Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।8.25।। व्याख्या–‘धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः ৷৷. प्राप्य निवर्तते’–देश और कालकी दृष्टिसे जितना अधिकार अग्नि अर्थात् प्रकाशके देवताका है, उतना ही अधिकार धूम अर्थात् अन्धकारके देवताका है। वह धूमाधिपति देवता कृष्णमार्गसे जानेवाले जीवोंको अपनी सीमासे पार कराकर रात्रिके अधिपति देवताके अधीन कर देता है। रात्रिका अधिपति देवता उस जीवको अपनी सीमासे पार कराकर देश-कालको लेकर बहुत दूरतक अधिकार रखनेवाले कृष्णपक्षके अधिपति देवताके अधीन कर देता है। वह देवता उस जीवको अपनी सीमासे पार कराकर देश और कालकी दृष्टिसे बहुत दूरतक अधिकार रखनेवाले दक्षिणायनके अधिपति देवताके समर्पित कर देता है। वह देवता उस जीवको चन्द्रलोकके अधिपति देवताको सौंप देता है। इस प्रकार कृष्णमार्गसे जानेवाला वह जीव धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके देशको पार करता हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिको अर्थात् जहाँ अमृतका पान होता है, ऐसे स्वर्गादि दिव्य लोकोंको प्राप्त हो जाता है। फिर अपने पुण्योंके अनुसार न्यूनाधिक समयतक वहाँ रहकर अर्थात् भोग भोगकर पीछे लौट आता है।यहाँ एक ध्यान देनेकी बात है कि यह जो चन्द्रमण्डल दीखता है, यह चन्द्रलोक नहीं है। कारण कि यह चन्द्रमण्डल तो पृथ्वीके बहुत नजदीक है, जब कि चन्द्रलोक सूर्यसे भी बहुत ऊँचा है। उसी चन्द्रलोकसे अमृत इस चन्द्रमण्डलमें आता है, जिससे शुक्लपक्षमें ओषधियाँ पुष्ट होती हैं।अब एक समझनेकी बात है कि यहाँ जिस कृष्णमार्गका वर्णन है, वह शुक्लमार्गकी अपेक्षा कृष्णमार्ग है। वास्तवमें तो यह मार्ग ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें जानेका है। सामान्य मनुष्य मरकर मृत्युलोकमें जन्म लेते हैं, जो पापी होते हैं, वे आसुरी योनियोंमें जाते हैं और उनसे भी जो अधिक पापी होते हैं, वे नरकके कुण्डोंमें जाते हैं — इन सब मनुष्योंसे कृष्णमार्गसे जानेवाले बहुत श्रेष्ठ हैं। वे चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होते हैं — ऐसा कहनेका यही तात्पर्य है कि संसारमें जन्ममरणके जितने मार्ग हैं उन सब मार्गोंसे यह कृष्णमार्ग (ऊर्ध्वगतिका होनेसे) श्रेष्ठ है और उनकी अपेक्षा प्रकाशमय है।कृष्णमार्गसे लौटते समय वह जीव पहले आकाशमें आता है। फिर वायुके अधीन होकर बादलोंमें आता है और बादलोंमेंसे वर्षाके द्वारा भूमण्डलपर आकर अन्नमें प्रवेश करता है। फिर कर्मानुसार प्राप्त होनेवाली योनिके पुरुषोंमें अन्नके द्वारा प्रवेश करता है और पुरुषसे स्त्री-जातिमें जाकर शरीर धारण करके जन्म लेता है। इस प्रकार वह जन्म-मरणके चक्करमें पड़ जाता है।यहाँ सकाम मनुष्योंको भी ‘योगी’ क्यों कहा गया है? इसके अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे –,(1) गीतामें भगवान्ने मरनेवाले प्राणियोंकी तीन गतियाँ बतायी हैं — ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति (गीता 14। 18)। इनमेंसे ऊर्ध्वगतिका वर्णन इस प्रकरणमें हुआ है। मध्यगति और अधोगतिसे ऊर्ध्वगति श्रेष्ठ होनेके कारण यहाँ सकाम मनुष्योंको भी योगी कहा गया है।,(2) जो केवल भोग भोगनेके लिये ही ऊँचे लोकोंमें जाता है, उसने संयमपूर्वक इस लोकके भोगोंका त्याग किया है। इस त्यागसे उसकी यहाँके भोगोंके मिलने और न मिलनेमें समता हो गयी है। इस आंशिक समताको लेकर ही उसको यहाँ योगी कहा गया है।
