्पर्य यह हुआ कि मेरेको प्राप्त हुए बिना ये मनुष्य जहाँकहीं भी जायँगे, वहाँसे इनको लौटना ही पड़ेगा, बारबार जन्मना और मरना ही पड़ेगा।
‘मृत्युसंसारवर्त्मनि ‘कहनेका मतलब है कि इस संसारके रास्तेमें मरना-ही-मरना है, विनाश-ही-विनाश है, अभावहीअभाव है अर्थात् जहाँ जायँगे, वहाँसे लौटना ही पड़ेगा। इसी बातको भगवान्ने बारहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें ‘मृत्युसंसारसागरात्’ कहा है अर्थात् यह संसार मौतका ही समुद्र है। इसमें कहीं भी स्थिरतासे टिक नहीं सकते।यह मनुष्यशरीर केवल परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है। भगवान्ने कृपा करके सम्पूर्ण कर्मफलोंको (जो कि सत्-असत् योनियोंके कारण हैं) स्थगित करके मुक्तिका अवसर दिया है। ऐसे मुक्तिके अवसरको प्राप्त करके भी जो जीव जन्म-मरणकी परम्परामें चले जाते हैं, उनको देखकर भगवान् मानो पश्चात्ताप करते हैं कि मैंने अपनी तरफसे इनको जन्म-मरणसे छूटनेका पूरा अवसर दिया था, पर ये उस अवसरको प्राप्त करके भी जन्म-मरणमें जा रहे हैं! केवल साधारण मनुष्योंके लिये ही नहीं, प्रत्युत महान् आसुरी योनियोंमें पड़े हुए जीवोंके लिये भी भगवान् पश्चात्ताप करते हैं कि मेरेको प्राप्त किये बिना ही ये अधम गतिको जा रहे हैं — ‘मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्’ (गीता 16। 20)।
‘अप्राप्य माम्’ (मेरेको प्राप्त न होकर) पदोंसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्यमात्रको भगवत्प्राप्तिका अधिकार मिला हुआ है। इसलिये मनुष्यमात्र भगवान्की ओर चल सकता है, भगवान्को प्राप्त कर सकता है। सोलहवें अध्यायके बीसवें श्लोकमें ‘मामप्राप्यैव’ पदसे भी यह सिद्ध होता है कि आसुरी प्रकृतिवाले भी भगवान्की ओर चल सकते हैं, भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये गीतामें कहा गया है कि दुराचारी-से-दुराचारी भी भक्त बन सकता है, धर्मात्मा बन सकता है और भगवान्को प्राप्त कर सकता है (9। 30 — 31) तथा पापी-से-पापी भी ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पापोंसे तर सकता है (4। 36)।एक शहर था। उसके चारों तरफ ऊँची दीवार बनी हुई थी। शहरसे बाहर निकलनेके लिये एक ही दरवाजा था। एक सूरदास (अन्धा) शहरसे बाहर निकलना चाहता था। वह एक हाथसे लाठीका सहारा और एक हाथसे दीवारका सहारा लेते हुए चल रहा था। चलतेचलते जब बाहर जानेका दरवाजा आया, तब उसके माथेपर खुजली आयी। वह एक हाथसे खुजलाते और एक हाथसे लाठीके सहारे चलता रहा, तो दरवाजा निकल गया और उसका हाथ फिर दीवारपर लग गया। इस तरह चलतेचलते जब दरवाजा आता, तब खुजली आ जाती। खुजलानेके लिये वह हाथ माथेपर लगाता, तबतक दरवाजा निकल जाता। इस प्रकार वह चक्कर ही काटता रहा। ऐसे ही यह जीव स्वर्ग, नरक, चौरासी लाख योनियोंमें घूमता रहता है। उन भोगयोनियोंसे यह स्वयं छुटकारा नहीं पा सकता, तो भगवान् कृपा करके जन्म-मरणके चक्रसे छूटनेके लिये मनुष्यशरीर देते हैं। परन्तु मनुष्यशरीरको पाकर उसके मनमें भोगोंकी खुजली चलने लगती है, जिससे वह परमात्माकी तरफ न जाकर सांसारिक पदार्थोंका संग्रह करने और उन पदार्थोंसे सुख लेनेमें ही लगा रहता है। ऐसा करते-करते ही वह मर जाता है और पुनः स्वर्ग, नरक आदिकी योनियोंके चक्करमें पड़ जाता है। इस प्रकार वह बार-बार उन योनियोंमें लौटता रहता है– यही मृत्युरूप संसारमार्गमें लौटना है।
यह जीव साक्षात् परमात्माका अंश है; अतः परमात्मा ही इस जीवका असली घर है। जब यह जीव उस परमात्माको प्राप्त कर लेता है, तब उसको अपना असली स्थान (घर) प्राप्त हो जाता है। फिर वहाँसे इसको लौटना नहीं पड़ता अर्थात् गुणोंके परवश होकर जन्म नहीं लेना पड़ता– इसको गीतामें जगहजगह कहा गया है जैसे — ‘त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन’ (4। 9) ‘गच्छन्त्यपुनरावृत्तिम्’ (5। 17) ‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते’ (8। 21)’यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः’ (15। 4) ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते’ (15। 6) आदि-आदि। श्रुति भी कहती है — ‘न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते’ (छान्दोग्य0 4। 15। 1)।
