- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे शक्तिशाली भुजाओं वाले हृषीकेश, हे केशि का वध करने वाले (अर्थात् श्रीकृष्ण), मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व अनेक प्रकार से जानना चाहता हूँ’। (18.1)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘काम्य कर्मों के त्याग को ऋषिगण संन्यास मानते हैं’, बुद्धिमान लोग सभी कार्यों के फल के त्याग को त्याग बताते हैं’। (18.2)
- ‘कुछ दार्शनिक कहते हैं कि सभी कर्मो को अशुभ मानकर त्याग देना चाहिये, जबकि दूसरे (कहते हैं) कि यज्ञ, दान और तपस् के कर्म का त्याग नहीं किया जाना चाहिये’। (18.3)
- ‘हे भरतों में श्रेष्ठ, त्याग के बारे में मुझसे अन्तिम सत्य सुनो। क्योंकि त्याग तीन प्रकार का घोषित किया गया है, हे पुरुषों में व्याघ्र’। (18.4)
- ‘यज्ञ दान और तपस् के कर्म नहीं त्यागे जाने चाहिये, अपितु ये अवश्य किये जाने चाहिये, (क्योंकि) बुद्धिमान लोगों के अनुसार यज्ञ दान और तपस् शुद्धिकारक साधन हैं’। (18.5)
- ‘लेकिन ये तीन कर्म भी, हे पार्थ, आसक्ति और फल का त्याग करके किये जाने चाहिये, यही मेरा श्रेष्ठ और निश्चित मत है’। (18.6)
- ‘लेकिन कर्तव्य कर्मो का त्याग उचित नहीं है। मोह के वशीभूत होकर उनका त्याग तामसिक घोषित किया गया है’। (18.7)
- ‘वह जो शारीरिक कष्ट के भय के कारण कर्म का त्याग करता है, क्योंकि वह कष्टप्रद है, इस प्रकार का एक राजसिक त्याग करके वह उसके फल प्राप्त नहीं करता’। (18.8)
- ‘हे अर्जुन, जब कर्तव्य भाव से आसक्ति और फल को छोड़ कर, कार्य किया जाता है, केवल इसलिये कि यह किया जाना चाहिये, ऐसा त्याग सात्त्विक माना जाता है।’ (18.9)
- ‘सत्त्व युक्त त्यागी, जो बुद्धिमान है, और जिसके संशय छिन्न हो चुके हैं वह किसी अप्रिय कार्य से घृणा नहीं करता और न ही किसी प्रिय कार्य के प्रति आसक्ति रखता है’। (18.10)
- ‘एक देहधारी के द्वारा कर्मों का पूर्णतः त्याग नहीं किया जा सकता, लेकिन वह जो कर्मफल का त्याग करता है, वह त्यागी कहलाता है’। (18.11)
- मृत्यु के पश्चात् त्याग न करने वालों को ‘कर्मों के तीन प्रकार के फल – प्रिय, अप्रिय और मिश्रित – प्राप्त होते हैं, लेकिन त्यागियों को कभी नहीं’। (18.12)
- ‘हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, समस्त कर्मों को करने के मुझसे पाँच कारण जानो जिन्हें कि बुद्धि बताती है और जो समस्त कर्मों का अन्त है’। (18.13)
- ‘शरीर व उसका कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, कार्य करने के विभिन्न रूप व उसकी प्रक्रियाएँ और अधिष्ठात्री दिव्यता, यह इनमें पाँचवी है’। (18.14)
- ‘जो भी कर्म कोई अपने शरीर, वाणी और मन के द्वारा करता है – चाहे उचित या उसके विपरीत – उसके ये पाँच कारण हैं’। (18.15)
- ‘जब ऐसा है तो वह, जिसकी समझ शुद्ध नहीं है, स्वयं के शुद्ध ‘स्व’ को कर्ता मानता है, इस प्रकार के दूषित मन के स्त्री-पुरुष यथार्थ नहीं देखते है’। (18.16)
