Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।8.10।। व्याख्या —प्रयाणकाले मनसाचलेन ৷৷. स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्–यहाँ भक्ति नाम प्रियताका है; क्योंकि उस तत्त्वमें प्रियता (आकर्षण) होनेसे ही मन अचल होता है। वह भक्ति अर्थात् प्रियता स्वयंसे होती है, मन-बुद्धि आदिसे नहीं। अन्तकालमें कवि, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणोंसे (पीछेके श्लोकमें) कहे हुए सगुण-निराकार परमात्मामें भक्तियुक्त मनुष्यका मन स्थिर हो जाना अर्थात् सगुण-निराकार-स्वरूपमें आदरपूर्वक दृढ़ हो जाना ही मनका अचल होना है।पहले प्राणायामके द्वारा प्राणोंको रोकनेका जो अधिकार प्राप्त किया है, उसका नाम ‘योगबल’ है। उस योगबलके द्वारा दोनों भ्रुवोंके मध्यभागमें स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्णा नाड़ीमें प्राणोंका,अच्छी तरहसे प्रवेश करके वह (शऱीर छोड़कर दसवें द्वारसे होकर) दिव्य परम पुरुषको प्राप्त हो जाता है।
‘तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्’ पदोंका तात्पर्य है कि जिस परमात्मतत्त्वका पीछेके (नवें) श्लोकमें वर्णन हुआ है, उसी दिव्य परम सगुण-निराकार परमात्माको वह प्राप्त हो जाता है।आठवें श्लोकमें जो बात कही गयी थी, उसीको नवें और दसवें श्लोकमें विस्तारसे कहकर इन तीन श्लोकोंके प्रकरणका उपसंहार किया गया है।इस प्रकरणमें सगुण-निराकार परमात्माकी उपासनाका वर्णन है। इस उपासनामें अभ्यासकी आवश्यकता है। प्राणायामपूर्वक मनको उस परमात्मामें लगानेका नाम अभ्यास है। यह अभ्यास अणिमा, महिमा आदि सिद्धि प्राप्त करनेके लिये नहीं है, प्रत्युत केवल परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेके लिये है। ऐसा अभ्यास करते हुए प्राणों और मनपर ऐसा अधिकार प्राप्त कर ले कि जब चाहे प्राणोंको रोक ले और मनको जब चाहे तभी तथा जहाँ चाहे वहीं लगा ले। जो ऐसा अधिकार प्राप्त कर लेता है, वही अन्तकालमें प्राणोंको सुषुम्णा नाड़ीमें प्रविष्ट कर सकता है। कारण कि जब अभ्यासकालमें भी मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेमें साधकको कठिनताका, असमर्थताका अनुभव होता है तब अन्तकाल-जैसे कठिन समयमें मनको लगाना साधारण आदमीका काम नहीं है। जिसके पास पहलेसे योगबल है, वही अन्तसमयमें मनको परमात्मामें लगा सकता है और प्राणोंका सुषुम्णा नाड़ीमें प्रवेश करा सकता है।साधक पहले यह निश्चय कर ले कि अज्ञानसे अत्यन्त परे, सबसे अतीत जो परमात्मतत्त्व है, वह सबका प्रकाशक, सबका आधार और सबको सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला निर्विकार तत्त्व है। उस तत्त्वमें ही प्रियता होनी चाहिये, मनका आकर्षण होना चाहिये, फिर उसमें स्वाभाविक मन लगेगा।
सम्बन्ध–अब भगवान् आगेके श्लोकमें निर्गुणनिराकारकी प्राप्तिके उपायका उपक्रम करते हैं।