विशेष बात
प्रायः लोगोंके भीतर यह बात जँची हुई है कि हम संसारी हैं, जन्मने-मरनेवाले हैं, यहाँ ही रहनेवाले हैं, इत्यादि। पर ये बातें बिलकुल गलत हैं। कारण कि हम सभी परमात्माके अंश हैं, परमात्माकी जातिके हैं, परमात्माके साथी हैं और परमात्माके धामके वासी हैं। हम सभी इस संसारमें आये हैं; हम संसारके नहीं हैं। कारण कि संसारके सब पदार्थ जड हैं, परिवर्तनशील हैं, जब कि हम स्वयं चेतन हैं और हमारेमें (स्वयंमें) कभी परिवर्तन नहीं होता। अनेक जन्म होनेपर भी हम स्वयं नित्य-निरन्तर वे ही रहते हैं–‘भूतग्रामः स एवायम्’ (8। 19) और ज्योंकेत्यों ही रहते हैं।संसारके साथ हमारा संयोग और परमात्माके साथ हमारा वियोग कभी हो ही नहीं सकता। हम चाहे स्वर्गमें जायँ, चाहे नरकोंमें जायँ, चाहे चौरासी लाख योनियोंमें जायँ, चाहे मनुष्ययोनिमें जायँ, तो भी हमारा परमात्मासे वियोग नहीं होता, परमात्माका साथ नहीं छूटता। परमात्मा सभी योनियोंमें हमारे साथ रहते हैं। परन्तु मनुष्येतर योनियोंमें विवेककी जागृति न रहनेसे हम परमात्माको पहचान नहीं सकते। परमात्माको पहचाननेका मौका तो इस मनुष्यशरीरमें ही है। कारण कि भगवान्ने कृपा करके इस मनुष्यको ऐसी शक्ति, योग्यता दी है, जिससे वह सत्सङ्ग,विचार, स्वाध्याय आदिके द्वारा विवेक जाग्रत् करके परमात्माको जान सकता है, परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है। इसलिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि इन प्राणियोंको मनुष्यशरीर प्राप्त हुआ है, तो मेरेको प्राप्त हो ही जाना चाहिये और हम भगवान्के ही हैं तथा भगवान् ही हमारे हैं यह बात उनकी समझमें आ ही जानी चाहिये। परन्तु ये इस बातको न समझकर, मेरेपर श्रद्धाविश्वास न करके मेरेको प्राप्त न होकर संसाररूपी मौतके मार्गमें पड़ गये हैं — यह बड़े दुःखकी और आश्चर्यकी बात हैसंसारमें आना, चौरासी लाख योनियोंमें भटकना हमारा काम नहीं है। ये देश, गाँव, कुटुम्ब, धन, पदार्थ, शरीर आदि हमारे नहीं हैं और हम इनके नहीं हैं। ये देश आदि सभी अपरा प्रकृति हैं और हम परा प्रकृति हैं। परन्तु भूलसे हमने अपनेको यहाँका रहनेवाला मान लिया है। इस भूलको मिटाना चाहिये क्योंकि हम भगवान्के अंश हैं, भगवान्के धामके हैं। जहाँसे लौटकर नहीं आना पड़ता, वहाँ जाना हमारा खास काम है, जन्ममरणसे रहित होना हमारा खास काम है। परन्तु अपने घर जानेको, खुदकी चीजको कठिन मान लिया, उद्योगसाध्य मान लिया वास्तवमें यह कठिन नहीं है। कठिन तो संसारका रास्ता है, जो कि नया पकड़ना पड़ता है, नया शरीर धारण करना पड़ता है, नये कर्म करने पड़ते हैं और कर्मोंके फल भोगनेके लिये नयेनये लोकोंमें नयीनयी योनियोंमें जाना पड़ता है। भगवान्की प्राप्ति तो सुगम है क्योंकि भगवान् सब देशमें हैं, सब कालमें हैं, सब वस्तुओंमें हैं, सब व्यक्तियोंमें हैं, सब घटनाओंमें हैं, सब परिस्थितियोंमें हैं और सभी भगवान्में हैं। हम हरदम भगवान्के साथ हैं और भगवान् हरदम हमारे साथ हैं। हम भगवान्से और भगवान् हमारेसे कभी अलग हो ही नहीं सकते।तात्पर्य यह हुआ कि हम यहाँके, जन्ममृत्युवाले संसारके नहीं हैं। यह हमारा देश नहीं है। हम इस देशके नहीं हैं। यहाँकी वस्तुएँ हमारी नहीं हैं। हम इन वस्तुओंके नहीं हैं। हमारे ये कुटुम्बी नहीं हैं। हम इन कुटुम्बियोंके नहीं हैं। हम तो केवल भगवान्के हैं और भगवान् ही हमारे हैं।,
सम्बन्ध–इस अध्यायके पहले और दूसरे श्लोकमें जिस राजविद्याकी महिमा कही गयी है, अब आगेके दो श्लोकोंमें उसीका वर्णन करते हैं।