- ‘वह जो अहम्कार के भाव से मुक्त है, जिसकी बुद्धि अच्छे और बुरे से प्रभावित नहीं है, यद्यपि वह स्त्री या पुरुष इन लोगों को मारता है, वह स्त्री या पुरुष मारता नहीं है, न ही वह कर्म द्वारा बद्ध है। (18.17)
- ‘ज्ञान, ज्ञान की वस्तु और ज्ञाता, कार्य के त्रिविध कारण हैं। साधन, वस्तु और कर्ता, कार्य के त्रिविध आधार हैं’। (18.18)
- ‘सांख्य दर्शन में ज्ञान, कर्म और कर्ता केवल तीन प्रकार के गुणों के अन्तर से बताए गये हैं; उन्हें समुचित रूप से सुनो’। (18.19)
- ‘वह ज्ञान जिसके द्वारा एक अविनाशी सत्ता पृथक् में अपृथक् रूप से, सभी जीवों में देखी जाती है, उस ज्ञान को सात्त्विक जानो’। (18.20)
- ‘लेकिन वह ज्ञान जो सभी जीवों में अलग-अलग प्रकार की एक दूसरे से पृथक सत्ताएँ देखता है, उस ज्ञान को राजसिक जानो’। (18.21)
- ‘जब कि वह ज्ञान जो एक ही प्रभाव में सीमित है मानो वही सब कुछ है, जो बिना तर्क-युक्ति का, सत्य में प्रतिष्ठित हुए बिना, और तुच्छ है – वह तामसिक बताया गया है’। (18.22)
- ‘बिना आसक्ति, राग या द्वेष के एक नियत कर्म, उसके द्वारा किया गया, जो उसके फल का इच्छुक नहीं है, सात्त्विक बताया गया है’। (18.23)
- ‘लेकिन वह कार्य जो स्वयं के लिये फल प्राप्ति की इच्छा से किया जाता है, अथवा अहंकारपूर्वक, तथा थकाने वाले प्रयास द्वारा, राजसिक बताया जाता है’। (18.24)
- ‘वह कर्म तामसिक कहा जाता है जो मोहवश, बिना परिणामों पर विचार किये हुए, (शक्ति और संपत्ति) की हानि पर विचार किये बिना, (दूसरों को) चोट पहुँचाने के लिये, तथा (अपनी) क्षमता से परे प्रारंभ किया जाता है’। (18.25)
- ‘वह कर्ता जो आसक्ति से मुक्त है, अहंकार रहित है, जिसमें धैर्य तथा उत्साह है, और जो सफलता और विफलता के प्रति तटस्थ है, सात्त्विक कहलाता है’। (18.26)
- ‘वह जो वासनामय है, कर्मफल प्राप्ति का इच्छुक है, लोभी, दुराशयी, अशुद्ध, सरलतापूर्वक उत्तेजित व हतोत्साहित होता है, ऐसा कर्ता राजसिक है’। (18.27)
- ‘अस्थिर, अशिष्ट या अभद्र, घमण्डी, कपटपूर्ण, द्रोही, आलसी, निराश तथा कार्य को बार बार स्थगित करने वाला कर्ता तामसिक है’। (18.28)
- ‘बुद्धि और धृति के गुणों के अनुसार त्रिविध अन्तर को सुनो, जिन्हें मैं विस्तारपूर्वक तथा अनेक प्रकार से बताता हूँ हे, धनंजय (अर्जुन)।’ (18.29)
- ‘वह बुद्धि जो बाह्य कार्य तथा आन्तरिक ध्यान का, उचित व अनुचित कार्य का, भय और अभय का, बन्धन और मोक्ष का मार्ग जानती है, हे पार्थ, वह सात्त्विक है’। (18.30)
- ‘वह बुद्धि जो धर्म और अधर्म को तथा उचित व अनुचित कार्य को विकृत रूप में समझती है, हे पार्थ, राजसिक है’। (18.31)
- ‘वह बुद्धि जो अंधकार में डूबी हुई अधर्म को धर्म समझती है, और सभी बातों को भ्रष्ट रूप में ग्रहण करती है, हे पार्थ, तामसिक है’। (18.32)
- ‘हे पार्थ, वह धारणा जिसके द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों के कार्य नियमित होते हैं, वह धारणा योग द्वारा स्थिर होकर सात्त्विक होती है’। (18.33)
