Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।12.5।। व्याख्या–‘क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्’–अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले– इस विशेषणसे यहाँ उन साधकोंकी बात कही गयी है, जो निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ तो मानते हैं, पर जिनका चित्त निर्गुणतत्त्वमें आविष्ट नहीं हुआ है। तत्त्वमें आविष्ट होनेके लिये साधकमें तीन बातोंकी आवश्यकता होती है — रुचि, विश्वास और योग्यता। शास्त्रों और गुरुजनोंके द्वारा निर्गुण-तत्त्वकी महिमा सुननेसे जिनकी (निराकारमें आसक्त चित्तवाला होने और निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ माननेके कारण) उसमें कुछ रुचि तौ पैदा हो जाती है और वे विश्वासपूर्वक साधन आरम्भ भी कर देते हैं; परन्तु वैराग्यकी कमी और देहाभिमानके कारण जिनका चित्त तत्त्वमें प्रविष्ट नहीं होता– ऐसे साधकोंके लिये यहाँ ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पदका प्रयोग हुआ है।
भगवान्ने छठे अध्यायके सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें बताया है कि ‘ब्रह्मभूत’ अर्थात् ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित साधकको सुखपूर्वक ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। परन्तु यहाँ इस श्लोकमें ‘क्लेशः अधिकतरः’ पदोंसे यह स्पष्ट किया है कि इन साधकोंका चित्त ब्रह्मभूत साधकोंकी तरह निर्गुण-तत्त्वमें सर्वथा तल्लीन नहीं हो पाया है। अतः उन्हें अव्यक्तमें ‘आविष्ट’ चित्तवाला न कहकर आसक्त चित्तवाला कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इन साधकोंकी आसक्ति तो देहमें होती है पर अव्यक्तकी महिमा सुनकर वे निर्गुणोपासनाको ही श्रेष्ठ मानकर उसमें आसक्त हो जाते हैं; जबकि आसक्ति देहमें ही हुआ करती है, अव्यक्तमें नहीं।
तेरहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें ‘अव्यक्तम्’ पद प्रकृतिके अर्थमें आया है तथा और भी कई जगह वह प्रकतिके लिये ही प्रयुक्त हुआ है; परन्तु यहाँ ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पदमें ‘अव्यक्त’ का अर्थ प्रकृति नहीं, प्रत्युत निर्गुण-निराकार ब्रह्म है। कारण यह है कि इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने ‘त्वाम्’ पदसे सगुण-साकार स्वरूपके और ‘अव्यक्तम्’ पदसे निर्गुण-निराकार स्वरूपके विषयमें ही प्रश्न किया है। उपासनाका विषय भी परमात्मा ही है, न कि प्रकृति; क्योंकि प्रकृति और प्रकृतिका कार्य तो त्याज्य है। इसलिये उसी प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने ‘अव्यक्त’ पदका (व्यक्तरूपके विपरीत) निर्गुण-निराकार स्वरूपके अर्थमें ही प्रयोग किया है। अतः यहाँ प्रकृतिका प्रसङ्ग न होनेके कारण ‘अव्यक्त’ पदका अर्थ प्रकृति नहीं लिया जा सकता।
नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें ‘अव्यक्तमूर्तिना’ पद सगुण-निराकार स्वरूपके लिये आया है। ऐसी दशामें यह प्रश्न हो सकता है कि यहाँ भी ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पदका अर्थ ‘सगुण-निराकार’ में आसक्त चित्तवाले पुरुष ही क्यों न ले लिया जाय? परन्तु ऐसा अर्थ भी नहीं लिया जा सकता; क्योंकि इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नमें ‘त्वाम्’ पद सगुण-साकारके लिये और ‘अव्यक्तम्’ पदके साथ ‘अक्षरम्’ पद निर्गुण-निराकारके लिये आया है। ब्रह्म क्या है? — अर्जुनके इस प्रश्नके उत्तरमें आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान् बता चुके हैं कि परम् अक्षर ब्रह्म है अर्थात् वहाँ भी ‘अक्षरम्’पद निर्गुण-निराकारके लिये ही आया है। इसलिये अर्जुनने ‘अव्यक्तम् अक्षरम्’ पदोंसे जिस निर्गुण-ब्रह्मके विषयमें प्रश्न किया था, उसीके उत्तरमें यहाँ (‘अक्षर’ विशेषण होनेसे) अव्यक्त पदसे निर्गुण-निराकार ब्रह्म ही लेना चाहिये, सगुण-निराकार नहीं।
‘क्लेशोऽधिकतरः’ पदका भाव यह है कि जिन साधकोंका चित्त निर्गुण-तत्त्वमें तल्लीन नहीं होता, ऐसे निर्गुण-उपासकोंको देहाभिमानके कारण अपनी साधनामें विशेष कष्ट अर्थात् कठिनाई होती है (टिप्पणी प0 631)। गौणरूपसे इस पदका भाव यह है कि साधनाकी प्रारम्भिक अवस्थासे लेकर अन्तिम अवस्थातकके सभी निर्गुण-उपासकोंको सगुण-उपासकोंसे अधिक कठिनाई होती है।‘विशेष बात अब सगुणउपासनाकी सुगमताओं और निर्गुणउपासनाकी कठिनताओंका विवेचन किया जाता है — ‘सगुणउपासनाकी सुगमताएँ’1 — सगुणउपासनामें उपास्यतत्त्वके सगुणसाकार होनेके कारण साधकके मनइन्द्रियोंके लिये भगवान्के स्वरूप? नाम? लीला? कथा आदिका आधार रहता है। भगवान्के परायण होनेसे उसके मनइन्द्रियाँ भगवान्के स्वरूप एवं लीलाओंके चिन्तन? कथाश्रवण? भगवत्सेवा और पूजनमें अपेक्षाकृत सरलतासे लग जाते हैं (गीता 8। 14)। इसलिये उसके द्वारा सांसारिक विषयचिन्तनकी सम्भावना कम रहती है।2 — सांसारिक आसक्ति ही साधनमें क्लेश देती है। परन्तु सगुणोपासक इसको दूर करनेके लिये भगवान्के ही आश्रित रहता है। वह अपनेमें भगवान्का ही बल मानता है। बिल्लीका बच्चा जैसे माँपर निर्भर रहता है? ऐसे ही यह साधक भी भगवान्पर निर्भर रहता है। भगवान् ही उसकी सँभाल करते हैं (गीता 9। 22)।
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
करउँ सदा तिन कै रखवारी।
जिमि बालक राखइ महतारी।।(मानस 3। 43। 2 3)
अतः उसकी सांसारिक आसक्ति सुगमतासे मिट जाती है।3 — ऐसे उपासकोंके लिये गीतामें भगवान्ने नचिरात् आदि पदोंसे शीघ्र ही अपनी प्राप्ति बतायी है (गीता 12। 7)।
4 — सगुण-उपासकोंके अज्ञानरूप अन्धकारको भगवान् ही मिटा देते हैं (गीता 10। 11)।
5 — उनका उद्धार भगवान् करते हैं (गीता 12। 7)।6 — ऐसे उपासकोंमें यदि कोई सूक्ष्म दोष रह जाता है, तो (भगवान्पर निर्भर होनेसे) सर्वज्ञ भगवान् कृपा करके उसको दूर कर देते हैं (गीता 18। 58? 66)।7 —
ऐसे उपासकोंकी उपासना भगवान्की ही उपासना है। भगवान् सदा-सर्वदा पूर्ण हैं ही। अतः भगवान्की पूर्णतामें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न रहनेके कारण उनमें सुगमतासे श्रद्धा हो जाती है। श्रद्धा होनेसे वे नित्य-निरन्तर भगवत्परायण हो जाते हैं। अतः भगवान् ही उन उपासकोंको बुद्धियोग प्रदान करते हैं, जिससे उन्हें भगवत्प्राप्ति हो जाती है (गीता 10। 10)।8 —
