Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।7.6।। व्याख्या–‘एतद्योनीनि भूतानि’ (टिप्पणी प0 401.1) जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष, लता, घास आदि स्थावर प्राणी हैं, वे सब-के-सब मेरी अपरा और परा प्रकृतिके सम्बन्धसे ही उत्पन्न होते हैं।
तेरहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके सम्बन्धसे सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणियोंकी उत्पत्ति बतायी है। यही बात सामान्य रीतिसे चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भी बतायी है कि स्थावर, जङ्गम योनियोंमें उत्पन्न होनेवाले जितने शरीर हैं, वे सब प्रकृतिके हैं, और उन शरीरोंमें जो बीज अर्थात् जीवात्मा है, वह मेरा अंश है। उसी बीज अर्थात् जीवात्माको भगवान्ने ‘परा प्रकृति’ (7। 5) और ‘अपना अंश’ (15। 7) कहा है।
‘सर्वाणीत्युपधारय’–स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक आदि सम्पूर्ण लोकोंके जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं, वे सब-के-सब अपरा और परा प्रकृतिके संयोगसे ही उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य है कि परा प्रकृतिने अपराको अपना मान लिया है, (टिप्पणी प0 401.2) उसका सङ्ग कर लिया है, इसीसे सब प्राणी पैदा होते हैं–इसको तुम धारण करो अर्थात् ठीक तरहसे समझ लो अथवा मान लो।‘अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा’–मात्र वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति परमात्मासे ही मिलती है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव (उत्पन्न करनेवाला) और प्रलय (लीन करनेवाला) हूँ।
‘प्रभवः’का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत्का निमित्तकारण हूँ; क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्पसे (टिप्पणी प0 401.3) पैदा हुई है–‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (छान्दोग्य0 6। 2। 3)।जैसे घड़ा बनानेमें कुम्हार और सोनेके आभूषण बनानेमें सुनार ही निमित्तकारण है ऐसे ही संसारमात्रकी उत्पत्तिमें भगवान् ही निमित्तकारण हैं।
‘प्रलयः’कहनेका तात्पर्य है कि इस जगत्का उपादान-कारण भी मैं ही हूँ; क्योंकि कार्यमात्र उपादान-कारणसे उत्पन्न होता है; उपादान-कारण-रूपसे ही रहता है और अन्तमें उपादान-कारणमें ही लीन हो जाता है।जैसे घड़ा बनानेमें मिट्टी उपादान-कारण है, ऐसे ही सृष्टिकी रचना करनेमें भगवान् ही उपादान-कारण हैं। जैसे घड़ा मिट्टीसे ही पैदा होता है, मिट्टीरूप ही रहता है और अन्तमें टूट करके घिसते-घिसते मिट्टी ही बन जाता है; और जैसे सोनेके यावन्मात्र आभूषण सोनेसे ही उत्पन्न होते हैं, सोनारूप ही रहते हैं और अन्तमें सोना ही रह जाते हैं, ऐसे ही यह संसार भगवान्से ही उत्पन्न होता है, भगवान्में ही रहता है और अन्तमें भगवान्में ही लीन हो जाता है। ऐसा जानना ही ‘ज्ञान’ है। सब कुछ भगवत्स्वरूप है, भगवान्के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं–ऐसा अनुभव हो जाना ‘विज्ञान’ है।
‘कृत्स्नस्य जगतः’ पदोंमें भगवान्ने अपनेको जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय बताया है। इसमें जड-(अपरा प्रकृति-) का प्रभव और प्रलय बताना तो ठीक है, पर चेतन-(परा प्रकृति अर्थात् जीवात्मा-) का उत्पत्ति और विनाश कैसे हुआ? क्योंकि वह तो नित्य तत्त्व है–‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’(गीता 2। 24)। जो परिवर्तनशील है, उसको जगत् कहते हैं–‘गच्छतीति जगत्।’ पर यहाँ जगत् शब्द जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण संसारका वाचक है। इसमें जड-अंश तो परिवर्तनशील है और चेतन-अंश सदा-सर्वथा परिवर्तनरहित तथा निर्विकार है। वह निर्विकार तत्त्व जब जडके साथ अपनासम्बन्ध मानकर तादात्म्य कर लेता है, तब वह जड-(शरीर-) के उत्पत्ति-विनाशकको अपना उत्पत्ति-विनाश मान लेता है। इसीसे उसके जन्म-मरण कहे जाते हैं। इसीलिये भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण जगत् अर्थात् अपरा और परा प्रकृतिका भाव तथा प्रलय बताया है।
अगर यहाँ ‘जगत्’ शब्दसे केवल नाशवान् परिवर्तन-शील और विकारी संसारको ही लिया जाय, चेतनको नहीं लिया जाय तो बड़ी बाधा लगेगी। भगवान्ने ‘कृत्स्नस्य जगतः’ पदोंसे अपनेको सम्पूर्ण जगत्का कारण बताया है (टिप्पणी प0 402)। अतः सम्पूर्ण जगत्के अन्तर्गत स्थावर-जङ्गम, जड-चेतन सभी लिये जायँगे। अगर केवल जडको लिया जायगा तो चेतन-भाग छूट जायगा, जिससे ‘मैं सम्पूर्ण जगत्का कारण हूँ’ यह कहना नहीं बन सकेगा और आगे भी बड़ी बाधा लगेगी। कारण कि आगे इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि तीनों गुणोंसे मोहित जगत् मेरेको नहीं जानता, तो यहाँ जानना अथवा न जानना चेतनका ही हो सकता है, जडका जानना अथवा न जानना होता ही नहीं। इसलिये ‘जगत्’ शब्दसे केवल जडको ही नहीं, चेतनको भी लेना पड़ेगा।ऐसे ही सोलहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें भी आसुरी सम्पदावालोंकी मान्यताके अनुसार ‘जगत्’ शब्दसे जड और चेतन–दोनों ही लेने पड़ेंगें; क्योंकि आसुरी सम्पदावाले व्यक्ति सम्पूर्ण शरीरधारी जीवोंको असत्य मानते हैं, केवल जडको नहीं। इसलिये अगर वहाँ ‘जगत्’ शब्दसे केवल जड संसार ही लिया जाय तो जगत्को (जड संसारको) असत्य, मिथ्या और अप्रतिष्ठित कहनेवाले अद्वैत-सिद्धान्ती भी आसुरी सम्पदावालोंमें आ जायँगे, जो कि सर्वथा अनुचित है। ऐसे ही आठवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें आये ‘शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः’पदोंमें ‘जगत्’ शब्द केवल जडका ही वाचक मानें तो जडकी शुक्ल और कृष्ण गतिका क्या तात्पर्य होगा? गति तो चेतनकी ही होती है। जडसे तादात्म्य करनेके कारण ही चेतनको ‘जगत्’ नामसे कहा गया है।इन सब बातोंपर विचार करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जडके साथ एकात्मता करनेसे जीव ‘जगत्’ कहा जाता है। परन्तु जब यह जडसे विमुख होकर चिन्मय-तत्त्वके साथ अपनी एकताका अनुभव कर लेता है, तब यह ‘योगी’ कहा जाता है, जिसका वर्णन गीतामें जगह-जगह आया है।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपनेको परा और अपरा प्रकृतिरूप सम्पूर्ण जगत्का मूल कारण बताया। अब भगवान्के सिवाय भी जगत्का और कोई कारण होगा– इसका आगेके श्लोकमें निषेध करते हैं।