- ‘लेकिन वह धृति, जिसके द्वारा कोई अपने मन से आसक्त होकर प्रत्येक से फल की कामना करते हुए उसे धर्म या मूल्यों के विज्ञान के प्रति,व ऐन्द्रिय इच्छाओं, तथा सम्पत्ति के प्रति नियमित करता है, हे पार्थ, राजसिक है’। (18.34)
- ‘वह धृति जिसके कारण एक मूर्ख व्यक्ति निद्रा, भय, विषाद, उदासी, तथा अत्यधिक अहंकार का त्याग नहीं करता, हे पार्थ, तामसिक है’। (18.35)
- ‘और अब, हे भारतों के वृषभ, त्रिविध सुखों के बारे में मुझसे सुनो, जिन्हें कोई अभ्यास द्वारा आनन् प्राप्त करने के लिए सीखता है, और जिनके द्वारा वह दुःख के अन्त को प्राप्त करता है’। (18.36)
- ‘वह जो प्रारंभ में विष समान लगता है, लेकिन अन्त में अमृत के समान है; वह सुख सात्त्विक है, जो कि ‘आत्म’ तथा बुद्धि की प्रशांति से आता है’। (18.37)
- ‘वह सुख जो इन्द्रियों के साथ इन्द्रिय विषयों के संपर्क से प्राप्त होता है, और जो प्रारंभ में अमृत सदृश लगता है, लेकिन अन्त में विष समान होता है, वह सुख राजसिक है’। (18.38)
- ‘वह सुख जिसका आरम्भ व अन्त आत्म मोहन में है वह निद्रा, आलस्य तथा त्रुटिपूर्ण समझ के कारण होता है तथा तामसिक बताया जाता है। (18.39)
- ‘पृथ्वी पर कोई हस्ती ऐसी नहीं है, न ही स्वर्गस्थ देवताओं में जो कि प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से रहित हो’। (18.40)
- ‘हे शत्रुओं के लिये कष्टप्रद, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के बीच उनके प्रकृति से उत्पन्न गुणों के अनुसार कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं’। (18.41)
- ‘मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, तपश्चर्या, शुद्धता, धैर्य, सरलता, ज्ञान, बोध, तथा वर्तमान के बाद के अस्तित्व में विश्वास, ये उनकी प्रकृति से उत्पन्न ब्राह्मणों के गुण हैं’। (18.42)
- ‘शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान, तथा संप्रभुत्व अपनी प्रकृति से उत्पन्न क्षत्रिय प्रकार के गुण हैं। (18.43)
- ‘कृषि, पशु-पालन तथा व्यापार वैश्यों का, उनके स्वभाव से उत्पन्न कर्तव्य है; तथा सेवा के कार्य, स्वभाव से उत्पन्न शूद्रों का कर्तव्य है’। (18.44)
- ‘अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित प्रत्येक स्त्री या पुरुष उच्चतम पूर्णता को प्राप्त करता है; अपने कार्य में लगे हुए कोई कैसे पूर्णता को प्राप्त करता है, यह मुझसे सुनो’। (18.45)
- ‘जिससे सब जीवों का क्रम विकास हुआ है, जिसके द्वारा यह सब व्याप्त है, उसकी अपने कार्य के द्वारा पूजा से कोई व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त करता है’। (18.46)
- ‘स्वयं का धर्म चाहे अपूर्णतापूर्वक किया जाय, दूसरे के पूर्णतापूर्वक किये गये धर्म से श्रेयस्कर है। जो भी प्रकृति द्वारा निर्धारित अपना कर्तव्य कर्म करता है वह किसी भी दोष का भागीदार नहीं होता’। (18.47)