ऐसे उपासक भगवान्को परम कृपालु मानते हैं। अतः उनकी कृपाके आश्रयसे वे सब कठिनाइयोंको पार कर जाते हैं। यही कारण है कि उनका साधन सुगम हो जाता है और भगवत्कृपाके बलसे वे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति कर लेते हैं (गीता 18। 56 58)।9 —
मनुष्यमें कर्म करनेका अभ्यास तो रहता ही है (गीता 3। 5), इसलिये भक्तको अपने कर्म भगवान्के प्रति करनेमें केवल भाव ही बदलना पड़ता है कर्म तो वे ही रहते हैं। अतः भगवान्के लिये कर्म करनेसे भक्त कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 18। 46)।10 — हृदयमें पदार्थोंका आदर रहते हुए भी यदि वे प्राणियोंकी सेवामें लग जाते हैं तो उन्हें पदार्थोंका त्याग करनेमें कठिनाई नहीं होती। सत्पात्रोंके लिये पदार्थोंके त्यागमें तो और भी सुगमता है। फिर भगवान्के लिये तो पदार्थोंका त्याग बहुत ही सुगमतासे हो सकता है।11 — इस साधनमें विवेक और वैराग्यकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी प्रेम और विश्वासकी है। जैसे, कौरवोंके प्रति द्वेषवृत्ति रहते हुए भी द्रौपदीके पुकारनेमात्रसे भगवान् प्रकट हो जाते थे (टिप्पणी प0 633.1) क्योंकि वह भगवान्को अपना मानती थी। भगवान् तो अपने साथ भक्तके प्रेम और विश्वासको ही देखते हैं, उसके दोषोंको नहीं। भगवान्के साथ अपनापनका सम्बन्ध जो़ड़ना उतना कठिन नहीं (क्योंकि भगवान्की ओरसे अपनापन स्वतःसिद्ध है), जितना कि पात्र बनना कठिन है। ‘निर्गुणउपासनाकी कठिनताएँ’1 — निर्गुणउपासनामें उपास्यतत्त्वके निर्गुणनिराकार होनेके कारण साधकके मनइन्द्रियोंके लिये कोई आधार नहीं रहता। आधार न होने तथा वैराग्यकी कमीके कारण इन्द्रियोंके द्वारा विषयचिन्तनकी अधिक सम्भावना रहती है।2 — देहमें जितनी अधिक आसक्ति होती है, साधनमें उतना ही अधिक क्लेश मालूम देता है। निर्गुणोपासक उसे विवेकके द्वारा हटानेकी चेष्टा करता है। विवेकका आश्रय लेकर साधन करते हुए वह अपने ही साधनबलको महत्त्व देता है। बँदरीका छोटा बच्चा जैसे (अपने बलपर निर्भर होनेसे) अपनी माँको पकड़े रहता है और अपनी पकड़से ही अपनी रक्षा मानता है? ऐसे ही यह साधक अपने साधनके बलपर अपनी उन्नति मानता है (गीता 18। 51 — 53)। इसीलिये श्रीरामचरितमानसमें भगवान्ने इसको अपने समझदार पुत्रकी उपमा दी है —
मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी।
‘बालक सुत सम दास अमानी।।’
(3। 43। 4)3 — ज्ञानयोगियोंके द्वारा लक्ष्यप्राप्तिके प्रसङ्गमें चौथे अध्यायके उनतालीसवें श्लोकमें ‘अचिरेण’ पद तत्त्वज्ञानके अनन्तर शान्तिकी प्राप्तिके लिये आया है, न कि तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके लिये।
4 –निर्गुण-उपासक तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति स्वयं करते हैं (गीता 13। 34)।
5 — ये अपना उद्धार (निर्गुण-तत्त्वकी प्राप्ति) स्वयं करते हैं (गीता 5। 24)।
6 — ऐसे उपासकोंमें यदि कोई कमी रह जाती है, तो उस कमीका अनुभव उनको विलम्बसे होता है और कमीको ठीक-ठीक पहचाननेमें भी कठिनाई होती है। हाँ, कमीको ठीक-ठीक पहचान लेनेपर ये भी उसे दूर कर सकते हैं।
