Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।8.3।। व्याख्या–‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’–परम अक्षरका नाम ब्रह्म है। यद्यपि गीतामें ब्रह्म शब्द प्रणव वेद प्रकृति आदिका वाचक भी आया है तथापि यहाँ ब्रह्म शब्दके साथ परम और अक्षर विशेषण देनेसे यह शब्द सर्वोपरि सच्चिदानन्दघन अविनाशी निर्गुणनिराकार परमात्माका वाचक है।
‘स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते’–अपने भाव अर्थात् होनेपनका नाम स्वभाव है —‘स्वो भावः स्वभावः’। इसी स्वभावको अध्यात्म कहा जाता है अर्थात् जीवमात्रके होनेपनका नाम अध्यात्म है।
ऐसे तो आत्माको लेकर जो वर्णन किया जाता है वह भी अध्यात्म है अध्यात्ममार्गका जिसमें वर्णन हो वह मार्ग भी अध्यात्म है और इस आत्माकी जो विद्या है उसका नाम भी अध्यात्म है (गीता 10। 32)। परन्तु यहाँ स्वभाव विशेषणके साथ अध्यात्म शब्द आत्माका अर्थात् जीवके होनेपन का (स्वरूपका) वाचक है।
‘भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः’– स्थावरजङ्गम जितने भी प्राणी देखनेमें आते हैं उनका जो भाव अर्थात् होनापन है उस होनेपनको प्रकट करनेके लिये जो विसर्ग अर्थात् त्याग है उसको कर्म कहते हैं।महाप्रलयके समय प्रकृतिकी अक्रियअवस्था मानी जाती है तथा महासर्गके समय प्रकृतिकीसक्रिय अवस्था मानी जाती है। इस सक्रियअवस्थाका कारण भगवान्का संकल्प है कि मैं एक ही बहुत रूपोंसे हो जाऊँ। इसी संकल्पसे सृष्टिकी रचना होती है। तात्पर्य है कि महाप्रलयके समय अहंकार और सञ्चित कर्मोंके सहित प्राणी प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं और उन प्राणियोंके सहित प्रकृति एक तरहसे परमात्मामें लीन हो जाती है। उस लीन हुई प्रकृतिको विशेष क्रियाशील करनेके लिये भगवान्का पूर्वोक्त संकल्प ही विसर्ग अर्थात्,त्याग है। भगवान्का यह संकल्प ही कर्मोंका आरम्भ है जिससे प्राणियोंकी कर्मपरम्परा चल पड़ती है। कारण कि महाप्रलयमें प्राणियोंके कर्म नहीं बनते प्रत्युत उसमें प्राणियोंकी सुषुप्तअवस्था रहती है। महासर्गके आदिसे कर्म शुरू हो जाते हैं।
चौदहवें अध्यायमें आया है — परमात्माकी मूल प्रकृतिका नाम महद्ब्रह्म है। उस प्रकृतिमें लीन हुए जीवोंका प्रकृतिके साथ विशेष सम्बन्ध करा देना अर्थात् जीवोंका अपनेअपने कर्मोंके फलस्वरूप शरीरोंके साथ सम्बन्ध करा देना ही परमात्माके द्वारा प्रकृतिमें गर्भस्थापन करना है (गीता 14। 3 4)। उसमें भी अलगअलग योनियोंमें तरहतरहके जितने शरीर पैदा होते हैं उन शरीरोंकी उत्पत्तिमें प्रकृति हेतु है और उनमें जीवरूपसे भगवान्का अंश है — ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता 15। 7)। इस प्रकार प्रकृति और पुरुषके अंशसे सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं।
तेरहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि स्थावरजङ्गम जितने भी प्राणी उत्पन्न होते हैं वे सब क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ(पुरुष) के संयोगसे ही होते हैं। क्षेत्रक्षेत्रज्ञका विशेष संयोग अर्थात् स्थूलशरीर धारण करानेके लिये भगवान्का संकल्परूप विशेष सम्बन्ध ही स्थावरजङ्गम प्राणियोंके स्थूलशरीर पैदा करनेका कारण है। उस संकल्पके होनेमें भगवान्का कोई अभिमान नहीं है प्रत्युत जीवोंके जन्मजन्मान्तरोंके जो कर्मसंस्कार हैं वे महाप्रलयके समय परिपक्व होकर जब फल देनेके लिये उन्मुख होते हैं तब भगवान्का संकल्प होता है (टिप्पणी प0 450)। इस प्रकार जीवोंके कर्मोंकी प्रेरणासे भगवान्में मैं एक ही बहुत रूपोंसे हो जाऊँ — यह संकल्प होता है।मनुष्यमात्रके द्वारा विहित और निषिद्ध जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सब क्रियाओंका नाम कर्म है। तात्पर्य है कि मुख्य कर्म तो भगवान्का संकल्प हुआ और उसके बाद कर्मपरम्परा चलती है।