- ‘हे कुन्तीपुत्र, किसी को अपना वह कर्म नहीं छोड़ना चाहिये जिसमें वह पैदा हुआ है चाहे वह दोषपूर्ण कार्य ही क्यों न हो; क्योंकि सभी कर्म दोष से घिरे हुए होते हैं जैसे अग्नि धूएँ से ढकी होती है। (18.48)
- ‘वह जिसकी बुद्धि सभी ओर से अनासक्त है, जिसने अपनी ‘आत्म’ को अधीन कर लिया है, जिसकी इच्छाएँ चली गई हैं, वह स्त्री या पुरुष त्याग द्वारा परम पूर्णता को प्राप्त करके कार्य से मुक्त हो जाता है’। (18.49)
- ‘हे कुन्ती पुत्र, मुझसे सुनो कि किस प्रकार इस पूर्णता को प्राप्त व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त होता है, ज्ञान की उस सर्वोच्च निष्पत्ति को’। (18.50)
- ‘शुद्ध बुद्धि से युक्त होकर, और शरीर तथा इन्द्रियों को इच्छा शक्ति द्वारा अधीन करके; ध्वनि तथा अन्य इस प्रकार के इन्द्रिय विषयों को त्यागते हुए तथा आकर्षण और घृणा का त्याग करके’; (18.51)
- ‘जो किसी एकान्त स्थान में रहते हुए; अल्प भोजन ग्रहण करते हुए; जिसकी वाणी, शरीर तथा मन नियंत्रित है; जो ध्यान के योग में रत है, और जिसमें उदासीनता है’; (18.52)
- ‘वह जिसने अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध तथा संपत्ति का त्याग कर दिया है, जो “मेरे” के विचार से मुक्त हो गया है; और जो शान्त है, वह ब्रह्म बनने के उपयुक्त हो जाता है’। (18.53)
- ‘वह जिसने ब्रह्म की उपलब्धि कर ली है, और जो शान्त मन का है, जो न दुःख अनुभव करता है और न इच्छा करता है; जो सबके लिये एक जैसा है, वह मेरी परम् भक्ति प्राप्त करता है’। (18.54)
- ‘भक्ति के द्वारा वह वास्तव में मुझे जानता है कि मैं क्या व कौन हूँ; तब यथार्थ में मुझे जानकर वह मुझमें प्रविष्ट हो जाता है’। (18.55)
- ‘सभी काम करते हुए भी सदा मुझमें शरण लेते हुए – मेरी कृपा से वह असीम तथा निर्विकार स्थिति में आ जाता है’। (18.56)
- ‘सभी कार्यों को मुझे समर्पित करते हुए, मुझे अपना परम ध्येय मान कर, बुद्धि योग से काम लेते हुए, सदा अपना मन मुझ पर स्थिर करो’। (18.57)
- ‘अपना मन मुझ पर स्थिर करके, मेरी कृपा से तुम सभी बाधाओं को पार कर लोगे ; लेकिन यदि अहंकारवश तुम मुझे नहीं सुनोगे, तुम नष्ट हो सकते हो’। (18.58)
- ‘यदि मिथ्या अहंकार के कारण तुम सोचते हो, “मैं युद्ध नहीं करूँगा”, तुम्हारा यह निश्चय व्यर्थ है; तुम्हारी प्रकृति तुम्हें बाध्य करेगी’। (18.59)
- ‘हे कुन्तीपुत्र, तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न अपने कर्मों से बँधे होने के कारण, तुम्हें न चाहते हुए भी वह करना होगा जो तुम मोहवश नहीं करना चाहते हो।’ (18.60)
- ‘हे अर्जुन, प्रभु सभी प्राणियों के हृदय में हैं, अपनी माया से इस प्रकार उन्हें घुमाते हुए मानो वे किसी मशीन पर चढ़े हुए हैं’। (18.61)
- ‘हे भारत, अपने पूर्ण हृदय से केवल उसी में शरण लो; उसकी कृपा से तुम परम शान्ति तथा नित्य धाम को प्राप्त करोगे’। (18.62)
