Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।8.24।। व्याख्या–‘अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्’–इस भूमण्डलपर शुक्लमार्गमें सबसे पहले अग्निदेवताका अधिकार रहता है। अग्नि रात्रिमें प्रकाश करती है, दिनमें नहीं; क्योंकि दिनके प्रकाशकी अपेक्षा अग्निका प्रकाश सीमित है। अतः अग्निका प्रकाश थोड़ी दूरतक (थोड़े देशमें) तथा थोड़े समयतक रहता है; और दिनका प्रकाश बहुत दूरतक तथा बहुत समयतक रहता है।
शुक्लपक्ष पंद्रह दिनोंका होता है, जो कि पितरोंकी एक रात है। इस शुक्लपक्षका प्रकाश आकाशमें बहुत दूरतक और बहुत दिनोंतक रहता है। इसी तरहसे जब सूर्य भगवान् उत्तरकी तरफ चलते हैं, तब उसको उत्तरायण कहते हैं, जिसमें दिनका समय बढ़ता है। वह उत्तरायण छः महीनोंका होता है, जो कि देवताओंका एक दिन है। उस उत्तरायण प्रकाश बहुत दूरतक और बहुत समयतक रहता है।
‘तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः’– जो शुक्लमार्गमें अर्थात् प्रकाशकी बहुलतावाले मार्गमें जानेवाले हैं, वे सबसे पहले ज्योतिःस्वरूप अग्निदेवताके अधिकारमें आते हैं। जहाँतक अग्निदेवताका अधिकार है, वहाँसे पार कराकर अग्निदेवता उन जीवोंको दिनके देवताको सौंप देता है। दिनका देवता उन जीवोंको अपने अधिकारतक ले जाकर शुक्लपक्षके अधिपति देवताके समर्पित कर देता है। वह शुक्लपक्षका अधिपति देवता अपनी सीमाको पार कराकर उन जीवोंको उत्तरायणके अधिपति देवताके सुपुर्द कर देता है। फिर वह उत्तरायणका अधिपति देवता उनको ब्रह्मलोकके अधिकारी देवताके समर्पित कर देता है। इस प्रकार वे क्रमपूर्वक ब्रह्मलोकमें पहुँच जाते हैं। ब्रह्माजीकी आयुतक वे वहाँ रहकर महाप्रलयमें ब्रह्माजीके साथ ही मुक्त हो जाते हैं–सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।
यहाँ ‘ब्रह्मविदः’ पद परमात्माको परोक्षरूपसे जाननेवाले मनुष्योंका वाचक है, अपरोक्षरूपसे अनुभव करनेवाले,ब्रह्मज्ञानियोंका नहीं। कारण कि अगर वे अपरोक्ष ब्रह्मज्ञानी होते, तो यहाँ ही मुक्त (सद्योमुक्त या जीवन्मुक्त) हो जाते और उनको ब्रह्मलोकमें जाना नहीं पड़ता।
सम्बन्ध–अब आगेके श्लोकमें कृष्णमार्गका अर्थात् लौटकर आनेवालोंके मार्गका वर्णन करते हैं।