Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।15.20।। व्याख्या — अनघ — अर्जुनको निष्पाप इसलिये कहा गया है कि वे दोषदृष्टि(असूया) से रहित थे। दोषदृष्टि करना पाप है। इससे अन्तःकरण अशुद्ध होता है। जो दोषदृष्टिसे रहित होता है? वही भक्तिका पात्र होता है।
गोपनीय बात दोषदृष्टिसे रहित मनुष्यके सामने ही कही जाती है (टिप्पणी प0 786)। यदि दोषदृष्टिवाले मनुष्यके सामने गोपनीय बात कह दी जाय? तो उस मनुष्यपर उस बातका उलटा असर पड़ता है अर्थात् वह उस गोपनीय बातका उलटा अर्थ लगाकर वक्तामें भी दोष देखने लगता है कि यह आत्मश्लाघी है दूसरोंको मोहित करनेके लिये कहता है इत्यादि। इससे दोषदृष्टिवाले मनुष्यकी बहुत हानि होती है।दोषदृष्टि होनेमें खास कारण है — अभिमान। मनुष्यमें जिस बातका अभिमान हो? उस बातकी उसमें कमी होती है। उस कमीको वह दूसरोंमें देखने लगता है। अपनेमें अच्छाईका अभिमान होनेसे दूसरोंमें बुराई दीखती है और दूसरोंमें बुराई देखनेसे ही अपनमें अच्छाईका अभिमान आता है।यदि दोषदृष्टिवाले मनुष्यके सामने भगवान् अपनेको सर्वोपरि पुरुषोत्तम कहें? तो उसको विश्वास नहीं होगा? उलटे वह यह सोचेगा कि भगवान् आत्मश्लाघी (अपने मुँह अपने बड़ाई करनेवाले) हैं –,निज अग्यान राम पर धरहीं। (मानस 7। 73। 5)
भगवान्के प्रति दोषदृष्टि होनेसे उसकी बहुत हानि होती है। इसलिये भगवान् और संतजन दोषदृष्टिवाले अश्रद्धालु मनुष्यके सामने गोपनीय बातें प्रकट नहीं करते (गीता 18। 67)। वास्तवमें देखा जाय तो दोषदृष्टिवाले मनुष्यके सामने गोपनीय (रहस्ययुक्त) बातें मुखसे निकलती ही नहीं अर्जुनके लिये अनघ सम्बोधन देनेमें यह भाव भी हो सकता है कि इस अध्यायमें भगवान्ने जो परमगोपनीय प्रभाव बताया है? वह अर्जुनजैसे दोषदृष्टिसे रहित सरल पुरुषके सम्मुख ही प्रकट किया जा सकता है।इति गुह्यतमं शास्त्रमिदम् — चौदहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कहनेके बाद भगवान्ने पन्द्रहवें अध्यायके पहले श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक जिस (क्षर? अक्षर और पुरुषोत्तमके) विषयका वर्णन किया है? उस विषयकी पूर्णता और लक्ष्यका निर्देश यहाँ इति इदम् पदोंसे किया गया है।इस अध्यायमें पहले भगवान्ने क्षर (संसार) और अक्षर(जीवात्मा) का वर्णन करके अपना अप्रतिम प्रभाव (बारहवेंसे पंद्रहवें श्लोकतक) प्रकट किया। फिर भगवान्ने यह गोपनीय बात प्रकट की कि जिसका यह सब प्रभाव है? वह (क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम) पुरुषोत्तम मैं ही हूँ।
नाटकमें स्वाँग धारण किये हुए मनुष्यकी तरह भगवान् इस पृथ्वीपर मनुष्यका स्वाँग धारण करके अवतरित होते हैं और ऐसा बर्ताव करते हैं कि अज्ञानी मनुष्य उनको नहीं जान पाते (गीता 7। 24)। स्वाँगमें अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया जाता? गुप्त रखा जाता है। परन्तु भगवान्ने इस अध्यायमें (अठारहवें श्लोकमें) अपना वास्तविक परिचय देकर अत्यन्त गोपनीय बात प्रकट कर दी कि मैं ही पुरुषोत्तम हूँ। इसलिये इस अध्यायको गुह्यतम कहा गया है।शास्त्र में प्रायः संसार? जीवात्मा और परमात्माका वर्णन आता है। इन तीनोंका ही वर्णन पंद्रहवें अध्यायमें हुआ है? इसलिये इस अध्यायको शास्त्र भी कहा गया है।सर्वशास्त्रमयी गीतामें केवल इसी अध्यायको शास्त्र की उपाधि मिली है। इसमें पुरुषोत्तम का वर्णन मुख्य होनेके कारण इस अध्यायको गुह्यतम शास्त्र कहा गया है। इस गुह्यतम शास्त्रमें भगवान्ने अपनी प्राप्तिके छः उपायोंका वर्णन किया है –,(1) संसारको तत्त्वसे जानना (श्लोक 1)।
(2) संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करके एक भगवान्के शरण होना (श्लोक 4)।