- ‘इस प्रकार मैंने समस्त गहन से भी गहनतर बुद्धिमत्ता की तुम्हारे लिये घोषणा की है; इस पर पूर्ण विचार करके तुम जैसा चाहो वैसा करो’। (18.63)
- ‘फिर से मेरा परम् सन्देश सुनो जो सबसे अधिक गहन है; क्योंकि तुम मेरे घनिष्ठ मित्र हो इसलिये मैं तुम्हें वही कहूँगा जो शुभ हो’। (18.64)
- ‘अपने मन में मुझे धारण करो, मेरे प्रति समर्पित हो जाओ, मेरे लिये त्याग करो, मेरे समक्ष झुको। तब तुम केवल मुझे प्राप्त होगे; मैं तुम्हें सत्य वचन देता हूँ (क्योंकि) तुम मुझे प्रिय हो’। (18.65)
- ‘सभी धर्मों का त्याग करके केवल मुझ में शरण लो; मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा; शोक मत करो’। (18.66)
- ‘तुम यह उसे नहीं बताओगे जिसने कोई तपस्या नहीं की है अथवा जिसे भक्ति नहीं है, न ही उसे जो सेवा नहीं करता, और जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है’। (18.67)
- ‘वह जो मेरे प्रति पूर्ण भक्ति के साथ, इस परम गहन शिक्षा को मेरे भक्तों को बताएगा, निस्सन्देह मेरे पास ही आएगा।’ (18.68)
- ‘इसलिये मनुष्यों में कोई भी मेरी उससे प्रियतर सेवा नहीं करता है, न ही पृथ्वी पर इस व्यक्ति से अधिक और कोई मुझे प्रियतर है।’ (18.69)
- ‘और वह जो हमारे इस संवाद का अध्ययन करेगा, जो कि सामाजिक स्थिरता व समृद्धि प्रदान करने वाला है, उस स्त्री या पुरुष के द्वारा मैं ज्ञान-यज्ञ द्वारा पूजा जाऊँगा; यह मेरा विश्वास है’। (18.70)
- ‘और वह व्यक्ति भी जो इसे श्रद्धा से युक्त होकर तथा दुर्भावना से मुक्त होकर सुनता है, वह स्त्री या पुरुष भी मुक्त होकर सत्कार्य करने वालों के सुखद लोकों को प्राप्त होता है’। (18.71)
- ‘हे पार्थ, क्या तुमने यह ध्यानपूर्वक सुना? हे धनंजय, क्या अज्ञान से उत्पन्न तुम्हारा मोह दूर हुआ?’ (18.72)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे अच्युत, मेरा मोह भंग हो गया है, और आप की कृपा से मुझे स्मृतिलाभ हुआ है। मैं दृढ़ हूँ; मेरे सन्देह चले गये हैं। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा’। (18.73)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘इस प्रकार मैंने वासुदेव (कृष्ण) तथा महात्मा पार्थ (अर्जुन) के बीच हुए अद्भुत संवाद को सुना था, जिससे मैं रोमहर्षित हो गया हूँ’। (18.74)
- ‘व्यासजी की कृपा से मैंने यह सर्वोच्च तथा अत्यंत गहन योग, सीधे कृष्ण से जो कि योग के प्रभु हैं, स्वयं घोषित करते हुए सुना है’। (18.75)
- ‘हे राजन्, मैं बार बार यह अद्भुत तथा पवित्र संवाद जो केशव (कृष्ण) तथा अर्जुन के बीच हुआ था याद करता हूँ और मुझे बार बार आनन्द का अनुभव हो रहा है’। (18.76)
- ‘जैसे जैसे मैं हरि के अद्भुत रूप को बार बार याद करता हूँ, हे राजन्, मुझे महान् आश्चर्य होता है; और मैं बार बार हर्षित होता हूँ’। (18.77)
- ‘जहाँ भी योग के स्वामी कृष्ण हैं, जहाँ भी धनुर्धारी पार्थ है, वहाँ समृद्धि, विजय, कल्याण तथा सतत न्याय है; यह मेरा विश्वास है’। (18.78)