Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।8.9।। व्याख्या–‘कविम्’– सम्पूर्ण प्राणियोंको और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मोंको जाननेवाले होनेसे उन परमात्माका नाम ‘कवि’ अर्थात् सर्वज्ञ है।
‘पुराणम्’–वे परमात्मा सबके आदि होनेसे ‘पुराण’ कहे जाते हैं।’अनुशासितारम्’– हम देखते हैं तो नेत्रोंसे देखते हैं। नेत्रोंके ऊपर मन शासन करता है, मनके ऊपर बुद्धि और बुद्धिके ऊपर ‘अहम्’ शासन करता है तथा ‘अहम्’ के ऊपर भी जो शासन करता है, जो सबका आश्रय, प्रकाशक और प्रेरक है, वह (परमात्मा) ‘अनुशासिता’ है।दूसरा भाव यह है कि जीवोंका कर्म करनेका जैसा-जैसा स्वभाव बना है, उसके अनुसार ही परमात्मा (वेद, शास्त्र, गुरु, सन्त आदिके द्वारा) कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं और मनुष्योंके पुराने पाप-पुण्यरूप,कर्मोंके अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भेजकर उन मनुष्योंको शुद्ध, निर्मल बनाते हैं। इस प्रकार मनुष्योंके लिये कर्तव्य-अकर्तव्यका विधान करनेवाले और मनुष्योंके पाप-पुण्यरूप पुराने कर्मोंका (फल देकर) नाश करनेवाले होनेसे परमात्मा ‘अनुशासिता’ है।
‘अणोरणीयांसम्’–परमात्मा परमाणुसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा मन-बुद्धिके विषय नहीं हैं; मन-बुद्धि आदि उनको पकड़ नहीं पाते। मन-बुद्धि तो प्रकृतिका कार्य होनेसे प्रकृतिको भी पकड़ नहीं पाते, फिर परमात्मा तो उस प्रकृतिसे भी अत्यन्त परे हैं! अतः वे परमात्मा सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं अर्थात् सूक्ष्मताकी अन्तिम सीमा हैं।
‘सर्वस्य धातारम्’ — परमात्मा अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंको धारण करनेवाले हैं, उनका पोषण करनेवाले हैं। उन सभीको परमात्मासे ही सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः वे परमात्मा सबका धारण-पोषण करनेवाले कहे जाते हैं।’तमसः परस्तात्’–परमात्मा अज्ञानसे अत्यन्त परे हैं, अज्ञानसे सर्वथा रहित हैं। उनमें लेशमात्र भी अज्ञान नहीं है, प्रत्युत वे अज्ञानके भी प्रकाशक हैं।’आदित्यवर्णम्’–उन परमात्माका वर्ण सूर्यके समान है अर्थात् वे सूर्यके समान सबको मन-बुद्धि आदिको प्रकाशित करनेवाले हैं। उन्हींसे सबको प्रकाश मिलता है।
‘अचिन्त्यरूपम्’–उन परमात्माका स्वरूप अचिन्त्य है अर्थात् वे मन-बुद्धि आदिके चिन्तनका विषय नहीं हैं।’अनुस्मरेत्’–सर्वज्ञ, अनादि, सबके शासक, परमाणुसे भी अत्यन्त सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाले, अज्ञानसे अत्यन्त परे और सबको प्रकाशित करनेवाले सगुण-निराकार परमात्माके चिन्तनके लिये यहाँ ‘अनुस्मरेत्’ पद आया है।
यहाँ ‘अनुस्मरेत्’ कहनेका तात्पर्य है कि प्राणिमात्र उन परमात्माकी जानकारीमें हैं; उनकी जानकारीके बाहर कुछ है ही नहीं अर्थात् उन परमात्माको सबका स्मरण है, अब उस स्मरणके बाद मनुष्य उन परमात्माको याद कर ले।
यहाँ शङ्का होती है कि जो अचिन्त्य है, उसका स्मरण कैसे करें? इसका समाधान है कि ‘वह परमात्मतत्त्व चिन्तनमें नहीं आता’–ऐसी दृढ़ धारणा ही अचिन्त्य परमात्माका चिन्तन है।
सम्बन्ध —अब अन्तकालके चिन्तनके अनुसार गति बताते हैं।