Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।7.20।। व्याख्या–‘कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः’–उनउन अर्थात् इस लोकके और परलोकके भोगोंकी कामनाओंसे जिनका ज्ञान ढक गया है, आच्छादित हो गया है। तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये जो विवेकयुक्त मनुष्यशरीर मिला है, उस शरीरमें आकर परमात्माकी प्राप्ति न करके वे अपनी कामनाओंकी पूर्ति करनेमें ही लगे रहते हैं।संयोगजन्य सुखकी इच्छाको कामना कहते हैं। कामना दो तरहकी होती है–यहाँके भोग भोगनेके लिये धन-संग्रहकी कामना और स्वर्गादि परलोकके भोग भोगनेके लिये पुण्य-संग्रहकी कामना।धन-संग्रहकी कामना दो तरहकी होती है–पहली, यहाँ चाहे जैसे भोग भोगें; चाहे जब, चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें, सुख-आरामसे दिन बीतें आदिके लिये अर्थात् संयोगजन्य सुखके लिये धन-संग्रहकी कामना होती है और दूसरी, मैं धनी हो जाऊँ, धनसे मैं बड़ा बन जाऊँ आदिके लिये अर्थात् अभिमानजन्य सुखके लिये धन-संग्रहकी कामना होती है। ऐसे ही पुण्य-संग्रहकी कामना भी दो तरहकी होती है–पहली, यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ और दूसरी, परलोकमें मेरेको भोग मिलें। इन सभी कामनाओंसे सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सार-असार, बन्ध-मोक्ष आदिका विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होनेसे वे यह समझ नहीं पाते कि जिन पदार्थोंकी हम कामना कर रहे हैं, वे पदार्थ हमारे साथ कबतक रहेंगे और हम उन पदार्थोंके साथ कबतक रहेंगे?
‘प्रकृत्या नियताः स्वया’–कामनाओंके कारण विवेक ढका जानेसे वे अपनी प्रकृतिसे नियन्त्रित रहते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश रहते हैं। यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द व्यक्तिगत स्वभावका वाचक है, समष्टि प्रकृतिका वाचक नहीं। यह व्यक्तिगत स्वभाव सबमें मुख्य होता है–‘स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते।’ अतः व्यक्तिगत स्वभावको कोई छोड़ नहीं सकता–‘या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते।’ परन्तु इस स्वभावमें जो दोष हैं, उनको तो मनुष्य छोड़ ही सकता है, अगर उन दोषोंको मनुष्य छोड़ नहीं सकता, तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही क्या हुई? मनुष्य अपने स्वभावको निर्दोष, शुद्ध बनानेमें सर्वथा स्वतन्त्र है। परन्तु जबतक मनुष्यके भीतर कामनापूर्तिका उद्देश्य रहता है, तबतक वह अपने स्वभावको सुधार नहीं सकता और तभीतक स्वभावकी प्रबलता और अपनेमें निर्बलता दीखती है। परन्तु जिसका उद्देश्य कामना मिटानेका हो जाता है, वह अपनी प्रकृति-(स्वभाव-) का सुधार कर सकता है अर्थात् उसमें प्रकृतिकी परवशता नहीं रहती।
‘तं तं नियममास्थाय’–कामनाओंके कारण अपनी प्रकृतिके परवश होनेपर मनुष्य कामनापूर्तिके अनेक उपायोंको और विधियों (नियमों-) को ढूँढ़ता रहता है। अमुक यज्ञ करनेसे कामना पूरी होगी कि अमुक तप करनेसे? अमुक दान देनेसे कामना पूरी होगी कि अमुक मन्त्रका जप करनेसे? आदि-आदि उपाय खोजता रहता है। उन उपायोंकी विधियाँ अर्थात् नियम अलग-अलग होते हैं। जैसे–अमुक कामनापूर्तिके लिये अमुक विधिसे यज्ञ आदि करना चाहिये और अमुक स्थानपर करना चाहिये आदि-आदि। इस तरह मनुष्य अपनी कामनापूर्तिके लिये अनेक उपायों और नियमोंको धारण करता है।
‘प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः’–कामनापूर्तिके लिये अनेक उपायों और नियमोंको धारण करके मनुष्य अन्य देवताओंकी शरण लेते हैं, भगवान्की शरण नहीं लेते। यहाँ ‘अन्यदेवताः’ कहनेका तात्पर्य है कि वे देवताओंको भगवत्स्वरूप नहीं मानते हैं, प्रत्युत उनकी अलग सत्ता मानते हैं, इसीसे उनको अन्तवाला (नाशवान्) फल मिलता है–‘अन्तवत्तु फलं तेषाम्’ (गीता 7। 23)। अगर वे देवताओंकी अलग सत्ता न मानकर उनको भगवत्स्वरूप ही मानें तो फिर उनको अन्तवाला फल नहीं मिलेगा ,प्रत्युत अविनाशी फल मिलेगा।यहाँ देवताओंकी शरण लेनेमें दो कारण मुख्य हुए–एक कामना और एक अपने स्वभावकी परवशता।