Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।8.20।। व्याख्या–‘परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः’– सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक ब्रह्मलोक तथा उससे नीचेके लोकोंको पुनरावर्ती कहा गया है। परन्तु परमात्मतत्त्व उनसे अत्यन्त विलक्षण है, — यह बतानेके लिये यहाँ ‘तु’ पद दिया गया है।यहाँ ‘अव्यक्तात्’ पद ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरका ही वाचक है। कारण कि इससे पहले अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकोंमें सर्गके आदिमें ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे प्राणियोंके पैदा होनेकी और प्रलयमें ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरमें प्राणियोंके लीन होनेकी बात कही गयी है। इस श्लोकमें आया ‘तस्मात्’ पद भी ब्रह्माजीके उस सूक्ष्मशरीरका द्योतन करता है। ऐसा होनेपर भी यहाँ ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीर-(समष्टि मन, बुद्धि और अहंकार-) से भी पर अर्थात् अत्यन्त विलक्षण जो भावरूप अव्यक्त कहा गया है, वह ब्रह्माजीके सूक्ष्म-शरीरके साथ-साथ ब्रह्माजीके कारण-शरीर- (मूल प्रकृति-) से भी अत्यन्त विलक्षण है।ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे पर दो तत्त्व हैं–मूल प्रकृति और परमात्मा। यहाँ प्रसङ्ग मूल प्रकृतिका नहीं है, प्रत्युत परमात्माका है। अतः इस श्लोकमें परमात्माको ही पर और श्रेष्ठ कहा गया है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता। आगेके श्लोकमें भी ‘अव्यक्तोऽक्षर’ आदि पदोंसे उस परमात्माका ही वर्णन आया है।
गीतामें प्राणियोंके अप्रकट होनेको अव्यक्त कहा गया है–‘अव्यक्तादीनि भूतानि’ (2। 28); ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरको भी अव्यक्त कहा गया है (8। 18) प्रकृतिको भी अव्यक्त कहा गया है —‘अव्यक्तमेव च’ (13। 5) आदि। उन सबसे परमात्माका स्वरूप विलक्षण, श्रेष्ठ है, चाहे वह स्वरूप व्यक्त हो, चाहे अव्यक्त हो। वह भावरूप है अर्थात् किसी भी कालमें उसका अभाव हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। कारण कि वह सनातन है अर्थात् वह सदासे है और सदा ही रहेगा। इसलिये वह पर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता और होनेकी सम्भावना भी नहीं है।
‘यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति’–अब उत्तरार्धमें उसकी विलक्षणता बताते हैं कि सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी अर्थात् उन सम्पूर्ण शरीरोंका अभाव होनेपर भी उस परमात्मतत्त्वका कभी अभाव नहीं होता–ऐसा वह परमात्माका अव्यक्त स्वरूप है।न विनश्यति कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें कार्यरूपसे अनेक तरहके परिवर्तन होनेपर भी वह परमात्मतत्त्व ज्यों-का-त्यों ही अपरिवर्तनशील रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन होता ही नहीं।
सम्बन्ध–अभीतक जो परमात्मविषयक वर्णन हुआ है, उस सबकी एकता करते हुए अनन्यभक्तिके विशेष महत्त्वका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।