7 — चौथे अध्यायके चौंतीसवें और तेरहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने ज्ञानयोगियोंको ज्ञान-प्राप्तिके लिये गुरुकी उपासनाकी आज्ञा दी है। अतः निर्गु-उपासनामें गुरुकी आवश्यकता भी है; किंतु गुरुकी पूर्णताका निश्चित पता न होनेपर अथवा गुरुके पूर्ण न होनेपर स्थिर श्रद्धा होनेमें कठिनाई होती है तथा साधनकी सफलतामें भी विलम्बकी सम्भावना रहती है।
8 — ऐसे उपासक उपास्य-तत्त्वको निर्गुण, निराकार और उदासीन मानते हैं। अतः उन्हें भगवान्की कृपाका वैसा अनुभव नहीं होता। वे तत्त्वप्राप्तिमें आनेवाले विघ्नोंको अपनी साधनाके बलपर ही दूर करनेमें कठिनाईका अनुभव करते हैं। फलस्वरूप तत्त्वकी प्राप्तिमें भी उन्हें विलम्ब हो सकता है।
9 — ज्ञानयोगी अपनी क्रियाओँको सिद्धान्ततः प्रकृतिके अर्पण करता है; किन्तु पूर्ण विवेक जाग्रत् होनेपर ही उसकी क्रियाएँ प्रकृतिके अर्पण हो सकती हैं। यदि विवेककी किञ्चिन्मात्र भी कमी रही तो क्रियाएँ प्रकृतिके अर्पण नहीं होंगी और साधक कर्तृत्वाभिमान रहनेसे कर्मबन्धनमें बँध जायगा।
10 — जबतक साधकके चित्तमें पदार्थोंका किञ्चिन्मात्र भी आदर तथा अपने कहलानेवाले शरीर और नाममें अहंताममता है, तबतक उसके लिये पदार्थोंको मायामय समझकर उनका त्याग करना कठिन होता है।
11 — यह साधक पात्र बननेपर ही तत्त्वको प्राप्त कर सकेगा। पात्र बननेके लिये विवेक और तीव्र वैराग्यकी आवश्यकता होगी, जिनको आसक्ति रहते हुए प्राप्त करना कठिन है।
‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते’ — ‘देही’ ‘देहभृत्’ आदि पदोंका अर्थ साधारणतया ‘देहधारी पुरुष’ लिया जाता है। प्रसङ्गानुसार इनका अर्थ ‘जीव’ और ‘आत्मा ‘भी लिया जाता है। यहाँ ‘देहवद्भिः’ (टिप्पणी प0 633.2) पदका अर्थ ‘देहाभिमानी मनुष्य’ लेना चाहिये; क्योंकि निर्गुणउपासकोंके लिये इसी श्लोकके पूर्वार्धमें ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद आया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि वे निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ तो मानते हैं; परन्तु उनका चित्त देहाभिमानके कारण निर्गुण-तत्त्वमें आविष्ट नहीं, हुआ है। देहाभिमानके कारण ही उन्हें साधनमें अधिक क्लेश होता है।
निर्गुण-उपासनामें देहाभिमान ही मुख्य बाधा है — ‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’ — इस बाधाकी ओर ध्यान दिलानेके लिये ही भगवान्ने ‘देहवद्भिः’ पद दिया है। इस देहाभिमानको दूर करनेके लिये ही (अर्जुनके पूछे बिना ही) भगवान्ने तेरहवाँ और चौदहवाँ अध्याय कहा है। उनमें भी तेरहवें अध्यायका प्रथम श्लोक देहाभिमान मिटानेके लिये ही कहा गया है।ब्रह्मके निर्गुणनिराकार स्वरूपकी प्राप्तिको यहाँ ‘अव्यक्ताः गतिः’ कहा गया है। साधारण मनुष्योंकी स्थिति व्यक्त अर्थात् देहमें होती है। इसलिये उन्हें अव्यक्तमें स्थित होनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। यदि साधक अपनेको देहवाला न माने, तो उसकी अव्यक्तमें सुगमता और शीघ्रतापूर्वक स्थिति हो सकती है।