(3) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है, पर अन्तकालमें किसी सूक्ष्म भोग-वासनाके कारण वे योगसे,विचलितमना हो जाते हैं, तो वे ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकोंमें जाते हैं और वहाँ बहुत समयतक रहकर पीछे यहाँ भूमण्डलपर आकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेते हैं। ऐसे योगभ्रष्ट मनुष्योंका भी जानेका यही मार्ग (कृष्णमार्ग) होनेसे यहाँ सकाम मनुष्यको भी योगी कह दिया है।भगवान्ने पीछेके (चौबीसवें) श्लोकमें ब्रह्मको प्राप्त होनेवालोंके लिये ‘ब्रह्मविदो जनाः’ कहकर बहुवचनका प्रयोग किया है और यहाँ चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होनेवालोंके लिये ‘योगी’ कहकर एकवचनका प्रयोग किया है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि सभी मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिके अधिकारी हैं, और परमात्माकी प्राप्ति सुगम है। कारण कि परमात्मा सबको स्वतः प्राप्त हैं। स्वतःप्राप्त तत्त्वका अनुभव बड़ा सुगम है। इसमें करना कुछ नहीं पड़ता। इसलिये बहुवचनका प्रयोग किया गया है। परन्तु स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये विशेष क्रिया करनी पड़ती है, पदार्थोंका संग्रह करना पड़ता है, विधि-विधानका पालन करना पड़ता है। इस प्रकार स्वर्गादिको प्राप्त करनेमें भी कठिनता है तथा प्राप्त करनेके बाद पीछे लौटकर भी आना पड़ता है। इसलिये यहाँ एकवचन दिया गया है।
विशेष बात
(1) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है; परन्तु सुखभोगकी सूक्ष्म वासना सर्वथा नहीं मिटी है, वे शरीर छोड़कर ब्रह्मलोकमें जाते हैं। ब्रह्मलोकके भोग भोगनेपर उनकी वह वासना मिट जाती है तो वे मुक्त हो जाते हैं। इनका वर्णन यहाँ चौबीसवें श्लोकमें हुआ है।
जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका ही है और जिनमें न यहाँके भोगोंकी वासना है तथा न ब्रह्मलोकके भोगोंकी; परन्तु जो अन्तकालमें निर्गुणके ध्यानसे विचलित हो गये हैं, वे ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें नहीं जाते। वे तो सीधे ही योगियोंके कुलमें जन्म लेते हैं अर्थात् जहाँ पूर्वजन्मकृत ध्यानरूप साधन ठीक तरहसे हो सके, ऐसे योगियोंके कुलमें उनका जन्म होता है। वहाँ वे साधन करके मुक्त हो जाते हैं (गीता 6। 42 43)।
— उपर्युक्त दोनों साधकोंका उद्देश्य तो एक ही रहा है पर वासनामें अन्तर रहनेसे एक तो ब्रह्मलोकमें जाकर मुक्त होते हैं और एक सीधे ही योगियोंके कुलमें उत्पन्न होकर साधन करके मुक्त होते हैं।
जिनका उद्देश्य ही स्वर्गादि ऊँचे-ऊँचे लोकोंके सुख भोगनेका है, वे यज्ञ आदि शुभ-कर्म करके ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें जाते हैं और वहाँके दिव्य भोग भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर पीछे लौटकर आ जाते हैं अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं (गीता 7। 20 — 23 8। 25 9। 20 21)।
