Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।13.32।। व्याख्या — अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः — इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें जिसको अनादि कहा है? उसीको यहाँ भी अनादित्वात् पदसे अनादि कहा है अर्थात् यह पुरुष आदि(आरम्भ) से रहित है। अब प्रश्न होता है कि वहाँ तो प्रकृतिको भी अनादि कहा है? इसलिये प्रकृति और पुरुष — दोनोंमें,क्या फरक रहा इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं — निर्गुणत्वात् अर्थात् यह पुरुष गुणोंसे रहित है। प्रकृति अनादि तो है? पर वह गुणोंसे रहित नहीं है? प्रत्युत गुणों और विकारोंवाली है। उससे सात्त्विक? राजस और तामस — ये तीनों गुण तथा विकार पैदा होते हैं। परन्तु पुरुष इन तीनों गुणोँ और विकारोंसे सर्वथा रहित (निर्गुण और निर्विकार) है। ऐसा यह पुरुष साक्षात् अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है अर्थात् यह पुरुष विनाशरहित परम शुद्ध आत्मा है।शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते — यह पुरुष शरीरमें रहता हुआ भी न कुछ करता है और न किसी कर्मसे लिप्त ही होता है। तात्पर्य है कि इस पुरुष(स्वयं) ने न तो पहले किसी भी अवस्थामें कुछ किया है? न वर्तमानमें कुछ करता है और न आगे ही कुछ कर सकता है अर्थात् यह पुरुष सदासे ही प्रकृतिसे निर्लिप्त? असङ्ग है तथा गुणोंसे रहित और अविनाशी है। इसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व है ही नहीं।यहाँ शरीरस्थोऽपि कहनेका तात्पर्य है कि यह पुरुष जिस समय अपनेको शरीरमें स्थित मानकर अपनेको कार्यका कर्ता और सुखदुःखका भोक्ता मानता है? उस समय भी वास्तवमें यह तटस्थ? प्रकाशमात्र ही रहता है। सुखदुःखका भान इसीसे होता है अतः इसको प्रकाशक कह सकते हैं? पर इसमें प्रकाशकधर्म नहीं है।यहाँ अपि पदसे ऐसा मालूम होता है कि अनादिकालसे अपनेको शरीरमें स्थित माननेवाला हरेक (चींटीसे ब्रह्मापर्यन्त) प्राणी स्वरूपसे सदा ही निर्लिप्त? असङ्ग है। उसकी शरीरके साथ एकता कभी हुई ही नहीं क्योंकि शरीर तो प्रकृतिका कार्य होनेसे सदा प्रकृतिमें ही स्थित रहता है और स्वयं परमात्माका अंश होनेसे सदा परमात्मामें ही स्थित रहता है। स्वयं परमात्मासे कभी अलग हो सकता ही नहीं। शरीरके साथ एकात्मता माननेपर भी? शरीरके साथ कितना ही घुलमिल जानेपर भी? शरीरको ही अपना स्वरूप माननेपर भी उसकी निर्लिप्तता कभी नष्ट नहीं होती? वह स्वरूपसे सदा ही निर्लिप्त रहता है। अपनी निर्लिप्तताका अनुभव न होनेपर भी उसके स्वरूपमें कुछ भी विकृति नहीं होती। अतः उसने अपने स्वरूपसे न कभी कुछ किया है और न करता ही है तथा वह स्वयं न कभी लिप्त हुआ है और न लिप्त होता ही है।यद्यपि पुरुष अपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही कर्ता और भोक्ता बनता है? तथापि इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही भोक्ता बनता है और यहाँ कहते हैं कि शरीर में स्थित होनेपर भी पुरुष कर्ताभोक्ता नहीं है। ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि प्रकृति और उसका कार्य शरीर — दोनों एक ही हैं। अतः पुरुषको चाहे प्रकृतिमें स्थित कहो? चाहे शरीरमें स्थित कहो? एक ही बात है। एक शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे मात्र प्रकृतिके साथ? मात्र शरीरोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है। वास्तवमें पुरुषका सम्बन्ध न तो व्यष्टि शरीरके साथ है और न समष्टि प्रकृतिके साथ ही है। अपना सम्बन्ध शरीरके साथ माननेसे ही वह अपनेको कर्ताभोक्ता मान लेता है। वास्तवमें वह न कर्ता है और न भोक्ता है। सम्बन्ध — पूर्वश्लोकमें कहा गया कि वह पुरुष न करता है और न लिप्त होता है? तो अब प्रश्न होता है कि वह कैसे लिप्त नहीं होता और कैसे नहीं करता इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।