(3) अपनेमें स्थित परमात्मतत्त्वको जानना (श्लोक 11)।
(4) वेदाध्ययनके द्वारा तत्त्वको जानना (श्लोक 15)।
(5) भगवान्को पुरुषोत्तम जानकर सब प्रकारसे उनका भजन करना (श्लोक 19)।
(6) सम्पूर्ण अध्यायके तत्त्वको जानना (श्लोक 20)।जिस अध्यायमें भगवत्प्राप्तिके ऐसे सुगम उपाय बताये गये हों? उसको शास्त्र कहना उचित ही है।
मया उक्तम् — इन पदोंसे भगवान् यह कहते हैं कि सम्पूर्ण भौतिक जगत्का प्रकाशक और अधिष्ठान? समस्त प्राणियोंके हृदयमें स्थित? वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य एवं क्षर और अक्षर दोनोंसे उत्तम साक्षात् मुझ पुरुषोत्तमके द्वारा ही यह गुह्यतम शास्त्र अत्यन्त कृपापूर्वक कहा गया है। अपने विषयमें जैसा मैं कह सकता हूँ? वैसा कोई नहीं कह सकता। कारण कि दूसरा पहले (मेरी ही कृपाशक्तिसे) मेरेको जानेगा (टिप्पणी प0 787)? फिर वह मेरे विषयमें कुछ कहेगा? जबकि मेरेमें अनजानपना है ही नहीं।
वास्तवमें स्वयं भगवान्के अतिरिक्त दूसरा कोई भी उनको पूर्णरूपसे नहीं जान सकता (गीता 10। 2? 15)। छठे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें अर्जुनने भगवान्से कहा था कि आपके सिवाय दूसरा कोई भी मेरे संशयका छेदन नहीं कर सकता। यहाँ भगवान् मानो यह कह रहे हैं कि मेरे द्वारा कहे हुए विषयमें किसी प्रकारका संशय रहनेकी सम्भावना ही नहीं है।एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत — पूरे अध्यायमें भगवान्ने जो संसारकी वास्तविकता? जीवात्माके स्वरूप और अपने अप्रतिम प्रभाव एवं गोपनीयताका वर्णन किया है? उसका (विशेषरूपसे उन्नीसवें श्लोकका) निर्देश यहाँ एतत् पदसे किया गया है। इस गुह्यतम शास्त्रको जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है? वह ज्ञानवान् अर्थात् ज्ञातज्ञातव्य हो जाता है। उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता क्योंकि उसने जाननेयोग्य पुरुषोत्तमको जान लिया।परमात्मतत्त्वको जाननेसे मनुष्यकी मूढ़ता नष्ट हो जाती है। परमात्मतत्त्वको जाने बिना लौकिक सम्पूर्ण विद्याएँ? भाषाएँ? कलाएँ आदि क्यों न जान ली जायँ? उनसे मूढ़ता नहीं मिटती क्योंकि लौकिक सब विद्याएँ आरम्भ और समाप्त होनेवाली तथा अपूर्ण हैं। जितनी लौकिक विद्याएँ हैं? सब परमात्मासे ही प्रकट होनेवाली हैं अतः वे परमात्माको कैसे प्रकाशित कर सकती हैं इन सब लौकिक विद्याओंसे अनजान होते हुए भी जिसने परमात्माको जान लिया है? वही वास्तवमें ज्ञानवान् है।उन्नीसवें श्लोकमें सब प्रकारसे भजन करनेवाले जिस मोहरहित भक्तको सर्ववित् कहा गया है? उसीको यहाँ बुद्धिमान् नामसे कहा गया है।
यहाँ च पदमें पूर्वश्लोकमें आयी बातके फल(प्राप्तप्राप्तव्यता) का अनुकर्षण है। पूर्वश्लोकमें सर्वभावसे भगवान्का भजन करने अर्थात् अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात विशेषरूपसे आयी है। भक्तिके समान कोई लाभ नहीं है — लाभु कि किछु हरि भगति समाना (मानस 7। 112। 4)। अतः जिसने भक्तिको प्राप्त कर लिया? वह प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं रहता।भगवत्तत्त्वकी यह विलक्षणता है कि कर्मयोग? ज्ञानयोग और भक्तियोग — तीनोंमेंसे किसी एककी सिद्धिसे कृतकृत्यता? ज्ञातज्ञातव्यता और प्राप्तप्राप्तव्यता — तीनोंकी प्राप्ति हो जाती है। इसलिये जो भगवत्तत्त्वको जान लेता है? उसके लिये फिर कुछ जानना? पाना और करना शेष नहीं रहता उसका मनुष्यजीवन सफल हो जाता है।
इस प्रकार ? तत्? सत् — इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें पुरुषोत्तमयोग नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।15।।