जिसका उद्देश्य तो परमात्मप्राप्तिका ही रहा है; पर सांसारिक सुखभोगकी वासनाको वह मिटा नहीं सका। इसलिये अन्तकालमें योगसे विचलित होकर वह स्वर्गादि लोकोंमें जाकर वहाँके भोग भोगता है और फिर लौटकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। वहाँ वह जबर्दस्ती पूर्वजन्मकृत साधनमें लग जाता है और मुक्त हो जाता है (गीता 6। 41 44 45)।
— उपर्युक्त दोनों साधकोंमें एकका तो उद्देश्य ही स्वर्गके सुखभोगका है, इसलिये वह पुण्यकर्मोंके अऩुसार वहाँके भोग भोगकर पीछे लौटकर आता है। परन्तु जिसका उद्देश्य परमात्माका है और वह विचारद्वारा सांसारिक भोगोंका त्याग भी करता है, फिर भी वासना नहीं मिटी, तो अन्तमें भोगोंकी याद आनेसे वह स्वर्गादि लोकोंमें जाता है। उसने जो सांसारिक भोगोंका त्याग किया है, उसका बड़ा भारी माहात्म्य है। इसलिये वह उन लोकोंमें बहुत समयतक भोग भोगकर यहाँ श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
(2) सामान्य मनुष्योंकी यह धारणा है कि जो दिनमें, शुक्लपक्षमें और उत्तरायणमें मरते हैं, वे तो मुक्त हो जाते हैं, पर जो रातमें कृष्णपक्षमें और दक्षिणायनमें मरते हैं उनकी मुक्ति नहीं होती। यह धारणा ठीक नहीं है। कारण कि यहाँ जो शुक्लमार्ग और कृष्णमार्गका वर्णन हुआ है, वह ऊर्ध्वगतिको प्राप्त करनेवालोंके लिये ही हुआ है। इसलिये अगर ऐसा ही मान लिया जाय कि दिन आदिमें मरनेवाले मुक्त होते हैं और रात आदिमें मरनेवाले मुक्त नहीं होते, तो फिर अधोगतिवाले कब मरेंगे?क्योंकि दिन-रात, शुक्लपक्ष-कृष्णपक्ष और उत्तरायण-दक्षिणायनको छोड़कर दूसरा कोई समय ही नहीं है। वास्तवमें मरनेवाले अपने-अपने कर्मोंके अनुसार ही ऊँच-नीच गतियोंमें जाते हैं, वे चाहे दिनमें मरें, चाहे रातमें; चाहे शुक्लपक्षमें मरें, चाहे कृष्णपक्षमें; चाहे उत्तरायणमें मरें, चाहे दक्षिणायनमें — इसका कोई नियम नहीं है।
जो भगवद्भक्त हैं, जो केवल भगवान्के ही परायण हैं, जिनके मनमें भगवद्दर्शनकी ही लालसा है, ऐसे भक्त दिनमें या रातमें, शुक्लपक्षमें या कृष्णपक्षमें ,उत्तरायणमें या दक्षिणायनमें, जब कभी शरीर छोड़ते हैं, तो उनको लेनेके लिये भगवान्के पार्षद आते हैं। पार्षदोंके साथ वे सीधे भगवद्धाममें पहुँच जाते हैं।
यहाँ एक शङ्का होती है कि जब मनुष्य अपने कर्मोंके अनुसार ही गति पाता है, तो फिर भीष्मजीने, जो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष थे, दक्षिणायनमें शरीर न छोड़कर उत्तरायणकी प्रतीक्षा क्यों की?
इसका समाधान यह है कि भीष्मजी भगवद्धाम नहीं गये थे। वे ‘द्यौ’ नामक वसु (आजान देवता) थे, जो शापके कारण मृत्युलोकमें आये थे। अतः उन्हें देवलोकमें जाना था। दक्षिणायनके समय देवलोकमें रात रहती है और उसके दरवाजे बंद रहते हैं। अगर भीष्मजी दक्षिणायनके समय शरीर छोड़ते, तो उन्हें अपने लोकमें प्रवेश करनेके लिये बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती। वे इच्छामृत्यु तो थे ही; अतः उन्होंने सोचा कि वहाँ प्रतीक्षा करनेकी अपेक्षा यहीं प्रतीक्षा करनी ठीक है; क्योंकि यहाँ तो भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन होते रहेंगे और सत्सङ्ग भी होता रहेगा, जिससे सभीका हित होगा, वहाँ अकेले पड़े रहकर क्या करेंगे? ऐसा सोचकर उन्होंने अपना शरीर दक्षिणायनमें न छोड़कर उत्तरायणमें ही छोड़ा।
सम्बन्ध–तेईसवें श्लोकसे शुक्ल और कृष्ण-गतिका जो प्रकरण आरम्भ किया था, उसका आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।